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न्यायिक संस्था नहीं, सरकार का हथियार बन गया है सुप्रीम कोर्ट

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न्यायिक संस्था नहीं, सरकार का हथियार बन गया है सुप्रीम कोर्ट

कोर्ट की ‘अवमानना’ हो गई है, न्यायाधीश ने यही माना है. ‘अवमानना’ मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे पर की गयी टिप्पणी से हुई है. प्रशांत भूषण को इसके लिए दोषी ठहराया गया. सर्वोच्च न्यायपालिका ने माननीय न्यायाधीश अरुण मिश्रा के नेतृत्व वाले बेंच के तहत न्यायालय को ‘न्याय’ दिला दिया है. न्याय के बदले सजा क्या होगी, यह 15 अगस्त के बाद 20 अगस्त को सुनाया जायेगा. ऐसा क्यों ? अपने प्रति न्याय में इतनी देरी क्यों ? क्या उनका एक ट्वीट न्यायपालिका की व्यवस्था को लोगों की नजर में इतना गिरा दिया ? सर्वोच्च न्यायालय से हम भी सुनने के लिए बेताब हैं. हिंदी फिल्मों के संवाद लेखकों ने तो ‘कानून अंधा है, कानून बिकता है’ आदि संवाद लिखकर खूब तालियां बटोरी और दर्शक कटघरे में ‘न्याय’ को होते हुए देखा.

इस बार यह ‘न्याय’ सर्वोच्च न्यायालय के प्रांगण में हुआ और ‘भुक्तभोगी’ ने ‘न्याय’ कर दिया है लेकिन इसमें कुछ बात है जो मुझे खटक रही है. इसमें एक उभरता हुआ वह समीकरण दिख रहा है जो हमारी राजनीति में दिख रहा है. इस तरह के समीकरणों के परिणाम अक्सर दूरगामी होते हैं. यह बात मुझे ठीक वैसे ही लग रही है मानो न्यायाधीश, न्यायपालिका और न्याय एक मूर्ति में समाहित हो चुके हों. यह एक कल्ट बनने की प्रक्रिया है जिसमें ‘मैं’ और ‘तुम’ के विभाजन में मैं इतना बड़ा होता जाता है, जहां से तुम एक तुच्छ अस्तित्व के सिवा कुछ रह ही नहीं जाता. यह तुच्छता इस कदर बढ़ती जाती है कि इसकी दवा करने के लिए ‘शत्रुओं’ की पूरी फौज खड़ी होती जाती है, और जो तुच्छ होने से ही इंकार कर देते हैं उनके लिए ‘न्याय’ की व्यवस्था की जाती है. तो, यह जो कल्ट है वह राजनीति में मुझे ठीक वैसे ही लग रही है मानो प्रधानमंत्री, कैबिनेट और सांसद एक मूर्ति में समाहित हो चुके हों.

एक सांसद का या उस व्यवस्था से जुड़ा कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री या कैबिनेट के खिलाफ जाता है, तब उसे संसद से बहिष्कृत उस व्यक्ति की तरह देखा जा रहा है, मानो संसद का अस्तित्व ही महज सरकार की एक मूर्ति के लिए है, जबकि हम जानते हैं कि भारत का संसदीय लोकतंत्र सिर्फ जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों से ही नहीं उसमें हिस्सेदार राजनीतिक पार्टियों से भी चलता है. संसदीय लोकतंत्र की आवाजों में मीडिया से लेकर संस्कृति की गतिविधियां चलाने वाले लोग शामिल होते हैं और बाकायदा उन्हें बतौर सांसद मनोनीत किया जाता है. लोकतंत्र एक राजनीतिक प्रक्रिया है जिसमें भागीदारी बहुस्तरीय है.

लेकिन जब संसद में विपक्ष, उसकी पार्टी ‘जयचंद’ घोषित हो रही हो, असहमति के स्वर ‘देशद्रोही’ बनाकर यूएपीए के तहत कैद किये जा रहे हों, समाज की विविध धार्मिक पहचानों पर पहरे लगा देना कानून बन गया हो, गरीब मजदूर और आम जन की चीख को ‘दंगा’ घोषित किया जा रहा हो, …तब आप क्या करेंगे ? जब न्यायपालिका खुद का ही ‘न्याय’ करने लगे, …तब क्या करेंगे ? संसद भी खुद की अवमानना के अन्याय का ‘न्याय’ कर चुकी है और दोषियों को संसद में खड़े होकर माफी मांगना पड़ा है. यह सर्वोच्चता चाहे जितनी वैधानिक हो, लेकिन न्यायपूर्ण हो यह जरूरी नहीं है.

सौभाग्य से कोर्ट की अवमानना ‘देशद्रोह’ नहीं है. मैं कानून का जानकार नहीं हूं लेकिन इतनी बात तो पता है कि कानून की व्याख्याएं चलती रहती हैं. संभव है यह ‘देशद्रोह’ के बराबर मान लिया जाए क्योंकि, कानूनन यह ‘न्याय प्रक्रिया’ में बाधा पहुंचाता है और न्याय ‘देशहित’ में है. प्रशांत भूषण का तर्क भी तो यही था. उन्होंने न्यायाधीश के व्यवहार पर सवाल उठाया था. उन्होंने न्याय के पूर्वाग्रहों की ओर लोगों का ध्यान खींचने का प्रयास किया था. और, बाद में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने प्रेस वार्ता कर ‘न्याय’ पर चल रहे हस्तक्षेप के बारे में बताने की पहलकदमी ली थी. उस समय उन्होंने खुद को न्याय की प्रतिमूर्ति घोषित नहीं किया था.

  • अंजनी कुमार

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