हिमांशु कुमार, प्रसिद्ध गांधीवादी कार्यकर्ता
अंबेडकर साहब अगर आज होते तो वह क्या कर रहे होते ? कुछ संभावित जवाब यह हो सकते हैं.
अंबेडकर साहब आज होते तो दलितों पर होने वाले हमलों के खिलाफ आन्दोलन कर रहे होते.इसके साथ साथ अंबेडकर साहब वकील भी थे तो अम्बेडकर साहब अदालतों में दलितों पर होने वाले हमलों के मुकदमे लड़ रहे होते और दलितों की बस्तियां जलने वालों को और दलितों के सामूहिक हत्याकांड करने वाले लोगों को अदालतें ठीक वैसे ही बरी कर रही होतीं, जैसे अदालतों नें लक्ष्मनपुर बाथे, बथानी टोला और हाशिमपुरा के आरोपियों को बरी कर दिया है.
ऐसे में अंबेडकर साहब अपने बनाये हुए संविधान, अदालतों और चुनावों का महिमा गान कर रहे होते या पीड़ित लोगों के साथ मिल कर पूरे ढाँचे को बदलने की बातचीत का हिस्सा बने होते ? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंबेडकर साहब ने कहा था कि अगर हमने जल्द ही आर्थिक और सामाजिक न्याय को भारत के करोड़ों लोगों के लिए हकीकत नहीं बनाया तो लोग इस संविधान को जला देंगे.
बाबा साहब एक क्रन्तिकारी थे. उन्होंने मन्दिर प्रवेश का कार्यक्रम नहीं किया. उन्होंने महाड़ के तालाब के पानी पर सबके अधिकार का आन्दोलन किया. अंबेडकर साहब को इस अन्यायी और पूंजीवादी व्यवस्था के रक्षक के रूप में खड़ा करने का काम भारत के परम्परागत शासक वर्ग ने किया, जिसमें पूंजीपति, बड़े भू-मालिक सवर्ण सम्पत्तिवान सत्ताधारी वर्ग शामिल थे. संविधान को इस व्यवस्था के प्रतीक के रूप में दिखाया गया और अंबेडकर साहब को सीने से संविधान चिपकाए हुए पुतले लगा दिए गए. अंबेडकर साहब के पुतले कब दिखाई पड़ने शुरू हुए ?
1971 के बाद अंबेडकर साहब के पुतले दिखाए देने शुरू हुए. असल में यह नक्सली आन्दोलन के जवाब में हुई कार्यवाही थी. 1967 में नक्सली आन्दोलन को कांग्रेस नें बुरी तरह कुचला था. नक्सली आन्दोलन में एक समय में दलितों की भागीदारी का प्रतिशत 80% था. यह दलितों के लम्बे समय की उपेक्षा और अत्याचारों का परिणाम था.
आज़ाद भारत में गोडसे के बाद पहली फांसी दो दलित किसानों को हुई थी. इन किसानों पर आरोप था कि उन्होंने ज़मींदार को मार डाला था. दलितों और आदिवासियों के एक हो जाने से मौजूदा व्यवस्था को बदलने के लिए वैकल्पिक राजनैतिक आन्दोलन के बहुत मज़बूत हो जाने का खतरा खड़ा हो गया था. दलितों को व्यवस्था विरोध के आन्दोलन से अलग करने के लिए अंबेडकर साहब को व्यवस्था के समर्थक के रूप में पेश किया गया.
आज भी बहुत सारे दलित चिन्तक मानते हैं कि दलित युवाओं का एकमात्र लक्ष्य सरकारी नौकरी पा लेना है जबकि अंबेडकर साहब को सबसे ज्यादा निराशा इसी पढ़े-लिखे वर्ग से थी, जो नौकरी पाने के बाद अपने समुदाय को भूल जाते हैं और अन्याय करने वाली व्यवस्था के सेवक बन जाते हैं. अंबेडकर साहब को और ज्यादा पढ़े जाने और समझे जाने की ज़रुरत है.
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