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रेलवे सुरक्षा और निजीकरण

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रेलवे सुरक्षा और निजीकरण

गुरूचरण सिंह

बड़े-बडे़ दावों के बावजूद, रेलवे सुरक्षा एनडीए और यूपीए दोनों की ही प्राथमिकता सूची के काफी निचले पायदान पर रही है. भाजपा यूपीए सरकार पर अक्सर यह आरोप लगाती रही है कि उसने सस्ती लोकप्रियता के लिए रेलभाड़ा नहीं बढ़ाया, लोकलुभावन घोषणाएं करते हुए बेतहाशा नई गाडियां चलाई जिसके चलते सुरक्षा के मामले में लापरवाही बरती गई. हालांकि कुछ महत्वपूर्ण तकनीकी पहलों का श्रेय तो यूपीए को अवश्य दिया जा सकता है क्योंकि सेवाकाल के अंतिम पांच वर्षों में मैं भी इसका साक्षी रहा हूं लेकिन सच तो फिर भी यही है कि अक्सर इस सवाल को हाशिए में धकेल दिया जाता है.

जहां तक भाजपा का सवाल है, तो जानीवाकर के मशहूर गीत ‘लाख दु:खों की एक दवा है’ की तरह उसके पास भी हर मर्ज का एक ही रामबाण इलाज है निजीकरण. होगा रेलवे एक सामाजिक जिम्मेदारी, होगा वह अर्थव्यवस्था की लाइफ लाइन !! लेकिन झाड़ू लगाना, रेल चलाना सरकार की जिम्मेदारी थोड़ी न है. सरकार की भूमिका तो एक मैनेजर की है. वैसे भी रेलवे की बहुत-सी परिसंपत्तियां बेकार पड़ी है, उन्हें बेच कर ‘विकास कार्यों’ में लगाया जा सकता है और सरकार है भी जल्दी में ऐसा करने के लिए !! रेलवे बजट को आम बजट का हिस्सा बना देने से ही रेलवे के संबंध में सरकारी रवैया तो समझ आ ही जाता है. रेलवे अब एक स्वायत्त संस्था नहीं, मात्र एक सरकारी विभाग रह गया है.

मेरे एक अजीज़ सहयोगी ने रेल कारखानों के बारे में एक सूचना दी है. अभी सेवा में है इसलिए उसका नाम जानबूझकर शेयर नहीं कर रहा हूं. सूचना यह है कि निम्न रेल उत्पादन ईकाइयों को निगम बनाया जा रहा है :

° चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स, आसनसोल
° डीजल रेल इंजन कारखाना, वाराणसी
° इंटीग्रल कोच फैक्ट्री, चेन्नई
° रेल कोच फैक्ट्री, कपूरथला
° मॉडर्न कोच फैक्ट्री, रायबरेली
° व्हील एंड एक्सल प्लांट, बंगलुरू
° डीजल मॉडर्नाइजेशन वर्क्स, पटियाला

सरकार की सोच है कि इन्हें कार्यकुशल बनाने के लिए रेलवे बोर्ड पर उनकी निर्भरता को समाप्त करना आवश्यक है. ऐसा हो जाने पर आयात निर्यात करने या माल खरीदने बेचने संबंधी फ़ैसला वे खुद ले सकेंगी और स्वायत्त इकाई बन जाने पर ये इकाइयां सरकार की जिम्मेदारी भी नहीं रहेंगी. अच्छा लगता है सुनना चुनींदा शब्दों में फैसले के पीछे का मकसद, बशर्ते आपको उस पर विश्वास भी हो. पिछले छः बरसों का अनुभव तो विश्वास न करने के पक्ष में खड़ा हुआ ही दिखाई देता है.

मौजूदा व्यवस्था के मुताबिक रेलवे का अफसर इनके जीएम के रूप में काम करता है. निगमीकरण के बाद वह सीईओ बन जाएगा और ऐसा होने पर जरूरी नहीं कि वह रेलवे का अफसर ही रहे और रेल कार्य संस्कृति से जुड़ा हुआ हो लेकिन असल समस्या तो अधिकारियों की नहीं कर्मचारियों की है. निगम बनने के बाद इनके कर्मचारी भी रेलवे के कर्मचारी नहीं रहेंगे और न ही उन पर रेल सेवा अधिनियम लागू होगा; सेवा शर्तें बदल जाएंगी, पेंशन पे स्केल, सुविधाएं सब बदल जाएगा. संभव है बहुत से लोगों को कांट्रेक्ट लेबर के रूप में काम करना पड़े. कहने का मतलब यह कि उन्हें अब निगम के अपने नियमों के तहत काम करना होगा.

इन उत्पादन इकाइयों के कर्मचारी सरकार की मंशा पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं – केवल उन्हीं इकाइयों का निगमीकरण क्यों किया जा रहा है जिनके पास बहुत अधिक जमीन और अरबों की मशीनरी है ? नियम तो सभी पर बराबर लागू होना चाहिए !! जिन कर्मचारियों ने रेल सेवा के रूप में काम करने को तरजीह दी थी, सेवाकाल के दौरान ही उनकी सेवा शर्तों को कैसे बदला जा सकता है ? सच्चाई तो यह कि इन इकाइयों को निगम बनाना इनके निजीकरण का पहला चरण है !

कुछ गलत भी नहीं कह रहे हैं कर्मचारी !!!

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