हिमांशु कुमार, प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक
एक बड़े पुलिस अधिकारी से बातचीत हो रही थी. मैंने कहा, ‘यह लफंगे लोग जय श्री राम का नारा लगाकर मुस्लिम बस्तियों और मस्जिदों पर हमले कर रहे हैं. सारी कमजोरी पुलिस की है.’ उन्होंने कहा – ‘मैं बोलूं हिमांशु भाई आप हमारी हालत नहीं समझ रहे. आपको संजीव भट्ट याद नहीं है क्या ?’
‘संजीव भट्ट जिस जिले के एसपी थे वहां की पुलिस ने दंगा करने वाले इन हिंदुत्ववादियों को पकड़कर जेल में डाला था. एक हफ्ते जेल में रहकर रिहा होने के बाद उनमें से एक व्यक्ति एक महीने बाद घर जाकर पुरानी बीमारी से मर गया. 30 साल पुराने इस मामले में संजीव भट्ट को फर्जी तौर पर फंसाया गया और निचली कोर्ट के जज ने उन्हें उम्र कैद की सजा सुना दी है. सुप्रीम कोर्ट मैं उनकी सुनवाई भी नहीं हो रही है.
‘क्या जजों को नहीं पता कानून क्या होता है कि संविधान क्या होता है ? अब आप ही बताइए कोई पुलिस वाला कानून पालन करने का रिस्क कैसे ले ले ? जब उस पुलिस वाले की रक्षा अदालत ही नहीं करेगी, समाज भी संजीव भट्ट के मामले में चुप हैं. देश में कौन-सा धरना-प्रदर्शन संजीव भट्ट को न्याय दिलाने के लिए हो रहा है ? वह तो कानून पालन करने के अपराध में जेल में पड़े हुए हैं. अब आप ही बताइए हम क्यों अपनी नौकरी खतरे में डालें ?’
भाजपा भारत की पूरी युवा पीढी का जन संहार कर रहे हैं
आज किसी ने पूछा कि संघ और भाजपा वाले हत्याएं और मारपीट क्यों करते हैं ? मैंने जवाब दिया कि उनकी हत्याएं ज्यादा चिंता की बात नहीं हैं. ये लोग कितने लोगों को मार सकते हैं ? एक लाख, एक करोड़, दस करोड़ बस ? दस करोड़ लोग मर जाने से भारत खत्म नहीं होगा, लेकिन संघ और भाजपा उससे भी ज्यादा खतरनाक काम कर रहे हैं. संघ और भाजपा भारत की पूरी युवा पीढी को बर्बाद कर रहे हैं. भारत के युवा को मुसलमानों, ईसाईयों, दलितों, आदिवासियों से नफरत करने वाला बनाया जा रहा है.
यह पूरी पीढी का जन संहार है.
एक राष्ट्र को मार डालने का अपराध संघ और भाजपा कर रहे हैं. हम कुछ वर्ष पहले सपना देखते थे कि भारत का युवा जातिपाति मुक्त, साम्प्रदायिकता मुक्त भारत बनाएगा, जिसमें औरतें निर्भीक होंगी. हम कहते थे कि कुछ सालों बाद भारत का युवा वैज्ञानिक सोच वाला और रोशन दिमाग होगा. लेकिन सत्ता के लिए संघ और भाजपा ने दंगे करवाए, शाखाओं और सरस्वती शिशु मंदिरों की मार्फ़त ज़हर फैलाया और सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया.
अब संघ और भाजपा मुक्त ज्ञान के केंद्र विश्वविद्यालयों को बंद करने की कोशिशें कर रही है ताकि युवा सिर्फ व्यापारियों की सेवा करने वाले विषय पढ़ें. तर्क, राजनीति, दर्शन, इतिहास न पढ़ें ताकि भाजपा के झूठ के ज़हर को चुनौती न मिल सके और सत्ता इनके हाथ में ही रहे. संघ और भाजपा भारत को 14वीं शताब्दी में ले गए हैं. हम सब के सामने चुनौती है भारत को बचाने की.
आर्थिक सामाजिक मुद्दे सांप्रदायिकता का पेट फाड़कर सामने आ ही जाएंगे
पीयूष बेबेल एक सांप्रदायिक घटना साझा करते हैं – ठीक 100 साल पहले की बात है. गांधीजी का असहयोग और खिलाफत आंदोलन पूरे जोर पर चल रहा था. देश की गली-गली में हिंदू मुसलमान की जय के नारे लग रहे थे. अल्लाह हो अकबर और वंदे मातरम एक साथ पुकारा जा रहा था. फिरंगी शासन की जमीन सरकने लगी थी, तभी मार्च 1922 में गांधीजी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया.
नेहरू, मौलाना आजाद, सुभाष यह सब पहले ही जेल भेजे जा चुके थे. जब गांधी जेल चले गए तो अंग्रेजों ने नया दांव निकाला. हिंदू मुस्लिम का फसाद खड़ा कर दिया. फिर तो देश में कभी रामनवमी के जुलूस में तो कभी किसी मस्जिद की अजान पर और कभी गाय या सूअर के नाम पर हिंदू मुसलमान रोज सामने आने लगे. 1923 दंगों का साल बन गया. 1924 में गांधी जी जब जेल से छूट कर बाहर आए तो वहां ‘हिंदू मुसलमान की जय’ की जगह हिंदू और मुसलमान का झगड़ा खड़ा हो चुका था. पश्चिम से लेकर पूरब तक और दिल्ली से लेकर दक्षिण तक कोई ऐसा बड़ा शहर नहीं था, जहां हिंदू मुस्लिम दंगे ना हो गए हो.
गांधीजी देखते रहे, देखते रहे और अंत में उन्होंने अली बंधुओं के आवास पर दिल्ली में 21 दिन का उपवास करने का फैसला किया. उपवास का कुछ असर हुआ. दंगे कुछ कम हो गए लेकिन रुके नहीं. गांधीजी लगातार कोशिश करते रहे. किसी तरह फिर से असहयोग और खिलाफत के दौर की हिंदू मुस्लिम एकता लौट आए, लेकिन बात नहीं बनी.
गांधी ने कहा कि मामला बहुत ज्यादा उलझ गया है, उसे मैं जितना सुलझाने की कोशिश करूंगा यह उतना ही उलझता चला जाएगा. खासकर ऐसे वक्त में जब सरकार जान-बूझकर दंगों को प्रोत्साहन दे रही हो और लोगों में सांप्रदायिक जज्बात उबाल पर हों, तब शांति के अलावा और कोई उपाय नहीं है.
गांधी जी ने अपने आप को चरखा, खादी और दलितों के उद्धार में लगा दिया. धीरे-धीरे लोगों का जोश ठंडा हुआ और उनकी निगाह अंग्रेजों के जुल्म की तरफ गईं. यूरोप और अमेरिका से चली महामंदी ने लोगों की कमर तोड़ दी. महंगाई चरम पर पहुंच गई. गांधी ने सुअवसर पहचाना और दांडी यात्रा पर निकले. एक चुटकी नमक उठाकर गरीब भारत के आर्थिक मुद्दे को आजादी का नारा बना दिया. सांप्रदायिक मुद्दे धराशाई हो गए.
साबरमती के संत ने कमाल कर दिया. फिरंगी सरकार एक बार फिर नाकाम हो गई. 100 साल बाद फिर उसी तरह का फसाद करने की कोशिश हो रही है. गोरों की जगह कालों की सरकार है. ठीक उसी तरह से फसाद हो रहे हैं. कोई गांधी बीच में नहीं है. लेकिन परिस्थितियां अपना गांधी बार-बार पैदा करती हैं. ज्यादा दिन नहीं है जब लोग एक बार फिर नमक का मोल पहचानेंगे और सांप्रदायिकता के बनावटी सवाल से खुद को अलग करेंगे. यह देश उसी राह पर जाएगा जिस पर इसे जाना चाहिए.
आर्थिक सामाजिक मुद्दे सांप्रदायिकता का खेल फाड़कर सामने आ ही जाएंगे. भूखे पेटों को जुमलों से नहीं भरा जा सकता. नफरत से दंगे हो सकते हैं, घर में चूल्हा नहीं जल सकता. सत्ता के भेड़िये इसे बहुत दिन तक बहका नहीं पाएंगे.
हिंसा हमारी हरकतों से ही पैदा होती है
मनुष्य हिंसा मुक्त दुनिया बनाना चाहता है लेकिन मनुष्य का परिवार समाज मजहब राजनीति सब हिंसा से भरे हुए हैं. परिवार में रिश्तों का आधार एक का ताकतवर होना दूसरे का कमजोर होना है. जैसे ही परिवार में दोनों बराबर ताकतवर होते हैं परिवार टूटने लगता है. हमने बिना अपनी बात मनवाये रिश्ते को चलाना सीखा ही नहीं है. परिवार से हमें दूसरे को दबाने का आदत पड़ती है. यही प्रयोग हम समाज में करने निकलते हैं.
हम समाज में अपने अलावा दूसरों को अपने से कमजोर छोटा और नीचा देखना चाहते हैं. तो हम मजहब के आधार पर दूसरों को नीचा हीन छोटा खराब साबित करने में अपनी ताकत लगाते हैं और जब ऐसा नहीं कर पाते तो हिंसा पर उतर आते हैं. हम अपने पड़ोसी देशों को अपने से खराब छोटा और नीचा साबित करने की कोशिश करते हैं और जब वह नहीं कर पाते तो सेना के दम पर ऐसा करने की कोशिश करते हैं.
हम अपने ही समाज में जाति के आधार पर दूसरों को नीचा छोटा और खराब साबित करते हैं और उनके ऊपर बैठ कर खुद को श्रेष्ठ और महान साबित करके मजे करना चाहते हैं. महान बन कर दूसरे के दिमाग में बैठ जाना चाहते हैं और हम यह भी चाहते हैं कि हम दूसरों के दिमाग में कई पीढ़ियों तक बसे रहे. हमें महान और ऊंचा मानकर इज्जत दी जाए और हमेशा याद रखा जाए. हमारी यह सारी हरकतें हिंसक है.
हिंसा हमारी हरकतों से ही पैदा होती है. क्या आप पूरी हिम्मत और पूरी ईमानदारी से हिंसा को दूर करना चाहते हैं ? तो आपको यह आंख खोलकर देखना ही पड़ेगा कि दुनिया में फैली हुई हिंसा के लिए आप खुद कितने जिम्मेदार हैं ? आप दूसरे धर्म के लोगों की हत्या करने वाले लोगों को अपना नेता बनाते हैं. पड़ोसी देश के सिपाहियों को मारने वाले सिपाही आपके लिए बहुत वीर महान और देशभक्त होते हैं.
आपके धर्म के आदर्श वह हैं जिन्होंने युद्ध किए. आपकी हिंसा आपके रिश्तो में आपके समाज में आप की राजनीति में आपके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैल जाती है और समाज का पूरा तरीका हिंसा पर आधारित हो जाता है. आप प्रकृति के प्रति हिंसक हो जाते हैं. आप जीव जंतुओं पर्यावरण देश के अन्य समुदाय दुनिया के दूसरे देश सब के प्रति हिंसा और नफरत से भरे हुए हैं. लेकिन फिर भी आप बेहोशी में कहते हैं कि आपको हिंसा पसंद नहीं है. बेशक एक हिंसा मुक्त समाज बनाया जा सकता है लेकिन उसके लिए हिंसा मुक्त मनुष्य बनाना जरूरी है.
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