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पब्लिक सेक्टर के प्राइवेटाइजेशन का तार्किक विस्तार : क्यों न सरकार को प्राइवेटाइज कर दिया जाए ?

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पब्लिक सेक्टर के प्राइवेटाइजेशन का तार्किक विस्तार : क्यों न सरकार को प्राइवेटाइज कर दिया जाए ?

देश की संपति बेचे जाने पर आनंद तेलतुम्बडे ने मुंबई के तलोजा जेल से पत्र लिखा है. ‘द कारंवा’ में छपे इस पत्र को मैंने इस अंदाज़ में अनुवाद करने की कोशिश की है कि जो आनंद तेलतुम्बडे कहना चाहते हैं, उसकी तासीर वही बनी रहे. प्रोफेसर तेलतुम्बडे भीमा कोरे गांव मामले में UAPA चार्ज लगाने जाने के बाद से ट्रायल के इंतज़ार में हैं. वे पब्लिक सेक्टर के प्राइवेटाइजेशन पर लिखते हैं –

पब्लिक सेक्टर यूनिट को प्राइवेटाइज करने को लेकर मोदी सरकार के समर्थन में चल रही बहस इस छल्ले के कोर पर घूम रही है कि प्राइवेट सेक्टर ज्यादा रिजल्ट ओरिएंटेड है, यानी के यह पब्लिक सेक्टर के मुकाबले बेहतरी से काम करता है. ऐसे तर्क का तार्किक विस्तार यह भी हो सकता है, तो फिर क्यों न सरकार को प्राइवेटाइज कर दिया जाए ?(Why not privatise the government itself ?)

प्राइवेटाइजेशन की वकालत में इनके समर्थक याद करने की मुद्रा में कहते हैं, ‘निजी क्षेत्र का पक्षधर होने से अमेरिका एक वैश्विक आर्थिक शक्ति के रूप में विकसित हुआ, जबकि यूनाइटेड किंगडम, जो कि सार्वजनिक क्षेत्र का पक्षधर था, 1980 के दशक के अंत तक दिवालिया हो गया’ … लेकिन वे भूल जाते हैं कि जब पूंजीवाद (निजी पूंजीवाद पढ़ा जाए) 1929 के आर्थिक संकट में मृत्यु शैय्या पर धकेल दिया गया था तो उसे सार्वजनिक निवेश के कीनसियन नुस्खे ने ही बचाया था. इसी डॉक्टरी नुस्खे के पर्चे पर आगे चल कर दुनिया भर में बड़े पैमाने पर पब्लिक सेक्टर का उभार हुआ, जिस पर 1980 के आस-पास नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों ने सवाल खड़े करना शुरू कर दिया था.

यह भी तथ्य है कि नेहरू के समाजवादी मॉड्यूल ने मिक्सड ईकोनोमी के तहत पब्लिक सेक्टर को कमांडिंग भूमिका में रखा और लाइसेंस राज पर जोर दिया था. इसलिए जब 1980 के दशक में भारत में उदारीकरण होना शुरू हुआ तो निजी क्षेत्र प्रदर्शन में सार्वजनिक क्षेत्र से आगे निकल गया. लेकिन इतिहास के इस धुंधले पड़ाव में भी याद रखने की जरूरत है कि इसके पीछे नेहरू उतने नहीं थे जितना कि 1944 का बॉम्बे प्लान था. यह उस समय के देश के आठ प्रमुख पूंजीपतियों द्वारा तैयार किया गया था जिसने बुनियादी निवेश में भारी सार्वजनिक निवेश का प्रस्ताव रखा था. राजनीतिक रूप से, इस योजना ने तत्कालीन सरकार के लिए एक समाजवादी बयानबाजी के रूप में काम किया था.

रूस और चीन की अर्थव्यवस्थाओं के बारे में पढ़ते हुए यह याद रखना चाहिए कि उनके यहां हुए निजीकरण की सफलता उनके PSE के बुनियादी ढांचे के कारण भी थी. इसलिए ऐसी सतही ऐतिहासिक डेटा से तर्क में जीता तो जा सकता है लेकिन अमली जामा पहनाने में सफलता नहीं पायी जा सकती. यह कहा जा सकता है कि किसी उद्यम को अगर कंट्रॉल से छूट दे दी जाए तो निश्चित रूप से उसके आउटपुट में पब्लिक सेक्टर की तुलना में अधिक दक्षता होगी. लेकिन जब कोई प्राइवेट सेक्टर की कथित श्रेष्ठता को प्रदर्शित करने के लिए मन मुताबिक डेटा देता हो तो उन्हें यह भी बताना चाहिए कि प्राइवेट सेक्टर को कितने टैक्स और दूसरी तरह के छूट मिलते हैं, और प्राइवेट प्लयेर्स पर पब्लिक सेक्टर बैंक की कितनी देनदारी है.

1995 में, तेल उद्योग के नियंत्रण पर स्टडी ग्रुप के एक सदस्य के रूप में, मैंन तुलनात्मक प्रदर्शन दिखाने के लिए तेल और प्राकृतिक गैस की सार्वजनिक उपक्रम और वैश्विक तेल की बड़ी कंपनियों का अध्ययन किया था. लेकिन हमारी टीम को कोई ऐसा साफ अंतर नहीं मिला जिससे सरकार को असुविधा होती. उदारीकरण के बाद, जब सरकार ने नकद-समृद्ध पीएसई के बोर्डों को अधिक शक्ति दी, तो तेल कंपनियां निजी साझेदारों के साथ दर्जनों संयुक्त उद्यम बनाने के लिए दौड़-भाग में लग गई. तब पीएसई इक्विटी को सख्ती से 50 फीसदी तक रखने का प्रावधान था. कुछ ही वर्षों के भीतर, राइट ऑफ़ के बाद इनमें से कुछ को छोड़कर सभी उपक्रम खत्म हो गई. इसलिए, कोई भी निर्णायक सबूत नहीं है कि निजी उद्यम पीएसई की तुलना में अधिक कुशल है.

इसमें सबसे महत्वपूर्ण फैक्टर दक्षता की जगह प्रभावशीलता है जो बहस से गायब है. गायब किया गया यह शब्द इसलिए भी विशिष्ट है क्योंकि पारंपरिक बिजनेस मैनेजमेंट में भी दक्षता, प्रभावशीलता के पैरामीटर के बिना वैध नहीं होता. यह किसी भी उद्यम के लक्ष्य को पूरा करने के लिए जरूरी है. ऐसे में एक उद्यम जो अल्पावधि में पैसा कमाता हो लेकिन रणनीतिक दिशाओं पर लड़खड़ा जाए, सही नहीं माना जाता है. इसी तरह वह अर्थव्यवस्था जो अपने GDP में बड़ी छलांग लगाती हो लेकिन अपने नागरिकों को बुनियादी स्वतंत्रता, स्वास्थ्य, शिक्षा और आजीविका पप्रदान करने में विफल रहता हो, अच्छा नहीं माना जाता.

यदि हम GDP को बढ़ाने के लिए अर्थव्यवस्था को प्राइवेट हाथ में सौंप देते हैं, तो हो सकता है कि GDP अपने अधिकतम स्तरों तक बढ़ भी जाए. लेकिन क्या यह एक राष्ट्र के रूप में हमारे उद्देश्य को पूरा करेगा ? अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को संविधान के विजन से अलग नहीं किया जा सकता, संविधान की प्रस्तावना और आर्टिकल में इसका उल्लेख है. और सबसे जरूरी तौर पर यह राज्य के नीति निर्देशक तत्व (directive principles of state policy) में शामिल है जो राज्य को ‘लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने और सुरक्षित रूप से संरक्षित करने का प्रयास करने के साथ ही एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था के निर्माण का निर्देश देता है जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, राष्ट्रीय जीवन के सभी संस्थानों में शामिल हो’ … एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था जो स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय पर आधारित हो जिसका स्वप्न बाबा साहब ने संविधान की प्रस्तावना में उकेरा है.

हालांकि इस बात का कोई निर्णायक प्रमाण नहीं है कि निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में अधिक कुशल है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह भारत के आर्थिक विकास की प्रभावशीलता की कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता है.

  • रिजवान रहमान

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ROHIT SHARMA

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