किसी भी जनान्दोलन या एजेंडे को अपने मुकाम तक पहुंचाने के लिए सत्ता पर काबिज होना एक बुनियादी और प्राथमिक शर्त है. इस बुनियादी शर्त को समझ लेना और इस ओर कदम बढ़ाना कई बार न केवल मुश्किल होता है वरन् प्रतिरोध की भयानक बाधा भी झेलनी होती है. भारत में इस बुनियादी शर्त को कोई भी जनान्दोलन या तो समझ नहीं पाया अथवा दृढ़तापूर्वक या मूर्खतापूर्वक समझने से ही साफ इंकार कर दिया. परिणामतः वे तमाम जनान्दोलन पराजय अथवा पतन के गर्त में जा समाये.
शासक वर्ग हमेशा से ही जनमानस के दिमाग में यह बैठाने में पूरी तरह सफल रहे हैं कि ‘‘जनता का काम केवल मांग करना है, आन्दोलन करना है, पर सत्ता पर काबिज होने का सपना देखना न केवल गैर-वाजिब ही है वरन् ईश्वर के फरमान का उल्लंघन भी है.’’ शासक वर्ग यह भली-भांति जानता है कि जनता अगर सत्ता पर काबिज होने का सपना देखना शुरू कर दें तो उसे सत्ता हाथ में लेने से कोई नहीं रोक सकता और अगर जनता के हाथ में सत्ता आ गई तो शासक वर्ग का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा. यही कारण है कि शासक वर्ग अपने जरखरीदे गुलाम बुद्धिजीवियों, धर्मशास्त्रियों आदि के माध्यम से जनता के दिमाग से सत्ता हासिल करने के सपने को नष्ट करने का हर संभव उपाय करती है और एक हद तक सफल भी हो जाती है. राहुल गांधी द्वारा दिया गया ब्यान कि ‘‘सत्ता जहर है’’, यही साबित करता है. यह भारत की जनता का दुर्भाग्य ही है कि जनता इस बात को सचमुच मान बैठी है कि जनता को सत्ता अपने हाथ में कदापि नहीं लेनी चाहिए.
इस देश की जनता ने पहली बार भगत सिंह के नेतृत्व में सत्ता हासिल करने की लड़ाई लड़ी थी, पर 23 मार्च, 1931 में हुई उनकी शहादत ने इस सवाल को बर्फ के गोलो में लम्बे समय तक के लिए दबा दिया. यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी जिसका पहला कदम ही सत्ता को हासिल करना होता है, ने पूरी तरह इस सवाल को न केवल नजरअंदाज कर दिया वरन् इस बुनियादी सवाल के विरोध में ही खड़ा हो गया जब तक कि जनता ने दूसरी बार 1969 ई. में सत्ता पर अपनी दावेदारी के लिए आवाज बुलंद नहीं कर दिया. हलांकि इस लम्बे अंतराल में लाखों लोगों ने विदेशी-देशी हुकूमतों के साये में अपनी जानें गवाई, पर यह सवाल दबा का दबा ही रह गया.
इतिहास ने साबित कर दिया है कि जनता जब इन तमाम जरखरीद बुद्धिजीवी के लाखों दलीलों के बावजूद सत्ता पर अपनी दावेदारी सिद्ध करने की कोशिश करती है तब-तब बड़े पैमाने पर सैन्य बलों का इस्तेमाल कर उस जनता को बेरहमी से रौंद डालती है. नक्सलवाड़ी का किसान आन्दोलन इस बात का जीवन्त उदाहरण है.
बहरहाल सत्ता पर कब्जा करने की यह जंग आज नये रूपों में सर्वत्र फैल चुकी है. इसी प्रकरण में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज जब सत्ता पर काबिज है तब वह अपने ‘‘हिन्दुत्व’’ के नाम पर ‘‘मनुस्मृति’’ जैसी प्राचीन ब्राह्मणवादी व्यवस्था को पुनर्बहाल करने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है, जो उनके तमाम क्रियाकलापों और नीतियों को लागू करने में साफ तौर पर दीख रही है.
अपनी ब्राह्मणवादी नीतियों को लागू करने में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर0एस0एस0) उन तमाम लोक आस्था से जुड़ी नारों का तब तक इस्तेमाल करती है जब तक कि लोक उसके बूरे मंसूबों को समझ न लें. भारतीय जनता पार्टी गाय, गोबर, गो-मूत्र, भारत माता, पाकिस्तान, हिन्दु-मुसलमान आदि जैसे मुद्दों का इस्तेमाल जनमानस को भटकाने या अपने करीब लाने में इस्तेमाल करती रही है. ज्यों ही ये मुद्दे अपना असर दिखाना कम कर देता है, उसे बगल में रखकर दूसरा मुद्दा उठा लेता है. राम-मंदिर निर्माण का मुद्दा भी यही है, उसे इससे कोई मतलब नहीं है कि राम-मंदिर बनता है अथवा नहीं. उसका मूल उद्देश्य है ब्राह्मणवादी व्यवस्था को लागू करना और कारपोरेट घरानों के हितों को सर्वांग सुरक्षित बनाना (भले ही चारे की तरह कुछ टुकड़े उसे जनता के बीच क्यों न फेंकना पड़े) और बदहाल जनता अपने बदहाली का दोष अपने-अपने ईश्वर को देते रहें.
परन्तु बदहाल जनता नये-नये तरीके से आन्दोलित होती ही रहती है. इसी तरह का आन्दोलन कुछ वर्ष पूर्व जब अन्ना जैसे बुर्जआ सोच वाले व्यक्ति के नेतृत्व में जनता ने अपने बुनियादी सवाल पर आन्दोलन किया और सत्ता के तिकरमों के आगे धीरे-धीरे पतन के गर्त में समाने लगी तब उसमें हुए वैचारिक संघर्ष ने बुनियादी सवाल को पहचाना और सत्ता कब्जा करने की लड़ाई की दिशा में आगे बढ़ा. सत्ता के एक छोटे से प्रतिष्ठान पर स्थापित होकर ही जनता का यह संघर्ष एक नये आयाम की दिशा में शासक वर्ग के तमाम बाधाओं को पार करते हुए जारी है. यही कारण है कि क्षुब्ध शासक वर्ग इस छोटी सत्ता को कभी शहरी नक्सली बताती है तो कभी जंगल जाने की बात कहती है. इसके साथ ही लालच और दमन दोनों ही तरीकों को अपनाती है.
ऐसे में सभी को इस छोटी सत्ता के पक्ष में उसे बचाने हेतु अपनी एकजुटता प्रदर्शित करनी चाहिए ताकि यह छोटी सत्ता अपने भावी स्वरूप को प्राप्त कर सके. क्योंकि सत्ता पर जनता को काबिज होना ही जनता की किसी भी समस्या का फौरी और एकमात्र हल है. इसके नकारना आन्दोलन और जनता को नकारना है.