हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
आडंबर और पाखंड को अपने जीवन मूल्यों में शामिल कर चुका शहरी मध्यवर्ग जिस तरह ब्रांडेड निजी स्कूलों से लूटा जाना अपना स्टेटस सिंबल मान चुका था, उसी तरह ब्रांडेड निजी अस्पतालों में अपने परिजनों का इलाज करवाना भी उसके लिये फख्र की बात बन गई थी. नाकारा बनते जाते सरकारी चिकित्सा तंत्र और उसके प्रति बढ़ते अविश्वास ने निम्न मध्य वर्ग को भी विवश किया कि बीमार पड़ने पर वह बी और सी ग्रेड के निजी अस्पतालों की ओर रुख करे.
मतलब, लोग समझने लगे थे कि जैसे फ़िल्म देखने का मन हो तो सिनेमा का टिकट कटा लो और सुविधापूर्ण हॉल की गद्देदार सीट पर बैठ कर हीरो-हीरोइनों का जलवा देखो, उसी तरह बीमारी का इलाज करवाना हो तो पैसा फेंको, किसी सुसज्जित निजी अस्पताल के आरामदेह बेड पर डेरा जमा लो. मेडिकल बीमा की कैशलेस सुविधा से लैस हैं तो सोने पे सुहागा, वरना निजी हॉस्पिटल से लुट-पिट कर भी लौटे तो सोसाइटी में स्टेटस तो बना.
कारपोरेट भारत के निर्माण की प्रक्रिया में मध्यवर्ग ने अपने हितों के अलग द्वीप बना लिए थे और उसी परिधि में वे अपने खोखले आडंबरों और पाखंड के साथ जीने की शैली विकसित कर चुके थे. दो तिहाई भारत से अलग उनका अपना भारत था, जहां उनके अपने स्कूल थे, उनके अपने हॉस्पिटल्स थे. सामान्य भारतवासी इन स्कूलों और अस्पतालों के गेट पर भी झांकने की जुर्रत नहीं कर सकता था.
इसी तर्ज पर जब मोदी जी ने उनके लिये अलग से सुविधापूर्ण रेलगाड़ियां चलाने की बातें की तो वे ‘नए भारत के निर्माण’ के सपनों के साथ एकात्म हो जय-जयकार में लगे रहे. नई शिक्षा नीति में उच्च शैक्षणिक संस्थानों के कारपोरेटीकरण की प्रक्रिया का उन्होंने जोरदार समर्थन किया, क्योंकि इससे उनके बच्चों का अवसरों पर एकाधिकार होने वाला था.
वे सोचते थे कि दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी और वे अपनी बढ़ती आमदनी के बल पर इस पर राज करते रहेंगे. ब्रांडेड कपड़े, ब्रांडेड मोबाइल, ब्रांडेड जूते…ब्रांडेड स्कूल, ब्रांडेड अस्पताल, ब्रांडेड उच्च शैक्षणिक संस्थान…इससे भी आगे…ब्रांडेड रेलगाड़ियां, गरीब-गुरबों के सामान्य प्रवेश से वर्जित चकमक रेलवे प्लेटफार्म.
उन्हें लग रहा था कि बीते तीस-पैंतीस वर्षों से बन रहा नया भारत उनके लिये ही तो है. हर साधन उनके लिये है, हर नवोन्मेष उनके लिये है…देश ही उनके लिये है इसलिये, जब उन्हें कुछ खास तरह से देश पर गर्व करना सिखाया जाने लगा तो वे इसे सीखने में बिल्कुल भी पीछे नहीं रहे. नए तरह का राष्ट्रवाद, जिसमें गांधी-नेहरू और स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़े मूल्यों के लिये सम्मान का वह भाव नहीं रह गया था, उनकी रगों को फड़काने लगा था.
सीमा पर शहीद होते सैनिक उनके लिये राष्ट्रवाद के यज्ञ की समिधा बन गए थे, आर्थिक गुलामी से भयभीत आंदोलित किसान उन्हें विदेशी शक्तियों से प्रेरित लगने लगे थे, अवसरों की समानता के लिये लड़ते विश्वविद्यालयों के छात्र उन्हें ‘भटके हुए’ नजर आने लगे थे. वे हाशिये पर की तीन चौथाई आबादी के हित-अहित के मसलों से न केवल असंपृक्त रहे, बल्कि जब भी हाशिये पर के लोगों ने अपने हितों के लिये आवाज उठाई, वे उनके खिलाफ खड़े नजर आए. उनके ड्राइंगरूम्स यूं ही विचारहीनता की उत्सवस्थली में तब्दील नहीं होते गए. उनकी विचारहीनता के पीछे उनकी खुदगर्जी थी, उनका पाखण्ड, उनका दिखावा और उनका आत्मसंकेन्द्रण था.
अपनी तमाम खुशफहमियों में जीते इन लोगों ने यह सोचा ही नहीं कि अंध निजीकरण का जयकारा लगाते वे जिन राक्षसी प्रवृत्तियों का पोषण कर रहे हैं, वे एक दिन उन्हें ही निगलने को तत्पर दिखेंगी. खुद को लूटे जाने को अपनी सुविधा और अपने स्टेटस सिंबल से जोड़ कर जो अपने लिये नई दुनिया रचे जाने के व्यामोह में मगन थे, आज जब सच एक सवाल बन कर उनके सामने आ खड़ा हुआ है तो वे बिलख रहे हैं, हताश हैं, निरुपाय हैं.
कोरोना त्रासदी ने यह मंजर सामने ला दिया है कि उन्हें किसी सक्षम सरकारी अस्पताल और किसी सुविधापूर्ण निजी अस्पताल में बेड हासिल करने का अंतर नजर आ रहा है. महामारी के इस सघन और भयावह दौर में मुनाफे की शक्तियों की राक्षसी प्रवृत्तियां खुल कर सामने आ चुकी हैं. सोशल मीडिया में ऐसी अनगिनत कहानियां सामने आ रही हैं कि मानवता के समक्ष आए इस भीषण संकट के दौर में मुनाफे की शक्तियां किस तरह बेलगाम हैं और उससे भी त्रासद यह कि हमारा प्रशासनिक और नियामक तंत्र इन राक्षसी शक्तियों के समक्ष किस तरह नाकारा और लाचार साबित हुआ है.
पटना की खबर है कि कैशलेश मेडिकल बीमा का कार्ड जेब में लिए लोग अस्पताल की देहरी और सड़क पर दम तोड़ रहे हैं क्योंकि बहुत सारे निजी अस्पताल अभी सिर्फ कैश भुगतान मांग रहे, वह भी मनमाना. लाखों रुपये प्रतिदिन का खर्च उठाने में तो अच्छे-अच्छे बाबू लोग धरती सूंघ रहे हैं, निम्न मध्य वर्ग की बात ही क्या करनी ! खबरें हैं कि सी ग्रेड के निजी अस्पताल, जिनके पास न वेंटिलेटर की सुविधा है, न कोरोना के इलाज के लिये कुशल डॉक्टर हैं, न अन्य तकनीकी सुविधाएं हैं, महज बेड और ऑक्सीजन सिलेंडर की सुविधा देने के लिये एक दिन का 80 हजार वसूल रहे हैं, वह भी कैश में. वह भी एडवांस में.
इन खबरों का क्या महत्व कि बीमा नियामक प्राधिकरण ने बार-बार सख्त आदेश जारी किया है कि मेडिकल बीमा करवाए लोगों का कैशलेस इलाज निजी अस्पतालों को करना होगा. कई अस्पताल इन निर्देशों को नहीं मान रहे और लोग कैश के लिये अपनी मां और पत्नी का मंगल सूत्र तक बेचने को विवश हैं. उखड़ती सांसों के सदमे में कौन किसकी शिकायत करे, कहां करे…और शिकायतों से हासिल ही क्या होगा ?
यूरोप और अमेरिका से इतर हमारा देश शिवजी के त्रिशूल पर है, जहां निजी क्षेत्र पर नियामक तंत्र का अंकुश बेहद शिथिल है इसलिये, निजी शक्तियां जितनी लूट भारत में मचा पा रही हैं, उतनी किसी अन्य सभ्य देश में नहीं. कल एक न्यूज एंकर बता रहे थे कि सात-आठ दिन अस्पताल में भर्त्ती रहे कोरोना मरीजों से बड़े निजी अस्पताल 12-15 लाख तक वसूल रहे हैं.
मतलब, कोई निर्धारण ही नहीं सेवाओं के मूल्यों का. अस्पतालों के इर्द-गिर्द दलालों की सक्रियता सरेआम है. ‘निगोशिएसन्स’ होते हैं कि इतने लाख दो तो एक बेड, इतने हजार में एक ऑक्सीजन सिलेंडर, इतने हजार में एक इंजेक्शन. यानी सही कीमत से 15 गुने-20 गुने, यहां तक कि अनगिनत गुने ज्यादा. बेड, ऑक्सीजन, इंजेक्शन आदि की नीलामी हो जैसे और कमजोर जेब वालों के दिमाग दलालों की बोलियां सुनते ही सुन्न हो जाएं.
खुलेआम हो रहे इस राक्षसी तांडव के सामने प्रशासनिक तंत्र पंगु है. यही है हमारे नए उभरते ‘कारपोरेट भारत’ की असली तस्वीर. एक न्यूज एंकर इस खबर को देते मर्माहत नजर आ रहे थे कि बेगूसराय से पटना की महज 130 किलोमीटर की दूरी के लिये निजी एम्बुलेंस कोरोना मरीजों से 20-20 हजार वसूल रहे हैं.
मध्यवर्ग सदमे में है. उसे तब फर्क नहीं पड़ा था जब ब्रांडेड निजी स्कूल उससे वाजिब से बहुत अधिक, अनाप-शनाप वसूल रहे थे. उसे तब भी बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ा था जब उसके किसी परिजन के इलाज में किसी ब्रांडेड अस्पताल ने लूट लिया था. बीमा के कैशलेस पेमेंट से वह निश्चिंत था और सोसाइटी में इस खबर के फैलने से मुदित भी कि फलाने जी के ससुर जी का इलाज ‘फलां’ ब्रांडेड अस्पताल में हुआ है.
प्रकृति के कोप और संरचना की नाकामियों ने वर्गीय सीमाएं बहुत हद तक धुंधली कर दी हैं. मानवता के सवाल अपने समन्वित रूप में सामने हैं, जहां क्या बड़ा बाबू ग्रेड, क्या छोटा बाबू ग्रेड और क्या मजदूर ग्रेड.
बीते साल कोरोना संकट के गहराने पर दुनिया भर के विशेषज्ञ यह कह रहे थे कि चिकित्सा तंत्र की सरकारी आधारभूत संरचना को सशक्त और सक्षम बनाए जाने का कोई विकल्प नहीं है, और कि यही है कोरोना का संदेश. अमेरिका जैसे सर्वसक्षम देश में भी इतने विनाश का एक प्रमुख कारण यह भी माना गया कि वहां सरकारी चिकित्सा तंत्र बहुत मजबूत नहीं है और मेडिकल बीमा पर आधारित निजी तंत्र ने संकट के समय सही रोल नहीं निभाया. गिरते-पड़ते भी यूरोप के कई देश कोरोना संकट से इसलिये उबर सके क्योंकि उनके यहां चिकित्सा की आधारभूत संरचना मजबूत है. भारत के लिये तो कोरोना संकट ने स्पष्ट संदेश दे दिया था.
लेकिन, देश ने देखा कि हमारे हुक्मरानों ने बीते एक साल में कोरोना के इस संदेश को कैसे ग्रहण किया, जब दूसरा कोरोना वेभ आया तो सम्पूर्ण तंत्र फिर चारों खाने चित्त नजर आया और ‘आपदा में अवसर’ को शब्दशः परिभाषित करते हुए किस तरह निजी क्षेत्र राक्षसी प्रवृत्तियों से प्रेरित हो मानवता की हत्या करने में लग गया और किस तरह हमारा प्रशासनिक तंत्र इन लूटों और हत्याओं के सामने विवश साबित हुआ.
आपदा में अवसरों की बातें वे जानें जिन्होंने यह नारा दिया, वे जानें जो इन अवसरों का जमकर लाभ उठा रहे हैं. आम लोगों के लिये तो यह आपदा अवसर नहीं, यह संदेश लाई है कि देश और समाज के प्रति, ‘उभरते नए भारत’ के प्रति सोच बदलने का वक्त आ गया है. हितों के अलग-अलग द्वीपों पर विचरते लोगों को सामूहिक हितों के विस्तृत भूभाग का अन्वेषण करना होगा. मुनाफा के तर्कों को विस्तार देने वाली शक्तियां मानवता के साथ कैसा खिलवाड़ कर रही हैं, यह अब सामने है और खुली आंखों से इसे देखा जा सकता है. अब भी नहीं चेते तो प्रकृति क्या करे ? वह संकेत ही तो कर सकती है.
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