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कश्मीरी पंडितों का दर्द, कश्मीर का सच , कश्मीर फाइल, नरसंहार और फ़िल्म

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कश्मीरी पंडितों का दर्द, कश्मीर का सच , कश्मीर फाइल, नरसंहार और फ़िल्म
कश्मीरी पंडितों का दर्द, कश्मीर का सच , कश्मीर फाइल, नरसंहार और फ़िल्म
जगदीश्वर चतुर्वेदी

कश्मीर फाइल फ़िल्म के सिनेमा थियेटरों में रिलीज़ होने के बाद अचानक सारे देश में इस फ़िल्म और कश्मीरी पंडितों पर चर्चा हो रही है. यह समूची चर्चा कश्मीर के सम-सामयिक यथार्थ से आंखें छिपाकर हो रही है. कश्मीर का सम-सामयिक यथार्थ समग्रता में केन्द्र में रखकर ही इस फ़िल्म पर बातें की जानी चाहिए. यह फ़िल्म सच्चाई का दावा करती है. पीएम से लेकर अनेक भाजपा सीएम तक, भाजपा के मीडिया सैल से लेकर कश्मीरी पंडितों के विभिन्न संगठनों और विस्थापित कश्मीरियों और भाजपा के सूचना फ्लो की गिरफ़्त में क़ैद लोगों में इस फ़िल्म को लेकर अति-उत्साह देखने को मिल रहा है.

यह फेक उत्साह है और वर्चुअल रियलिटी के प्रौपेगैंडा मॉडल की देन है. इसका विस्थापित कश्मीरी पंडितों और कश्मीर की जनता की सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है. यह वैसा ही उत्साह है जैसा एक ज़माने में जब अमिताभ बच्चन अकेले बीस गुंडों को मारकर भगाता था तो सिनेमा हॉल में तालियां बजती थीं. यह निकम्मे -पराश्रित दर्शकों का उत्साह है जो यथार्थ को कम उसकी थ्रीलिंग फ़ीलिंग को अधिक महसूस करते हैं.

सच्चाई यह कि कश्मीर फाइल में कश्मीर की हक़ीक़त का एक छोटा अंश ही चित्रित हुआ है वह भी नाटकीयता, कृत्रिमता और मेलोड्रामा की शक्ल में. यह फ़िल्म कला के यथार्थवादी या वृत्तचित्र मानकों की एक सिरे से अनदेखी करके प्रौपेगैंडा मॉडल की मदद से बनायी गई है. यही वजह कि फ़िल्म देखने के बाद भाजपा-आरएसएस के अनुयायी और अधिक उन्मत्त और आक्रामक महसूस कर रहे हैं. यह कृत्रिम बहत्तर घंटे तक रहने वाला वर्चुअल उन्माद है.

फिल्म एक कला रुप है. कला रुपों में उन्माद पैदा करने की क्षमता नहीं होती. वृत्तचित्र और महाकाव्यात्मक यथार्थवादी फ़िल्म पद्धति और तकनीक शैली के आधार पर नरसंहार या मानवीय पलायन पर बनी फ़िल्में मन में, हृदय में पीड़ितों के प्रति सहानुभूति जगाने के साथ दर्शक को नफ़रत से मुक्त करती हैं. जबकि यह फ़िल्म नफ़रत से मुक्त नहीं करती. नफरत का विरेचन नहीं करती.

एक अन्य चीज है जिसे हमेशा में ध्यान में रखें फ़िल्म बनाते समय या उपन्यास-कहानी-कविता लिखते समय सामयिक विचारधारात्मक संघर्ष में रचनाकार-फिल्म निर्माता को अपनी पक्षधरता तय करनी होती है. यह काम वह सर्जनात्मक तरीक़ों से करता है. इस फ़िल्म के निर्माता ने नफ़रत के चित्रण तक सीमित रखकर असल में नफ़रत का नफ़रत में ही रुपान्तरण किया है.

फिल्म का मक़सद आनंद और मानवताबोध पैदा करना होता है लेकिन जो फ़िल्में उपभोग के लक्ष्य को केन्द्र में रखकर बनायी जाती हैं, वे मानवताबोध की बजाय उपभोग और दर्शकीय भावबोध पैदा करती हैं. कश्मीर फाइल बुनियादी तौर पर दर्शकीय भावबोध को केन्द्र में रखकर बनाई फ़िल्म है. इसका मूल मक़सद है मोदी सरकार के राजनीतिक लक्ष्यों की संगति में फ़िल्म के ज़रिए भाजपा की कश्मीरी पंडितों से संबंधित नीति को संप्रेषित करना. इस अर्थ में यह प्रौपेगैंडा फ़िल्म है.

कश्मीर फाइल का मक़सद मानवीय मूल्यों और कश्मीरियों में भाईचारा पैदा करना नहीं है. यह फ़िल्म कश्मीरी समाज की साझा मिश्रित संस्कृति को अस्वीकार करती है. विभाजन को प्रमुख मुद्दा बनाती है. यह फ़िल्म निर्मित यथार्थ की अभिव्यक्ति है. यथार्थ रीयल चरित्रों और उनकी रीयल भाषा, घटना से जुड़े सभी पक्षों की यथार्थवादी प्रस्तुतियों के बीच यह फ़िल्म विकसित नहीं होती. इस अर्थ में इस फ़िल्म रीयल पीड़ित व्यक्ति, रीयल स्थान और रीयल कश्मीरी या उर्दू भाषा का कहीं पर नामो-निशान नज़र नहीं आता. निर्मित यथार्थ और अभिनेताओं के अभिनय के आधार पर कश्मीरी पंडितों का कृत्रिम यथार्थ, कृत्रिम उत्पीड़न इसके केन्द्र में है. इसमें यथार्थ घटना स्थल की बजाय निर्मित घटना स्थल पर फ़िल्मी चालाकियों के ज़रिए फ़िल्मांकन किया गया है.

सवाल यह है कि फ़िल्मकार की समाज के प्रति कोई जवाबदेही या सामाजिक सद्भाव के निर्माण में कोई भूमिका है या नहीं ? जब फ़िल्म बनाते हैं तो जनता में सद्भाव बना रहे, प्रेम बना रहे, यह बुनियादी लक्ष्य हरेक फ़िल्ममेकर के सामने होना चाहिए. इन दिनों जिस तरह के हालात हैं उसमें यह फ़िल्म नफ़रत के सौदागरों के लिए ईंधन जुटाने का ही काम करेगी.

विगत सौ साल में भारत में कुछ संगठनों ने सामाजिक नफ़रत का इस कदर नियोजित विकास किया है कि आज समाज का कोई भी तबका इस नफ़रत के वायरस से अछूता नहीं है. इन संगठनों द्वारा नफरत या घृणा का प्रौपेगैंडा अहर्निश चलता रहा है, उसे न तो राज्य सरकारें रोक रही हैं और नहीं केन्द्र सरकार रोक रही है. स्थिति इस कदर भयावह है कि न्यायपालिका भी मूकदर्शक बनी बैठी है. संसद से लेकर सामान्य गृहिणी के जीवन तक नियोजित ढंग से नफ़रत के वायरस को पहुँचा दिया गया है.

आज भारत में सबसे ताकतवर मूल्य है नफ़रत. नफरत विचार है, नरसंहार उसका आचरण है. नफ़रत के सौदागर नफ़रत को एक संस्कार और आदत में रूपान्तरित करने में लगे हैं, समाज के बड़े हिस्से में इनको सफलता भी मिली है. यह प्रक्रिया अबाधित ढंग से जारी है. इसकी ओर गंभीरता से सन् 1947 के बाद से किसी ने ध्यान नहीं दिया. नफरत ही है जो रह-रहकर नरसंहार में अपने भावों और हिंसा की उग्रतम अभिव्यक्ति करती रही है.

नफरत आज जीवन में स्थायी भाव बन गई है, उसी तरह नरसंहार भी नियमित आचरण बन गए हैं. अब हमें नफ़रत और नरसंहार किसी से परेशानी या नफ़रत नहीं होती बल्कि चुपचाप दर्शक की तरह देखते हैं और बिना प्रतिवाद के जाने-अनजाने नफ़रत-नरसंहार का समय-समय पर अंग बनते रहे हैं.

नफरत और नरसंहार स्वतंत्र भारत का सबसे प्रभावशाली और सबसे कम नफ़रत किए जाने वाले फिनोमिना है. अधिकतर लोग नफरत और नरसंहार में मज़ा लेने लगे हैं या उसका समर्थन करने लगे हैं. यही नफ़रत-नरसंहार का तेज़ सूचना प्रवाह है जिसकी संगति में कश्मीर फाइल को क़ायदे से विश्लेषित किया जाना चाहिए.

सवाल यह है भारत में एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के लोगों से नफ़रत क्यों करने लगे ? हिन्दू-मुसलमानों में इतनी नफ़रत किसने पैदा की और क्यों पैदा की ? कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों के बीच में कश्मीर में किन ताक़तों ने सामाजिक विभाजन रेखा खींची ? आख़िरकार नफरत-नरसंहार के निर्माता अब तक अपने लक्ष्यों को हासिल करने में सफल कैसे रहे ? क्यों सभी संवैधानिक संस्थाएं उनसे डरती हैं ?

नफ़रत और नरसंहार जब सक्रिय होते हैं तो व्यवस्था या राजसत्ता इनके सामने एकदम निष्क्रिय क्यों हो जाती है. न्यायपालिका के हाथ-पैर ठंडे क्यों हो जाते हैं ? यही व्यापक कैनवास है जिसमें इस समय भारत का दर्शक जी रहा है. वह नफरत-नरसंहार के अबाधित सूचना फ्लो का शिकार है. कश्मीर फाइल के निर्माता ने चाहे जितने महान उद्देश्य से फ़िल्म बनायी हो लेकिन नफरत-नरसंहार के तानेबाने को चुनौती देने में असफल रहा है.

एक अन्य चीज है वह यह कि नफ़रत, सामाजिक विभाजन या नरसंहार या कश्मीरी पंडितों के कश्मीर पर पलायन फ़िल्म बनाते समय फ़िल्ममेकर अलगाववादी, आतंकवादी या साम्प्रदायिक ताक़तों के प्रति नफ़रत पैदा करता है या सहानुभूति पैदा करता है. अफ़सोस की बात है कि कश्मीर फाइल में सतह पर घृणा के ख़िलाफ़ फ़िल्म बनाने का दावा है, पर व्यवहार में यह फ़िल्म नफ़रत फैलाने वालों के प्रति सहानुभूति पैदा करती है.

नफरत फैलाने वाले किसी भी रंगत या विचारधारा के हों, वे ख़तरनाक होते हैं. यह फ़िल्म अपने उद्देश्य की हत्या स्वयं ही कर देती है. फिल्म की संरचना अ-कौशलपूर्ण ढंग से हॉलीवुड की नरसंहार पर बनी फ़िल्म क्लिंडर लिस्ट की थर्डग्रेड नक़ल करके हॉलीवुड पैटर्न पर बनाया गया है.

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