इन दो तस्वीरों को गौर से देखिए. पहला तस्वीर पहलू खान की है, जिसे भीड़ ने जय श्री नाम जैसे नारों के साथ गाय के नाम पर हत्या कर दी. दूसरी तस्वीर में मध्यप्रदेश के अशोक नगर जिले के निवासी असलम हैं. असलम भी पहलू की भांति ही ‘जय श्री राम’ के नारों तले हिन्दुत्ववादी आतंकवादी ताकतों के हाथों भीड़ के नाम पर हिंसा का शिकार होते-होते बचे. न केवल बचे ही वरन् अपने जीवन की रक्षा का अनुनय-विनय की सभी सीमाओं को पार कर लेने के बाद अपने बचाव में हमलावर हुए और दो हिन्दुत्वादी गुंडों को मौके पर ही मौत के घात उतार डाला और एक गुंडे को वेंटीलेटर पर मरनासन्न हालत में पहुंचा दिया. इसी तरह की एक घटना पश्चिम बंगाल में घटी थी, जिसमें आत्मरक्षा में उतर आये पीड़ित ने हमलावरों में से एक को मौत की नींद सुला दिया.
खैर, हमारा सवाल दूसरा है. हमारा सवाल यह है कि हिन्दुत्ववादी गुंडों के भीड़ द्वारा लगातार हत्या के पश्चात और भारतीय न्याय प्रणाली और पुलिसिया तंत्र की न्याय देने में नाकामी आखिर किस ओर ईशारा कर रही है ?
जब किसी इंसान की हत्या होती है, तब मरते समय उसके मन में एक संतोष होता है कि ‘मैं तो मर जाऊंगा परन्तु, भारतीय न्याय प्रणाली तुझे न्याय प्रदान करेगी और तुम्हें सजा मिलेगी.’ मृत के मन में यह संतोष इसलिए उत्पन्न होता है कि भारतीय संविधान के अधीन कार्यरत न्यायप्रणाली और पुलिसिया तंत्र पर उसे भरोसा होता है. वह उसका आदर करता है, और उसके सम्मान के लिए वह आखिरी दम तक अपना भरोसा कायम रखता है.
परन्तु, पहलू खान की हिन्दुत्ववादी गुंडों द्वारा की गई हत्या और उसकी हत्या के समय बनाई गई विडियों और अन्य प्रमाणों के वाबजूद भारतीय न्यायप्रणाली ने उन गुंडों को बाईइज्जत बरी कर दिया. न्यायप्रणाली के इस ‘न्याय’ में साथ दिया है भारतीय पुलिसिया तंत्र और जांच विभाग ने. हिन्दुत्ववादी गुंडों को बाईइज्जत बरी किये जाने से पहलू खान जैसे लाखों-करोड़ों लागों का न केवल अपमान हुआ है बल्कि देश की तमाम जनता का भारतीय न्यायप्रणाली और पुलिसिया तंत्र पर से विश्वास भी खत्म हो गया है, जो वैसे भी बहुत कम बच गया था.
निःसंदेह भारत की पुलिस दुनिया की सबसे कुकर्मी और जुल्मी मानी जाती है. पुलिस के कुकर्मोंं और उसके जुल्मों को जानना और समझना हो तो भारतीय सिनेमा के पर्दों पर भी देख सकते हैं, जो वास्तविकता की तुलना में बहुत बहुत कम कर दिखाया जाता है. थाने के लॉक अप में बंद कर पीट- पीट कर हत्या करना या सदा के लिए अपंग बना देना, तड़पा तड़पा कर हत्या करना, सामूहिक बलात्कार करना, शरीर के अंगों को रक्तरंजित कर उस पर नमक मलना, गुदामार्ग में डंडे घुसेड़ना, उसमें पेट्रोल डाल कर तड़पाना, शरीर में बिजली के करंट दौराना आदि तो चंद उदाहरण भर हैं.
अक्सर पुलिस यहां तक कि सेना भी बर्बरता की पराकाष्ठा पार करती है. शरीर को टुकड़े टुकड़े में काटकर उस पर नमक और मिर्च मसलना जैसे रौंगटे खड़े कर देने वाला कृत्य आदिवासियों, दलितों पर आये दिन आजमाये ही जा रहे हैं. कई बार तो लोगों को जिन्दा आग में भून देने जैसा कुकृत्य करते हैं. यहीं कारण है कि जब पुलिस या सेना के जवानों की हत्याएं की जाती है तो आम जनता खुश होती है. चाहे वह आतंकवादी हमले में मारे जायें या माओवदियों के हमले में. आम जनता की निगाह में पुलिस घृणास्पद है तो उसकी हत्या करनेवाला महान.
ठीक ऐसी ही छबि न्यायालय की भी है. न्यायालय का अर्थ आम जनता यही समझती है कि वह भाड़े का टट्टू है, जिसे पैसा देकर खरीदा और बेचा जा सकता है. खरीद-बिक्री के इस दौर में आम गरीब जनता कहीं नहीं है. जज लोया की हत्या जैसी घटनाओं ने आम आदमी की इस धारणा को और मुकम्मल बनाया है. और अब पहलु खान की हत्या के तमाम साक्ष्यों और वीडियो को जजों द्वारा सिरे से नकार कर यह साबित कर दिया है कि बिकी हुई भाड़े की टट्टू न्यायालय किसी को न्याय नहीं दे सकती, तो वहीं न्यायालय पर भरोसा करने वाली उन्नाव की बलात्कार पीड़िता अपने समूचे परिवार को खोकर आज मौत के मूंह में है.
ऐसे में आम जनता न्याय के लिए किस ओर देखे ? बर्बर पुलिस और सैन्य तंत्र या न्यायालय जब पीड़ितों को ही प्रताड़ित करने और खत्म करने का माध्यम बन गया हो, तब ऐसे घोर अंधेरे में असलम और रुपम पाठक आशा की किरण जगाती है, जो यह चीख चीख कर कहती है कि अगर तुझे इंसाफ चाहिए तो भाड़े के न्यायालय और बर्बर पुलिस और सैन्य तंत्र पर भरोसा करने के बजाय शस्त्र उठाओ, और उसका संहार करो, तभी तुम खुद को और अपने परिवार को बचा सकते हो, अन्यथा खत्म कर दिये जाओगे कभी मॉबलिंचिंग के नाम पर, तो कभी लॉक अप में करंट लगाकर. संभवतया यही कारण है कि देश की आम जनता अब इंसाफ के लिए माओवदियों की ओर आशा भरी नजर से देख रही है.
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