उम्मीद है सच को सच की तरह पहचानने की कोशिश करेंगे, भक्त या अ-भक्त की तरह नहीं.
मोदी उवाच — 1 : मोदी जी ने कहा —
न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पहले भी जारी था, आज भी जारी है और आगे भी जारी रहेगा.
समीक्षा — इसमें से पहली दो बातें दिख ही रही हैं और सच हैं. आख़िरी बात यानी — (एमएसपी) आगे भी जारी रहेगा, सफ़ेद झूठ है. जैसे गणित और विज्ञान में नियमों के कुछ निश्चित परिणाम होते हैं, वैसे ही तीनों कृषि कानून ठीक वर्तमान रूप में लागू हुए तो शुरू में सचमुच किसानों का मुनाफ़ा बढ़ाते दिखेंगे, पर कुछ दिनों बाद इनका अनिवार्य परिणाम होगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य समाप्त कर दिया जाएगा या यह अप्रसांगिक हो जाएगा.
ऐसा नहीं है कि एमएसपी के नतीजे कोई बहुत अच्छे रहे हैं, इसका अब तक का ढांचा हद दर्जे की मूर्खतावाला रहा है और देश के ज़्यादातर हिस्सों में बेमानी साबित हुआ है. पर सहज निष्कर्ष यह भी है कि एमएसपी एक रोड़ा है और इसी को समाप्त करने के लिए नए कृषि कानूनों की कसरत की गई है. इन कानूनों का अनिवार्य नतीजा होगा कि मण्डियां भी एक दिन ख़त्म करनी पड़ेंगी या अपने आप ख़त्म हो जाएंगी.
हो सकता है कि हमारे प्रधानमन्त्री जी सचमुच सच्चे दिल से किसानों का भला चाहते हों, पर कुछ वर्षों बाद का सच मुझे यही दिखाई दे रहा है कि देश की खेती को छोटे बिचौलियों के हाथों से निकालकर बड़े बिचौलियों को सौंप दिया जाएगा. जिन्हें ऐसा न लगता हो, वे इन वाक्यों को एक किनारे सुरक्षित रख सकते हैं और कुछ साल बाद इनकी परीक्षा कर सकते हैं. याद रखिए कि बिल गेट्स अभी हाल में ही अमेरिका में दो लाख एकड़ ज़मीन ख़रीद कर वहां के सबसे बड़े किसान बने हैं.
मोदी उवाच—2 : मोदी जी ने कल कहा —
आन्दोलनजीवियों की एक नई जमात आ गई है, जो हर आन्दोलन में दिखाई देती है. हमें उनसे बचना होगा, जो भारत को अस्थिर करना चाहते हैं.
समीक्षा—इन दोनों वाक्यों में से पहले वाक्य को मैं एकदम दुरुस्त मानता हूं. कुछ लोग सचमुच ऐसे हैं, जिन्हें सिर्फ़ विरोध की राजनीति करनी है. कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें बस मोदी-विरोध के किसी मौक़े की तलाश होती है. विचारधारा के बीमार ऐसे अजब-ग़ज़ब लोग मिलेंगे, जिनको राहुल गांधी की उलूक वाणी आप्त-वचन लगेगी, पर मोदी का हर काम वाहियात और अठारहवीं सदी में धकेलने वाला लगेगा.
मोदी-भक्तों की दिक़्क़त यह है कि उन्हें किसान आन्दोलन में हर कहीं खालिस्तान दिखाई देता है या राष्ट्रद्रोही ताक़तें. इस नज़रिये से देखें तो मुझे लगता है कि मुझसे बड़ा राष्ट्रद्रोही शायद ही कोई होगा. एमएसपी के वर्तमान रूप को चलाए रखने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है, कृषि सुधार भी हमारे जैसे लोग पूरी गम्भीरता से चाहते हैं, पर जैसा सुधार किया जा रहा है, ऐसा मूर्खतापूर्ण सुधार हम नहीं चाहते.
मोदी जी जो यह कह रहे हैं कि उनसे बचना होगा, जो भारत को अस्थिर करना चाहते हैं, तो बात सही है. पर यह ज़बरदस्ती के राष्ट्रवाद का जुमला बन गया है. किसी को राष्ट्र को अस्थिर करने वाला घोषित कर दो और फिर सच को भी बड़े आराम से पहचानने से इनकार कर दो. वैसे ही जैसे कि महात्मा मार्क्स के भक्त, जिसको गाली देना हो उसे पहले दक्षिणपन्थी घोषित करते हैं और फिर जी भर गरियाते हैं.
मोदी उवाच — 3
मोदी जी ने कहा —
एफडीआई की देश को ज़रूरत है, लेकिन हमें एफडीआई के नए संस्करण से देश को बचाना है, जो विदेशी विनाशकारी विचारधारा है.
समीक्षा—इस वाक्य के उत्तरार्ध की व्याख्या तो ख़ैर आप करते रहिए. उसमें कुछ सच है और कुछ अंश में वही राष्ट्रवादी जुमला. पर वाक्य का पूर्वार्ध मेरे हिसाब से राष्ट्र के लिए सबसे विनाशकारी विचारधारा है. जब बहुत बड़ी मात्रा में एफडीआई हासिल करने के बाद जश्न मनाने जैसी स्थित बनाई जाती है, तो इसका बस इतना ही मतलब है कि एफडीआई का ख़तरनाक पक्ष छिपाया जा रहा होता है.
जब यह ख़बर आती है कि सन् 2020 में देश में लगभग चार लाख करोड़ का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ तो इसका दूसरा पक्ष यह है कि इसका कम-से-कम तीन गुना यानी बारह लाख करोड़ देश से बाहर जाने वाला है. चार लाख करोड़ को उपलब्धि के रूप में प्रचारित किया जाता है, पर बारह लाख करोड़ के बाहर जाने यानी विशुद्ध आठ लाख करोड़ गंवाने पर बात नहीं की जाती. मज़ेदार यह भी है कि जिस पैसे को कहा जाता है कि निवेश के रूप में आया, वह वास्तव में देश के ख़ज़ाने में कोई वृद्धि नहीं करता.
एफडीआई का सबसे बड़ा योगदान यह है कि यह नेताओं के कमीशन खाने का सबसे बड़ा ज़रिया है. ‘ईमानदार’ मनमोहन सिंह ने विश्वबैंक की स्वामिभक्ति में यह काम शुरू किया था. तीस साल पहले जब देश की सकल घरेलू बचत दो लाख करोड़ हुआ करती थी तो मनमोहन सिंह हर साल सिर्फ़ दो हज़ार करोड़ के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए कटोरा लेकर भिक्षाटन कर रहे थे.
पता नहीं देश के लोग कब समझ पाएंगे कि कोई भी विदेशी कम्पनी अपना मुनाफ़ा पक्का करने और अपना धन्धा चमकाने के लिए निवेश करती है, सेवा करने के लिए नहीं. सेवा ही करनी होगी तो वह पहले अपने देश की करेगी. विदेशी निवेश का सीधा मतलब है कि जितना पैसा देश में आएगा, उससे दस-बीस गुना ज़्यादा देश से बाहर जाएगा. दूसरे शब्दों में एफडीआई का एक मतलब यह है कि—‘आओ और हमारे देश को लूटो, बस पता न चले कि तुम लुटेरे हो !’
सुप्रीम कोर्ट में कल यह सामने आया —
देश के दो से चार करोड़ लोगों के राशनकार्ड मोदी सरकार के आदेश पर रद्द कर दिए गए हैं.
समीक्षा— जाहिर है राशनकार्ड उन्हीं के बनते हैं, जो देश के निर्धनतम वर्गों से हैं. आदिवासी हैं, दलित आदि हैं. सरकार ने इन राशनकार्डों को बोगस बताते हुए रद्द कर दिया है क्योंकि ये आधारकार्ड से जुड़े नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी इतने बड़े पैमाने पर राशनकार्ड रद्द करने को बहुत गंभीर मामला बताया है.
दिलचस्प यह है कि देश का सर्वोच्च न्यायालय पहले ही यह निर्णय दे चुका है कि नागरिकों की मूल जरूरतों के लिए आधार कार्ड की अनिवार्यता पर जोर नहीं दिया जा सकता. मगर यह सरकार कब किसी आदेश-अनुदेश को मानती है ?
अभी दिल्ली केंद्रशासित प्रदेश का मामला फिर सामने आया है. सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट रूप से उपराज्यपाल के अधिकारों को सीमित कर चुका था, मगर मोदी सरकार फिर एक विधेयक लेकर आई है, जिसमें दिल्ली विधानसभा की हैसियत नगरपालिका से भी बदतर हो जाएगी. जो भाजपा कभी दिल्ली को राज्य का दर्जा देने की बात घोषणापत्र में शामिल करती थी, वह राज्य सरकार के अधिकारों को सीमित करके भी खुश है. भाजपा की सिद्धांत निष्ठा, मोदी निष्ठा में बदल चुकी है.
सब जानते हैं कि ग्रामीण-आदिवासी अंचलों में रहनेवालों के लिए आधारकार्ड बनवाना कितना कठिन है. बन जाए तो इंटरनेट की सुविधा की हालत बेहद इन इलाकों में खस्ता है. ज्यादातर ऐसे अंचलों में ये काम नहीं करते. इसके अलावा एक उम्र के बाद मध्यवर्ग के लोगों के अंगूठे के निशान तक काम नहीं करते तो मेहनती गरीब वर्गों के लिए यह कितना कठिन है ? इस कारण बिना सूचना दिए बड़े पैमाने पर कार्ड रद्द कर दिये गए हैं. इस कारण उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों के लोगों के राशनकार्ड रद्द कर दिए गए हैं.
गरीबों-आदिवासियों को राशन न देकर मारो, रसोई गैस पर सब्सिडी खत्म कर के मारो. उनके जंगल और जमीनें छीनकर मारो. विकास के नाम पर उन्हें मारो. उन्हें हिन्दू बना कर (या ईसाई बना कर) उनकी संस्कृति को भी मारो. नक्सली बता कर भी मारो. शहर आएँ तो गंदगी और बेरोजगारी से मारो. सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा कर रखा है, इस नाम पर उनकी झुग्गी झोपड़ियों को खत्म करके उन्हें मारो.उन्हें मारने के लिए गोली चालन ही जरूरी नहीं. गोली चला कर भी मारो तो जरूरी है प्रेस ऐसे मामलों को कवर करना चाहे और चाहे तो सरकार कवर करने दे ?
भक्तों के दिमाग कुंद हैं, दिल में कंकर पत्थरों का निवास जमा लिया है. लोकसभा का हाल यह है कि वहाँ विरोध सुना नहीं जाता और सरकारी पक्ष केवल ‘जय मोदी जय मोदी’ करना जानता है. अदालतें भी कभी-कभी ही आशा जगती हैं, मगर उनकी भी सुनता कौन है ?
राशन का मुद्दा किसान आंदोलन का ही मुद्दा नहीं बनना चाहिए, अन्य उतने ही सशक्त लोकतांत्रिक आंदोलन भी जरूरी हैं वरना लाकडाऊन में अंबानियों-अडाणियों की संपत्ति बेतहाशा बढ़ती रहेगी और साधारणजन मरते, डूबते रहेंगे. टीवी चैनल सुशांत सिंह राजपूत और कंगना रनौत की माला जपते रहेगे.
- संत समीर और विष्णु नागर
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