भाजपा ने 2014 के अपने चुनावी घोषणा-पत्र में यह वादा किया था कि वह देश के लिए शिक्षा नीति का एक नया मसौदा पेश करेगी. इसके पहले अंतिम बार शिक्षा-नीति का मसौदा 1986 ई. में तैयार किया गया था और फिर 1992 ई. में इसमें सुधार व संशोधन किये गये थे. 2014 ई. में भाजपा सरकार ने मात्र डेढ़ वर्षों के अन्दर ही शिक्षानीति का मसौदा तैयार करने के लिए एक कमिटी बनायी. फिर पूर्व कैबिनेट सचिव टी.आर.एस. सुब्रह्मनियम ने 2016 ई. की मई में 230 पेज की एक लम्बी रिपोर्ट पेश की. इस रिपोर्ट से यह बात और एक बार समझ में आ गयी कि यूपीए सरकार या अभी की भाजपा सरकार, किसी भी सरकार के लिए यह शिक्षा का सवाल कभी भी प्राथमिक नहीं रहा है. बाद के कन्द्रीय बजट और राज्यों के बजटों में शिक्षा के मद पर आबंटित राशि से भी यह बात और स्पष्ट हो जाती है. शिक्षा पर बजट का 10 प्रतिशत और जीडीपी का 6 प्रतिशत आबंटित करने के सपने दिखाने और लम्बे-चौड़े दावों की कलई तब बिल्कुल खुल जाती है, जब हम सचमुच में जो राशि आबंटित की गयी है, उसकी तरफ निगाह डालते हैं.
यह राशि मुद्रा की मौजूदा मूल्य के हिसाब में लें तो लगभग जहां की तहां ठहरी हुई है. वस्तुतः शिक्षा पर खर्च घटाया गया है. 2018-19 में शिक्षा पर खर्च की जानेवाली राशि पिछले 10 वर्षों में हर साल खर्च की गयी राशियों में सबसे कम है. शिक्षा के क्षेत्र में सब्सिडी 2017-18 में जीडीपी का 0.49 प्रतिशत थी जिसे 2018-19 में घटाकर जीडीपी की 0.45 प्रतिशत कर दिया गया है. स्कूली शिक्षा पर केन्द्रीय सरकार का खर्च जीडीपी का 0.28 प्रतिशत था, उसे घटाकर 0.27 प्रतिशत कर दिया गया है. सब्सिडी कम करने की इस प्रवृत्ति से उच्च शिक्षा भी बची नहीं रह सकी है. वहां केन्द्रीय सरकार का जो खर्च 0.21 प्रतिशत था, उसे घटाकर 0.19 प्रतिशत किया गया है. यूनिवर्सिटी ग्रांट कमिशन (यूजीसी) को भी रिवाइज्ड एस्टिमेट से 200 करोड़ रूपये कम का अनुदान आबंटित किया गया है.
2015-16 में राज्य-सरकारों द्वारा संचालित 328 विश्वविद्यालयों के लिए यूजीसी को 648.3 करोड़ रूपयों की सब्सिडी दी गयी थी यानी, हर संस्थान के लिए मात्र दो करोड़ रूपये आबंटित किये गये थे. यहां तक कि इंडियन इन्स्टिच्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) और नेशनल इन्स्टिच्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एनआईटी) के लिए भी सब्सिडियां कम कर दी गयी है. इन दोनों को दी जाने वाली सब्सिडियों में क्रमशः 1918 और 465 करोड़ रूपयों की कटौती की गयी है. दूसरे केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के लिए इन अनुदानों की कटौती 816 करोड़ रूपयों की है. इन आंकड़ों से यह साफ समझ में आता है कि शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी सहायता में धीरे-धीरे कटौती की जा रही है.
मौजूदा सरकार ने शिक्षा अधिकार कानून, 2009 में संशोधन कर सर्व शिक्षा अभियान और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (9वीं और उसके ऊपर के वर्ग के लिए माध्यमिक स्तर पर चलने वाली शिक्षा परियोजना) को एक साथ मिला दिया है. इसके पीछे मंशा यह है कि सर्व शिक्षा अभियान के लिए मिलनेवाली सब्सिडी को कम कर इस अभियान से मिलनेवाली सब्सिडी को कम कर इस अभियान से मिलनेवाले लाभों से लोगों को वंचित कर दिया जाए. विभिन्न राज्यों से प्राप्त आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि इस संयुक्त परियोजना के लिए जो राशि आबंटित की गयी है, वह पहले से कम है.
इसके अलावा यह भी स्पष्ट नहीं है कि इस बजट में इस परियोजना के लिए आबंटित राशि में से कितनी रकम बिल्कुल बुनियादी स्तर की शिक्षा पर खर्च की जाएगी. अब यदि आबंटित कुल राशि में से स्कूलों में ऊंचे वर्गों की शिक्षा पर आनेवाले खर्च पूरे किये जाएं तो हाई स्कूल तक की शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने का वादा मोदी सरकार द्वारा किये गये वादों में से एक है और सरकार इसका जिक्र भी बीच-बीच में करती ही रहती है.
इधर एनसीईआरटी द्वारा किये गये एक नेशनल एचिवमेंट सर्वेक्षण, 2017 के तहत सरकारी स्कूलों में शिक्षा की स्थिति ऐसी पायी गयी है कि 8वीं क्लास की छात्र-छात्राएं भी गणित, विज्ञान और समाजशास्त्र के 40 प्रतिशत प्रश्नों के जवाब नहीं दे पा रहे हैं. शिक्षा क्षेत्र से जुड़े कार्यकर्त्ताओं का मानना है कि शिक्ष की इतनी बदतर स्थिति का कारण सरकारी शिक्षा-व्यवस्था में अपर्याप्त आबंटन और शिक्षा के अधिकार कानून को जमीनी स्तर पर ठीक-ठीक लागू करने में सरकार की अयोग्यता है.
शिक्षा के क्षेत्र में यानी उच्च शिक्षा, निम्न स्तर की शिक्षा और शिक्षकों का प्रशिक्षण, इस सबके लिए सरकार जो कुल राशि 2015-16 से ही आबंटित आ रही है, वह कुल बजट के 4 प्रतिशत से भी कम रही है. 2018-19 में शिक्षा के मद में आबंटित राशि कुल बजट का 3.5 प्रतिशत है, जो पिछले 10 वर्षों में आबंटित राशियों में सबसे कम है. शिक्षा का अधिकार कानून, 2009 वस्तुतः 2010 से लागू होना शुरू हुआ. उस कानून के अनुसार स्कूलों के सभी शिक्षक-शिक्षिकाओं को प्रशिक्षण देने के लिए सरकार को 5 वर्षों का समय दिया गया. पर 2015 की उस समय-सीमा के पार हो जाने के बाद भी देखा जा रहा है कि स्कूलों में 11 लाख शिक्षक-शिक्षिकाएं अप्रशिक्षित हैं.
2017 के अगस्त में इस कानून में सरकार ने संशोधन किया और इस समय सीमा को बढ़ाकर 2019 कर दिया. शिक्षा के अधिकार कानून में प्राथमिक स्कूलों में किसी को भी फेल नहीं करने की जो सुधार मूलक पॉलिसी लागू की गयी थी, उसे सेन्ट्रल एडवाइजरी बॉडी ऑन एजुकेशन की अनुशंसा पर 2015 के अगस्त को खारिज कर दिया और प्राथमिक विद्यालयों में छात्र-छात्राओं को फेल होने पर उसी कक्षा में रोक लेने की अनुमति दी गयी. 2017 के लोकसभा के मानसून अधिवेशन के दौरान और राज्य सभा में 3 जनवरी, 2019 को एक संशोधन बिल पारित किया गया, जिसमें यह प्रावधान था कि किसी भी छात्र-छात्रा को 5वीं और 8वीं कक्षा में रोक लिया जा सकता है.
पिछले 5 वर्ष इसके गवाह रहे हैं कि किस प्रकार सरकारी विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता के दायरे को लगातार घटाता गया है. 2018 की जुलाई में मोदी सरकार ने एक बिल का मसौदा पेश किया जिसमें युनिवर्सिटी ग्रांट कमिशन को खत्म करने और बिल्कुल दूसरे रूप में एवं एक दूसरी तरह की योजना से गठित हायर एजुकेशन काउंसिल ऑफ इंडिया के जरिए इस यूजीसी को प्रतिस्थापित करने के प्रस्ताव थे. इस बिल का असली मकसद एक स्वाधीन नियामक संस्था के रूप में यूजीसी के प्राधिकार को खत्म करना था. इधर केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की स्वतंत्रता में भी भयावह रूप से कटौती की गयी है. मसलन, सरकार ने सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में पसन्द के आधार पर क्रेडिट सिस्टम शुरू किया है.
नतीजतन अब युनिवर्सिटियों ने स्वतंत्र रूप से अपना पाठ्यक्रम निर्धारित करने का अधिकार खो दिया है. नियामक संस्थानों की क्रमशः घटती जा रही स्वतंत्रता और विश्वविद्यालयों के स्वायत्त अधिकारों के कम होते जाने की यह प्रवृत्ति 2016 में एक नये स्तर में पहुंच गयी. इनके अधिकारियों ने एमफिल और पीएचडी जैसे शोध-कार्यक्रमों के लिये नये नियम चालू किये. मसलन, इनमें दाखिले के लिये लिखित परीक्षाओं की व्यवस्था को समाप्त कर क्वालिफाईंग परीक्षाओं की व्यवस्था शुरू की गयी और इन्टरव्यू को बढ़ा दिया गया. नतीजा यह हुआ कि पिछड़े समुदायों के छात्र-छात्राओं के लिए भारी समस्या सामने आ गयी. छात्र-छात्राओं ने इस नयी नीति के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका लगायी.
2018 के अक्टूबर में अदालत ने छात्र-छात्राओं के पक्ष में फैसला दिया. इसके साथ-साथ एक प्रोफेसर कितने छात्र-छात्राओं को उनके शोध में गाईड कर सकेंगे, इस एक सीमा निर्धारित करने के जरिए सरकार ने शोध (एमफिल और पीएचडी) के लिए सीटों की संख्या घटा दी है. एक तो वैसे ही अधिकांश शोध-संस्थानों और विश्वविद्यालयों में स्टॉफ कम हैं. फिर बहुत कम छात्र-छात्राएं ही अपने चौतरफा परिवेश की प्रतिकूलता से संघर्ष करते हुए शोध के स्तर तक पहुंच पाते हैं. ये सारे कदम धीरे-धीरे उनकी संख्या भी और कम कर देंगे. उदाहरण के तौर पर देंखे तो जेएनयू में एकेडमिक काउंसिल द्वारा शोध के लिए स्वीकृत सीटें 2017 में 1408 थीं. इनमें 82.81 प्रतिशत की कटौती की गयी है.
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मोदी सरकार ने ऐसी कई नीतियां लागू की हैं, जिनका मकसद कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को अपने खर्चे खुद ही जुटाने की ओर धकेल देना है. इसका मतलब यह है कि संस्थान छात्र-छात्राओं की फीस बढ़ाकर अपने खर्चे जुटायेंगे. ऐसे में जाहिर है सरकारी शिक्षण-संस्थान अब आम जनता की पहुंच के अन्दर नहीं रह जायेंगे.
मानव संसाधन एवं विकास मंत्री प्रकाश जावेडकर द्वारा प्रकाशित 2017-18 के ऑल इंडिया सर्वे ऑफ हायर एजुकेशन (एआईएसएचई) की रिपोर्ट में बताया गया है कि 2017 में खुले 1147 कॉलेजों में से 941 यानी, 82 प्रतिशत ही निजी कॉलेज थे और सरकारी कॉलेज थे मात्र 206, यानी, 18 प्रतिशत. इसी से शिक्षा के निजीकरण की गति में तेजी का अहसास होता है. 1950 में भारत में विश्वविद्यालयों की संख्या मात्र 20 थी. 2017 की जून तक यह संख्या बढ़कर 819 हो गयी है. इनमें केन्द्रीय विश्वविद्यालय 47 हैं, राज्य सरकारों के तहत रहने वाले विश्वविद्यालय 367, डिम्ड युनिवर्सिटियां 123 और निजी विश्वविद्यालय 282 हैं.
2016 की टी.एस.आर. सुब्रह्मनियम कमिटी की रिपोर्ट बताती है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण के बेलगाम होने के चलते देश भर में निजी शिक्षा-संस्थान धड़ल्ले से बढ़े हैं. फ्रांस के मशहूर अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी की भाषा में कहें तो, ‘दुनिया के सभी ताकतवर पूंजीवादी समाजों और पूंजीवादी विकास के सभी सफल ऐतिहासिक अनुभवों में सरकारी शिक्षा में निवेशों की एक सामूहिक और जबर्दस्त कोशिशों का विशेष योगदान रहा है. दुनिया के सभी पूंजीवादी देशों ने सरकारी शिक्षा-व्यवस्था और दूसरे अन्दरूनी विकास के क्षेत्रों में जो निवेश दिया है, वह तुलना में भारत के वर्तमान निवेश से काफी ज्यादा है…’.
मौजूदा सरकार ने सरकारी विश्वविद्यालयों को अनुदान देने की जगह संरचनात्मक ऋण की व्यवस्था शुरू की है. सरकार ने सरकारी, निजी और डिम्ड सभी विश्ववि़द्यालयों को नेशनल एसेसमेंट एंड एक्रिडिटेशन कांउसिल (एनएएसी – राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद) और दो साल पुराने नेशनल इंस्टिटयूशनल बैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) के मुताबिक ग्रेडेड स्वायत्तता देने का अनुमोदन किया है. इस ग्रेडेड ऑटोनॉमी के तहत आर्थिक स्वायत्तता भी है, जिसके दो मुख्य नतीजे दिखते हैं.
एक ‘टॉप’ यूनिवर्सिटियां अपनी फीसों का ढ़ांचा निर्धारित करने के मामले में हर तरह से स्वतंत्र होगी और दूसरा, यूनिवर्सिटी के किसी भी ‘स्वायत्त’ फैसले को लागू करने में आने वाले खर्चों का सारा-का-सारा बोझ उक्त युनिवर्सिटी को ही उठाना होगा या फिर निजी क्षेत्र में पार्टनर्स खोजने होंगे. 2017 में सरकार ने हायर एजुकेशन फिनान्सिंग एजेंसी (एचईएफए) का गठन किया है. यह एजेंसी केन्द्रीय सरकार से आर्थिक अनुदान पानेवाले उच्च शिक्षा संस्थानों को ‘अनुदान’ देगी ताकि वे अपना ढांचा ठीक-ठीक खड़ा कर ले सके. कर्ज लेने वाले संस्थानों का अपने आंतरिक स्त्रोतों से इस कर्ज की मूल रकम लौटानी होगी.
2017 के नवम्बर में इस एचईएफए ने 6 उच्च शिक्षा-संस्थानों को कुल 2,066.73 करोड़ रूपयों की परियेजनाओं की स्वीकृति दी है. इधर, सरकार ने आईआईटी संस्थानों के लिए आबंटित रकम को 20 प्रतिशत घटाकर 2018 के बजट में 6,326 करोड़ रूपये कर दिये हैं. नतीजतन इंडियन इन्स्टिच्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी संस्थानों के फीसों में 200 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इसके अलावा नये आईआईटी संस्थान भारी दिक्कतों में जा पड़े हैं. वह इसलिए कि मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने इन नये आईआईटी संस्थानों को अलग से कोई अनुदान नहीं देकर ऐसी एक परिस्थिति बना दी है, जिससे कि वे कर्ज लेने को मजबूर हो जायें. नये भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) की स्थितियां भी ऐसी ही है. मसलन, आईआईएम जम्मू अभी आईआईएम, लखनऊ के कैम्पस से चलाया जा रहा है. इसी प्रकार आईआईएम, अमृतसर भी अमृतसर के पंजाब इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी की बिल्डिंग से चलाया जा रहा है.
वर्तमान सरकार की मंशा तब और स्पष्ट हो जाती है जब देखते हैं कि वह जियो इन्स्टिट्यूट को, जिसका वास्तव में कोई अस्तित्व ही नहीं है, इंन्स्टि्यूट ऑफ एमिनेन्स (आईओई-प्रख्यात संस्थान) की तालिका में एक स्थान दिये दे रही है. इस आईओई मोदी सरकारर द्वारा शुरू की गयी एक नयी परियोजना है, जिसके तहत 10 सरकारी और 10 निजी संस्थानों को चुन लिया जाएगा और हरेक को 1000 करोड़ रूपये दिये जायेंगे. इससे यह तो स्पष्ट है कि उच्च शिक्षा संस्थानों को अनुदान देने के लिए केन्द्र सरकार के पास पैसे नहीं हैं, यह बात सरासर झूठ है.
वस्तुतः असली मंशा उच्च शिक्षा के निजीकरण के रास्ते की रूकावटों को एक-एक करके दूर करना है, जैसे, आईओई परियोजना के तहत 20 संस्थानों को पूर्ण स्वायत्त अधिकार देना आदि. विदेशी छात्र-छात्राओं के दाखिले के लिए फीस निर्धारित करने के मामले में ये संस्थान पूरी तरह स्वतंत्र होंगे और सरकार की ओर से उनपर किसी किस्म की कानूनी रोक नहीं रहेगी. जेनेरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड इन सर्विसेज (गैट्स) के निर्देशानुसार सरकारी विदेशी छात्र-छात्राओं के दाखिले के जरिये अपनी आय बढ़ाने की कोशिश कर रही है.
फिलहाल एक विदेशी छात्र-छात्राओं को ट्यूशन फीस के रूप में एक देशी छात्र-छात्रा से तीन गुना ज्यादा रकम देनी पड़ती है. अभी यह शासक वर्ग रोज-ब-रोज की नयी-नयी परियोजनाओं के जरिए निजीकरण को बेशर्मी के साथ प्रश्रय दिये जा रहा है. शिक्षकों की नियुक्ति करने से लेकर यूजीसी द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम को मानने या न मानने या फिर ऑन-लाईन कोर्स ऑफर करने जैसे सारे मामलों में ये आईओई पूरी तरह स्वतंत्र है.
फिलहाल तो इन सुविधाओं का लाभ उठाने के मामले में कुछ सीमाएं निर्धारित की गयी है, पर अभी जो प्रवृत्ति दिख रही है, उससे स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में इन सीमाओं पर से नियंत्रण हटा लिया जाएगा. हम जानते हैं कि स्पेशल इकोनोमिक जोन (सेज) वाले क्षेत्रों में श्रम कल्याण सम्बन्धी नीतियां लागू नहीं होती. ठीक उसी प्रकार, उच्च शिक्षा के इन सेजों में सरकार द्वारा निर्धारित फीस, आरक्षण, छात्रवृत्तियां और दूसरी न्याय आधारित नीतियां कुछ भी लागू नहीं रह जायेंगी. और यहीं से इजारेदार निजी पूंजीपति अपने लाभों के इंतजामात करेंगे.
जेएनयू के एक प्रोफेसर ने अपने एक लेख ‘सरकारी शिक्षा-व्यवस्था से कौन से लोग डर रहे हैं ?’ में बिल्कुल सही लिखा है, ‘भारत के विभिन्न क्षेत्रों में मौजूद निजी और आर्थिक तौर पर खुद ही अपने खर्चे जुटाने को स्वतंत्र संस्थानों में तकरीबन सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में ही नतीजे काफी हताशाजनक हैं. इनमें से कोई भी संस्थान संविधान द्वारा स्वीकृत आरक्षण नीति को नहीं लागू करता है. पढ़ाई के खर्चे ये इतना ज्यादा निर्धारित करके रखते हैं कि उच्च शिक्षा पर सिर्फ धनी लोगों का कब्जा ही बना रहे.
भारत की कई सारी जगहों से ऐसी खबरें मिलती रही हैं कि गरीब और वंचित छात्र-छात्राएं अपने ऊपर तथा अपने परिवार पर लाद दिये गये इस बोझ व दवाब को नहीं सह पाने के कारण अंततः खुदकुशी कर रहे हैं. हम छात्र-छात्राओं पर काफी ज्यादा कर्ज और उसके विध्वंसी नतीजों की दिशा में ही आगे बढ़ रहे हैं. साथ ही हम दुनिया के उन तमाम जगहों में जहां पढ़ाई के खर्चे बहुत ज्यादा हैं और छात्र-छात्राएं पढ़ाई के कर्ज अदा नहीं कर पा रहे हैं, उनको इस सबके खिलाफ जबर्दस्त व तीव्र प्रतिवाद देख रहे हैं. (उदाहरण के बतौर अपने यहां की सरकारी नीतियों में परिवर्तन के खिलाफ प्रतिक्रिया के बतौर अमरीका और दक्षिण अफ्रीका के छात्र-छात्राओं द्वारा शुरू किये गये ‘अकुपाई’ और ‘फिस मॉस्ट फॉल’ नामक दो विशालकाय आन्दोलनों की चर्चा की जा सकती है).
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