हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
भारत के मैनेजमेंट संस्थानों में इस पर विशेष अध्ययन होने चाहिए, विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्र और वाणिज्य विभागों में शोध होने चाहिए कि हमारे देश के दो शीर्ष उद्योगपतियों अंबानी और अडानी ने कौन से व्यापारिक नुस्खे अपनाए कि कोरोना काल की मंदी में महज आठ महीनों के अंतराल में उनकी संपत्तियों में दोगुने से भी अधिक का इज़ाफ़ा हो गया.
अखबार में खबर देखी कि 2020 के मार्च महीने से अक्टूबर महीने के बीच की अवधि में मुकेश अंबानी की सम्पत्ति 2.7 लाख करोड़ से बढ़ कर 5.7 लाख करोड़ हो गई, जबकि गौतम अडानी ने तो और ऊंची छलांग लगाते हुए, किसी ब्लूमबर्ग बिलेनियर इंडेक्स के अनुसार बीते वर्ष अपनी दौलत में 21.5 अरब डॉलर की बढ़ोतरी की. शोध होने चाहिये और उसके निष्कर्ष सबके सामने आने चाहिये, ताकि देश को यह पता चल सके कि इन असाधारण वाणिज्यिक प्रतिभाओं ने कैसे यह कमाल कर दिखाया.
समृद्धि अच्छी चीज है और, अगर यह बढ़ती ही जा रही हो तो और भी अच्छी चीज है. इसका आदर होना चाहिए लेकिन, जिस दौर में लगातार महीनों तक लॉकडाउन लगा रहा, आम लोगों की बेरोजगारी ने पिछले तमाम रिकॉर्ड्स तोड़ दिए, अच्छे अच्छों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा, जिनकी नौकरी बरकरार रही उनकी आमदनी में भारी कटौती हो गई, यहां तक कि सरकारी बाबुओं को भी डीए ‘फ्रीज’ कर दिए जाने का झटका झेलना पड़ा और इन कारणों से बाजार भयानक मंदी का शिकार हो गया, वे कौन से रास्ते थे जिन पर चल कर इन कारपोरेट प्रभुओं ने महज कुछ महीनों में अपनी कुल सम्पत्ति में दोगुनी से भी अधिक वृद्धि कर ली.
अगर मैनेजमेंट संस्थान इस पर केस स्टडी करवाएं तो लोगों को जानकारी मिले, उनकी आंखें खुलें कि प्रतिभा और परिश्रम का अद्भुत संयोग जब होता है तो कैसा चमत्कार होता है वरना, उन लोगों की बातें ही हमें सही लगती रहेंगी जो बताते रहे हैं कि इन या इनकी तरह के कुछेक अन्य शीर्ष कारपोरेट घरानों की दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि के पीछे भारत में ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ के नग्न नृत्य का प्रमुख योगदान है.
क्रोनी कैपिटलिज्म को हम कैपिटलिज्म का घोर अनैतिक रूप कह सकते हैं जिसमें सत्ता के साथ मिल कर कैपिटलिस्ट अपने व्यापारिक हितों के अनुकूल नीतियां बनवाता है, फैसले करवाता है और चलताऊ शब्दों में कहें तो जी भर के ‘चांदी काटता है.’
विश्लेषक कहते हैं कि क्रोनी कैपिटलिज्म, जिसे चालू हिन्दी में ‘याराना पूंजीवाद’ और संभ्रांत हिन्दी में ‘सहचर पूंजीवाद’ कहते हैं, कैपिटलिज्म की निकृष्टतम गति है. विकीपीडिया सहचर पूंजीवाद को परिभाषित करते हुए बताता है, ‘यह अर्थव्यवस्था की उस अवस्था का सूचक है जहां व्यापार-वाणिज्य में सफलता व्यापारी और सरकारी अधिकारियों के आपसी संबंधों से तय होने लगती है.’
मन नहीं मानता कि हमारे प्रतिभाशाली, परिश्रमी और देश सेवा के प्रति समर्पित लोक सेवक और उनके राष्ट्रभक्त राजनीतिक आका इन गोरखधंधों में कैपिटलिस्ट वर्ग के साथ मिलीभगत रखते होंगे. हमें खुद अपनी नैतिकता पर गर्व ही नहीं, दूसरों की नैतिकता पर भरोसा भी करना चाहिए इसलिये, देश की जनता में लोक सेवकों और राजनीतिज्ञों के प्रति कोई व्यर्थ भ्रम न फैले, इन कारपोरेट प्रभुओं की बेहिंसाब सफलता का सम्यक विश्लेषण होना चाहिये.
कुछ आर्थिक विश्लेषक कहते हैं कि कामगारों के पारिश्रमिक हमारे देश में बहुत कम हैं, बल्कि बहुत ही कम हैं जबकि कंपनियों के मुनाफे की दर बहुत अधिक, बल्कि बहुत ही अधिक है. वे यह भी बताते हैं कि कच्चे माल की कीमतों के बनिस्पत उत्पादित माल की कीमतों में भी जमीन-आसमान का अंतर होता है. यह भारी अंतर भारी मुनाफे की शक्ल में कंपनी मालिकों की जेब में जाता है.
कुछ विश्लेषक तो यह भी कहते हैं कि भारी मुनाफे के इन टोटकों से ही बड़े उद्योगपतियों की सम्पत्ति में इतना बेहिसाब इज़ाफ़ा नहीं हो सकता. यह तब होता है जब सरकारें शब्दों की भ्रामक चाशनी में लपेट कर कुछ ऐसे फैसले करती हैं जिनसे अचानक ही किसी उद्योगपति या उद्योगपतियों के विशिष्ट समूह को हजारों करोड़ रुपयों की आमदनी हो जाती है और सारा जिम्मा आम लोगों की जेब पर पड़ता है.
मसलन, कुछ विश्लेषक तेल और गैस के व्यापार, कोयला खदानों के व्यापार आदि को इनसे जोड़ते हैं जिनसे जुड़े सरकारी फैसले अचानक ही किसी बड़े उद्योगपति को बड़ा लाभ दे देते हैं.
अब, विश्लेषक हैं तो विश्लेषण ही करेंगे. कोई जरूरी नहीं कि उनके विश्लेषण सही ही हों. जैसा कि, सरकार समर्थक कुछ लोग अक्सर कहते हैं, ऐसे विश्लेषक वाम समर्थक हैं या फिर, राष्ट्र की प्रगति से कुढ़ने वाले जंतु हैं और इन लोगों का कर्मठ उद्योगपतियों से जनम-जनम का वैर है, वे राष्ट्रोत्थान में उद्योग प्रभुओं के सार्थक योगदान को नजरअंदाज कर सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते हैं.
आरोप-प्रत्यारोप के इस धुंधलके में आम जन बेवजह भ्रम का शिकार होते रहते हैं. वे समझ नहीं पाते कि इनकी बात मानें या उनकी बातें सुनें. इसलिये, तमाम भ्रमों का निवारण करने के लिये सरकार को कुछ शोध फेलोशिप घोषित करने चाहिये, जो इस पर शोध करें कि आखिर यह चमत्कार हुआ कैसे ? आखिर कैसे महज़ आठ महीनों में ढाई लाख करोड़ की संपत्ति 5 लाख करोड़ की हो जाती है ?
चमत्कृत करने वाले ऐसे आंकड़े अक्सर सामने आते रहते हैं और विश्लेषक अपने विश्लेषणों के साथ आम जन को भरमाने, अगर वे सही में भरमाते है तो, आ जाते हैं. कुछ सरकार विरोधी पत्र-पत्रिकाएं इन विश्लेषणों को छाप भी देती हैं. कोई नहीं छापता तो सोशल मीडिया के दर तो सबके लिये खुले हैं ही. राष्ट्रहित में इन और ऐसे सवालों के जवाब मिलने ही चाहिये. ‘…पूछता है भारत…’.
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