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पंडित जवाहरलाल नेहरु और धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियां

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पंडित जवाहरलाल नेहरु और धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियां
पंडित जवाहरलाल नेहरु और धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियां
जगदीश्वर चतुर्वेदी

भारत जब आजाद हुआ तो उसकी नींव साम्प्रदायिक देश-विभाजन पर रखी गयी, फलतः साम्प्रदायिकता हमारे लोकतंत्र में अंतर्गृथित तत्व है. लोकतंत्र बचाना है तो इसके खिलाफ समझौताहीन रवैय्या रखना होगा. साम्प्रदायिकता के औजार हैं आक्रामकता और मेनीपुलेशन. इसने सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक संरचनाओं को गंभीरता से प्रभावित किया है. त्रासद पक्ष यह है कि हाल के वर्षों में साम्प्रदायिकताविरोधी चेतना का ह्रास हुआ है, खासकर आपातकाल के बाद पैदा हुए नागरिकों में यह फिनोमिना व्यापक रुप में नजर आता है.

साम्प्रदायिकता को हम तदर्थवादी और वोटवादी धर्मनिरपेक्ष कॉमनसेंस नजरिए से देखते हैं, फलतः यह भी कहने लगे हैं सभी राजनीतिक दल एक जैसे होते हैं. इस धारणा ने साम्प्रदायिक और गैर-साम्प्रदायिक दल के बीच के भेद को खत्म करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की है. जबकि सच यह है साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता एक ही चीज नहीं है.

साम्प्रदायिकदल और धर्मनिरपेक्षदल एक ही जैसे नहीं होते. हम इनमें समानताएं दर्शाने के लिए राजनीतिक एक्शन के बीच समानताएं बताने लगते हैं. राजनीतिक एक्शनों में समानताओं के आधार पर कोई भी निर्णय सही नहीं हो सकता. सवाल विचारधारा का है. साम्प्रदायिक विचारधारा और धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के नजरिए में समानता का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता बल्कि ये दोनों एक-दूसरे के अंतर्विरोधी हैं.

साम्प्रदायिकता को धर्मनिरपेक्ष कॉमनसेंस के जरिए अपदस्थ नहीं किया जा सकता. पंडित नेहरु का ‘विविधता में एकता’ का नारा धर्मनिरपेक्ष कॉमनसेंस केन्द्रित नारा था, जिसके आधार पर हम साम्प्रदायिकता को हाशिए पर ठेलने की कोशिश करते रहे हैं. यह सबसे असफल नारा साबित हुआ है. कायदे से ‘विविधता और लोकतंत्र’ के आधार पर समाज को संगठित किया जाता तो बेहतर सामाजिक-सांस्कृतिक परिणाम हासिल किए जा सकते थे.

‘विविधता में एकता’ के नाम पर साम्प्रदायिक ताकतों के प्रति नरम रुख

पंडित जवाहरलाल नेहरु ने आजादी के साथ ही ‘विविधता में एकता’ का नारा दिया. यह नारा सतह पर आकर्षक है लेकिन इसकी वैचारिक जड़ें खोखली हैं और इसमें राजनीतिक अवसरवाद की अनंत संभावनाएं हैं. आम तौर पर यह मान लिया गया कि पंडित नेहरु सही कह रहे हैं. लेकिन सच यह है ‘विविधता में एकता’ के नाम पर देश में समय–समय पर साम्प्रदायिक ताकतों के प्रति नरम रुख की कांग्रेस के अंदर से ही शुरुआत हुई.

मसलन्, महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर जब प्रतिबंध लगा दिया गया तो कायदे से यह प्रतिबंध हटाने की जरुरत नहीं थी, लेकिन यह जानते हुए भी कि संघ की विचारधारा क्या है, उस पर से प्रतिबंध हटा लिया गया, उसे खुलकर काम करने का मौका दिया गया.

सवाल यह है क्या साम्प्रदायिक संगठन को लोकतंत्र में काम करने की अनुमति देनी चाहिए ? लोकतंत्र में उन संगठनों के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए जो लोकतंत्र विरोधी आचरण करते हैं. साम्प्रदायिकता वस्तुतः लोकतंत्र विरोधी विचारधारा है और इसे हमने फलने-फूलने का अवसर देकर यह भावना पैदा की कि लोकतंत्र में सबके लिए समान अधिकार हैं.

यानी उन विचारधाराओं के लिए भी समान अधिकार हैं, जो लोकतंत्र को नहीं मानतीं और लोकतंत्र विरोधी आचरण करती हैं. सामाजिक कार्य हो या राजनीतिक कार्य हो, यदि उससे साम्प्रदायिकता फैलती है तो हमें उसे हर स्तर पर राजनीतिक और प्रशासनिक तौर पर रोकने के बारे में सोचना होगा.

पंडित नेहरु साध्य और साधन की एकता में गहरा विश्वास करते थे लेकिन आचरण करते समय साध्य-साधन के बीच में सामंजस्य रखने में एक सिरे से असफल रहे. मसलन् 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय रास्ता वे रास्ता चूक गए और आरएसएस से मदद मांग बैठे. उनके जमाने में ही गणतंत्र दिवस की परेड में संघ की टुकड़ी मार्च करते हुए दिल्ली में राजपथ पर निकली थी.

धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष पहली शर्त

कहने का आशय यह है कि धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष पहली शर्त है. इसी तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक आदेशों का ईमानदारी से पालन करना दूसरी शर्त है. पंडित नेहरु के शासन में आने के बाद लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति अ-सम्मान का भाव सबसे पहले पैदा हुआ.

केरल की पहली कम्युनिस्ट सरकार को जो 1957 में चुनकर आई थी, उसे 1959 में एक आंदोलन के बहाने उन्होंने गिरा दिया गया. जबकि यह सरकार पांच साल के लिए चुनकर आई थी. बाद के वर्षों में कांग्रेस ने इस तरह की अनेक गलतियां लगातार कीं.

कहने का तात्पर्य यह कि धर्मनिरपेक्षता का भविष्य दो बातों पर टिका है – पहला, साम्प्रदायिकता के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष, दूसरा, लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक आदेशों का अडिगभाव से पालन. भारत में साम्प्रदायिकता पर विचार करते समय यह भी ख्याल रखें कि साम्प्रदायिकता कभी भी पृथकतावाद या क्षेत्रीयतावाद में रुपान्तरित हो सकती है.

यही बात पृथकतावाद और क्षेत्रीयतावाद पर लागू होती है, वे कभी भी साम्प्रदायिक रंग में रुपान्तरित हो सकते हैं. इसी तरह राजनीति,राज्यसत्ता को धर्म और धार्मिकता से पूरी तरह विच्छिन्न किया जाय. धर्म और धार्मिकता के साथ इनका संबंध साम्प्रदायिकता के प्रचार-प्रसार में मदद करता है.

अतीत का मलबा साम्प्रदायिकता को ईंधन देता है

लोकतंत्र का स्वस्थ व्यवस्था के तौर पर विकास करने के लिए जरुरी है कि राजनीति से लेकर समाज तक सबको अतीत के बोझ से मुक्त करें. अतीत के मलबे के जरिए जनता में एकता कायम करने से साम्प्रदायिकता तात्कालिक तौर पर कमजोर होती दिखती है लेकिन वह कमजोर नहीं होती.

अतीत का मलबा साम्प्रदायिकता को ईंधन देता है, उसे दीर्घजीवी बनाता है. लोकतंत्र में अतीत प्रेम कैंसर है. इससे आप टाइमपास कर सकते हैं लेकिन सामाजिक विकास नहीं कर सकते. लोकतंत्र में अतीत को जानना चाहिए लेकिन अतीत को पाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए.

साम्प्रदायिक ताकतों ने अपने विकास के लिए अतीत के मसलों को औजार की तरह इस्तेमाल किया है. पंडित नेहरु ने लिखा है, ‘गुजरे जमाने का-उसकी अच्छाई और बुराई दोनों का ही-बोझ एक दबा देनेवाला और कभी–कभी दम घुटानेवाला बोझ है, खासकर हम लोगों के लिए, जो ऐसी पुरानी सभ्यता में पले हैं, जैसी चीन या हिंदुस्तान की है. जैसा कि नीत्शे ने कहा है – ‘न केवल सदियों का ज्ञान, बल्कि सदियों का पागलपन भी हममें फूट निकलता है. वारिस होना खतरनाक है.’

हमारी मुश्किल है कि हमने विरासत के नाम पर बहुत सारी चीजों का बोझ अपने लोकतंत्र पर लाद दिया है. लोकतंत्र को पुरानी चीजों का वारिस न बनाया जाय. लोकतांत्रिक मनुष्य को पुराने लबादों में न बांधा जाय, लोकतंत्र पर अतीत की विरासत का एक ही असर है और एक ही मूल्यवान चीज है जो हमें विरासत मिली है वह है शिरकत. लोकतंत्र शिरकत के जरिए विकास करता है. अतीत की चीजें भी मानवीय शिरकत से बनी थीं, हमें बाकी अतीत को उसके हाल पर छोड़कर आगे निकल जाना चाहिए.

पंडित नेहरु पर महात्मा गांधी का गहरा असर था और उन्होंने गांधी को ‘हिंदुस्तान की कहानी’ में उद्धृत किया है, लिखा, ‘मुझे गांधीजी के वे लफ्ज याद हैं, जो उन्होंने 7 अगस्त, 1942 की भविष्य–सूचक शाम को कहे थे-  दुनिया की आंखें अगरचे आज खून से लाल हैं, फिर भी हमें दुनिया का सामना शांत और साफ़ नज़रों से करना चाहिए.’

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ROHIT SHARMA

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