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नोटबंदी के चार साल बाद भारतीय अर्थव्यवस्था : मोदी ने भारत को कपोल-कल्पनाओं का देश बना दिया है

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नोटबंदी के चार साल बाद भारतीय अर्थव्यवस्था : मोदी ने भारत को कपोल-कल्पनाओं का देश बना दिया है

रविश कुमार : मोदी ने भारत को कपोल-कल्पनाओं का देश बना दिया है. चार साल पहले आज ही के दिन नोटबंदी हुई थी. उसी दिन से सत्यानाश की कहानी शुरू हो गई. कई तरह के दावे हुए कि ये ख़त्म हो जाएगा वो ख़त्म हो जाएगा. मूर्खतापूर्ण फ़ैसले को भी सही ठहराया गया. बड़े और कड़े निर्णय लेने की सनक का भारत की अर्थव्यवस्था को बहुत गहरी क़ीमत चुकानी पड़ी है. दशकों की मेहनत एक रात के फ़ैसले से तबाह हो गई. हफ़्तों लोग लाइन में लगे रहे. लोगों के घर में पड़े पैसे बर्बाद हो गए. सबको एक लाइन से काला धन करार दिया गया और काला धन कहीं और के लिए बच गया. उसके लिए बना इलेक्टोरल फंड, जिसमें पैसा देने वाले का नाम गुप्त कर दिया गया. उस वक्त इस फ़ैसले को सबसे बड़ा फ़ैसला बताया गया मगर अपनी मूर्खता की तबाही देख सरकार भी भूल गई. मोदी जी तो नोटबंदी का नाम नहीं लेते है. मिला क्या उस फ़ैसले से ?

मोदी सरकार ने नोटबंदी कर लघु व छोटे उद्योगों की कमर तोड़ दी. हिन्दू मुस्लिम नफ़रत के नशे में लोग नहीं देख सके कि असंगठित क्षेत्र में मामूली कमाने वाले लोगों की कमाई घट गई. उनका संभलना हुआ नहीं कि जीएसटी आई और फिर तालाबंदी. तीन चरणों में अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर देश को बेरोज़गारी की आग में झोंक दिया. लाखों करोड़ों घरों में आज उदासी है. भारत को संभावनाओं का देश बनाने की जगह कपोल- कल्पनाओं का देश बना दिया. युवाओं की एक पूरी पीढ़ी बर्बाद हो गई. उनके सपनों में नफ़रत भर दी गई. बुज़दिल बना दिए गए. उन्हें हर बात में धर्म की आड़ में छिपना बतला दिया. महान बनने की सनक का दूसरा नाम है – नोटबंदी.

गिरीश मालवीय : 8 नवंबर, 2020 को नोटबंदी के चार साल पूरे होने जा रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी के उस फैसले का जो परिणाम और असर हुआ और उसे लेकर जो ज्यादातर विश्लेषण आए, उससे यह लगभग साफ हो चुका है कि नोटबन्दी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को लगभग बर्बाद कर दिया है. नोटबंदी से बड़ा आर्थिक घोटाला भारत के इतिहास में नहीं हुआ. अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने नोटबन्दी के एक साल बाद सात नवंबर, 2017 को भारतीय संसद में कहा था कि ‘ये एक आर्गेनाइज्ड लूट है, लीगलाइज्ड प्लंडर (क़ानूनी डाका) है.’ चार साल बाद उनकी यह बात बिल्कुल सच साबित हो रही है. नोटबन्दी के तुरंत बाद के हालात यह थे कि उस झटके से 100 से ज़्यादा लोगों की जानें चली गयी. 15 करोड़ दिहाड़ी मज़दूरों के काम धंधे बंद हो गए. हज़ारों उद्योग धंधे बंद हो गए. लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं.

नोटबन्दी करने का जो सबसे पहला कारण बताया गया वह था कैश बबल. भारतीय अर्थव्यवस्था में नगदी नोट बहुत ज्यादा हो रहे थे. ऐसा कुछ अंधभक्त अनर्थशास्त्रियों ने बताया था. सरकार के पिट्ठू बने अर्थशास्त्री यह बता रहे थे कि नोटबन्दी के पहले बड़ी संख्या में करंसी सर्कुलेशन में आ गयी थी जिसे रोका जाना जरूरी था. आरबीआई के मुताबिक, 2016 में नोटबंदी के समय देश की अर्थव्यवस्था में नकदी का चलन 17.97 लाख करोड़ रुपये था. आप हैरान हो जाएंगे जब आज की स्थिति जानेंगे. 25 सितंबर, 2020 तक के जो आँकड़े हमारे पास उपलब्ध है, वो बता रहे हैं कि आज करंसी सर्कुलेशन 52 फीसद बढ़कर 25.85 लाख करोड़ रुपये पहुंच गया है. अब कहा गया ‘कैश बब्बल’ ?

ये भी तब है जब देश का जीडीपी ग्रोथ घटता ही जा रहा है. 2015-1016 के दौरान जीडीपी की ग्रोथ रेट 8.01 फ़ीसदी के आसपास थी और पिछले 2019-20 वित्तवर्ष में 4.2 है. सीधे 4 अंकों का नुकसान हुआ है और इस वित्त वर्ष की तो बात ही छोड़ दीजिए. यदि इस साल ग्रोथ जीरो भी हो जाए तो भी बहुत बड़ी बात हो जाएगी क्योंकि अभी तक सब माइनस में चल रहा है. जीडीपी ग्रोथ का भट्टा बैठाने में नोटबन्दी का योगदान अतुलनीय है.

काले धन पर चोट को भी नोटबन्दी करने का कारण बताया गया था जबकि उसी वक्त RBI के निदेशकों का कहना था कि काला धन कैश में नहीं, सोने या प्रॉपर्टी की शक्ल में ज़्यादा है और नोटबंदी का काले धन के कारोबार पर बहुत कम असर पड़ेगा. आज वह बात सच साबित हुई.

यह भी कहा गया था कि उससे मकान खरीदना सस्ता हो जाएगा लेकिन रिजर्व बैंक इस दावे की भी पोल खोल दी. 2019 में रिजर्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में स्पष्ट किया कि बैंक ने बृहस्पतिवार को सर्वे जारी करते हुए कहा, ‘पिछले चार साल में घर लोगों की पहुंच से दूर हुए हैं. इस दौरान आवास मूल्य से आय (एचपीटीआई) अनुपात मार्च, 2015 के 56.1 से बढ़कर मार्च, 2019 में 61.5 हो गया है यानी आय की तुलना में मकानों की कीमत बढ़ी है. आतंकवाद-नक्सलवाद की कमर तोड़ने के लिए नोटबंदी करना मास्टरस्ट्रोक बताया गया था, लेकिन न आतंकवाद कम हुआ और न ही नक्सली गतिविधियों में कोई कमी आयी.

जब नोटबन्दी हुई थी तब मनरेगा के निर्माता अर्थशास्त्री ज्या द्रेज ने कहा था कि नोटबन्दी एक पूरी रफ्तार से चलती कार के टायरों पर गोली मार देने जैसा कार्य हैं. नोटबन्दी के चार साल बाद उनकी बात सच साबित हुई है. नोटबन्दी कर हमारे प्रधानमंत्री ने अर्थव्यवस्था के लहलहाते पेड़ पर कुल्हाड़ी मार दी थी. इसका असर कुछ सालो तक ही नही बल्कि दशकों तक देखा जाएगा.

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