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सत्ता को शाहीन बाग से परेशानी

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सत्ता को शाहीन बाग से परेशानी

गुरूचरण सिंह

जनता जब भी परेशान हो कर सडकों पर उतरी है सरकार के अड़ियल रुख के खिलाफ, उसकी नजायज जिद के आगे झुकने से इंकार किया है, उससे तो आम आदमी को थोड़ी बहुत परेशानी तो उठानी ही पड़ी है. नागरिकता कानून के खिलाफ आंदोलन का प्रतीक बन चुके शाहीन बाग धरना-प्रदर्शन के चलते भी हो रही है परेशानी. अन्ना हजारे के आंदोलन से नहीं हुई थी क्या कोई असुविधा ? निर्भया पर देशव्यापी आंदोलन से क्या रास्ते बंद नहीं हुए ? राममंदिर आंदोलन क्या आसमान में हुआ था ? आडवाणी का कारवां क्या पुष्पक विमान से लटक कर गुजरा था सड़कों के ऊपर से ? हिंसक हो गए जाट, गुर्जर, मराठा और पाटीदार आंदोलनों में जनता को तो कोई कष्ट ही नहीं उठाना पड़ा था शायद !! रेल पटरी पर बने घरों और झोपड़ियों की याद तो होगी ही न आपको !! कितनी ट्रेन रद्द की गईं थीं, कितनों के रूट बदले गए थे, कितना नुकसान हुआ था जान माल का !!

फिर इस शाहीन बाग के अहिंसक आंदोलन से ही क्या परेशानी है सरकार को ? शाहीन बाग की दुकानें एक महीने से नहीं खुलीं हैं, जब उनको या उनसे समान खरीदने वालों को कोई समस्या नहीं है तो गोदी मीडिया और सरकार को क्यों हो रही है ? क्यों काल्पनिक परेशानी के प्रोपेगंडे से शाहीन बाग की बहादुर औरतों पर आंदोलन खत्म करने का दबाव बनाया जा रहा है ?

सरकार जानती है कि CAA और NRC के खिलाफ स्वत: स्फूर्त यह आंदोलन अब एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुका है. जितना भी कर सकती थी, उसने कर लिया है इसे बदनाम करने के लिए. बार-बार अजमाया हुआ फार्मूला भी इस्तेमाल किया गया कि यह चंद कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों का आंदोलन ही है ताकि उसकी नफरत की राजनीति यहां भी कामयाब हो जाए और इसके चलते आंदोलन खत्म हो जाए, लेकिन ऐसा तो हुआ नहीं. अब तो दुनिया भर में गूंजने लगी है इसकी प्रतिध्वनि ! माईक्रोसाफ्ट के सीईओ सत्य नडेला का बयान तो बस बानगी भर है इसकी !

देश भर से न केवल इसे व्यापक जन समर्थन मिल रहा है, बल्कि जगह-जगह लोग खुद आंदोलन कर रहे हैं इस बदनीयत कानून के खिलाफ. क्रिकेट के मैदान में भी पहुंच चुका विरोध गुवाहाटी और मुंबई में दिखाई दिया. पंजाब से सिख किसान पहुंच गए भारी तादाद में (लगभग 500) इसमें शामिल होने के लिए, सामूहिक चूल्हा जलने लगा और चाय का लंगर भी बंटने लग गया ! देश के कोने-कोने से बुद्धिजीवी आ गए अपना समर्थन देने, बहुत सी नामवर हस्तियां भी पहुंच गई. काॅलेज, यूनिवर्सिटियों के विद्यार्थी तो थे ही मौजूद ! वैसे भी इतिहास गवाह है जब-जब भी आंदोलन को विद्यार्थियों का साथ मिला है, देश का इतिहास ही बदल गया है. इस बार भी तो यह बदलने वाला है लेकिन कुछ और खासियतें हैं, इस बार के छात्र आंदोलन की :

• जगह जगह हो रहे स्वत:स्फूर्त इन धरना-प्रदर्शनों का दूर दूर तक कोई भी रिश्ता नहीं है किसी भी राजनीतिक पार्टी के साथ. सच तो यह है कि इन सियासी पार्टियों को तो कुछ सूझ ही नहीं रहा कि क्या किया जाए इन हालात में. कांग्रेस तो अब ‘मुस्लिम’ शब्द से ही परहेज करने लगी है भाजपा की नफरत की राजनीति की कामयाबी के चलते. सपा-बसपा तो मुस्लिम नुमाइंदगी के नाम पर दलाली ही करती रही हैं, तभी तो उनके मुंह से एक आवाज़ तक नहीं निकली इसके लिए !

• राजनीतिक दल तो चूंकि सीधे शामिल ही नहीं है इस बार, इसलिए इन धरना-प्रदर्शनों के पीछे चुनावी फायदे नुकसान का हिसाब-किताब भी नदारद है. आंदोलनकारियों की चिंता का विषय तो देश के नागरिकों का जीवन और उनका भविष्य है. जब भी इस तरह की कोई स्थिति पैदा हो जाती है तो उसका कोई समाधान निकाल पाना किसी एक राजनीतिक दल के बूते की बात नहीं रहती. इसका समाधान तो समवेत गान की तरह मिलजुल के ही निकला का सकता है !

• गंगा जमुनी तहजीब को खत्म करके हिंदू-मुस्लिम समुदाय को आमने-सामने खड़े करने वाला संघ-भाजपा का कामयाब फार्मूला इस आंदोलन की तेज हवा के साथ ही उड़ गया है ! इसी फार्मूले के चलते एनडीए को दो बार सत्ता सुख मिल चुका है. चार साल बाकी रहने के बावजूद संघ-भाजपा परेशान हैं, इस अप्रत्याशित बाधा के रास्ते में खड़े हो जाने से !

• इस आंदोलन को सभी धर्मों, इलाकों, समुदायों, समूहों और सभी आयु वर्गों से लगातार मिल रहा व्यापक समर्थन इस तथ्य का एकदम साफ संकेत है कि आम जनता ने इस फार्मूले को ठुकरा दिया है.

आधी रात को चोर की तरह शाहीन बाग पहुंची दिल्ली पुलिस, फिर ऐसा हुआ कि उल्टे पैर भागना पड़ा

• मुस्लिमों को पहली बार अपनी धार्मिक पहचान के कारण प्रदर्शन से कोई परेशानी महसूस नहीं हुई है. ‘ला इलाहा इल्लल्लाह’ का नारा भी लगा; तिरंगा भी झूला इसी के साथ. धार्मिक पहचान और राष्ट्रीय पहचान में कोई अंतर ही दिखाई नहीं दिया. संविधान भी तो यही बात कह रहा था, जिसे अपने उग्र हिन्दुत्व के शोर से दबा दिया था संघ-भाजपा ने.

• विद्यार्थियों और दूसरे लोगों को आंदोलन से दूर रखने के लिए वह जो हथकंडे अपना रही है, उसके चलते सरकार के खिलाफ सबसे बड़ा और जोरदार ढंग से उठाया जाने वाला आरोप यह है कि वह विरोध को बरदाश्त नहीं कर पाती, लिहाज़ा यह लोकतांत्रिक विचारधारा वाली सरकार नहीं है. जो भी इस आंदोलन में भाग लेता है, नैतिक समर्थन देता है, उसे गद्दार बता दिया जाता है. इस ‘गद्दार’ शब्द के अनेक पर्याय चल रहे हैं – मोदी विरोधी, हिंदू विरोधी, अर्बन नक्सली, टुकड़ा गैंग आदि-आदि. लेकिन इनसे भी किसी आंदोलनकारी का मुंह बंद नहीं किया जा सका है.

लाज़िम है कि जान लें अब नफरत से भरी ये हवाएं भी,
घर चाहे मुहब्बत के बने हों रेत से, मगर ये टूटते नहीं !

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