एक व्यक्ति को राजनाथ सिंह की गाड़ी के आगे इसलिये लेटना पडा क्योंकि आधार कार्ड में उसका नाम गलत है और वह सही नहीं हो पा रहा है. नतीजा, जेल भेज दिया गया. यह वही आधार है जिसके लिए मनमोहन सिंह व महामना मोदी दोनों ने गारंटी ली थी कि वह हमारे जीवन से असुविधाओं को दूर कर देगा.
अब देश के पैमाने पर एनआरसी की कल्पना कीजिये. अभी हम थोड़ी देर अमित शाह की बात पर विश्वास कर कि ‘किसी को डरने की जरूरत नहीं’, सिर्फ इसके आर्थिक पहलू की बात करते हैं. ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार अनुमान लगाया गया है कि असम में सरकारी खर्च के अतिरिक्त नागरिकों ने दस्तावेज जुटाने, अप्लाई-अपील करने, सुनवाई के लिए हाजिर होने वगैरह पर 7800 करोड़ रुपये खर्च किये हैं. मतलब जो लोग अंत में विदेशी घोषित होने से बच गए, उन्होंने भी इस सफलता की भारी कीमत अपना सारा कुछ खोकर, कंगाल होकर चुकाई है. ऊपर से 60 जानें अब तक जा चुकी है.
किन्तु असम में तो 1951 में भी एनआरसी हुआ था तथा वहां 1978 से यह बडा राजनीतिक मसला था इसलिये वहां बहुत से लोगों ने पहले से काफी दस्तावेज संभाल कर रखे हुए थे, जो बाकी देश में नहीं है. अगर वहां की 3 करोड़ आबादी को अब तक इतना बड़ा खर्च करना पड़ा है तो देश भर की 130 करोड़ जनसंख्या को इस स्थिति से गुजरना पडे तो पूंजीपतियों, सत्ता व न्यायिक तंत्र और इनके लग्गू-भग्गू दलालों द्वारा मेहनतकश जनता से कितनी बडी लूट को अंजाम दिया जायेगा, उसकी कल्पना ही भयावह है. पहले दस्तावेज तैयार करने, फिर प्रस्तुत करने, अंत में सुनवाई, अपील के लिए दफ्तरों में हाजिरी लगाने में जो लाइनें लगेंगी, वो अलग. नोटबंदी की लाइनों में हुई मौतों को याद कीजिये.
निष्कर्ष यह कि अब तक के चाल-चलन को नजरअंदाज कर किसी तरह सरकार की मंशा पर पूरा भरोसा भी कर लिया जाये, तब भी सिर्फ आर्थिक पहलू से भी यह देश की जनता के लिए नोटबंदी से भी कई गुना बडी तबाही वाला फैसला साबित होगा.
देश में सांप्रदायिकता की आग भड़काने का नया षड्यंत्र है ‘नागरिकता (संशोधन) विधेयक.’ अयोध्या के मसले पर इतना बड़ा फैसला आया. देश भर में कहीं से भी एक पत्थर फेंकने की खबर नहीं आई जबकि भयानक दंगों की आशंका जताई जा रही थी. लेकिन इस माहौल से एक पार्टी विशेष को बड़ी तकलीफ हुई. उसके कुत्सित इरादे पूरे नहीं हो पाए इसलिए वह एक नया दांव खेलने जा रही है. आज नागरिकता संशोधन विधेयक को कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है, यह फिर से एक बार सदन में पेश होने जा रहा है.
इस विधेयक के जरिए 1955 के कानून को संशोधित किया जाएगा. इससे अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के गैर-मुस्लिमों (हिंदु, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी व इसाई) को भारत की नागरिकता देने में आसानी होगी. मौजूदा कानून के अनुसार इन लोगों को 12 साल बाद भारत की नागरिकता मिल सकती है, लेकिन बिल पास हो जाने के बाद यह समयावधि 6 साल हो जाएगी.
नागरिकता (संशोधन) विधेयक, बांग्लादेश, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान के गैर-मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान करता है. भले ही उनके पास कोई वैध दस्तावेज न हों. कभी किसी ने सोचा भी नहीं था कि भारत में नागरिकता का आधार धर्म को बनाया जाएगा और धार्मिक आधार पर लोगों से नागरिकता प्रदान करने को लेकर भेदभाव किया जाएगा, पर अब यह सच होने जा रहा है.
क्या यह विधेयक संविधान की मूल भावना के खिलाफ नहीं है ? कोई बताए कि ‘धर्म‘ नागरिकता प्रदान करने का आधार हो सकता है ? क्या यह अनु 14 ओर 15(1) का उल्लंघन नहीं है ? यह मैं पहले ही लिख चुका हूं कि देश भर एनआरसी लागू करने के लिए इस नागरिकता संशोधन विधेयक को जान-बूझकर लाया जा रहा है. इस विधेयक के जरिए समाज मे नए सिरे से साम्प्रदायिक विभाजन पैदा करने की कोशिश की जा रही हैं, जिसके नतीजे खतरनाक साबित होंगे.
- मुकेश असीम और गिरीश मालवीय
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