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मुजफ्फरपुर के अस्पताल में मरते बच्चे और जिम्मेदारी से भागते अधिकारी और सरकार

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मुजफ्फरपुर के अस्पताल में मरते बच्चे और जिम्मेदारी से भागते अधिकारी और सरकार

एसकेएमसीएच का तथाकथित आईसीयू और गोद में बच्चे लिए बिलखते परिजन

एक लाइन में कहूं तो मुझे आईसीयू में नहीं जाना चाहिए था. मैं गया भी नहीं था. मैं अपने कैमरामैन को एसकेएमसीएच के निचले फ़्लोर पर छोड़कर आईसीयू का हाल देखने गया था. जैसे ही दरवाज़े के पास पहुंचा, एक नर्स ये कहते हुए तेज़ी से बाहर निकली और बाहर खडे़ गार्ड को पूछती दिखी कि ‘क्या तमाशा है, बच्चा मर गया, डॉक्टर साहब कहां हैं ?’

नर्स की बात सुनकर मेरा माथा ठनका. भीतर से ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज आ रही थी. वो बच्चे की मां थी. मैंने तुरंत मोबाइल निकाला और बाहर कॉरिडोर में डॉक्टर को खोज रही नर्स का वीडियो बनाना शुरु किया (वो वीडियो इस पोस्ट के साथ है). वो वीडियो ही इस बात का सबूत है कि मैं वहां कैमरा लेकर भी नहीं गया था. मोबाइल से शूट करने के दौरान ही इशारों से रिपोर्टर को कैमरामैन बुलाने को कहा. नर्स बचाव की मुद्रा में आई .फिर मैं आईसीयू की तरफ गया. मोबाइल से ये वीडियो रिकॉर्ड किया. पांच मिनट तक दरवाज़े पर कैमरे का इंतज़ार करता रहा. भीतर से रोने की आवाज़ें मुझे विचलित करती रही. कैमरा आने के बाद जब मैंने डॉक्टर की ग़ैर-मौजूदगी पर रिकॉर्ड करना शुरु किया, तभी डॉक्टर आ गए. उनसे सवाल-जवाब के दौरान ही पता चला कि दूसरे आईसीयू में भी बच्चे की मौत हुई है. डॉक्टर एशवर्य ने जो बातें बताई, वो हैरान करने वाली थी. उन्होंने दवा, डॉक्टर, नर्स से लेकर सुविधाओं की कमी धारा-प्रवाह होकर बताई. उन्होंने कहा कि एक सीनियर डॉक्टर के ज़िम्मे चार आईसीयू है, जबकि इससे काफ़ी ज़्यादा डॉक्टर की तैनाती होनी चाहिए.

उन्होंने कुछ दवाओं के नाम बताए, जो दूसरे और तीसरे लेवल की जरूरी दवा है, लेकिन यहां नहीं है. उन्होंने ये भी कहा कि मैंने मैनेजर से इन दवाओं की मांग की है लेकिन नहीं मिली है. नर्स के बारे में उन्होंने कहा कि ‘यहां ट्रेंड नर्स होनी चाहिए जबकि ये सब स्टूडेंट्स नर्स हैं.’ इतना सब बताने के लिए मैंने डॉक्टर एश्वर्य की तारीफ की और ये सोचकर वहां से निकल ही रहा था कि अब मेडिकल सुप्रींटेंडेंट से किल्लतों के बारे में बात करूंगा. तभी एक शख्स की दनदनाते हुए आईसीयू में इंट्री हुई. वो शख्स एक बेड पर अपने बच्चे के इलाज के लिए शोर कर रही महिला को ज़ोर-ज़ोर से डांटने लगा. वो कह रहा था – ‘चुप हो जाओ नहीं तो उठाकर फेंकवा देंगे.’ मुझसे फिर रहा नहीं गया. मैंने कैमरा ऑन करवाया. उनके आखरी शब्द मेरे कैमरे में रिकार्ड हैं. मैंने उनसे पूछा कि आप इस महिला को क्यों डांट रहे हैं ? ये भी पूछा कि आप कौन हैं ? मेरे सवाल का जवाब उन्होंने नहीं दिया और कैमरा बंद कराने की कोशिश की. वहां मौजूद दो परिजनों ने रोते हुए अव्यवस्था की शिकायत की. ये जानकर और देखकर मेरे भीतर थोड़ा ग़ुस्सा था. बाद में किसी ने बताया कि वो साहब स्थानीय पत्रकार हैं और अक्सर वहां देखे जाते हैं.

आईसीयू से मैं सीधा मेडिकल सुप्रींटेंडेंट के कमरे में गया. उनसे अस्पताल की कमियों पर सवाल-जवाब किया. वो मानने को तैयार नहीं थे कि किसी तरह की कोई कमी है. उल्टे डॉक्टर एश्वर्य के खिलाफ गलतबयानी के लिए कार्रवाई की बात कहने लगे. मैंने उनसे कहा आप मेरे साथ आईसीयू चलिए और देखिए-सुनिए कि आपके डॉक्टर ही क्या कह रहे हैं ? वो मेरे साथ चलने को तैयार हुए. उनके साथ हम दो आईसीयू तक गए. दोनों में उस वक्त भी डॉक्टर नहीं थे. आईसीयू में तैनात चार में से किसी भी नर्स को ये तक नहीं पता था कि किस डॉक्टर की यहां ड्यूटी है. ये सब देखकर मेडिकल सुप्रींटेडेंट ने भी कैमरे पर माना कि ऐसी आपात स्थिति में हर हाल में डॉक्टर को होना चाहिए था. ये गलत बात है. उन्होंने ये भी माना कि अस्पताल में डॉक्टर की कमी है. मैंने उनसे बार-बार कहा कि आप सरकार से और यहां आ रहे मंत्रियों से क्यों नहीं कह रहे कि अतिरिक्त नर्सेज और डॉक्टर यहां भेजा जाए. उन्होंने कहा भी कि मैंने बात की है और आने वाले हैं.




मेरा गु्स्सा इस बात को लेकर था कि डॉक्टर, दवा और नर्स की कमी का जो काम सबसे आसानी से हो सकता है, वो अब तक क्यों नहीं हुआ है. जिस अस्पताल में सत्तर-अस्सी बच्चों की मौत हो चुकी हो, केन्द्रीय मंत्रियों के दौरे हो चुके हों, वहां का आईसीयू इंचार्ज अगर कहे कि बच्चों की जान बचाने के लिए ज़रूरी दवा और वेंटीलेटर जैसी सुविधाएं नहीं हैं तो गुस्सा नहीं आना चाहिए ?

मुझे तब तक पता चल चुका था कि अगले दिन केन्द्रीय मंत्री हर्षवर्धन आने वाले हैं. मैं उनसे यही सब सवाल करने के लिए रूका रहा. डॉक्टर हर्षवर्धन के मुआयने के दौरान उन्हें ये सब बताने और पूछने के लिए पांच घंटे तक अस्पताल से बरामदे में मैं खड़ा रहा. डॉक्टर एश्वर्य ने जिन दवाओं की कमी का ज़िक्र किया था, वो सब मैंने उनके वीडियो देखकर नोट किए ताकि बात हवा में हो. हर्षवर्धन मुझे अच्छी तरह से जानते हैं लेकिन उस वक्त मेरे लिए वो सिर्फ स्वास्थ्य मंत्री थे, जिनसे सीधा सवाल पूछा जाना चाहिए था. मैंने उनसे पूछा भी लेकिन उन्होंने नहीं माना तब मैंने कहा आप अपने पीछे बैठे मेडिकल सुप्रींटेंडेंट से पूछिए. जो सुप्रींटेंडेंट साहब कल तक डॉक्टर की कमी कबूल कर चुके थे, वो कोई भी कमी मानने को तैयार नहीं हुए. मैं चाहता तो बहस कर सकता था लेकिन मैंने प्रेस कॉन्फ़्रेंस की मर्यादा का ख्याल रखते हुए बात ख़त्म कर दी, वरना कहा जाता कि आप कोई एजेंडा लेकर आए हैं. वैसे भी ये कोई इटंरव्यू नहीं था कि मैं दस काउंटर सवाल पूछता. मैं मायूस भी हुआ कि आईसीयू के डॉक्टर से मिली जानकारी पर संज्ञान लेने की बजाय उसे हल्के में उड़ा दिया गया. मैं बदमगजी नहीं करना चाहता था इसलिए चार-पांच सवालों के बाद चुप हो गया कि अब बाकी रिपोर्टर पूछें. वहां से चलने के बाद भी अफसोस करता रहा कि मैंने मोबाईल से वीडियो निकाल कर क्यों नहीं दिखाया, हंगामा होता तो होता.

[विडियो साभार]

ख़ैर, अब आखिरी बात !

इतना सब होने के बाद भी मैं ये मानता हूं कि मुझे आईसीयू में जाने से बचना चाहिए था. एक दिन पहले ही कई चैनलों पर आईसीयू से रिपोर्टर के वाक-थ्रू चले थे. तब मुझे लगा था कि सही नहीं है. मुज़फ़्फ़रपुर जाने से पहले जब मेरे शो के दौरान आईसीयू की तस्वीरें प्ले की गई थीं तो ऑन एयर मैंने कहा था आईसीयू की ऐसी तस्वीरें हम नहीं देखना चाहते. ये भी ऑन रिकॉर्ड है.

मैं जानता हूं कि आईसीयू का क्या प्रोटोकॉल होता है लेकिन मुज़फ़्फ़रपुर जाकर लगा कि ये आईसीयू वो है ही नहीं, जिसकी छवि आपके दिमाग में है. मेरे जाने के पहले भी पचासों लोग बेरोकटोक वहां जा रहे थे और मेरे आने के बाद भी.




रही बात ड्यूटी पर तैनात डॉक्टरों की, तो मैं नहीं कह रहा कि वो अपनी ड्यूटी में कोई कमी छोड़ रहे होंगे, कमी है तो डॉक्टरों की. नर्स की. अगर चार आईसीयू पर एक सीनियर डॉक्टर होगा तो वो कहां-कहां भागेगा ? वो भी तब जब हर बेड पर दो-दो बीमार बच्चे हों.

मेरी शिकायत, मेरा गुस्सा सिस्टम और सरकार से है कि बच्चों की मौतों का सिलसिला शुरु होने के बीस दिन बाद भी उस मेडिकल कॉलेज अस्पताल की ऐसी हालत क्यों थी ? क्यों नहीं पटना, दिल्ली या कहीं और से अतिरिक्त डॉक्टर बुला लिए गए ? क्यों नहीं वहां दवा और वेंटिलेटर के पर्याप्त इंतज़ाम हुए ? क्यों नहीं दस -बीस एंबुलेंस की तैनाती हुई ? क्यों नहीं आपात स्थिति को देखते हुए दो-चार अस्थाई आईसीयू बना दिया गया ?

ऐसे बीसों सवाल मेरे ज़ेहन में आज भी हैं. मैंने उन बच्चों के परिजनों को देखा है. वो इतने ग़रीब लोग थे कि कई के पास अपने बच्चे के बेजान जिस्म को घर ले जाने के लिए वाहन ख़र्च तक नहीं था. उनकी आवाज कोई सुनता क्या ? इतने नेताओं -मंत्रियों के दौरे होते क्या ? बिहार सरकार ने अस्सी से ज़्यादा बच्चों की मौतों के बाद हर परिवार तो चार लाख के मुआवज़े का ऐलान किया, ये होता क्या ? अब बीमार बच्चे को अस्पताल लाने वाले ग़रीब परिजनों को गाड़ी के लिए चार सौ रूपए देने का भी ऐलान हुआ है, ये होता क्या ?




इसी से आप सोचिए कि जिनके पास अपने बीमार बच्चे को बचाने के लिए अस्पताल तक लाने के लिए दो-चार सौ रुपए नहीं होते, वो किस तबके के होंगे ? क़रीब डेढ़ सौ बच्चों की मौत के बाद भयंकर गर्मी से त्रस्त वार्ड में कल कूलर लगा है. क्या कूलर के इंतज़ाम में बीस दिन लगना चाहिए था ?

कल ही टाइम्स ऑफ इंडिया में बच्चों की मौतों के बाद दिल्ली से गई केंद्रीय टीम की रिपोर्ट के अंश छपे हैं. उसमें कहा गया है मेडिकल कॉलेज अस्पताल में सारे वेंटीलेटर खराब हैं. एमआरआई का इंतजाम नहीं है. इस गंभीर बीमारी से मुकाबले के लिए पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं, यही वजह है कि इस अस्पताल में Mortality Rate 25 फीसदी है, जो आमतौर पर 6 से 19 फीसदी होता है. उसी रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि मुजफ्फरपुर के ही केजरीवाल अस्पताल में Mortality Rate 12 फीसदी है. इसका क्या मतलब हुआ ? समझे आप ?

ये तो उत्तर बिहार के सबसे बड़े अस्पताल का हाल है, बाकी छोटे सरकारी अस्पतालों और पीएचसी की हालत पर अभी बात करना भी बेमानी है. इतना सब होने के बाद भी मैं आईसीयू में अपने जीने को जस्टीफाई नहीं कह रहा. आखिरी बात तो यही है कि बचा जाना चाहिए था.

  • अजीत अंजुम
    बरिष्ठ पत्रकार




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