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रुस के सामने घुटने टेकते नवनाजी जेलेंस्की और बौराता भारतीय फासिस्ट शासक

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रुस के सामने घुटने टेकते नवनाजी जेलेंस्की और बौराता भारतीय फासिस्ट शासक
रुस के सामने घुटने टेकते नवनाजी जेलेंस्की और बौराता भारतीय फासिस्ट शासक

युद्ध का फैसला लगभग हो चुका है. साम्राज्यवादी रुसी हमले के सामने उक्रेनी फौज का बहुत बडा हिस्सा इस जद्दोजहद में है कि घेराबंदी में फंसने से बच जाये, पर दूर बैठे दूसरे साम्राज्यवादी अमरीकी अभी भी उक्रेन को उकसाये जा रहे हैं. ब्लिंकेन ने आज भी कहा कि उक्रेन अभी भी युद्ध में रूस को हरा सकता है.

अमरीकी साम्राज्यवादी संभवतः इस बात से दुःखी हैं कि अब तक उक्रेनी नागरिकों की जानें बडे़ पैमाने पर क्यों नहीं गईं ताकि वे उसका राजनीतिक सौदेबाजी में लाभ उठा सकते. रूसी व अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा अपना अपना अपना प्रभुत्व कायम करने के इस टकराव में शिकार उक्रेनी जनता है.

उधर उक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की, जिसे पश्चिमी मीडिया हीरो बना रहा है, उसका शर्मनाक रवैया अपने नागरिकों के लिए ही घातक सिद्ध हो रहा है. आज जो भी युद्धविराम हुआ है नागरिकों को निकलने का रास्ता देने के लिए, उक्रेनी फौज ने उसमें अपने नागरिकों को युद्धक्षेत्र से निकलने का रास्ता नहीं दिया, निकलने की कोशिश करने वालों पर गोलियां चलाईं. उक्रेनी फौज नागरिकों को अपने कवच की तरह इस्तेमाल कर रही है, जो किसी भी फौज के लिए अत्यंत घृणित तरीका है.

रूस व जेलेंस्की दोनों ने अपने रूख में नरमी व बातचीत करने के संकेत दे दिये हैं. जर्मनी-फ्रांस के नेताओं ने भी कल शी चिनफिंग से बात कर मसला सुलझाने की कोशिश की. सऊदी अरब व यूएई ने भी मध्यस्थता के प्रयास किये हैं. फिर मसला कहां अटका हुआ है ?

मसला अटका है अमरीकी-ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जिद में कि उक्रेन को रूस के लिए एक नया अफगानिस्तान बनाना है. एक तरफ से अमरीकी दम भर रहे हैं कि वे खुद युद्ध में शामिल हुए बगैर उक्रेनियों के खून की आखिरी बूंद तक रूस से लडेंगे.

कल अमरीकियों और पोलैंड में इसी वजह से बड़ा नाटक हुआ. अमरीकी पोलैंड पर दबाव डालते रहे कि वो अपने मिग-29 लडाकू जहाज उक्रेन को दे दे. उधर पोलैंड ने कहा कि वो अपने जहाज नाटो को सौंप देगा, नाटो उन्हें उक्रेन को दे दे. मगर जर्मनी सहित सभी देशों ने अपने हवाई अड्डों से इन्हें उक्रेन भेजने से मना कर दिया !

अर्थात अमरीका, ब्रिटिश साम्राज्यवादी गिरोह को रूस की आर्थिक बरबादी तक लडना भी है मगर उक्रेन-पोलैंड जैसे देशों का ‘बलिदान’ देकर, खुद दूर खडे रहकर तमाशा देखना है. जेलेंस्की ने अपने आपको इस गिरोह की कठपुतली बनने देकर अपने देश और उसकी जनता को इनके हितों के लिए विध्वंस के दांव पर लगा दिया है और अब वह चाहते हुए भी बात करने में सक्षम नहीं है.

नाटो के पैसे व हथियारों के बल पर उक्रेन में खडे किये गए अजोव व राइट सेक्टर जैसे नाजी गिरोह इतने ताकतवर व खूंखार हैं कि रूस-उक्रेन वार्ता के पहले दौर में 5 सदस्यीय उक्रेनी प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य की वार्ता के बाद कीव लौटने पर हत्या कर दी गई क्योंकि वह वार्ता से युद्ध समाप्त करने का पक्षधर था. इसी तरह मार्यूपोल में एक वरिष्ठ उक्रेनी सैन्य अफसर की हत्या इसलिए कर दी गई कि वह नागरिकों को निकलने का रास्ता देने के पक्ष में था.

अब, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण ख़बर आ रही है कि जूते खाने के बाद जेलेंस्की रुसी राष्ट्रपति पुतिन की शर्तों पर समझौता करने को तैयार हो गया है. रूस के क़ब्ज़े में दो प्रदेशों को रूस को देने के लिए तैयार हैं और नाटो की सदस्यता नहीं लेने की क़सम खाई है. मेरी समझ से अब बहुत देर हो गई है. रूस अब यूक्रेन में निज़ाम बदलना चाहता है, क्योंकि निओनाजियों का कोई भरोसा नहीं है.

इस युद्ध में रूस ने जो यूक्रेन की जनता के प्रति सदाशयता दिखाई है, उसका एक कारण रूस के अंदर बढ़ते युद्ध विरोधी स्वर को शांत करना भी हो सकता है. दूसरा कारण यूक्रेन में बड़ी संख्या में रूसी नस्ल के लोगों का होना और यूक्रेन के लोगों के साथ रूसी लोगों का रोटी-बेटी का संबंध होना भी है.

इस बीच अमरीका ने रूसी तेल की ख़रीद पर पाबंदी लगा दी है. ग़ौर करने की बात ये है कि यह पाबंदी अमरीकी कंपनी शेल द्वारा रूसी तेल के स्टॉक से इक्कीस बिलियन डॉलर कमा लेने के बाद लगाई गई है. मतलब, अमरीकी तेल लॉबी ने आपदा में अवसर पैदा कर लिया है.

भारत रूस से और ईरान से सस्ता तेल ख़रीद कर अपनी अर्थव्यवस्था को राहत दे सकता है, लेकिन हमारे नपुंसक राजनीतिक नेतृत्व के लिए यह करना असंभव है. ज्ञातव्य हो कि यूरोपियन यूनियन के सदस्यों ने रूसी तेल ख़रीदना बंद नहीं किया है. जर्मनी साफ़ कह रहा है कि रूसी तेल पर प्रतिबंध लगा कर वह अपने नागरिकों को ठंढ से मरने नहीं दे सकता है.

दरअसल एक युद्ध के अंदर अनेक युद्ध चलते हैं. यह एक microcosmic pattern को follow करता है. यूरो और डॉलर की लड़ाई दिलचस्प होती जा रही है. रुपया टूट रहा है. भारत के पास दो ही विकल्प हैं, या तो रिज़र्व डॉलर बेच कर रुपए को स्थिरता दें नहीं तो रूसी और ईरानी तेल ख़रीद कर अपना बैलेंस शीट ठीक रखे. अमरीका की ग़ुलाम सरकार क्या करेगी, ज़ाहिर है.

कुल मिलाकर अपने प्रभाव क्षेत्रों में दुनिया के बंटवारे की अमरीकी व रूसी साम्राज्यवाद की आपसी लडाई में उक्रेनी जनता बुरी तरह पिस रही है. भारत सहित समस्त विश्व की मेहनतकश जनता को इस बात से सीख सावधान रहना होगा कि वे साम्राज्यवादी खेमों की बढती होड में अपने देशों को जंग का अखाड़ा न बनने दें !

(मुकेश असीम और सुब्रतो चटर्जी के आलेख के आधार पर)

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