विनय ओसवाल, वरिष्ठ पत्रकार व राजनैतिक विश्लेषक
लंगड़ा कर चलने वाले विकास दुबे को हथियार छीन कर भागता हुआ बता पुलिस ने गोली मारकर मौत के मुंंह में पहुंचा दिया और फिर उसकी मौत के बाद उसके आपराधिक जीवन की दास्तान आजकल, परत दर परत सब के सामने परोसी जा रही है. सिर्फ उस दास्तान को जानकर पुलिस के इस ‘एनकाउन्टर की करतूत’ को कौन गलत बताएगा ?
पर पुलिस उसका जो लम्बा आपराधिक इतिहास बता रही है, उसमें अनेकों वो जघन्य अपराध भी शामिल हैं जिन्हें पुलिस ने अगर ईमानदारी से अदालत में सिद्ध किया होता, तो कानून विकास दुबे को बहुत पहले ही फांसी पर चढ़ा चुका होता. 8 पुलिस वालों की हत्या करने के लिए वह जिंदा ही नहीं होता.
सच तो यह है कि विकास दुबे को मार कर पुलिस ने अपनी नाकामी, सत्ता, राजनेताओं और नौकरशाहों के नापाक गठजोड़ के लंबे इतिहास पर ही पर्दा डाल दिया है. समाज हमेशा ही जघन्य अपराधिक वारदातों के लिए अकेले विकास दुबे जैसे अपराधियों को जिम्मेदार मान पुलिस की पीठ थपथपा संतोष की सांस लेता रहा है. राजनेता कुछ समय तक पुलिस व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता पर लम्बे चौड़े गर्मागर्म भाषण देते रहेंगे, अख़बारों में विकास दुबे के जघन्य अपराधों की स्टोरियां छपती रहेंगी और फिर सब कुछ सामान्य हो जाएगा.
प्रकाश सिंह जैसे पुलिस अधिकारी पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए अनेक सुझाव हीं नहीं देते अपितु जब सरकार उन्हें लागू नहीं करती तो सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाते हैं. उनकी अपील पर 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को सुधारों को लागू करने के लिए आदेश भी पारित किया था, जिसे ‘लुंज-पुंज यथास्थितिवादी व्यवस्था’ अमल में लाने के बजाय अलमारी के हवाले कर देती है, और कानों में रूई ठूंस शांत बैठ जाती है.
ठीक वैसे ही जैसे वर्ष 1993 में ‘व्यवस्था के इस षड्यंत्र’ पर पड़े पर्दे को उठाने के लिए तत्कालीन पी. वी. नरसिम्हा राव सरकार ने गृह सचिव एन. एन. वोरा के नेतृत्व में गठित समिति की 100 पन्नों की पूरी रिपोर्ट को खुद नरसिम्हा राव सरकार ने कभी सार्वजनिक नही किया.
बहुत दबाव पड़ने पर वर्ष 1995 में इस रिपोर्ट के मात्र 12 पन्नों को ही प्रकाशित किया. रिपोर्ट के उस हिस्से को जिसमें रॉ, आईबी, सीबीआई, और तमाम जांच एजेंसियों की उन टिप्पणियों को जिनमें राजनेताओं, नौकरशाही और सत्ता की अपराधियों के साथ सांठ-गांठ को तार-तार किया गया है, को नरसिम्हा राव सरकार ने भी प्रकाशित नही किया.
1997 में सत्ता में आई गैर कांग्रेसी सरकार पर जब बहुत दबाव पड़ा तो वह सुप्रीम कोर्ट की शरण में चली गई और कहा कि ‘रिपोर्ट में रॉ, सीबीआई, आईबी आदि विभागों के अधिकारियों की टिप्पणियों और अनेक्सचरों में अत्यंत संवेदनशील खुलासे हैं जिन्हें सार्वजनिक करना देश की सुरक्षा के हित में नही होगा.’
सुप्रीम कोर्ट ने भी यह निर्णय सरकार पर ही छोड़ दिया कि वह रिपोर्ट का जितना हिस्सा सार्वजनिक करना चाहे उतना ही करे, यानी सत्ता, राजनेता, अपराधी, नौकरशाही और पुलिस व्यवस्था के नापाक गठ-जोड़ का रहस्य सदा सदा के लिए दफन हो गया.
लेकिन यह जानना विस्मयकारी होगा कि भ्रष्टाचार को जड़ से खतम करने का परचम उठाये सत्ता में बैठी मोदी सरकार ने भी अलमारी में बंद रिपोर्ट की धूल झाड़ उसे सार्वजनिक नहीं किया. हालिया स्थिति यह है कि इस रिपोर्ट से जुड़े सभी विभाग रिपोर्ट की जानकारी होने से भी इंकार करने लगे हैं.
मोदी सरकार का इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं करना इस सन्देह को मजबूत करता है कि वह भी पिछली सरकारों की तरह इस बात में विश्वास करती है कि ‘दुर्दांत अपराधियों को संरक्षण देने वाली व्यवस्था’ की जड़ों को खाद-पानी दिए बिना, सत्ता कायम ही नहीं रह सकती.
इन सब के पीछे छिपा मूल उद्देश्य तो समाज की उस ‘व्यवस्था’ के तिलिस्म की रक्षा करना है, जो विकास दुबे जैसे करिश्माई बाहुबली पैदा करती है.
यह दर्शाता है कि विकास दुबे को जो व्यवस्था संरक्षण देती है, वह वर्तमान मोदी सरकार की भ्रष्टाचार की परिभाषा में नहीं आती है. एक विकास दुबे मारा गया है वहीं विकास दुबे से भी ज्यादा दुर्दांत सैंकड़ों अपराधी आज भी राजनीति में सक्रिय हैं, जो जेल के सींकचों के पीछे से चुनाव लड़ते और जीतते हैं.
इस सरकार की निगाह में तो वरवारा राव, आनंद तेलतुंंबड़े, गौतम नवलखा, जी. एन. साईंबाबा, अरुण फेरीरा, सुधा भारद्वाज, गोंजालविज, रोना विल्सन, सुरेन्द्र गाडलिंग, महेश राउत, सुधीर धवले, शरजील उस्मानी, काफील खान, शोमा सेन जैसे अन्तराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त कवि, वरिष्ठ नौकरशाह, पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता आदि-आदि जघन्य अपराधी हैं, जिन्हें शहरी नक्सलवादी बता जेल में डाल दिया जाता है और सुप्रीम कोर्ट से भी उन्हें जमानत नही मिलती. अगर निचली अदालतें जमानत देती भी है तो सुप्रीम कोर्ट उस जमानत को रद्द कर देती है.
जबकि विकास दुबे भाजपा सरकार में दर्जा प्राप्त मन्त्री की दिनदहाड़े थाने में तीस लोगों की मौजूदगी में हत्या कर देता है और निचली अदालत ही आनन-फानन में उसे जमानत दे देती है और सरकार उसे पालती-पोसती है. अब जब सरकार ने उसकी हत्या कर दी है तब उसके जगह पर नये अपराधी गिरोह को पैदा कर रही है. इस प्रकरण में मजेदार तथ्य यह है कि विकास दुबे गैंग के जिन दो गुर्गों गुड्डन त्रिवेदी और सोनू काे महाराष्ट्र एटीएस ने पकड़ा था, उत्तर प्रदेश पुलिस ने दोनों को क्लीनचिट दे दी.
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