राजा रवि वर्मा न होते तो हमारे देवी-देवता होते जरूर, पर कैसे होते कहना मुश्किल है. पहली बार देवी-देवताओं को तस्वीरों में उकेरने वाले राजा रवि वर्मा ने भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के के जीवन में भी अहम भूमिका निभाई. कहते हैं कि किसी भी शख्सियत का मूल्यांकन दुनिया को सौंपी उसकी विरासत से होता है. सामान्य से सामान्य जन को यदि लगे कि वह शख्स न होता तो उसका जीवन थोड़ा कम बेहतर होता तो ऐसा शख्स ही शख्सियत बन जाता है. राजा रवि वर्मा ऐसी ही शख्सियत थे.
कहने को तो वे ‘राजा’ थे लेकिन उनके पास कोई राज्य न था. उनके नाम में जुड़ा यह शब्द एक उपाधि थी जो तत्कालीन वायसराय ने उनकी प्रतिभा का सम्मान करते हुए उन्हें दी थी. अति-प्रतिभाशाली रवि वर्मा की लोकप्रियता का आलम यह था कि टीवी और इंटरनेट न होने के बावजूद वे घर-घर में वह मशहूर थे. हालांकि तमाम दूसरी हस्तियों की तरह उन्हें एक तरफ अपार लोकप्रियता नसीब हुई तो दूसरी ओर बदनामी और विवाद भी झेलने पड़े. लेकिन रवि वर्मा का काम और उनकी कल्पनाशीलता इन सबसे बेपरवाह चित्रकला को नई बुलंदियां बख्शती रही. चित्रकारी में उन्होंने कई ऐसे प्रयोग किए जो भारत में तब तक किसी ने नहीं किए थे.
आज घर-घर में देवी-देवताओं की तस्वीरें आम हैं लेकिन अब से करीब सवा सौ साल पहले ये देवी-देवता ऐसे सुलभ न थे. उनकी जगह केवल मंदिरों में थी, वहां सबको जाने की इजाजत भी नहीं थी. जात-पात का भी भेद होता था. घर में भी यदि वे होते तो मूर्तियों के रूप में. तस्वीरों, कैलेंडरों और पुस्तकों में जो देवी-देवता आज दिखते हैं वे असल में राजा रवि वर्मा की कल्पनाशीलता की देन हैं.
केरल के किलिमानूर में पैदा हुए राजा रवि वर्मा के चाचा भी कुशल चित्रकार थे. कहते हैं कि चाचा से ही उन्हें पेंटिंग का चस्का लगा. रवि वर्मा करीब 14 साल के थे तब उनके चाचा ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें त्रावणकोर के राजमहल पेटिंग सिखाने ले गए. उस समय त्रावणकोर महाराज के दरबार में वाटर पेंटिंग के महारथी रामास्वामी नायडू से उन्होंने चित्रकारी के गुर सीखे. जल्द ही रवि वर्मा वाटर पेंटिंग के उस्ताद बन गए.
हालांकि दुनिया में उन्हें ख्याति मिली अपने तैल चित्रों या ऑयल पेंटिंग्स की वजह से. उनकी तमाम मशहूर रचनाएं ऑयल पेंटिंग से ही बनीं. चित्रकला की इस शैली में रंग निखर कर आता है और इसे सालों तक सुरक्षित रखना संभव होता है. आलोचक भी मानते हैं कि उनके जैसी ऑयल पेंटिंग बनाने वाला दूसरा चित्रकार इस देश में आज तक नहीं हुआ.
रवि वर्मा करीब 20 साल के रहे होंगे तब नीदरलैंड के मशहूर चित्रकार थियोडोर जेनसन भारत आए थे. विदेशी पेंटर ऑयल पेंटिंग किया करते थे. भारत इस तकनीक से लगभग अनजान ही था. हालांकि माना जाता है कि ऑयल पेंटिंग की शुरुआत भारत और चीन के पेंटरों ने ही की थी लेकिन यह शैली यहां उतनी प्रचलित नहीं हो सकी. किसी तरह यह ग्रीस पहुंची और पुनर्जागरण के बाद 15वीं सदी में इसका यूरोप में विस्तार हुआ.
यूरोपीय पेंटरों में ऑयल पेंटिंग की तकनीक बहुत मशहूर हो गई थी. इसे फिर भारत पहुंचते-पहुंचते 19वीं सदी आ गई. तब तक यहां ज्यादातर पेंटिंग्स वाटर कलर से ही बनती थी. राजा रवि वर्मा ने थियोडोर जेनसन से ऑयल पेंटिंग की तकनीक न सिर्फ सीखी बल्कि उसमें महारत हासिल की. भारत में ऑयल पेंटिंग को मशहूर करने में उनका योगदान अतुलनीय माना जाता है.
विदेशी लोग ‘ऑयल पेंटिंग’ करते थे यानी लकड़ी के तिपाए पर ‘कैनवास’ रखकर पेंट किया करते थे. कैनवास सूत या जूट का बना होता था. भारत इस तकनीक से पूरी तरह अनजान था. राजा रवि वर्मा ने इस शैली को यूरोपीय चित्रकारों से अपनाया और भारत में मशहूर कराया.
रवि वर्मा ने पोर्ट्रेट बनाने की कला भी थियोडोर जेनसन से ही सीखी. पोर्ट्रेट यानी प्रतिकृति किसी को सामने बिठा कर या उसकी फोटो देखकर बनाई जाती थी. जेनसन उस समय पोर्ट्रेट बनाने के लिए पूरी दुनिया में मशहूर थे. बाद में राजा रवि वर्मा को इसमें खूब मकबूलियत हासिल हुई. उनके इस हुनर की लोकप्रियता ऐसी थी कि उस समय के तमाम राजा-महाराजा रवि वर्मा से अपना पोर्ट्रेट बनवाने के लिए लाइन लगाए रहते थे. कहते हैं राजा साहब इसके लिए तगड़ी फीस वसूलते थे जो आज के लिहाज से करोड़ों के बराबर थी.
महाराणा प्रताप का बनाया पोर्ट्रेट रवि वर्मा के हुनर का बेमिसााल नमूना माना जाता है. जानकार उनके बनाए बड़ौदा के महाराज और महारानी के पोर्ट्रेट को भी लाजवाब मानते हैं.
अपना प्रशिक्षण पूरा करने के बाद रवि वर्मा के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि उनकी पेंटिंग का विषय क्या हो. वे महीनोंं तक इधर से उधर घूमते रहे और भारत की आत्मा को समझने की कोशिश करते रहे. काफी घूमने के बाद इनकी कल्पनाशक्ति ने समझ लिया कि धार्मिक ग्रंथों और महाकाव्यों में भारत की आत्मा बसी है. उन्होंने फैसला लिया कि वे इन ग्रंथों के चरित्रों की पेंटिंग बनाएंगे. रवि वर्मा ने कई पौराणिक कथाओं और उनके पात्रों के जीवन को अपने कैनवास पर उतारा. वे हिंदू देवियों के चित्रों को अक्सर सुन्दर दक्षिण भारतीय महिलाओं के ऊपर दर्शाते थे.
राजा रवि वर्मा ऐसे पहले चित्रकार थे जिन्होंने हिंदू देवी-देवताओं को आम इंसान जैसा दिखाया. आज हम फोटो, पोस्टर, कैलेंडर आदि में सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, राधा या कृष्ण की जो तस्वीरें देखते हैं वे ज्यादातर राजा रवि वर्मा की कल्पनाशक्ति की ही उपज हैं. उनके सबसे मशहूर चित्रों में ‘सरस्वती’ और ‘लक्ष्मी’ के चित्र भी शामिल हैं, जो घर-घर में पूजे जा रहे हैं, भले ही पूजने वालों को इसका पता हो या न हो. किसी कलाकार के लिए इससे बड़ी उपलब्धि और क्या होगी.
उनके कई चित्र बड़ौदा के लक्ष्मी विलास पैलेस में आज तक सुरक्षित हैं. कइयों का मानना है कि उनके सभी चित्रोंं की बाजार कीमत देश के उस सबसे बड़े महल से भी ज्यादा हो सकती है. विचारमग्न युवती, दमयंती-हंसा संभाषण, संगीत सभा, अर्जुन और सुभद्रा, विरह व्याकुल युवती, शकुंतला, रावण द्वारा जटायु वध, इंद्रजीत-विजय, नायर जाति की स्त्री, द्रौपदी कीचक, राजा शांतनु और मत्स्यगंधा, शकुंतला और राजा दुष्यंता आदि उनके प्रसिद्ध चित्र हैं.
रवि वर्मा के तैल चित्रों की बहुत मांग थी. उन्होंने सोचा कि यदि इन चित्रों को आमजन तक पहुंचना है तो प्रेस खोलना होगा. इसलिए उन्होंने 1894 में विदेश से कलर लिथोग्राफिक प्रेस खरीदकर मुम्बई में लगाई और अपने चित्रों की नकल बनाकर बेचना शुरू किया. इनसे पहले किसी भी चित्रकार ने ऐसा नहीं किया था. हालांकि इस कारोबार में उन्हें ज्यादा मुनाफा नहीं हुआ लेकिन आमजन विशेषकर उन तक तक देवी-देवताओं की पहुंच हो गई जिनका मंदिरों में प्रवेश वर्जित था. कट्टरपंथियों ने इसका भी विरोध किया लेकिन आलोचकों ने इसके लिए राजा रवि वर्मा के प्रयास की खूब प्रशंसा की.
दादा साहब फाल्के ने गुजरात के गोधरा से फोटोग्राफर के तौर पर शुरुआत की थी. बाद में वे बड़ौदा आ गए. वहां उन्होंने पेंटिंग और फोटोग्राफी की शिक्षा हासिल की. बाद में जब राजा रवि वर्मा ने अपनी प्रेस खोली तो फाल्के को वहां नौकरी मिल गई. उनका रवि वर्मा से परिचय इसी दौरान हुआ. धीरे-धीरे वे इस महान हस्ती के करीब आते गए. रवि वर्मा ने भी उनकी प्रतिभा को पहचाना और प्रोत्साहित किया. कई यह भी मानते हैं कि रवि वर्मा ने वह पैसा दादा साहब फाल्के को दे दिया था जो उनके पास अपनी प्रेस बेचने के बाद आया था और फाल्के ने इसी पैसे से अपने काम को आगे बढ़ाया.
रवि वर्मा दो अक्टूबर, 1906 को दुनिया से चल बसे. उनके जाने के करीब सात साल बाद दादा साहब फाल्के ने भारत की पहली फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई. तब से भारतीय फिल्म उद्योग की शुरुआत हो गई. करीब एक सदी बाद बॉलीवुड हर साल करीब दो हजार फिल्में बना रहा है. सोचा जा सकता है कि यदि रवि वर्मा ने फाल्के की मदद नहीं की होती तो क्या होता. हो सकता है भारतीय सिनेमा के पितामह के तौर पर फाल्के के बजाय किसी और का नाम इतिहास में दर्ज होता.
राजा रवि वर्मा को भी कुछ वही परेशानी झेलनी पड़ी थी जो मकबूल फिदा हुसैन ने झेली. वैसे भी वह 125 साल पहले का भारत था. उन पर आरोप लगे थे कि उन्होंने उर्वशी, रंभा जैसी अप्सराओं की अर्द्धनग्न तस्वीरें बनाईं. कई लोगों ने इसे हिंदू धर्म का अपमान माना. उन पर देश में कई जगह सालों तक मुकदमे चले. इसमें रवि वर्मा का काफी आर्थिक नुकसान हुआ और उन्हें काफी मानसिक प्रताड़ना भी झेलनी पड़ी.
बताते हैं कि उनसे नाराज लोगों ने उनकी मुंबई स्थित प्रेस को जला दिया था. इस अग्निकांड में न केवल मशीन बल्कि उनके कई बहुमूल्य चित्र भी जल गए. हालांकि कई इस बात को सच नहीं मानते. उनके मुताबिक प्रेस में घाटा होने पर उन्होंने उसे किसी जर्मन चित्रकार को बेच दिया था.
राजा रवि वर्मा पर एक और आरोप लगाया गया कि सरस्वती और लक्ष्मी जैसे कई हिंदू देवियों का चेहरा उनकी प्रेमिका सुगंधा से मिलता है. लोग कहते हैं कि रवि वर्मा अपने चित्र और पोर्ट्रेट के लिए सुगंधा की ही सहायता लिया करते थे. सुगंधा नामक यह लड़की किसी वेश्या की बेटी भी बताई गई. कट्टरपंथियों ने इसे लेकर उन पर हिंदू धर्म को अपवित्र करने का आरोप लगाया. इस मामले को लेकर भी काफी दिनों तक उन्हें मुसीबतें झेलनी पड़ी.
कई आलोचकों का मानना है कि राजा रवि वर्मा ने धर्म का सहारा लेकर अपनी कला चमकायी. उनके मुताबिक बेशक उनकी पेंटिंग्स सुंदर होती थीं लेकिन वे लोकप्रिय इसलिए हुईं कि वे धार्मिक और मिथकीय पात्र थे, जो पहले से मशहूर थे. अबनींद्रनाथ टैगोर सहित बंगाल स्कूल के कई चित्रकारों ने राजा रवि वर्मा को तो चित्रकार मानने से ही इनकार कर दिया क्योंकि वे यूरोपीय तकनीक से भारतीय चरित्रों के चित्र बनाते थे. बहरहाल, यह तो सब मानते हैं कि भारत में उनके जितना लोकप्रिय दूसरा चित्रकार अब तक नहीं हुआ.
राजा रवि वर्मा को 56 साल की उम्र में 1904 में तब देश का शीर्ष सम्मान ‘केसर-ए-हिंद’ दिया गया था. यह सम्मान आज के भारत-रत्न की तरह माना जाता था. यह सम्मान पाने वाले राजा रवि वर्मा पहले कलाकार थे. उस महान शख्सियत के कद का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है.
- संजय सिंह
नोट : राजा रवि वर्मा के जीवन-चरित्र को आधार बनाकर एक फिल्म बनाई गई है – रंग-रसिया.
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