सद्दाम हुसैन : इस्लामी राष्ट्रनायकों में अकेला सेक्युलर व्यक्ति
के. विक्रम राव; एडिटर, टेलीकास्टर एवं मीडिया टीचर
अन्ततः बारह साल बाद सच उभरा कि अमरीकी-ब्रिटिश फौज द्वारा इराक पर हमला झूठी गुप्तचर रपट का नतीजा था. सब-कुछ प्रायोजित था. नवउपनिवेशवाद की साजिश थी. लार्ड जान चिलकोट की अध्यक्षता वाली जांच समिति के बारह खण्डों में छब्बीस लाख शब्दों में लिखे गये, इस जांंच रपट से राष्ट्रपति जार्ज बुश (जार्ज एच. डब्ल्यू. बुश) और प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर पर युद्ध अपराधी का मुकदमा चलना चाहिये. मानवता का यह तकाजा है. डेढ लाख इराकी जनता का बमबारी से संहार किया गया था. राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को फांसी दी गई थी। लार्ड चिलकोट ने लिखा कि ईराक की अपार हानि हुई. सद्दाम पर अणु बम बनाने का आरोप भी मनगढ़त पाया गया.
अमरीकी हमले के बाद में IFWJ (Indian Federation of Working Journalists) के पत्रकारों को लेकर मैं बगदाद गया था. सद्दाम हुसैन तब जीवित थे. उनके पुत्र इराकी श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के अध्यक्ष उदय हुसैन से भेंट भी की थी. इराकी जर्नलिस्ट्स यूनियन के तमाम पदाधिकारियों से वार्ता भी मेरी हुई थी. वास्तविकता तभी उभर आई थी.
विद्रूपता देखिये. ब्रिटेन के समाजवादी प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने बाथ सोशलिस्ट नेता सद्दाम हुसैन के समतामूलक राष्ट्र पर अमरीकी साम्राज्यवादियों के पुछलगू बनकर आक्रमण किया. कांग्रेस-समर्थित भारत की समाजवादी जनता पार्टी सरकार के प्रधानमंत्री ठाकुर चन्द्रशेखर सिंह ने अमरीकी बमवर्षक वायुयानों को मुम्बई में ईंधन भरने की विशेष अनुमति भी दे डाली थी.
बांग्लादेशी और पाकिस्तानी इस्लामी सेना ने इन उपनिवेशवादियों की नौकरी बजायी. सऊदी अरब और ईमाम बुखारी ने भी सद्दाम हुसैन के विरूद्ध पुरजोर अभियान चलाया. अमरीकियों की झण्डाबरदारी की. अमरीकी पूंजीवादी दबाव में शाही सऊदी अरब ने सद्दाम हुसैन के सोशलिस्ट ईराक को नेस्तनाबूद करने में कसर नहीं छोड़ी. सऊदी अरब के बादशाह ने पैगम्बरे इस्लाम की जन्मस्थली के निकट अमरीकी हमलावर जहाजी बेड़े को जगह दी. नाना की मसनद (जन्म स्थली) के ऊपर से उड़कर अमरीकी आतातायियों ने नवासे की मजारों पर कर्बला में बम बरसाए थे. मीनारों को क्षतिग्रस्त देखकर मुझ जैसे गैर-इस्लामी व्यक्ति का दिल भर आया था कि सऊदी अरब के इस्लामी शासकों को ऐसा नापाक काम करते अल्लाह का भी खौफ नहीं रहा. शकूर खोसाई के राष्ट्रीय पुस्तकालय में अमरीकी बमों द्वारा जले ग्रन्थों को देखकर उस दौर की याद बरबस आ गई, जब चंगेज खांं ने (1258) मुसतन्सरिया विश्वविद्यालय की किताबों का गारा बना कर युफ्रेट्स नदी पर पुल बनवाया था.
हिन्दुस्तान के हिन्दुवादियों ने सद्दाम हुसैन को मात्र मुसलमान माना. अटल बिहारी बाजपेयी की जीभ उन दिनों जम गई थी. इसीलिये अब फिर हिन्दू राष्ट्रवादियों को याद दिलाना होगा कि ईराकी समाजवादी गणराज्य के अपदस्थ राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन अकेले मुस्लिम राष्ट्राध्यक्ष थे, जिन्होंने कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग कहा था. उनके राज में सरकारी कार्यालयों में नमाज़ अदायगी हेतु अवकाश नहीं मिलता था. कारण यही कि वे मज़हब को निजी आस्था की बात मानते थे. अयोध्या काण्ड पर जब इस्लामी दुनिया में बवण्डर उठा था तो बगदाद शान्त था. सद्दाम ने कहा था कि एक पुरानी इमारत गिरी है, यह भारत का अपना मामला है.
उन्हीं दिनों ढाका में प्राचीन ढाकेश्वरी मन्दिर ढाया गया था. तस्लीमा नसरीन ने अपनी कृति (लज्जा) में बांग्लादेश में हिन्दू तरूणियों पर हुए वीभत्स जुल्मों का वर्णन किया है. इसी पूर्वी पाकिस्तान को भारतीय सेना द्वारा मुक्त कराने पर शेख मुजीब के बांग्लादेश को मान्यता देने में सद्दाम सर्वप्रथम थे. इन्दिरा गांधी की (1975 ईराक यात्रा पर मेज़बान सद्दाम ने उनका सूटकेस उठाया था. जब रायबरेली लोकसभा चुनाव में वे हार (1977) गईं थीं तो इन्दिरा गांधी को बगदाद में स्थायी आवास की पेशकश सद्दाम ने की थी. पोखरण द्वितीय (मई, 1988) पर भाजपावाली राजग सरकार को सद्दाम ने बधाई दी थी, जबकि कई परमाणु शक्ति वाले राष्ट्रों ने आर्थिक प्रतिबन्ध लादे थे.
सद्दाम के नेतृत्ववाली बाथ सोशलिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में शिरकत करते रहे. भारतीय राजनेताओं को स्मरण होगा कि भारतीय रेल के असंख्य कर्मियों को आकर्षक अवसर सद्दाम ने वर्षों तक उपलब्ध कराए. उत्तर प्रदेश सेतु निर्माण निगम ने तो ईराक से मिले ठेकों द्वारा बहुत लाभ कमाया. पैंतीस लाख भारतीय श्रमजीवी सालाना एक खरब रुपये भारत भेजते थे. भारत को ईराकी तेल सस्ते दामों पर मुहैय्या होता रहा. इस सुविधा का दुरूपयोग करने में कांग्रेस विदेश मंत्री (नटवर सिंह जैसे) तक नहीं चुके थे. आक्रान्त ईराक के तेल पर कई भारतीयों ने बेशर्मी से चांंदी काटी.
भारत के सेक्युलर मुसलमानों को फख्र होगा याद करके कि ईराक में बुर्का लगभग लुप्त हो गया था. नर-नारी की गैर-बराबरी का प्रतीक यह काली पोशाक सद्दाम के ईराक में नागवार बन गई थी. कर्बला, मौसूल, टिकरीती आदि सुदूर इलाकों में मुझे तब बुर्का दिखा ही नहीं. स्कर्ट और ब्लाउज़ राजधानी बगदाद में आम लिबास था. माथे पर वे बिन्दिया लगाती थीं और उसे ‘हिन्दिया’ कहती थीं. आधुनिक स्कूलों में पढ़ती छात्राओं, मेडिकल कालेजों में महिला चिकित्सकों और खाकी वर्दी में महिला पुलिस और सैनिकों को देखकर आशंका होती थी कि कहीं हिन्दूबहुल भारत से आगे यह इस्लामी देश न बढ़ जाए.
सद्दाम हुसैन के समय में हुई प्रगति में आज परिवर्तन आया है. अधोगति हुई है. टिग्रिस नदी के तट पर या बगदाद की सड़कों पर राहजनी और लूट अब आम बात है. एक दीनार जो साठ रूपये के विनिमय दर पर था, आज रूपये में दस मिलता है. दुपहियों और तिपहियों को पेट्रोल मुफ्त मिलता था, केवल शर्त थी कि चालक खुद उसे भरे. भारत में बोतल भर एक लीटर पानी दस रूपये का है. सद्दाम के ईराक में उसके चौथाई दाम पर लीटर भर पेट्रोल मिलता था.
अमरीका द्वारा थोपे गये ‘लोकतांत्रिक’ संविधान के तहत सेक्युलर निज़ाम का स्थान आज कठमुल्लों ने कब्जाया है. नर-नारी की गैर-बराबरी फिर मान्य हो गई है. दाढ़ी और बुर्का भी प्रगट हो गये हैं. ईराकी युवतियों के ऊंंचे ललाट, घनी लटें, गहरी आंखें, नुकीली नाक, शोणित कपोल, उभरे वक्ष अब छिप गये. यदि आज बगदाद में कालिदास रहते तो वे यक्ष के दूत मेघ के वर्ण की उपमा एक सियाह बुर्के से करते. ईराक में ठीक वैसा ही हुआ जो सम्राट रजा शाह पहलवी के अपदस्थ होने पर खुमैनी राज में ईरान में हुआ, जहां चांद को लजा देने वाली पर्शियन रमणियां काले कैद में ढकेल दी गईं. नये संविधान में बहुपत्नी प्रथा, ज़ुबानी तलाक का नियम और जारकर्म पर केवल स्त्री को पत्थर से मार डालना, फिर कानूनी बन गया हैं.
अतः चर्चा का मुद्दा है कि आखिर अपदस्थ राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का अंजाम ऐसा क्यों हुआ ? मजहब के नाम पर बादशाहत और सियासत करने वालों को सद्दाम कभी पसन्द नहीं आए. उनकी बाथ सोशलिस्ट पार्टी ने रूढ़िग्रस्त ईराकी समाज को समता-मूलक आधार पर पुनर्गठित किया। रोटी, दवाई, शिक्षा, आवास आदि बुनियादी आवश्यकताओं को मूलाधिकार बनाया था. पड़ोसी अरब देशों में मध्यकालीन बर्बरता राजकीय प्रशासन की नीति है, मगर बगदाद में कानूनी ढांचा पश्चिमी न्याय सिद्धान्त पर आधारित था. ईराक में चोरी का दण्ड हाथ काटना नहीं था, वरन् जेल की सज़ा होती थी.
सद्दाम को जार्ज बुश ने सेटन (शैतान) कहा. टिकरीती का एक यतीम तरूण सद्दाम हुसैन चाचाओं की कृपा पर पला. पैगम्बरे इस्लाम की पुत्री फातिमा का यह वंशज जब मात्र उन्नीस वर्ष का था तो बाथ सोशलिस्ट पार्टी में भर्ती हुआ. श्रम को उचित महत्व देना उसका जीवन दर्शन था.
अमरीकी फौजों ने अपदस्थ राष्ट्रपति की जो मूर्तियां ढ़हा दी है, उनमें सद्दाम हुसैन हंसिया से बालियांं काटते और हथौड़ा चलाते दिखते थे. अक्सर प्रश्न उठा कि सद्दाम हुसैन ईराक में ही क्यों छिपे रहे ? क्योंकि उन्होंने हार मानी नहीं, रार ठानी थी. अमूमन अपदस्थ राष्ट्रनेतागण स्विस बैंक में जमा दौलत से विदेश में जीवन बसर करते हैं. बगदाद से पलायन कर सद्दाम भी कास्त्रों के क्यूबा, किम-जोंग-इल के उत्तरी कोरिया अथवा चेवेज़ के वेनेजुएला में पनाह पा सकते थे. ये तीनों अमरीका के कट्टर शत्रु रहे. जब अमरीकी सैनिकों ने उन्हें पकड़ने के बाद पूछा कि ‘आप कौन हैं’, तो इसी दृढ़ता के साथ सद्दाम का सीधा जवाब था, ‘सार्वभौम ईराक का राष्ट्रपति हूंं’.
महज भारत के लिये ही सद्दाम हुसैन का अवसान साधारण हादसा नहीं हैं क्योंकि इस्लामी राष्ट्रनायकों में एक अकेला सेक्युलर व्यक्ति बिदा हो गया था. केवल चरमपन्थी लोग ही इस पीड़ा से अछूते रहेंगे. कारण- दर्द की अनुभूति के लिए मर्म होना चाहिए !
(एक पुरानी आलेख से साभार)
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Jitendra
July 14, 2019 at 8:28 am
वर्तमान मे अधिक प्रासंगिक है यह आलेख – इसे आप public post के तौर पर डाले!