समाज में नैतिक रूप से बदनाम हो चुका पुलिस का पेशा अपना रहे व्यक्ति एक मनुष्य के तौर पर खुद भी परेशान है. अब यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं रह गया है जब पुलिस विभाग में काम रहे व्यक्ति को यह पुलिस विभाग और सरकारी तंत्र अनैतिक होने के लिए मजबूर करता है. यही नहीं यह विभाग इतना ज्यादा अनैतिक हो चुका है कि ईमानदार पुलिसकर्मियों से लेकर ईमानदार अधिकारी तक को या तो बेईमान होने पर मजबूर किया जाता है अथवा उसे बहिष्कृत कर दिया जाता है. ऐसे अनेक उदाहरण हमारे जेहन में होते हैं जब ईमानदार पुलिस व उनके अधिकारियों को अपनी ईमानदारी की कीमत चुकानी पड़ी है. मैग्सेसे अवार्ड प्राप्त जन-पत्रकार रविश कुमार इन सिपाहियों की पीड़ा को साझा कर रहे हैं.
अमानवीय हालात में रह रहे सिपाहियों से मानवीयता की कल्पना कैसी ?
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के सिपाही मुझे पत्र लिख रहे हैं. उन पत्रों को पढ़ने से पहले ही सिपाही बंधुओं की ज़िंदगी का अंदाज़ा है. अच्छी बात यह है कि उनके भीतर अपनी ज़िंदगी की हालत को लेकर चेतना जागृत हो रही है. यह सही है कि हमारी पुलिस व्यवस्था अमानवीय है और अपने कुकृत्यों के ज़रिए लोगों के जीवन में भयावह पीड़ा पैदा करती है लेकिन यह भी सही है कि इसी पुलिस व्यवस्था में पुलिस के लोग भी अमानवीय जीवन झेल रहे हैं. उनकी अनैतिकता सिर्फ आम लोगों को पीड़ित नहीं कर रही है बल्कि वे ख़ुद अपनी अनैतिकता के शिकार हैं. झूठ, भ्रष्टाचार और लालच ने उनकी ज़िंदगी में कोई सुख शांति नहीं दी है. दशकों के अनुभव में अगर वे ईमानदारी से झांक लें तो बात समझ आएगी कि इससे उन्हें कुछ नहीं मिला. समाज को भी नहीं मिला. उनके अपने परिवार को नहीं मिला. मेरी राय में अगर उनकी यह चेतना इस अनैतिकता से मुक्ति की तरफ ले जाती है तभी वे अपने लिए सुखी जीवन रच पाएंगे, वरना उनके दुखों का अंत नहीं होगा.
उत्तर प्रदेश के एक सिपाही की यह बात बिल्कुल सही है जब वह 1861 के पुलिस एक्ट से उपजी विसंगतियों की तरफ इशारा करते हुए लिखते हैं कि ‘आज भी पुलिस विभाग में दमनकारी नीति से पुलिस विभाग के उच्चाधिकारी से लेकर सिपाही तक कोई नहीं बच पाता है. यह अफसोसजनक है कि स्वतंत्रता के 72 साल बाद भी पुलिसकर्मियों की बेहतरी के लिए किसी भी राजनीतिक पार्टी की सरकार ने सार्थक प्रयास नहीं किया. पुलिस विभाग में आज परिस्थिति यह है कि प्रत्येक कर्मचारी असंतुष्ट है.’ एक सिपाही द्वारा लिखा यह पत्र दिलासा दे रहा है कि लोग अपने स्तर पर अभिव्यक्ति की क्षमता का विस्तार कर रहे हैं. अपने शोषण के कारणों को समझने की कोशिश कर रहे हैं. मुझे गर्व है कि उत्तर प्रदेश के इस सिपाही के पत्र से काफी कुछ सीखने को मिला है. काश मैं नाम ले पाता परंतु नालायक अफसरों की नाराज़गी उसे न झेलनी पड़े इसलिए नाम नहीं दे रहा हूं.
‘एक छोटा सा उदाहरण एक सिपाही को इस युग में भी साइकिल भत्ता दिया जा रहा है. इस बात को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर गृह सचिव तक जानते हैं कि इस युग में एक सिपाही के लिए साइकिल से ड्यूटी संभव ही नहीं है. फिर सिपाही को साइकिल भत्ता क्यों ? इसी प्रकार एक उप निरीक्षक को जितना वाहन भत्ता दिया जाता है, उतने वाहन भत्ते में संभव ही नहीं कि वह अपने क्षेत्र का एक सप्ताह में भ्रमण कर ले. थाने की जीप का डीज़ल भी थानाध्यक्ष को अपनी जेब से डलवाना पड़ता है.’
सिपाही बंधु के पत्र के इस हिस्से से भी सहमत हूं. मेरे कई मित्र जो सब इंस्पेक्टर हैं या थानाध्यक्ष हैं बताते हैं कि इस तरह के इंतज़ाम के लिए न चाहते हुए भी अनैतिक कार्य करने के लिए मजबूर हैं. बेशक सिस्टम ही मजबूर करता होगा. वरना वो मौके पर जीप लेकर न पहुंचे तो जनता गाली देगी और सस्पेंड भी होना पड़ सकता है. पुलिस विभाग मजबूर करता है कि उसकी पुलिस कभी ईमानदार ही न रहे. मैं समझ सकता हूं कि इसमें ईमानदार पुलिसकर्मी को कितनी मुश्किल होती होगी या फिर सिस्टम के कारण जो मजबूर होता है कि कहीं से जुगाड़कर या वसूली कर डीज़ल भरवाना ही है, वे भी अपने घर जाते समय शर्मिंदा होते होंगे. न चाहते हुए भी उनकी आत्मा पर बोझ बनता है. जो लोग आदतन भ्रष्ट हैं और आकंठ डूबे हैं, वे मनोरोगी होते हैं, उनका कुछ नहीं किया जा सकता लेकिन सिस्टम तो ऐसा होना चाहिए जहां ईमानदारी को बढ़ावा मिले.
आज पुलिसकर्मी की जनछवि खराब हो चुकी है, जिसकी कीमत सिपाही भी चुका रहे हैं. इसका लाभ उठाकर सरकारें उनका और शोषण कर रही हैं. उन्हें पता है कि सिपाही आंदोलन करेगा तो जनता उल्टे उन्हें कोसेगी. यूपी वाले सिपाही बंधु के पत्र में ख़राब और गंदे बैरकों का भी ज़िक्र है. एक बार एक ईमानदार आईपीएस का तबादला नोएडा हुआ. उनकी पत्नी ने मुझे मैसेज किया कि बाकी शहरों की तुलना में काफी महंगा है. यहां दाल बहुत महंगी है. पता नहीं नोएडा के सिपाही कैसे रहते होंगे. उनके लिए इस शहर में सम्मानित ज़िंदगी असंभव है. परिवार तो रख ही नहीं सकते हैं. ‘सिपाही के बैरकों का बुरा हाल है. अधिकतर पुलिसकर्मियों के परिवार उनके साथ नहीं रहते क्योंकि उनको अधिकतर मकान मालिक किराये पर मकान नहीं देते हैं. थकान भरी ड्यूटी करने के बाद तमाम पुलिसकर्मियों को ढंग का खाना भी नहीं मिलता है.’
इस पत्र ने मुझे आश्वस्त किया है कि पुलिसकर्मियों के भीतर चेतना जागृत हो रही है. उम्मीद है कि वे इसे उच्च स्तर तक ले जाएंगे. समाज में पीड़ा का समंदर नज़र आता है. इस पीड़ा से मुक्ति तभी संभव है, जब हम सब अपनी पुरानी बेइमानियों को स्वीकार करें, उनका त्याग करें और सत्याग्रह के मार्ग पर चलें. बग़ैर सत्य का साथ दिए आप अपने लिए न्यायसंगत व्यवस्था और जीवन की मांग नहीं कर सकते. हासिल तो दूर की बात है. यूपी के पुलिसकर्मी जब यह लेख पढ़ें तो उस पर सोचें. वे धीरे-धीरे ठेला और दुकानों से वसूली छोड़ें. अपने साहब के अनैतिक आदेशों का सत्याग्रह के तरीके से बहिष्कार करें. मना करें. कहें कि वे ईमानदार और साधारण जीवन जीना चाहते हैं. वसूली की ज़िंदगी भी बदतर ही है. यह काम जल्दी नहीं होगा. कई साल लगेंगे. जब तक यह नहीं होगा उन्हें ज़िंदगी में आनंद और सम्मान नहीं मिलेगा, जिसके वे हकदार हैं.
मध्य प्रदेश से भी बहुत पत्र आ रहे हैं. वहां कमलनाथ सरकार सिपाहियों से किए गए वादों को पूरा नहीं कर रही है जबकि कांग्रेस ने घोषणा पत्र में लिखकर दिया था कि सत्ता में आते ही सिपाहियों के स्केल को बढ़ाएगी. कांग्रेस ने वादा किया था कि सिपाही बंधुओं के स्केल को 1900 से बढ़ाकर 2400 करेगी, जो अभी तक नहीं कर सकी है. इस वक्त सिपाही बंधुओं को आवास भत्ता 400-500 मिलता है, इतने में तो गराज भी न मिले. साइकिल भत्ता 18 रुपये प्रति माह दिया जाता है, जो वाकई हास्यास्पद है. कम से कम 5000 रुपया मिलना चाहिए. यही नहीं वादा किया था कि उन्हें नियमित अवकाश मिलेगा, जो कि नहीं दिया जा रहा है. सिपाही बंधुओं का भी परिवार है. वो महीनों तक छुट्टी पर नहीं जा पाते हैं. उन्हें क्यों नहीं छुट्टी मिलनी चाहिए. कांग्रेस सरकार को समझ लेना चाहिए कि वह अपने वादे से मुकरेगी तो फिर जनता उनकी तरफ नहीं देखेगी. मुख्यमंत्री कमलनाथ को सारा काम छोड़ कर सिपाही बंधुओं से किए गए वादे को पूरा करना चाहिए या नहीं तो उनसे झूठा वादा करने के लिए माफी मांगते हुए इस्तीफा दे देना चाहिए.
सिपाही बंधुओं से अपील है कि सबसे पहले वे अपने बैरकों की ख़राब हालत की तस्वीर खींच कर मुझे भेजें. अगर सरकार फेसबुक पर पोस्ट नहीं करने देती है, तो प्रिंट लेकर दीवारों पर चिपका दें और स्लोगन लिखें कि आपका सिपाही ऐसी हालत में रहता है. वो ख़ुद नरक भोगे और आप उससे स्वर्ग की उम्मीद करें, क्या यह न्यायसंगत है ? बाज़ार बाज़ार में यह पोस्टर चुपचाप चिपका आएं. इंस्पेक्टर भाई लोग भी यही करें. शादी ब्याह में जहां जाएं वहां लोगों की अपनी हालत बताते रहें. बताइये कि आपको किस तरह के शौचालय की सुविधा मिली है. पानी की सुविधा कैसी है. खाने की सुविधा कैसी है. परिवार किन हालात में रहता है. उन्हें यह भी सच बोलना होगा कि इस बुरी हालत में घूस या वसूली का पैसा कितना मददगार होता है. क्या उससे उनके जीवन में शांति आती है. सच बोलने का समय तय नहीं होता. आप अंत समय में भी सच बोल सकते हैं और जीवन के बीच में भी. आपका सच बोलना बहुत ज़रूरी है.
आपके साथ पूरा इंसाफ़ होना चाहिए और आपके सत्य से ही लोगों को इंसाफ़ मिलेगा. हम सभी को सिपाही बंधुओं को उनकी पीड़ा और झूठ की ज़िंदगी से बाहर लाने में मदद करनी चाहिए. उन्हें गले लगाने की ज़रुरत है. हम सबको सरकारों पर दबाव डालना चाहिए कि उन्हें हर महीने चार दिनों की छुट्टी मिले. सैलरी अच्छी मिले. रहने की सुविधा बेहतर हो. सिपाही हमारे ही परिवारों का हिस्सा होते हैं.
भारत भर के पुलिसकर्मी पीड़ादायक जीवन जी रहे हैं. वो यह भूल जाएं कि अख़बारों और चैनलों में ख़बरें चलवा कर उनकी पीड़ा का अंत होगा. सभी प्रदेश के सिपाहियों को जागृत होना होगा. ईमानदार होना होगा. अनैतिकता की जगह आत्मबल और नैतिकबल विकसित करना होगा. सबको एक साथ हाथ मिलाकर, एक सुर में आवाज़ उठानी होगी. आवाज़ उठे तो पटना में भी गूंजे, भोपाल में भी गूंजे और लखनऊ से लेकर दिल्ली और हरियाणा में भी.
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