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महामारियों का राजनीतिक अर्थशास्त्र

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महामारियों का राजनीतिक अर्थशास्त्र

सारी दुनिया में हर साल टीबी से मरने वालों की संख्या करीब 15 लाख है. इसी क्रम में एड्स से मरने वालों की संख्या करीब 7.5 लाख और सर्दी-जुकाम से मरने वालों की संख्या करीब 5.5 लाख है. भारत में डायरिया से मरने वाले बच्चों की संख्या सालाना करीब एक लाख है. ये अमूर्त आंकड़े हैं. अपने आप में ये कुछ नहीं कहते लेकिन एक तुलना से ये आंकड़े जीवंत हो जाते हैं. अभी जब यह लेख लिखा जा रहा है तब सारा भारत ठप हो गया है. इस समय तक कोरोनावाइरस (SARS-CoV2) से होने वाली बीमारी कोविड-19 से भारत में कुल 9 मौतें हुई है और सारी दुनिया में करीब 15 हजार.

यह अजीब-सा लगता है कि केवल कुछ हजार मौतों से सारी दुनिया में हाहाकार मच जाये पर लाखों मौतों पर कोई चर्चा न हो. ऊपर गिनाई गई बीमारियों में एड्स को छोड़कर बाकी किसी अन्य पर शायद ही कोई चर्चा होती हो. कम से कम उस तरह तो चर्चा नहीं होती जैसे एड्स की होती है. आज जैसी चर्चा कोरोनावाइरस और कोविड-19 की हो रही है, वैसी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती.

क्या इस तरह के विपरीत व्यवहार का आपस में कोई सम्बन्ध है ? क्या यह संभव है कि इस तरह के विपरीत व्यवहार वास्तव में एक ही सिक्के के दो पहलू हों ?

असल में ऐसा ही है. चूंकि सालाना टीबी इत्यादि से मरने वाले लाखों लोगों पर कोई चर्चा नहीं होती इसलिए आज कोविड-19 पर हाहाकार मचा हुआ है. यदि टीबी इत्यादि पर गंभीर चर्चा होती तो आज कोविड-19 पर हाहाकार नहीं मचता. तब बहुत शांतचित्त तरीके से इस नयी बीमारी पर काबू पा लिया जाता और वह भी बिना ज्यादा नुकसान उठाये.

मामले को ठोस रूप से लें

उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण के पिछले चार दशकों में सारे देशों की सरकारों ने अपने यहां की स्वास्थ्य सेवाओं को पूंजी के हवाले किया है – मुनाफा कमाने के लिए. इस मामले में विभिन्न देशों में बस मात्रा का फर्क है. पूंजी के हवाले हुयी स्वास्थ्य व्यवस्था ने प्राथमिक स्वास्थ्य को खासतौर पर प्रभावित किया है. इस कारण संक्रामक बीमारियों पर रोकथाम लगाना अधिकाधिक मुश्किल होता गया है – खासकर नयी संक्रामक बीमारियों पर.

मुनाफा कमाने में लगे निजी क्षेत्र को प्राथमिक स्वास्थ्य में कोई दिलचस्पी नहीं होती जबकि सरकारी व्यवस्था चरमरा गयी है. ऐसे में किसी भी नयी संक्रामक बीमारी के सामने समूची स्वास्थ्य व्यवस्था लकवाग्रस्त हो जाती है. यही नहीं, टीबी का हाल का अनुभव यह दिखाता है कि इस तरह की पुरानी बीमारियां भी लाइलाज हो जा रही हैं. विशेषज्ञ एक लम्बे समय से टीबी के लाइलाज हो जाने के बारे में चेतावनी दे रहे हैं, पर शासकों के कान पर जूं नहीं रेंग रही है. सालाना पन्द्रह लाख जानों की उनके लिए कोई कीमत नहीं है. शायद इसलिए भी कि उनमें शासक वर्ग के लोग नहीं होते.

एक ओर जहां आम तौर पर स्वास्थ्य व्यवस्था चौपट हुई है, वहीं दूसरी ओर आम मजदूर-मेहनतकश जनता की बदहाली से स्वास्थ्य की चुनौतियों से जूझने की उसकी क्षमता घटी है. खासकर संकटग्रस्त विकसित और पिछड़े पूंजीवादी देशों में. ऐसे में नयी संक्रामक बीमारियों से ग्रस्त होने का खतरा पहले से बढ़ गया है.

महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस उदारीकरण-वैश्वीकरण से उपरोक्त दोनों चीजें हुयी हैं उसी वजह से नयी संक्रामक बीमारियों के भी सारी दुनिया में तेजी से फैलने की संभावना भी पैदा हुयी है. अब वायरस हवाई जहाज से एक देश से दूसरे देश में पहुंच रहा है और इसलिए रातों-रात सारी दुनिया को संक्रमित कर दे रहा है.

यानी पिछले चार दशकों की उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियां भांति-भांति के तरीके से महामारियों को भयावह बना रही हैं लेकिन आज का शासक वर्ग इसे स्वीकार नहीं कर सकता. इसलिए उसका हमेशा एक खास तरह का रुख होता है – पहले वह किसी नयी भयावह बीमारी को स्वीकार करने से इंकार करता है. फिर जब यह करना संभव नहीं रह जाता तो वह उससे उस तरह से निपटने का प्रयास करता है, जो व्यापक मजदूर-मेहनतकश आबादी के लिए और कष्टकारी साबित होता है.

आज कोविड-19 के सामने सारी मजदूर-मेहनतकश आबादी के लिए कुंआ और खाई की स्थिति पैदा हो गयी है. उसे समझ में नहीं आ रहा है कि वह भूख से मरे या कोविड-19 से. वह घर में कैद रहे या खुली हवा में सांस लेने के लिए वाइरस की चपेट में आ जाये.

इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर वर्तमान महामारी में शासकों का रुख तानाशाही भरा और जनता को जिम्मेदार ठहराने वाला रहा है. सबसे घृणित रुख तो भारत की संघी मोदी सरकार का रहा जिसने बिना किसी सरकारी प्रावधान के सारे देश को ठप कर दिया. अपने भाषण में संघी प्रधानमंत्री ने केवल जनता को नैतिक उपदेश देने तक तथा सारी जिम्मेदारी उस पर सौंपने तक सीमित रखा. इसका परिणाम यह निकला है कि जनता में केवल भय और आतंक व्याप्त है. भीतर ही भीतर असंतोष का वह लावा जमा हो रहा है, जो कभी भी फूट सकता है.

उपरोक्त से स्पष्ट है कि आज महामारियां और उनकी रोकथाम केवल तकनीकी-चिकित्सकीय मामला नहीं है, यह प्राथमिक तौर पर राजनीतिक मामला है. वहीं वाइरस किसको कितना प्रभावित करेगा, यह संबंधित वर्ग और देश से तय होगा. इसका सीधा संबंध उसके स्वास्थ्य और उसे उपलब्ध स्वास्थ्य सेवा से है. एक बार प्रभावित हो जाने पर उसका अंतिम परिणाम क्या होगा, वह भी इन्हीं से तय होता है.

शासक वर्ग बखूबी इस बात को जानते हैं इसलिए वे टीबी, हैजा या डायरिया इत्यादि से परेशान नहीं होते. वे इनसे सुरक्षित हैं. वे एड्स की इसीलिए चर्चा करते हैं कि वे इससे प्रभावित हो सकते हैं. कोविड-19 से शासकों में हड़कंप मचने का एक आंशिक कारण यह भी है कि नयी संक्रामक बीमारी होने के चलते वे भी इससे ग्रस्त हो रहे हैं.

और अगर महामारियों का मामला यदि राजनीतिक है तो उसे ‘राष्ट्रीय आपदा’ के नाम पर राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता. इस गंभीर मौके पर समूचे शासक वर्ग, उसकी नीतियों और उस पर धड़ल्ले से चलने वाली वर्तमान सरकार को कटघरे में खड़ा किया ही जाना चाहिए. यह सवाल उठाया जाना चाहिए कि आज सारे देश को ठप करने वाली सरकार पिछले तीन महीने से क्या कर रही थी ? पिछले छः सालों से वह सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को और चौपट क्यों करती रही है ? क्यों उसने देश के सारे जिला अस्पतालों को निजी मेडिकल काॅलेज को देने की योजना बनाई ? स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बढ़ने के बदले कम क्यों होता जा रहा है ?

आज संघी सरकार चाहती है कि कोविड-19 से लड़ने के लिए सारा देश उसके पीछे गोलबंद हो जाये. पर जो सरकार जांच कर यह जानने का भी प्रयास नहीं कर रही है कि देश में कितने लोग इस वायरस से संक्रमित हैं, उस पर कोई कैसे भरोसा कर सकता है ? जो सरकार बिना लोगों की परवाह किये सारा देश ठप कर दे रही हो उसके पीछे लोग कैसे गोलबंद हो सकते हैं ?

ऐसा नहीं हो सकता. इसीलिए यदि इस महामारी से देश बच निकलता है तो यह संयोग की ही बात होगी. शासक वर्ग और सरकार के कारनामे तो उलटी दिशा की ओर ही ले जाते हैं. हां, यह जरूर होगा कि तब सारा श्रेय संघी फासीवादी ले रहे होंगे.

इस महामारी से बच निकलने की स्थिति में भी मजदूर-मेहनतकश आबादी के लिए स्थिति विकट बनी रहेगी. देश की अर्थव्यवस्था पहले ही तीखे संकट से गुजर रही थी. अब जब देश ठप हो गया है तब हालात और संगीन हो जायेंगे. जैसा कि हमेशा होता रहा है, शासक पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार इस बंदी का सारा बोझ मजदूर-मेहनतकश जनता पर डालेंगे. आज वे चाहें जो कुछ कह रहे हों, पर असल में ऐसा ही होगा यानी मजदूर मेहनतकश जनता की हालत इस बंदी से और खराब होगी.

कोरोनावाइरस सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए भी उसी तरह घातक साबित हो रहा है जैसे वह लोगों के स्वास्थ्य के लिए. इस समय सारी दुनिया के शेयर बाजार गोते लगा रहे हैं. आयात-निर्यात बुरी तरह से प्रभावित हुआ है. स्वयं उत्पादन भी विभिन्न देशों में बंदी से कम या ज्यादा मात्रा में प्रभावित हो रहा है. यदि यह सब जारी रहा तो पहले से ही संकटग्रस्त वैश्विक अर्थव्यवस्था की हालत बेहद गंभीर हो जायेगी.

यहां एक बार फिर रेखांकित करना होगा कि लोगों के स्वास्थ्य की तरह अर्थव्यवस्था के मामले में भी असल कारण कोरोनावाइरस नहीं है. असल कारण वे बदहाल स्थितियां हैं जिसमें इस तरह का वाइरस या उसका खतरा इतनी भयावह भूमिका अदा करता है. यदि स्थितियां इतनी क्षणभंगुर नहीं होतीं तो एक अदना-सा वाइरस इस तरह की भूमिका अदा नहीं कर सकता.

मजे की बात यह है कि यह अदना-सा वाइरस इससे भी बड़ी भूमिका अदा कर रहा है. वह सारे भू-राजनीतिक समीकरणों को बदल दे रहा है. इसका इससे बड़़ा प्रमाण क्या होगा कि आज चीन जी-7 के एक विकसित देश इटली को कोरोनावाइरस से लड़ने में मदद दे रहा है.

कोरोनावाइरस को लेकर संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन में मचा विवाद यूं ही नहीं है. दोनों के ही ऊपर आरोप है कि वे इस वाइरस के लिए जिम्मेदार हैं. मतलब यह है कि सार्स वाइरस की इस किस्म का जन्म संयोगवश नहीं हुआ बल्कि प्रयोग के द्वारा हुआ – एक जैविक हथियार के तौर पर. इस बारे में अभी निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता पर इसकी संभावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता. अतीत में ऐसा हो चुका है. पर एक बात तो तय है कि इस वाइरस को लेकर दोनों देशों के शासकों के बीच वाकयुद्ध चल रहा है और वह उनके बीच चल रहे दीर्घकालीन संघर्ष में एक और मुद्दा बन गया है.

अंत में बीमारियों / महामारियों के मामले में एक अन्य तरह की राजनीति की भी चर्चा कर ली जाये. इस तरह की महामारियों की आशंका के समय कुछ लोगों की हमेशा यह राय होती है कि मामले को जान-बूझकर बढ़ाया जा रहा है. असल में मामला इतना व्यापक और गंभीर नहीं है, पर निहित स्वार्थ वाले जान बूझकर उसे इतना बड़ा बना रहे हैं. पिछले 20 सालों में सार्स, इबोला, स्वाइन फ्लू इत्यादि के समय भी इसी तरह का हड़कम्प मचा था, अंत में मामला उतना व्यापक और गंभीर नहीं निकला. इस बार भी जिस तरह बिना किसी ठोस प्रमाण के 1918 के विश्वव्यापी फ्लू से कोविड-19 की तुलना की जा रही है, उससे इस तरह की आशंका को बल मिलता है.

इस तरह की आशंका जाहिर करने वाले संघी मोदी सरकार की तरह के निहित स्वार्थों की ओर इशारा नहीं करते जो इस महामारी की आड़ में एनआरसी के खिलाफ तीखे संघर्ष से मुक्ति पा लेते हैं और अपनी सारी नाकामयाबियों को इस तरह की महामारी के मत्थे मढ़ सकते हैं. इन लोगों का इशारा उस भारी फार्मा-मेडिकल काम्प्लेक्स की ओर है जो महामारियों का हड़कम्प मचा कर भारी व्यवसाय हासिल कर लेते हैं. इसमें बीमारी के बारे में शोध से लेकर उसके लिए अन्य तरह के सहायक उपकरण तैयार करने का भारी व्यवसाय शामिल होता है.

लगातार विशाल होते जाते फार्मा-मेडिकल काम्प्लेक्स को उसी तरह और ज्यादा व्यवसाय चाहिए जैसे लगातार विशाल होते गये मिलिटरी इंडस्ट्रियल काम्प्लेक्स को. सैन्य-उद्योग समूह ने इसके लिए सरकारों द्वारा युद्ध छेड़ने के लिए प्रोत्साहित करने से भी गुरेज नहीं किया है. दुनिया में युद्ध और युद्ध का तनाव सैन्य-उद्योग समूह के लिए व्यवसाय का अनुकूल माहौल तैयार करता है. इसी तरह महामारियां और उनकी आशंका फार्मा-मेडिकल काॅम्प्लेक्स के लिए भारी मुनाफे का सौदा है. ऐसे में यदि वास्तव में महामारी न भी हो तो भी यह समूह महामारी की आशंका पैदा करना चाहेगा। इनसे जुड़ा और सनसनी पैदा करने वाला पूंजीवादी प्रचारतंत्र इसमें सहायक होता है.

ऐसे में कई बार वास्तव में यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि महामारी की आशंका वास्तविक है या काल्पनिक ! स्थिति की जटिलता इसलिए भी बढ़ जाती है कि बिल्कुल नयी बीमारियों के मामले में वैज्ञानिक तौर पर, निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता. वहां केवल संभावनाओं की बात की जा सकती है. संभावनाओं में जो भारी अंतर होता है वह इस तरह के मौत के सौदागरों के लिए भारी काम का साबित होता है. वे इसी का इस्तेमाल कर अरबों-खरबों का वारा-न्यारा कर लेते हैं.

यह बेहद अमानवीय है पर पूंजीवाद का यही सच है. इसमें विज्ञान-तकनीक का सारा विकास इसी तरह पूंजी की सेवा में समर्पित है, मानवता की सेवा में नहीं. यहां महामारी से निपटने के बदले उसकी आड़ में व्यवसाय किया जाता है. कोई आश्चर्य नहीं कि ये और आगे बढ़कर महामारियां पैदा करने तक चले जायें. यह याद रखना होगा कि यूरोप के उपनिवेशवादियों ने दक्षिण अमेरिका के रेड इंडियन लोगों को चेचक से संक्रमित कंबल बांटे थे, जिससे उनका विनाश हो सके. हुआ भी वही था. आज के पूंजीपति उन्हीं के वंशज हैं.

पूंजीपति वर्ग और उनकी सरकारों के इसी व्यवहार के कारण ही व्यापक मजदूर-मेहनतकश आबादी का इन पर विश्वास नहीं होता. इसका नतीजा होता है कि महामारियों की आशंका के समय भी लोग स्वेच्छा से सहयोग करने के लिए आगे नहीं आते. ऐसे में सरकारों को जोर-जबर्दस्ती का सहारा लेना पड़ता है. भारत जैसे पिछड़े समाजों में तो यह बहुत भांति-भांति का रूप ग्रहण कर लेता है.

अनगिनत अफवाहों से लेकर बीमारी को छिपाने तक सरकार और जनता के बीच लुका-छिपी का खेल चलने लगता है. शासक वर्ग और सरकार इसके लिए जनता को जिम्मेदार ठहराते हैं पर वे पलटकर अपने गिरेबां में नहीं झांकते. वे यह स्वीकार नहीं कर सकते कि यह उनके ही व्यवहार की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है.

महामारियों के समय इस तरह की विकट स्थितियां तब तक बनी रहेंगी जब तक स्वास्थ्य व्यवस्था मुनाफा कमाने का साधन बनी रहेंगी. केवल उपदेश और सरकारी प्रचार से इस विकट स्थिति से नहीं निपटा जा सकता. कहने की बात नहीं कि इस तरह की स्थितियों में किसी भी महामारी से प्रभावी तरीके से नहीं निपटा जा सकता. वैसे यदि शासक वर्ग स्वयं प्रभावित न हो तथा यदि सरकारों को राजनीतिक नुकसान की चिंता न हो तो वे किसी भी महामारी की जरा भी परवाह न करें, उल्टे वे उससे मुनाफा ही कमायें जैसा इस समय जमाखोरी के जरिये किया जा रहा है. मजदूर-मेहनतकश जनता की जान की वैसे भी शासकों और उसकी सरकार की नजर में कोई कीमत नहीं होती. अपनी जान के लिए जनता को स्वयं ही सामने आना होगा.

(साभारः www.enagrik.com)

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ROHIT SHARMA

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