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साध्वी प्रज्ञा की दरकार किसे थी ?

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साध्वी प्रज्ञा की दरकार किसे थी ?

(बांये) लोकसभा में जीत की खुशी मनाती आतंकवादी मामलों की आरोपी प्रज्ञा, (दांये) यह फोटो मैंने उनके यहां प्रवास के दौरान खींची थी. मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले के सुदूर इलाके में मेधा का आफिस/घर है. अपने बिस्तर पर बैठी वे गोद में थाली रखे दाल रोटी खा रही हैं. इसी चटाई पर वे सोती हैं – कृष्णाकांत

इससे पहले इस देश में इरोम शर्मिला भी चुनाव लड़ी थीं. अफ्सपा कानून के खिलाफ 16 वर्षों तक अनशन किया था कि सेना को शक के आधार पर गोली मार देने का कानून अमानवीय है, इसे खत्म किया जाए. यह दुनिया का सबसे लंबा अनशन था. मेरी जानकारी में उनसे देश का कोई बड़ा आदमी इस दौरान मिलने नहीं गया. हार कर उन्होंने अपना अनशन तोड़ दिया. वे चुनाव लड़ीं और उन्हें कुल जमा 90 वोट मिले.

एक हैं मेधा पाटेकर. स्वतंत्रता सेनानी की बेटी थीं. टाटा इंस्टीट्यूट से एमए किया. वहां पर रिसर्च फैकल्टी थीं. सब छोड़छाड़ कर स्लम और आदिवासी इलाकों में काम करने लगीं. पूरा जीवन इन्हीं के लिए समर्पित किया. हजारों विस्थापित परिवारों की लड़ाई लड़ी. मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाके में एक साधारण-सा ऑफिस है. सूती धोती और हवाई चप्पल पहन कर रहती हैं. जमीन पर चटाई बिछाकर सोती हैं.




सरदार सरोवर बांध में पानी छोड़ा गया तो पुनर्वास मसले पर रिपोर्टिंग के लिए मैं वहीं था. दाल-रोटी बनती है, वहीं सब सहयोगी मिलकर खाते हैं. दिन भर जमीन, पुनर्वास और तमाम मुद्दे पर मदद मांगने वाली जनता का तांता लगा रहता है.

मेधा 2014 में चुनाव लड़ीं तो दस लखा सूट पहनने वाले करोड़पति फकीर पर लहालोट जनता ने मेधा को चुनाव हरा दिया. वे उसी मुंबई से हार गईं जहां पर वर्षों तक जनसेवा का काम किया था.

एक सामाजिक कार्यकर्ता थे बी. डी. शर्मा. पूर्व आईएएस और गांधीवादी. आदिवासियों के हक़ के लिए पूरी उम्र व्यवस्था से कानूनी लड़ाई लड़ते रहे और अंत समय में बेहद निराश जीवन जिए.

रोम शर्मिला, मेधा पाटेकर और बी. डी. शर्मा की ही तरह सोनी सोरी, दयामनी बारला, बल्ली सिंह चीमा चुनाव हार गए. इसके पहले ​भी तमाम लेखक, कार्यकर्ता, समाजसेवी और अच्छे लोग चुनाव हार चुके हैं. देश में पिछले वर्षों में शिक्षा को लेकर बेहतरीन काम करने वाली आतिशी मार्लेना को दिल्ली की जनता ने संसद नहीं भेजा.




इन तमाम नामों के उलट, तमाम नेता जो जनता की आंख के तारे हैं, उनका इतिहास देखिए. अमानवीय कारनामों से भरा पड़ा है. तमाम ऐसे हैं जो हद दर्जे के जाहिल हैं. प्रज्ञा ठाकुर, निरंजन ज्योति से लेकर साक्षी महराज और गिरिराज सिंह तक. यह समाज फर्जी फकीरों की फकीरी में मस्त है.

छत्तीसगढ़ में लंबे समय तक काम कर चुके हिमांशु कुमार ने एक बार खलील जिब्रान की एक कहानी कहानी सुनाई थी. खलील जिब्रान ने लिखा कि मैंने जंगल में रहने वाले एक फ़कीर से पूछा कि आप इस बीमार मानवता का इलाज क्यों नहीं करते ? तो उस फ़कीर ने कहा कि तुम्हारी यह मानव सभ्यता उस बीमार की तरह है, जो चादर ओढ़ कर दर्द से कराहने का अभिनय तो करता है, पर जब कोई आकर इसका इलाज करने के लिये इसकी नब्ज देखता है तो यह चादर के नीचे से दूसरा हाथ निकाल कर अपना इलाज करने वाले की गर्दन मरोड़ कर अपने वैद्य को मार डालता है और फिर से चादर ओढ़ कर कराहने का अभिनय करने लगता है.

धार्मिक, जातीय घृणा, रंगभेद और नस्लभेद से बीमार इस मानवता का इलाज करने की कोशिश करने वालों को पहले तो हम मार डालते हैं. उनके मरने के बाद हम उन्हें पूजने का नाटक करने लगते हैं.

गांधी के साथ आज 70 सालों से यही तो हो रहा है. दिल्ली में पूजा हो रही है और भोपाल में हत्या हो रही. पाखंड, अत्याचारी की पूजा करने का स्वभाव और तर्क से दुश्मनी ही हमारे सबसे बड़े दुश्मन हैं.

  • कृष्णाकांत




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