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‘वीर’ सावरकर के 1913 और 1920 के माफ़ीनामों का मूलपाठ

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अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले योद्धाओं जो जेल, कालापानी और फांसी के फंदे से भी नहीं डरे और अविचल होकर देश के लिए मर-मिटे, उन्हें आज देशद्रोही के तमगे से नवाजा जा रहा है, वहीं जिसने उन देशभक्तों की खून से अपने हाथ रंगे, उन्हें झूठी गवाही देकर जेलों में डाला और बार-बार माफी मांग कर अपना मूंह काला किया, आज उसे देशभक्त बतलाया जा रहा है, ऐसे में उस फर्जी देशभक्तों के ‘देशभक्ति’ का प्रमाण-पत्र जो अंग्रेजों के घुटनों में बैठकर लिखा गया था, उसे जरूर देखा जा चाहिए. वी. डी. सावरकर (अभियुक्त नं. 32778) की अर्ज़ी में (जिसे गवर्नर जनरल की काउंसिल के होम मेम्बर, सर रेगिनाल्ड क्रैडॉक को 14 नवंबर 1913 को सावरकर ने व्यक्तिगत तौर पर उस समय सौंपा था, जब क्रैडॉक अक्टूबर-नवंबर 1913 में अंडमान के दौरे पर आया था) माफीनामा पत्र लिखा था,  उसी माफीनामा का मूल पाठ यहां प्रस्तुत है :

'वीर' सावरकर के 1913 और 1920 के माफ़ीनामों का मूलपाठ

आपके सहानुभूतिपूर्ण विचार के लिए मैं निम्नलिखित मुद्दे प्रस्तुत करना चाहता हूंं : जून 1911 में जब मैं यहांं आया तो मुझे अपने दल के बाकी अभियुक्तों के साथ चीफ कमिश्नर के दफ्तर में ले जाया गया.

वहांं मुझे ‘डी’ क्लास या ख़तरनाक क़ैदी का दर्जा दिया गया; बाकी अभियुक्तों को यह ‘डी’ का दर्जा नहीं दिया गया. इसके बाद मुझे छह महीने तक अकेले कोठरी में क़ैद रखा रखा गया, बाकी अभियुक्तों को नहीं. उस दौरान मुझे नारियल के रेशे की कुटाई करने में लगाया गया जबकि मेरे हाथों में खून बह रहा था. फिर मुझे जेल की सबसे कड़ी मेहनत का काम- तेल मिल में लगा दिया गया. हालांकि इस पूरे काल में मेरा चाल-चलन असाधारणतः बहुत ही अच्छा रहा फिर भी छह महीने बाद भी मुझे जेल से बाहर नहीं भेजा गया हालांंकि मेरे साथ के जो अन्य अभियुक्त आये थे, उन्हें भेजा गया. तब से आज तक मैंने यथासंभव, अच्छा चाल चलन रखने की कोशिश की है.




जब मैंने अपनी तरक़्क़ी की अर्ज़ी पेश की थी तो मुझे बताया गया था कि मैं एक विशिष्ट श्रेणी का क़ैदी हूंं इसलिए मेरी पदोन्नति नहीं हो सकती. हममें से जब भी कोई बेहतर खाने और किसी विशेष बरताव की मांंग करता तो उसे कहा जाता कि ‘तुम लोग साधारण क़ैदी हो और तुम्हें वही खाना मिलेगा, जो दूसरों को मिलता है.’

इस प्रकार जनाब, मान्यवर, देखेंगे कि हमें केवल विशेष असुविधाएं पहुंचाने के लिए विशेष क़ैदियों की श्रेणी में रखा गया.

जब मेरे सह-अभियुक्तों में से अधिकतर को बाहर भेजा गया तो मैंने अपनी रिहाई के लिए अनुरोध किया. लेकिन यद्यपि मुझे दो या तीन बार ही बैंत लगाए गए थे, उन्हें छोड़ दिया गया जिन्हें दर्जन या उससे भी ज़्यादा बार सज़ा मिली थी. मुझे नहीं छोड़ा गया, क्योंकि मैं उनका सह-अभियुक्त था. लेकिन अंततः जब मेरी रिहाई का आदेश दिया गया और तब बिल्कुल उसी समय जब बाहर के कुछ राजनैतिक कैदियों के साथ कुछ गड़बड़ी हुई तो मुझे उनके साथ तालाबंद कर दिया गया क्योंकि मैं उनका सह-अभियुक्त था.

अगर मैं भारतीय जेल में होता तो अब तक काफ़ी सज़ा माफ़ हो गई होती, अपने घर कई पत्र भेज चुका होता, लोग मुझसे मिलने आते. अगर मुझे केवल और साधारणतः देश निकाला मिला होता तो अब तक इस जेल से रिहा किया जा चुका होता. लेकिन स्थिति यह है कि ना ही तो मुझे भारतीय जेल वाली सुविधा उपलब्ध है और ना ही इस कालापानी जेल के नियमों का लाभ मिल रहा है. इस तरह मुझे दोनों तरह से घाटे में रखा गया है.




इसलिए क्या मान्यवर इस विसंगतिपूर्ण स्थिति को, जिसमें मैं अपने आप को पाता हूंं, समाप्त करने की कृपा करते हुए या तो मुझे भारतीय जेल में भेंजे या किसी दूसरे बंदी की तरह मुझे भी निर्वासित क़ैदी का दर्ज़ा दें. मैं किसी विशेष व्यवहार की मांंग नहीं कर रहा, यद्यपि मेरा मानना है कि दुनिया के स्वतंत्र देशों के सभ्य प्रशासन के तहत एक राजनैतिक क़ैदी के रूप में इसकी अपेक्षा रखी जा सकती है, लेकिन केवल उन्हीं रियायतों की मांंग कर रहा हूंं जो सबसे वंचित अभियुक्तों और पुराने अपराधियों तक को दी जाती हैं. इस जेल में सदा के लिए मुझे बंद कर देने की मौजूदा योजना मुझे जीवन को क़ायम रखने और तमाम उम्मीदों के प्रति नाउम्मीद करती है. वो सब जो सीमित अवधि के लिए क़ैदी हैं, उनके लिए तो मामला अलग है.

लेकिन जनाब, मेरे चेहरे के सामने तो 50 वर्ष घूर रहे हैं. मैं एकांत क़ैदी के रूप में उन्हें काटने की नैतिक ऊर्जा कैसे जुटा पाऊंंगा जबकि मुझे रियायतें भी नहीं दी जा रहीं, जो दुष्ट से दुष्ट अपराधी को अपने जीवन को आसान बनाने के लिए दी जाती है ? या तो मुझे भारतीय जेल में भेज दिया जाए जहांं मैं हासिल कर सकता हूंं

(क) सज़ा से कटौती;

(ख) मुझसे हर चार महीने पर मेरे लोग मिलने आ सकेंगे, और बदकिस्मती से जो लोग जेल में हैं, वे ही जानते हैं कि अपने सगे-संबंधियों को कभी कभार देखना कितनी बड़ी कृपा होती है;

(ग) सबसे ऊपर, 14 साल में रिहा होने का क़ानूनी नहीं तो नैतिक अधिकार ;

(घ) ज्यादा पत्र व्यवहार हो सकेंगे और दूसरी छोटी सुविधाएं मिल सकेंगी या यदि मुझे भारत नहीं भेजा जा सकता तो मुझे इस उम्मीद के साथ रिहा करके बाहर भेजा जाए कि बाक़ी क़ैदियों की तरह पांंच साल बाद टिकट अवकाश लेकर अपने परिवार वालों को यहांं बुला सकूंं.




अगर यह मंजूर कर लिया जाता है तो केवल एक शिकायत रह जाएगी कि मुझे मेरी ग़लतियों के लिए ही ज़िम्मेदार ठहराया जाए, ना कि दूसरों की ग़लतियों के लिए.

अफसोस की बात है कि मुझे इसके बारे में निवेदन करना पड़ रहा है जबकि हरेक मनुष्य का मौलिक अधिकार है ! एक ओर युवा, सक्रिय और अधीर 20 राजनैतिक क़ैदी हैं तो दूसरी ओर बंदियों के इस उपनिवेश के नियम क़ायदे हैं, जो चिंतन और अभिव्यक्ति की स्वाधीनता को न्यूनतम स्तर तक पहुंंचाने के लिए ही बनाए गए हैं. ऐसे में अपरिहार्य है कि यदा-कदा उनमें से कोई एकाध नियम को तोड़ बैठे और जब उसके लिए सबको ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा, जैसा कि वास्तविकता में हो रहा है – मेरे लिए इससे बाहर रहने की संभावना बहुत कम ही रहती है.

अंत में, क्या मैं मान्यवर को याद दिला सकता हूंं कि वे दया की मेरी अर्ज़ी पढ़ने की कृपा करें, जिसे मैंने 1911 में भेजा था, और उसे मंजूर करके भारत सरकार को भेजें.

बारतीय राजनीति की ताज़ा घटनाओं और सरकार की समझौतावादी नीति ने संवैधानिक रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है. भारत की और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति अब उस कांटों भरे रास्ते पर आंंख मूंंद कर नहीं चलेगा, जिसने 1906-1907 में भारत की उत्तेजना और नाउम्मीदी की स्थिति ने हमें शांति और प्रगति के रास्ते से भटका दिया था.

इसलिए, सरकार अगर अपने विविध उपकारों और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं और कुछ नहीं हो सकता बल्कि मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादारी का, जो कि उस प्रगति के लिए पहली शर्त है, सबसे प्रबल पैरोकार बनूंंगा. जब तक हम जेलों में बंद हैं तब तक महामहिम की वफ़ादार भारतीय प्रजा के हज़ारों घरों में उल्लास नहीं आ सकता क्योंकि खून पानी से गाढ़ा होता है. लेकिन हमें अगर रिहा किया जाता है तो लोग उस सरकार के प्रति सहज ज्ञान से खुशी और उल्लास में चिल्लाने लगेंगे, जो दंड देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है.




इसके अलावा, मेरे संवैधानिक रास्ते के पक्ष में मन परिवर्तन से भारत और यूरोप के वो सभी भटके हुए नौजवान जो मुझे अपना पथ प्रदर्शक मानते थे, वापिस आ जाएंगे. सरकार, जिस हैसियत में चाहे मैं उसकी सेवा करने को तैयार हूंं, क्योंकि मेरा मत परिवर्तन अंतःकरण से है और मैं आशा करता हूँ कि आगे भी मेरा आचरण वैसा ही होगा.

मुझे जेल में रखकर कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि रिहा करने में उससे कहीं ज़्यादा हासिल होगा. ताक़तवर ही क्षमाशील होने का सामर्थ्य रखते हैं और इसलिए एक बिगड़ा हुआ बेटा सरकार के अभिभावकीय दरवाज़े के सिवा और कहांं लौट सकता है ? आशा करता हूंं कि मान्यवर इन बिन्दुओं पर कृपा करके विचार करेंगे.

विनायक दामोदर सावरकर ने 14 नवंबर, 1913 को सेलुलर जेल में व्यक्तिगत रूप से भारत में अंग्रेजी सरकार के गृह विभाग के सदस्य वायसराय के प्रतिनिधि रेजिनाल्‍ड क्रेडॉक (Reginald Henry Craddock) के समक्ष दया याचिका प्रस्तुत की थी. स्मरण रहे कि सावरकर की यह एकमात्र दया याचिका नहीं थी.

अंडमान सेलुलर जेल से पहला, अंडमान सेल्युलर जेल आने के मात्र छह माह के भीतर 30 अगस्त, 1911 का माफीनामा है।

इसके बाद सावरकर ने 1913, 1914, 1918 और 1920 में कुल मिलाकर पांच दया याचिकाएं दी थीं.

‘वीर’ सावरकर के 1911, 1914 और 1918 के माफ़ीनामे अभिलेखागारों में उपलब्ध नहीं हैं, हालांकि, खुद सावरकर ने अपने 1913 और 1920 के माफ़ीनामों में इनका ज़िक्र किया है.

अंत में 2 मई, 1921 को, सावरकर को अंडमान जेल से महाराष्ट्र में रत्नागिरी की जेल, फिर यरवदा सेंट्रल जेल स्थानांतारित किया गया.

अंत में 6 जनवरी, 1924 को सावरकर को रत्नागिरी जिले से बाहर नहीं जाने और पांच साल तक किसी राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं लेने की शर्त पर मुक्त कर दिया गया था.




इन पांच दया याचिकाओं में 1920 की दया याचिका अधिक विस्तृत थी और अन्य याचिकाओं की तरह इसमें भी बरतानिया सरकार के प्रति पूरी वफादारी और समर्पण की पेशकश की गई थी. इस याचिका का हू-ब-हू अनुवाद प्रस्तुत है :

सेल्युलर जेल , पोर्ट ब्लेयर ,

30 मार्च 1920.

सेवा में

चीफ कमिशनर , अंडमान

भारत सरकार के गृह विभाग के लिए माननीय सदस्य ने हाल ही में एक बयान (कालेपानी के बंदियों के संदर्भ में) दिया है, जिसका आशय है ‘सरकार उसके समक्ष प्रस्तुत किसी भी व्यक्ति के कागजातों पर विचार और हर तरह की रियायत प्रदान करने की इच्छुक है’; और ‘यह स्पष्ट होने पर कि संबंधित व्यक्ति को रिहा करने से राज्य को किसी किस्म का कोई खतरा नहीं है, सरकार उसे शाही क्षमादान प्रदान कर देगी.’

अधोहस्ताक्षरकर्ता अत्यंत विनम्रतापूर्वक यह निवेदन करता है कि अत्यधिक विलम्ब हो जाए, इससे पहले उसे अपने मामले को प्रस्तुत करने का एक अंतिम अवसर प्रदान किया जाए.

श्रीमान मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि महामहिम भारत के वायसराय को मेरी क्षमा याचना अग्रेषित किए जाने पर आपको कभी किसी किस्म का अफसोस नहीं होगा. मुझे यह संतोष रहेगा कि मेरी फरियाद को सुनी गई है, फिर भले ही सरकार जो भी फैसला करे.

न तो मैं, न ही मेरे परिवार के किसी सदस्य को सरकार से कोई रंजिश थी, न ही हमारे साथ किसी किस्म का कुछ गलत या भेदभावपूर्ण व्यवहार किया गया था, जिसकी हमें कोई शिकायत रही हो. मेरे सम्मुख एक शानदार भविष्य था. इस खतरनाक रास्ते में मुझे व्यक्तिगत रूप से कुछ भी हासिल नहीं था बल्कि सब कुछ गवां देना ही था. इतना कहना पर्याप्त होगा है कि गृह विभाग से संबंधित एक माननीय सदस्य ने 1913 में मुझे व्यक्तिगत रूप से कहा था, ‘… आपकी जैसी शैक्षिक योग्यता और अध्ययन है … आप हमारी सरकार में सबसे ऊंचे पदों तक पहुंच सकते थे.’




अगर इस सबूत के बाद भी, मेरे उद्देश्य को लेकर किसी भी प्रकार के संशय की कोई गुंजायश रह जाती है तो मैं निवेदन करना चाहता हूं कि 1909 तक मेरे परिवार के किसी भी सदस्य के खिलाफ कोई आरोप नहीं था; जबकि मेरी वे सभी गतिविधियां जो कि मेरे खिलाफ मुकदमे का आधार हैं, 1909 के पहले के समय से संबंधित हैं.

अभियोजन, न्यायाधीशगण और रौलट रिपोर्ट सभी ने स्वीकार किया है कि 1899 से लेकर 1909 में माज़िनी (Giuseppe Mazzini) की जीवनी और अन्य पुस्तकों के प्रकाशन, विभिन्न समितियों और संगठनों का गठन और यहां तक कि हथियारों के पार्सल भेजे गए थे (रौलट रिपोर्ट, पृष्ठ 6 आदि). यह सब मेरे भाइयों की गिरफ्तारी या उससे भी पहले की बात है, जिसे लेकर मुझे किसी प्रकार की व्यक्तिगत पीड़ा या शिकायत की बात कही जा सकती है. लेकिन क्या कोई और हमसे संबंधित मामलों के संदर्भ में इस तरह से सोचता है ?

खैर, भारतीय जनता द्वारा महामहिम को भेजी गई व्यापक याचिका में, जिस पर 5,000 से अधिक लोगों के हस्ताक्षर थे, मेरा विशेष उल्लेख किया गया है. मेरे मुकदमे के विचारण के दौरान न्यायपीठ (जूरी) मामले पर विचार करे इससे मुझे वंचित रखा गया था. अब देश की जूरी की राय है कि केवल राजनीतिक प्रगति की आतुरता मेरे सभी कार्यों का मकसद थी और इसने ही मुझे कानूनों को तोडऩे के लिए प्रेरित किया, जिसका मुझे पछतावा है.

(क) पहली बात, शाही उद्घोषणा में अपराध का उद्देश्य ही प्रमुख माना गया है. इससे इतर अपराध की प्रकृति या उसकी कोई धारा अथवा न्यायालय को लेकर किसी प्रकार का फर्क नहीं किया गया है. यहां पूरी तरह से अपराध के उद्देश्य पर ही केंद्रित किया गया है कि उद्देश्य राजनीतिक होना चाहिए, व्यक्तिगत नहीं.




(ख) दूसरी बात, सरकार पहले भी यह स्पष्ट कर चुकी है और इसी के आधार पर बारिन (बारिंद्र कुमार घोष) और हेम (हेमचंद्र दास ) व अन्य लोगों को रिहा कर चुकी है, जबकि इन लोगों ने कबूल किया था कि उनकी योजनाओं का लक्ष्य ‘प्रमुख सरकारी अधिकारियों की हत्या’ करना था. उनकी स्वयं की स्वीकारोक्ति के अनुसार वे मजिस्ट्रेटों आदि अधिकारियों की हत्या के लिए लड़कों को भेजने के लिए दोषी ठहराए गए थे.

इसी मजिस्ट्रेट ने, जिसकी हत्या की साजिश रची गई थी, बारिन (बरिन्द्रनाथ घोष) के भाई अरबिंदो पर ‘वंदे मातरम’ अखबार से संबंधित पहले मुकदमे में सजा दी थी. तब भी, बारिन के जुर्म को गैर-राजनीतिक हत्या नहीं समझा गया और ऐसा करना सही था. मेरे मामले में आपत्ति बहुत कमजोर है.

अभियोजन पक्ष द्वारा भी यह स्वीकारा जा चुका है कि घटना के समय मैं इंग्लैंड में था, विशेष रूप से श्री जैक्सन की हत्या की योजना या इस प्रकार के किसी विचार तक की जानकारी मुझे नहीं थी. हथियारों के पार्सल भी मेरे भाई की गिरफ्तारी से पहले भिजवाए गए थे। इसलिए किसी भी खास अधिकारी के खिलाफ मेरी कोई निजी रंजिश रही हो, यह मुमकिन नहीं था. लेकिन हेम ने तो वास्तव में वह बम बनाया था, जिस बम से किग्ज़फोर्ड मारे गए और उन्हें इस मकसद की पूरी जानकारी थी. (रौलट रिपोर्ट, पृष्ठ 33). फिर भी, हेम को इस आधार पर क्षमादान के दायरे से बाहर नहीं किया गया.

यदि बारिन और अन्य पर अपराध के लिए प्रेरित करने के लिए अलग से आरोप निर्मित नहीं किया गया था तो इसकी वजह केवल यह थी कि क्योंकि उन्हें पहले से ही षड्यंत्र के मामले में मृत्युदंड की सजा सुनाई जा चुकी थी; और मुझे विशेष रूप से इसलिए आरोपित किया गया क्योंकि मैं भारत में नहीं था. अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत मुझे फ्रांस से प्रत्यार्पित करने के लिए, आरोपित किया जाना जरूरी था.

इसलिए मेरा विनम्र निवेदन है कि सरकार मुझे क्षमादान प्रदान करने की कृपा करेगी जैसा कि बारिन और हेम के मामले में किया जा चुका है, जबकि उनका अपराध अधिक गंभीर था, वे हत्या के लिए प्रेरित करने आदि अपराधों में संलिप्त थे और अपने अपराध कबूल कर चुके थे. निश्चित रूप से एक धारा (साजिश में सम्मिलित होने की धारा) किए गए अपराध से ज्यादा मायने नहीं रखती है. मेरे भाई के मामले में तो यह सवाल नहीं है क्योंकि उसका किसी हत्या आदि से कोई लेना-देना नहीं है.




(क) मैं खासतौर पर जोर देकर कहना चाहता हूं कि जैसा कि गृह सचिव ने ‘(‘)’ का जिक्र किया है हम उनमें से नहीं हैं, जो इस प्रकार के उग्रवादी विचार पद्घति में यकीन करते हैं. मैं क्रॉपोटकिन या टॉलस्टॉय के शांतिपूर्ण और दार्शनिक अराजकतावाद का समर्थन करने वालों में से भी नहीं हूं.

जहां तक मेरी अतीत की क्रांतिकारी प्रवृत्तियों की बात है – मैं क्षमादान के खातिर आज ही यह नहीं कह रहा हूं बल्कि कई साल पहले, जब श्रीमान मांटेगू ने संविधान बनाने की शुरुआत की थी, मैंने सरकार को इस बारे में सूचित कर दिया था.

मैंने अपनी याचिकाओं (1918, 1914) में भी लिखा था कि मैं संविधान के प्रति प्रतिबद्ध और पूरी तरह से उसका समर्थन करता हूं। इसके बाद सुधारों (मोंटेगू-चेम्सफोर्ड सुधार) और फिर शाही उद्घोषणा ने मुझे मेरे इन विचारों पर और दृढ़ किया है. हाल ही में मैंने अपनी निष्ठा का सार्वजनिक रूप से ऐलान किया है और व्यवस्थित रूप से संवैधानिक विकास के पक्ष में अपनी वफादारी और तत्परता जाहिर की है.

उत्तर दिशा से हमारे देश पर एशिया के कट्टरपंथियों के रूप में जो खतरा मंडरा रहा है, अतीत में भी यह भारत के लिए अभिशाप रहा है. वे उस समय आक्रमणकारी दुश्मनों के रूप में आए थे, अब फिर यह खतरा सामने है. इस बार वे मित्र का बाना पहन कर आना चाहते हैं. मुझे विश्वास है कि इस स्थिति में हर समझदार भारत प्रेमी ह्रदय से और पूरी वफादारी के साथ अंग्रेजों का साथ देगा. भारत का हित इसमें ही है.

इसीलिए 1914 में जब युद्ध (प्रथम विश्वयुद्ध) शुरू हुआ और भारत पर जर्मन-तुर्क-अफगान आक्रमण की स्थिति थी, मैंने सरकार के सम्मुख एक स्वयंसेवक के रूप में अपनी सेवाएं प्रस्तुत की थीं. आप इस पर यकीन करें या न करें, मैं संवैधानिक रास्ते का पूरी तरह से कायल हूं और अपने इस इरादे और सत्यनिष्ठा को व्यक्त कर चुका हूं; प्रेम और परस्पर सम्मान से अनुबंधित हूं; ब्रिटिश प्रभुत्व को मजबूत करने में अपनी सेवा समर्पित करने के लिए पूर तरह से ईमानदार हूं. ब्रिटिश साम्राज्य ने, ‘शाही उद्घोषणा’ के जरिए, मेरा दिल जीत लिया है.




दरअसल, मैं किसी जाति या पंथ या लोगों से सिर्फ इस आधार पर नफरत करना उचित नहीं समझता कि वे भारतीय नहीं हैं !

(ख) लेकिन अगर सरकार मुझसे इसके अलावा जमानत के तौर पर और कुछ चाहती है तो मैं और मेरा भाई एक निश्चित अवधि के लिए, जैसा कि सरकार उचित समझे, राजनीति में भाग नहीं लेने का वचन देने के लिए तैयार हैं. इसके अलावा मेरा स्वास्थ्य लगातार खराब हो रहा है, मैं अपने परिजनों के मधुर शुभाशीष से वंचित हूं, अब मैं शांति से एक सेवानिवृत्त व्यक्ति की तरह अपने जीवन के बचे-खुचे हुए दिन गुजारना चाहता हूं. अब मेरी जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं है, जो मुझे सक्रिय गतिविधियों के लिए प्रेरित करे.

(ग) यह या अन्य कोई वचन, उदाहरण के लिए, किसी विशेष प्रांत में रहने या हमारी रिहाई के बाद एक निश्चित अवधि के तक पुलिस के सामने हाजिरी बजाकर अपनी गतिविधियों के बारे में सूचित करते रहना अथवा अन्य कोई उचित शर्त जो कि राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जरूरी समझी जाए, मैं और मेरे भाई सहर्ष स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत हैं.

अंत में निवेदन है कि श्रीमान सुरेंद्र नाथ बनर्जी जैसे अनुभवी और उदारवादी लोकप्रिय नेता, प्रेस और आम जनगण और पंजाब से मद्रास तक के हिंदू और मुस्लिम (चच्च!) विभिन्न सामाजिक मंचों से हमारी तत्काल और पूर्ण रिहाई की मांग लगातार मुखर हो रही है. रिहाई की घोषणा से राज्य की सुरक्षा पूरी तरह से महफूज है. इसके अलावा रिहाई की घोषणा ‘कड़वाहट की भावना’ को दूर करने में सहायक होगी. शाही उद्घोषणा का भी यही लक्ष्य है.




(5) इसके अलावा, हमारे मामले में सजा के सभी लक्ष्य पूरे हो चुके हैं, जैसे कि –

(क) हम 10 से 11 साल की अवधि जेल में गुजार चुके हैं, जबकि श्री सान्याल (शचीन्द्र नाथ सान्याल), को भी आजीवन करावास का दंड दिया गया था, उन्हें चार साल के बाद और दंगों वाले मामले में आजीवन कारावास की सजा पाए अन्य बंदियों को एक साल के भीतर रिहा किया जा चुका है;

(ख) हमने कारवास के दौरान कड़ी मशक्कत की है, भारत में और यहां जेल के भीतर कारखानों, तेल निकालने के कोल्हू चलाने और अन्य जो भी काम हमें सौपे गए, उन्हें पूरा किया है;

(ग) जेल में हमारा व्यवहार उन लोगों की तुलना में किसी भी तरह से आपत्तिजनक नहीं है, जिन्हें रिहा किया जा चुका है; जबकि उन पर यहां पोर्ट ब्लेयर में साजिश रचने के लिए गंभीर संदेह किया गया था और पुनः जेल में बंद किया गया था. इसके विपरीत हम दोनों ने आज तक कठोर अनुशासन का पालन किया है. हमारे लिए खासतौर से सख्त अनुशासन की अलग से व्यवस्था थी. फिर भी, संयम के साथ हम अनुशासन का पालन करते रहे हैं. विगत पिछले छह वर्षों से अब तक हमारे खिलाफ सामान्य अनुशासनात्मक कार्रवाई का एक भी मामला नहीं है.

आशा है कि मुख्य आयुक्त को स्मरण होगा, उनके पूरे कायर्काल के दौरान मैंने व्यक्तिगत रूप से उनके प्रति सदा ही सम्मान प्रदर्शित किया है, इस दौरान मुझे कितनी बार निराशा का सामना करना पड़ा था. यकीनन आपके मन में मेरे प्रति किसी प्रकार का विद्वेष नहीं होगा. आप मुझे निराशा की इस अवस्था से बाहर निकलने का यह हानिरहित अवसर प्रदान करने और इस याचिका को अग्रेषित करने की कृपा करेंगे-महामहिम वायसराय, भारत सरकार से मेरे पक्ष में संस्तुति करेंगे, क्या मैं यह उम्मीद कर सकता हूं ?

सदा आभारी रहूंगा।

श्रीमान,
आपका परम आज्ञाकारी सेवक,
(हस्ताक्षर)
वी.डी. सावरकर
सज़ा-याफ़्ता बंदी
संख्या 32778. 24




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ROHIT SHARMA

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