ऊपर लगी अखबार की कतरन अगर आपको बेचैन नहीं कर रही है, तो यकीनन आप मूर्ख हैं या आपकी संवेदनशीलता मर चुकी है. पेडिग्री मीडिया ने आज यह खबर दबा दी. कल स्पेशल कोर्ट ने जब रेवेन्यू इंटेलिजेंस निदेशालय (DRI) के अफसरों से गुजरात के मुंद्रा पोर्ट पर उतरे 21000 करोड़ के ड्रग के मामले में डिटेल मांगी, तो जवाब क्या मिला पढ़िए. अडाणी समूह ने DRI के अफसरों से कह दिया कि वे लीगल परामर्श लिए बिना कोई जानकारी नहीं देंगे.
कोर्ट ने पूछा- क्या वे कानून से परे हैं. बस, इसी सवाल पर आकर समूचा सिस्टम प्राइवेट के आगे दंडवत हो जाता है. सड़क से लेकर बिजली, शिक्षा, पानी, स्वास्थ्य- सभी में भागीदार निजी कंपनियां (अडाणी तो लाड़ला है) सरकार को ज़िम्मेदारी और जवाबदेही के मामले में ठेंगा दिखा देती हैं. भारत में इस निजीकरण की शुरुआत 1991 में नरसिंहराव सरकार के समय से हुई, जो अब बेचने के कगार पर आ चुकी है.
भारत में सीमित निजीकरण होना चाहिए था, लेकिन हमारे मूर्ख समाज ने ख़ुद आगे बढ़कर अपने संसाधनों को निजी कंपनियों के हवाले करना शुरू किया. आज नौबत यह है कि देश की लोकतांत्रिक सरकार ही इन कंपनियों से चुनावी चंदा और ऊंची ब्याज़ दरों पर कर्ज़ ले रही है. सरकार अब दीनदयाल है और अडाणी जैसी कंपनियां साहूकार, जो जब चाहे घर में घुसकर सामान तो क्या, बहू-बेटियां भी उठा ले जाये.
यह नरेंद्र मोदी का सिस्टम है और इसी सिस्टम में कार्यपालिका के संचालन का समूचा तंत्र दिन-ब-दिन घुलता जा रहा है. देश का धर्मांध, मूर्ख समाज- जिसे हज़ारों साल से वैचारिक ग़ुलामी पसंद है, चुपचाप तमाशा देख रहा है. आप अडाणी को क्यों कोसते हैं ? आपने ही तो अपने टैक्स के पैसे से खड़ी की गई संपत्तियों को अडाणी के हवाले किये जाने से नहीं रोका. आपने ही तो अपने बच्चों को सरकारी के बजाय शिक्षा माफ़िया के हवाले किया. आपने ही तो सड़क, बिजली, पानी की सुविधा के लिए PPP पर हामी भरी थी, भूल गए ?
आपने यह सब क्यों किया ? क्योंकि इन सुविधाओं की बहाली को लेकर सरकार पर आपका भरोसा नहीं था. आपको लगता था कि प्राइवेट कंपनियां ज़्यादा पैसे लेकर बेहतर सेवा देंगी. क्या ऐसा हुआ ? अगर हुआ भी तो क्या कंपनियों के एकाधिकार ने देश के संविधान को बौना नहीं किया ? क्या आपने बजाय प्राइवेट कंपनियों पर दांव लगाने के सरकार को ज़िम्मेदार और जवाबदेह बनाया ? नहीं, आप सिर्फ वोट डालते गए. सरकार बनवाई, पर अपना हक नहीं मांगा, क्योंकि आप जन्मों से ग़ुलाम हैं.
हम न तो सरकार से लड़ सकते हैं और न इन कंपनियों की मनमानी से क्योंकि हम हर इंसान को जात, मज़हब, नस्ल जैसे मापकों से देखते हैं, इसीलिए हम खुद बंटे हुए हैं. हम एक राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं में कैद होते हुए भी इन दकियानूसी सामाजिक मापकों में बंटे हुए हैं, जो गोरखपुर के व्यापारी की हत्या को हिन्दू-मुस्लिम रंग में देखता है, इंसान के रूप में नहीं.
यहीं आप उस संविधान का मखौल उड़ाते हैं, जो समानता की बात करता है. दरअसल, आपको भेड़ के रूप में हांका जाना ज़्यादा सुहाता है, क्योंकि ये सरल है. एक दिन अडाणी की पुलिस होगी, उसकी अदालत और उसी का संविधान होगा. अग्निपथ फ़िल्म के मांडवा गांव की तरह. वही इस अभागे देश के लिए अच्छे दिन होंगे और आप कहीं अधनंगे, नशे में पड़े होंगे. जब पढ़ेगा ही नहीं, तभी तो विकास करेगा इंडिया. आखिर 3000 किलो ड्रग आई किसलिए है ?
- सौमित्र राय
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