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निजीकरण से अंध-निजीकरण की ओर बढ़ते समाज की चेतना

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निजीकरण से अंध-निजीकरण की ओर बढ़ते समाज की चेतना

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

वे सुबह 5 बजे अपनी ड्यूटी पर पहुंचती हैं और 18 घण्टे लगातार काम करने के बाद देर रात को ही घर लौटती हैं. वे युवा हैं. जाहिर है, ऊर्जा से भरी हुई हैं. तो, लगातार 18 घण्टों तक भाग-दौड़ भरी ड्यूटी कर पा रही हैं. अभी कुछ बरस ऐसी ऊर्जा रहेगी, क्योंकि वे प्रायः 22-25 की उम्र की हैं. अगले कुछ बरसों तक उनसे हाड़-तोड़ मेहनत करवाई जा सकती है.

वे थकेंगी, उनमें से कुछ को दूसरे कामों में लगा कर बाकी को नौकरी से निकाल दिया जाएगा. कुछ को तो नौकरी लगने के दूसरे-तीसरे महीने ही कांट्रेक्ट की शर्त्तों को निभाए बिना निकाल दिया गया. कहीं किसी ने उनकी फरियाद नहीं सुनी, हालांकि उन्होंने हर जगह गुहार लगाई, सरकार तक भी.

वे उभरते ‘न्यू इंडिया’ के ‘न्यू’ होते इंडियन रेलवे के एक निजी ट्रेन की हॉस्पिटैलिटी का जिम्मा संभाल रही किसी निजी कंपनी की मुलाजिम हैं. कंपनी के साथ उनका रिश्ता तब तक ही है जब तक वे अपने शोषण के खिलाफ आवाज न उठाएं, या लगातार 18 घण्टे खड़े रहने की ऊर्जा उनमें शेष न रह जाए.

कामगारों की वे अकेली प्रजाति नहीं हैं जो अमानवीय शोषण की शिकार हैं, जो इतनी मेहनत करने के बाद भी अपनी नौकरी को लेकर असुरक्षा के भाव से ग्रस्त हैं. इस देश में ऐसी नौकरियों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है, जिनमें श्रम कानूनों का उल्लंघन खुलेआम है, जिनमें वाजिब से बेहद कम पारिश्रमिक दिया जा रहा है, जिनमें अपनी नौकरी को लेकर असुरक्षा के भाव इतने गहरे हैं कि आदमी डिप्रेशन का मरीज बना जा रहा है.

निजीकरण से अंध-निजीकरण की ओर बढ़ते समाज की चेतना को जाने क्या हो गया है, जो अपनी खुली आंखों से बदलती दुनिया को भी देख रहा है और साथ ही, अपने बच्चों को भी बड़े होते देख रहा है. करियर बनाने के घनघोर दबावों से जूझते बच्चों के सामने लक्ष्य भले ही बड़े हों, बड़ी नौकरियों के अवसर अति सीमित हैं और हम जिस व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं, उनमें निम्न मध्यम या निचली श्रेणी की नौकरियों के हालात अमानवीय होते जा रहे हैं.

जो समाज अच्छी खासी टेक्निकल डिग्री लिए युवाओं के निजी कंपनियों में हो रहे शोषण पर आंखें मूंदे है, जो नेट और डॉक्टरेट किये युवाओं को बरसों-बरसों तक अतिथि और एडहॉक पर काम करते देखते रहने का अभ्यस्त हो रहा है, वह किसी निजी ट्रेन कंपनी में नौकरी कर रही साधारण पढ़ी-लिखी लड़कियों के साथ हो रहे शोषण पर कितना ध्यान देगा.

हमारी मेन्टल कंडीशनिंग ही ऐसी की जा रही है कि हम आकार लेती नई व्यवस्था की अमानवीयता को झेलने के लिये खुद को तैयार रखें. जैसे, हम अच्छी तरह जानते हैं कि अगर हम ट्रेन की जेनरल बोगी में बिहार से दिल्ली तक की यात्रा करेंगे तो अमानवीय स्थितियों से होकर गुजरना होगा. शौचालय में खड़े-खड़े जाने की स्थिति भी आ सकती है. वह भी तब, जब हम उस जनरल बोगी में घुसने में कामयाब हो सके तो.

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ROHIT SHARMA

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