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मेरे लिए भगत सिंह : बौद्धिक आकाश का ध्रुवतारा

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मेरे लिए भगत सिंह

Kanak Tiwariकनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़

23 मार्च भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे क्रांतिवीरों की शहादत और समाजवादी नेता डाॅ. राममनोहर लोहिया का जन्मदिन है. भावुकता या तार्किक जंजाल से भगत सिंह के व्यक्तित्व को समझा नहीं जा सकता. इतिहास, भूगोल, सामाजिक और तमाम आनुषांगिक परिस्थितियों के आकलन के बिना व्यक्ति का तटस्थ मूल्यांकन नहीं होता. भारतीय समाजवाद के सबसे युवा चिंतक इतिहास में भगत सिंह ही स्थापित होते हैं. विवेकानंद, जयप्रकाश, लोहिया, नरेन्द्रदेव, सुभाष बोस, मानवेन्द्र नाथ राय और जवाहरलाल नेहरू आदि ने ‘समाजवाद‘ का आग्रह उनसे ज्यादा उम्र में किया है.

क्रांतिकारियों के सिरमौर चंद्रशेखर आजाद से भी ज्यादा लोकप्रिय भगत सिंह पंजाबी, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी के लेखक-विचारक थे. मार्क्सवाद से पूरी तौर पर प्रभावित होने के बावजूद उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनना स्वीकार नहीं किया था. भगत सिंह स्वतंत्रता संग्राम के अकेले ऐसे योद्धा हैं, शहादत के पहले ही जिनकी ख्याति महात्मा गांधी के मुकाबले हो गई थी. यह पट्टाभिसीतारमैया ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास‘ में स्वीकार किया है.

भगतसिंह ने कांग्रेस और क्रांतिकारियों के लोकप्रिय नारे ‘वन्दे मातरम्‘ की जगह मार्क्सवादी नारा ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ भारतीयों के कंठ में क्रांति का प्रतीक बनाकर इंजेक्ट किया. धार्मिक आस्थाओं के आह्वान ‘अल्लाह ओ अकबर‘, ‘सत श्री अकाल‘ वगैरह नारे उछालने में उन्होंने कभी विश्वास नहीं किया. साम्यवादी विचारकों मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन आदि को पढ़ने के अतिरिक्त भगत सिंह ने अप्टाॅन सिंक्लेयर, जैक लंडन, बर्नर्ड शॉ, चार्ल्स डिकेन्स, आदि सहित तीन सौ से अधिक महत्वपूर्ण किताबें पढ़ रखी थी. शहादत के दिन भी लेनिन की जीवनी पढ़ते-पढ़ते ही फांसी के फंदे पर झूल गए.

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भगतसिंह के निर्माण के सहयोगी नेशनल काॅलेज, लाहोर के प्राचार्य छबील दास, द्वारका दास लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन राजाराम शास्त्री, महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी और उनके मित्रों भगवतीचरण वोहरा, चंद्रशेखर आजाद, सोहनसिंह जोश, सुखदेव, विजय कुमार सिन्हा, शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि रहे हैं. आश्चर्य की बात है कि भगत सिंह के लेखन में विवेकानंद का कोई उल्लेख नहीं है, जबकि मार्च, 1927 में भगत सिंह द्वारा स्थापित ‘नौजवान सभा‘ में लाहौर में बंगाल के क्रांतिकारी नेता और विवेकानंद के भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त को ‘पश्चिम में युवा आंदोलन‘ विषय पर व्याख्यान और समझाइश देने के लिए बुलाया गया था.

बंगाल के क्रांतिकारी और कांग्रेस के बड़े नेता तिलक, गोखले, नेहरू और सुभाष बोस आदि विवेकानंद से प्रभावित थे. लेकिन भगत सिंह पर सबसे अधिक असर अपने चाचा अजीत सिंह का था. बगावत करने की वजह से उन्हें अंग्रेजों ने लगभग पूरे जीवन के लिए देश निकाला दे दिया था. सरदार अजीत सिंह, पिता किशन सिंह, लाला लाजपत राय, प्राचार्य छबीलदास, लाइब्रेरियन राजाराम शास्त्री के समर्थन और गांधी के आह्वान पर पढ़ाई छोड़कर स्वाधीनता आंदोलन में भगत सिंह के कूद पड़ने के बावजूद कांग्रेस के सरकारी प्रस्तावों ने उनके साथ न्याय नहीं किया.

भगत सिंह की फांसी के मुद्दे पर पूरी कांग्रेस लगभग आधे आधे में विभाजित हो गई थी. गांधी के भगत सिंह को अंगरेजी सरकार का विरोध नहीं करने के प्रस्ताव को बहुत मामूली बहुमत के साथ पास किया जा सका. भगत सिंह ने ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन‘ नामक क्रांतिकारी संगठन के नाम में ‘सोशलिस्ट‘ नाम का शब्द इस आशय के साथ जोड़ा कि भारत को जो स्वतंत्रता मिले उसका आर्थिक उद्देश्य समाजवाद भी होना चाहिए. कोई पांच दशक बाद हिन्दुस्तान के संविधान में एक संशोधन के द्वारा यही ‘समाजवाद‘ शब्द जोड़ा गया.

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भगत सिंह के साथियों का पूरा जीवन धर्म निरपेक्षता को परवान चढ़ाते बीता. उनका विश्वास था कि धर्म का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए. भगत सिंह नास्तिक थे. उन्हें ईश्वर या धर्म की परंपराओं में विश्वास नहीं था. दलित वर्ग के लिए उनके संगठन के दरवाजे जातीय बराबरी के आधार पर खुले थे. उन्हें छुआछूत से बेसाख्ता नफरत थी. किस्सा तो यह भी मुख्तसर है कि मुसलमानों के अलग-अलग रूढ़ विश्वासों के कायम रहते झटका और हलाल किस्म के मांस को एक साथ परोसकर खिलाए जाने के रोमांच के प्रयत्न भी इन क्रांतिकारियों के बीच होते रहते थे.

भगत सिंह का जीवन प्रकाश की तरह उजला और सूरज के ताप की तरह उष्ण था. अध्ययन और अध्यवसाय के बिना क्रांति की कोई भी कल्पना उन्होंने नहीं की. विपरीत राजनीतिक दृष्टिकोणों के बावजूद महात्मा गांधी को लेकर उनके मन में बेहद सम्मान था. किसान, मजदूर और विद्यार्थी उनके लिए क्रांति के आधार थे.

भगत सिंह अनोखे और मौलिक नेता थे. अनोखे इसलिए कि वे किसी लीक पर नहीं चले. उन्होंने भारतीय क्रांति और स्वतंत्रता-युद्ध के मूल्य स्थिर और विकसित करने में परंपरावादी राजनीतिशास्त्र का मुखौटा नहीं लगाया. वे चाहते तो आयरलैण्ड, फ्रांस और रूस की क्रांतियों के जननायकों की अनुकृति में वैसा ही रास्ता संस्तुत कर सकते थे. रूसी विचारकों को उन्होंने अपने अंतिम दौर में प्रेरणा का स्त्रोत बनाया. शुरुआती दौर में वे आयरलैण्ड के विद्रोहियों से प्रेरणा ग्रहण करते रहे.

भगत सिंह ने पूरी तौर पर सशस्त्र क्रांति को खारिज भी नहीं किया. उन्होंने लेकिन साफ कहा कि सशस्त्र क्रांति उस समय ही अनिवार्य विकल्प है, जब जनता पूरी तौर पर क्रांति के नियामक मूल्यों के लिए सुशिक्षित हो जाए. इसके अतिरिक्त सशस्त्र क्रांति को जनता और हुक्मरानों का ध्यान खींचने के लिए वे केवल माध्यम समझते थे. उनके वैचारिक फलसफा में आर्थिक क्रांति करने के लिए सर्वहारा की सार्थक और निर्णायक भूमिका का उल्लेखनीय समावेश था.

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भगत सिंह के प्रमुख राजनीतिक उद्देश्य मसलन धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और अस्पृश्यता-उन्मूलन वगैरह भारतीय संविधान में बाद में शामिल तो कर लिए गए हैं, लेकिन अमल में उनकी लचर स्थिति है. इसलिए भगत सिंह समर्पित नौजवानों की एक बड़ी टीम बनाए जाने के पक्षधर थे जो इन राजनीतिक आदर्शों के सपने को यथार्थ में तब्दील कर सके.

भगत सिंह के बहुत से साथी तार्किक दृष्टि से सम्पन्न और समान घनत्व के थे लेकिन विचार और कर्म के समन्वय को ध्रुव तारे की तरह आकाश में टांक देने की भगत सिंह की बौद्धिक कुशलता उन्हें इतिहास में ईर्ष्या योग्य बनाती है.

बेहद हंसमुख भगत सिंह के चेहरे को देखकर यह समझना मुस्किल था कि उनके मन में बगावत के शोले उबलते रहे हैं. वे दरअसल मृत्युंजय थे. उनमें शुरुआत में खतरों से खेलने का रूमानी एडवेंचर भले रहा हो, बाद की वैचारिक प्रौढ़ता गाढ़े वक्त हिन्दुस्तान की आजादी को लेकर बहुत काम आई. भगत सिंह को तो औसत आयु भी नहीं मिली.

असेंबली बम काण्ड में धुएं और गर्द गुबार की अफरा-तफरी के चलते भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आसानी से भाग जाने का मौका भी था लेकिन वह काण्ड भगत सिंह की क्रांतिकारिता का क्लाइमेक्स था. दरअसल असेंबली में भगत सिंह और दत्त ने बम नहीं क्रांति के अग्निमय शोलों से लक-दक लाल परचे फेंके, जो किसी भी मुर्दा कौम में बगावत के स्फुलिंग भर सकते हैं. वह ब्रिटिश सम्राज्यवाद को भारतीय युवकों की एक प्रतीकात्मक चुनौती थी और उसका समकालीन इतिहास पर वांछित असर भी पड़ा.

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यह दुर्भाग्य है कि अपनी सुविधा के अनुसार एक हिंसक, क्रांतिकारी, कम्युनिस्ट या कांग्रेस के अहिंसा के सिद्धांत का विरोधी बताकर इस अशेष जननायक का मूल्यांकन करने की कोशिश की जाती है. उनका उत्सर्ग कच्चे माल की तरह रूमानी क्रांतिकारी फिल्मों का अधकचरा उत्पाद बनाकर उस नवयुवक पीढ़ी को बेचा जा रहा है, जिसके सामने अपने देश में बेकारी का सवाल मुंह बाए खड़ा है.

भगत सिंह का असली संदेश किताबों को पढ़ने की ललक और उससे उत्पन्न अपने से बेहतर बुद्धिजीवियों से सिद्धांतों की बहस में जूझने के बाद उन सबके लिए एक रास्ता तलाश करने का है, जिन करोड़ों भारतीयों के लिए बहुत कम प्रतिनिधि-शक्तियां इतिहास में दिखाई देती हैं. कौम के मसीहा वे ही बनते हैं जो देश की लड़ाई या प्रगति को मुकाम तक पहुंचाते हैं और खुद अपने वैचारिक मुकाम तक पहुंचने का वक्त जिन्हें मिल जाता हैै.

भगत सिंह अल्पायु में दुर्घटनाग्रस्त होने के बावजूद इतिहास की दुर्घटना नहीं थे. वे संभावनाओं के जननायक थे. उनसे कई मुद्दों पर असहमति भी हो सकती है लेकिन बौद्धिक मुठभेड़ किए बिना तरह-तरह की विचारधाराओं का श्रेष्ठि वर्ग उनसे कन्नी काटता रहा है. यह तकलीफदेह सूचना है कि भगतसिंह ने लगभग तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें जेल में लिखी थीं जो बाहर पहुंचाए जाने के बावजूद लापरवाही, खौफ या अकारण नष्ट हो गईं. ‘जेल की डायरी‘ उनकी आखिरी ज्ञात किताब है. उसके टुकड़े-टुकड़े जोड़कर उनके तेज दिमाग के तर्कों के समुच्चय को पढ़ा और प्रशंसित किया जा सकता है.

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भगत सिंह के साथ दिक्कत यही है कि हर संप्रदाय, जाति, प्रदेश, धर्म, राजनीतिक दल, आर्थिक व्यवस्था उन्हें पूरी तौर पर अपना नहीं पाती. उनके चेहरे की जुदा-जुदा सलवटें अलग-अलग तरह के लोगों के काम आती हैं. वे उसे ही भगत सिंह के असली चेहरे का कंटूर घोषित करने लगते हैं. असली चेहरा तो पारदर्शी, निष्कपट, स्वाभिमानी, जिज्ञासु, कर्मठ और वैचारिक नवयुवक का है. वह रूढ़ व्यवस्थाओं को लेकर समझौतापरक नहीं हो पाया. असमझौतावादी भगत सिंह को तेईस चैबीस वर्ष में ही काला कफन ओढ़ना पड़ा. भगत सिंह की शायद यही नियति हो सकती थी. उनकी शहादत के अस्सी वर्ष बीत जाने पर भी दुनिया और भारत उन्हीं सवालों से जूझ रहे हैं जिन्हें भगत सिंह ने वक्त की स्लेट पर स्थायी इबारत की तरह उकेरा था.

साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, अधिनायकवाद और तानाशाहियां अपने जबड़े में लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, सर्वहारा और पूरे भविष्य को फंसाकर लीलने के लिए तत्पर हैं. भगत सिंह की भाषा पढ़ने पर कुछ भी पुराना या बासी नहीं लगता. वे भविष्यमूलक इबारत गढ़ रहे थे. उन्होंने जो कुछ पढ़ा, अधिकांश अंग्रेजी और पंजाबी में, लेकिन जो कुछ लिखा और बोला उसका अधिकांश हिन्दी में. यह भगत सिंह की नए भारत के बारे में सोच है. इसकी डींग उन्होंने नहीं मारी.

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यह उल्लेखनीय है कि भगत सिंह का ब्रिटिश साम्राज्यवाद से असली संघर्ष ‘पब्लिक सेफ्टी बिल‘ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल‘ को लेकर हुआ. यह दुर्भाग्यजनक और शर्मनाक है कि जनसुरक्षा के नाम पर जनस्वतंत्रता निरोधक विधायन हो रहे हों, सरकारें (और न्यायालय भी) सरकारी कर्मचारियों और ट्रेड यूनियनों के हड़ताल तक करने के अधिकारों को भोथरा कर रहे हों, फिर भी राजनीतिज्ञ भगत सिंह-स्मृति जनसमारोहों में प्रजातांत्रिकता का ढोंग करें. तमिलनाडु में जयललिता सरकार ने हजारों कर्मचारियों को बर्खास्त किया, तब उच्चतम न्यायालय तक ने अभिमत निर्धारित किया कि सरकार को ऐसा करने का अधिकार है. कर्मचारियों को हड़ताल पर जाने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है.

प्रतिप्रश्न यह है कि यदि कांग्रेस या गांधी के नेतृत्व में सिविल नाफरमानी जैसा आंदोलन सफल नहीं हुआ होता तो क्या अंग्रेज इस देश से जा सकता था ? मजदूरों और कर्मचारियों को सरकारी अन्याय के विरुद्ध हड़ताल नहीं करने का अधिकार क्या ब्रिटिश संवैधानिक अवधारणा से उत्पन्न हुआ है ? भारतीय न्यायालय मौलिक देशज अवधारणाओं के समीक्षागृह नहीं हैं. स्थानीय परंपराओं में इस तरह के पूर्वोदाहरण नहीं मिलते हैं.

21वीं सदी की वैश्वीकरणजनित परिस्थितियों में 19वीं सदी की ब्रिटिश अवधारणाओं की शास्त्रीय विक्टोरियन भाषा में दी गई सुप्रीम कोर्ट की समझाइश उन संवेदनात्मक बिंदुओं को कैसे रेखांकित कर सकती है, जिनके मूल में भगत सिंह की बौद्धिक गतिशीलता का प्रस्थान बिंदु इतिहास में ठीक उसी तरह स्थिर है और झिलमिला भी रहा है – जिस तरह ध्रुव तारा.

देष में नजरबंदी के टाडा और पोटा जैसे इतने बदनाम कानून बने हैं जितने शायद अंग्रेजों के शासनकाल में भी नहीं थे. नजरबंदी कानून तभी बनते हैं जब देश की जनता का कोई वर्ग इस तरह मुखालफत करता है कि उसे सामान्य कानूनों द्वारा दंडित नहीं किया जा सकता. ऐसी मुखालफत तब होती है जब राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के त्रिभुज में लोकतंत्र की आत्मा फंस जाती है.

सरकारें विचारतंत्र के बदले तंत्र के विचार में ज्यादा मशगूल हो जाती हैं. यदि उन अवरोधों को हटा दिया जाए, जो जनता में उत्पीड़न के खिलाफ इस हद तक युद्ध उन्माद पैदा करते हैं कि कानून उन्हें रोक नहीं पाते, तब ऐसी स्थिति में नजरबंदी के कानून बनाना सरकारों की बौद्धिक और प्रशासनिक असफलता का पुष्ट प्रमाण है.

यह जरूर है कि भारतीय लोकतंत्र में कुछ पश्चिमी देशों की तरह मनुष्य की आजादी को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रतिष्ठा दी गई है लेकिन उस पर मर्यादाओं के नाम पर प्रतिबंधों के इतने परंतुक लगाए गए हैं कि मनुष्य की देह भर दिखाई देती है. उस पर इतने पलस्तर बंध जाते हैं कि उसका चेहरा नहीं दिखाई देता.

8. यक्ष प्रश्न यह है कि क्या भगत सिंह और उनके साथियों का हिंसा में तात्विक विश्वास था ? सीधा उत्तर है – नहीं. सशस्त्र क्रांति का समर्थन भगत सिंह की थ्योरी में हिंसा का समर्थन नहीं है. सांडर्स की हत्या के तत्काल बाद मिले क्रांतिकारी पर्चे में साफ लिखा था कि उन्हें एक मनुष्य का खून बहाने में गहरा दुःख है. ऐसा वे चाहते भी नहीं थे. जिन परिस्थितियों में शांति मार्च की अगुआई कर रहे लाला लाजपत राय को लाठियों से पीटकर मार डाला गया, उस घटना का बदला बौद्धिक के बदले यौद्धिक तरीके से ही कारगर ढंग से संसूचित किया जा सकता था. इससे ही अंग्रेज शासक में खौफ पैदा होता कि वह स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों की वहशी इरादों के साथ हत्या करने की कोशिश नहीं करे.

पूरक प्रश्न यह भी है कि लाला लाजपत राय की हत्या का बदला कांग्रेस ने क्या भगत सिंह के मुकाबले अधिक कारगर ढंग से लिया ? इतिहास इसका उत्तर नहीं दे पाता. इसलिए कोई छह महीने बाद मौका मिलने पर भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ असेंबली में इस तरह बम फेंका कि किसी को चोट तक नहीं लगे. दोनों चाहते तो असेंबली के सदस्यों को हिंसा की चपेट में ले सकते थे. बम विस्फोट के बाद उठे धुएं और गर्द गुबार में दोनों क्रांतिकारी भाग भी सकते थे.

भगत सिंह चाहते थे और जानते थे कि असेंबली के बम काण्ड की वजह से उन्हें फांसी की सजा नहीं हो सकती, लेकिन सांडर्स की हत्या की वजह से जरूर हो सकती है. भगत सिंह न्याय व्यवस्था की ढ़िलाई से भी परिचित थेे. उनका अनुमान रहा होगा कि मुकदमा कम से कम पांच वर्षों तक तो चलेगा ही. इतने समय में वे खुद को अधिक प्रशिक्षित करने के अतिरिक्त न्याय प्रक्रिया के माध्यम से दुनिया का स्वतंत्रता आंदोलन के एक क्रांतिकारी पक्ष की तरफ भी ध्यान आकृष्ट कर सकते थे.

वे यह भी जानते थे कि उनके आंदोलन की वजह से कांग्रेस के युवा तत्वों को पार्टी पर पकड़ बनाने में मदद मिलेगी. हुआ भी यही. जवाहरलाल नेहरू और सुभाष बोस ने अन्य कई हम उम्र नेताओं के साथ मिलकर गांधीजी के विरोध के बावजूद भगत सिंह को समर्थन दिया. 40 वर्ष की युवा उम्र में जवाहरलाल नेहरू कई प्रौढ़ नेताओं के मुकाबले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी बन गए.

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गांधी-इर्विन समझौते की इबारतों को दरकिनार करते जवाहरलाल नेहरू ने रावी के तट पर कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में पूर्ण स्वतंत्रता का नारा बुलंद किया. तब भगत सिंह लाहौर जेल में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ बौद्धिक स्तर पर आखरी खंदक की लड़ाई लड़ रहे थे. पूरी कांग्रेस पार्टी और उसके सम्मेलन में अनुपस्थित रहकर भी गांधीजी की लगभग समकक्षता के साथ उपस्थित थे.

इतिहास यह सवाल भी पूछेगा कि कांग्रेस अधिकारिक तौर पर भगत सिंह के कथित हिंसक आंदोलन का समर्थन क्यों नहीं कर पाई ? क्या 1942 का आंदोलन पूरी तौर पर अहिंसक कहा जा सकता है ? खुद गांधी ने स्वीकार किया है कि ‘भारत छोड़ो‘ आंदोलन पूरी तौर पर अहिंसक नहीं था. जिन नवयुवकों ने हिंसक आंदोलन किया, कांग्रेस ने उन्हें अपना सिपाही मानने से इंकार भी तो नहीं किया.

तर्क यह नहीं है कि गांधीजी को राजनीति में हिंसा का समर्थन करना चाहिए था. गांधी ने खुद कहा है कि भगत सिंह और उनके साथियों की देशभक्ति और आंदोलन को लेकर उनके मन में सम्मान है. लेकिन देश के नवयुवकों को उन्होंने आगाह किया कि वे भगत सिंह के रास्ते पर नहीं चलें. गांधी ने यह स्पष्ट कहां किया कि वे भगतसिंह के कथित यौद्धिक रास्ते की ही आलोचना कर रहे थे ?

भगत सिंह के बौद्धिक रास्ते से उनका यदि मतभेद उजागर होता, तो देश अपनी समझ के अनुसार गांधी या भगत सिंह के राजनीतिक विचारों में से एक को चुन सकने के लिए स्वतंत्र होता. भगत सिंह कांग्रेस के प्रति तटस्थ या निरपेक्ष नहीं थे. बाद में उससे अप्रभावित रहकर भगत सिंह ने रूसी बुद्धिजीवियों तथा आयरलैण्ड के क्रांतिकारियों से प्रेरणा लेकर अपना अलग रास्ता बनाया. वह भगत सिंह की मौलिकता का सीधा प्रमाण है. भगत सिंह के निर्माण में गणेश शंकर विद्यार्थी का भी बड़ा योगदान है. उनसे भगतसिंह ने पत्रकारिता और क्रांतिकारिता की ट्रेनिंग ली.

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अपने साथियों में भगत सिंह सबसे पहले समाजवादी विचारों की तरफ आकर्षित हुए. उनके साथी अजय घोष के अनुसार उन्हें मार्क्सवादी नहीं कहा जा सकता. भगत सिंह ने न्याय व्यवस्था की उन विसंगतियों की ओर भी ध्यान खींचा था जो आज तक कायम हैं. भगत सिंह अदालतों के सामने नतमस्तक नहीं होते थे. भगत सिंह पूरी तौर पर अनीश्वरवादी थे. बाकुनिन की पुस्तक ‘दि गाॅड एण्ड द स्टेट‘ का उन पर गहरा असर था.

उन्होंने विदेश जाने से इंकार किया था. रूसी या अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों ने उन्हें कभी निमंत्रित भी नहीं किया. ‘भारत का इतिहास‘ (मास्को 1984) नामक पुस्तक में क्रांतिकारियों के आन्दोलन का महत्व कमतर आंकते हुए यही लिखा गया है ‘भूमिगत क्रांतिकारियों की आतंकवादी कार्रवाइयों ने वस्तुतः औपनिवेशिक शासन के खिलाफ किसी जनव्यापी आन्दोलन को जन्म नहीं दिया.’

यह लगभग आश्चर्यजनक है कि भगत सिंह की शहादत के बाद सबसे पहले 22-29 मार्च 1931 को पेरियार रामास्वामी नायकर ने अपनी पत्रिका ‘कुडई आरसू‘ में संपादकीय लिखा. 1934 में भगत सिंह के प्रसिद्ध लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं ?’ का तमिल में अनुवाद भी उन्होंने ही छापा. मार्च 1931 में भगतसिंह का लेख ‘युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र’ लाहौर के ‘द पीपुल‘ अखबार में छपा था.

हिंदी वांग्मय में अपना स्थान सुरक्षित करने के लिए भगत सिंह के यश को वर्षों तक इंतजार करना पड़ा. जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय और यशपाल वगैरह के साहित्य में भगत सिंह और क्रांति आंदोलन रेखांकित है. यद्यपि उसे पूरी तौर पर भगत सिंह के व्यक्तित्व का चित्रण नहीं कहा जा सकता. अज्ञेय और यशपाल तो क्रांतिकारी भी रहे हैं, इसके बावजूद जिस धारदार गद्य की उनसे अपेक्षा थी वह दिखाई नहीं पड़ता. अज्ञेय धीरे धीरे आभिजात्यपूर्ण और कुलीन होते गए थे. यशपाल पर क्रांतिकारी आंदोलन में विवादग्रस्त भूमिका अदा किए जाने का आरोप है.

भगत सिंह ने छोटे-छोटे आनुषांगिक सवालों को लेकर भी एक तरह का बौद्धिक जेहाद किया था. मसलन उस वक्त यह कानून था कि यदि किसी व्यक्ति ने अंग्रेजी वेषभूषा पहने हुए अपराध किया है तो उसे जेल में बेहतर दर्जा दिया जाएगा. भगत सिंह ने अंग्रेजी वेषभूषा तथा फेल्ट हैट पहने हुए अंसेबली में बम फेंका था इसलिए उन्हें अन्य साधारण कैदियों के मुकाबले बेहतर दर्जा दिया गया था.

जेल में भगत सिंह ने इस नियम के खिलाफ बगावत की. उन्हें कठोर शारीरिक यातनाएं झेलनी पड़ीं. भगत सिंह की जगह यदि कमजोर कदकाठी का और कोई क्रांतिकारी होता तो कब का मर गया होता. सबसे बड़ी उथल-पुथल भगत सिंह का भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में एक कद्दावर नौजवान नेता के रूप में उठ खड़ा होना था.

पहला सवाल यह है कि दुनिया के इतिहास में तेईस, चैबीस वर्ष की उम्र का कोई बुद्धिजीवी भगत सिंह से बड़ा हुआ है ? उनका यह चेहरा इतिहास की तश्तरी में रखकर परोसने का कोई भी कर्म हिन्दुस्तान में सरकारी/गैर सरकारी संस्थानों सहित प्रशंसक-परिवार ने भी नहीं किया. भगत सिंह की यही तात्विक पहचान है. उनकी उम्र का कोई अन्य व्यक्ति क्या भारतीय राजनीति का धूमकेतु बन पाया ? महात्मा गांधी और विवेकानन्द भी उस उम्र में नहीं.

पूरी दुनिया में भगत सिंह के मुकाबले कच्ची उम्र में किताबें पढ़कर अपने मौलिक विचारों का प्रवर्तन करने की इतनी कारगर कोशिश किसी ने नहीं की होगी. भगत सिंह का यही चेहरा लेकिन सबसे अप्रचारित है. इस उज्जवल चेहरे की तरफ वे लोग भी ध्यान नहीं देते जो सरस्वती के गोत्र के हैं. वे भी भगत सिंह को सबसे बड़ा बुद्धिजीवी कहने में हिचकते हैं.

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दूसरी शिकायत हिन्दी के लेखकों से हो सकती है. सत्रह वर्ष की उम्र में भगत सिंह को एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता में ‘पंजाब में भाषा और लिपि की समस्या‘ विषय पर ‘मतवाला‘ नाम की कलकत्ता से छपने वाली पत्रिका के लेख पर पचास रुपयों का प्रथम पुरस्कार मिला था. भगत सिंह ने 1924 में ही लिखा था कि पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी नहीं देवनागरी होनी चाहिए. आज तक हिन्दी के किसी भी लेखक-सम्मेलन ने ऐसा कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया है. किसी लेखक सम्मेलन में उनके इस सोच को लेकर कोई धन्यवाद प्रस्ताव तक पारित नहीं हुआ है. उनकी स्मृति में भाषायी समरसता का कोई पुरस्कार स्थापित नहीं किया गया.

लोहिया को रवीन्द्रनाथ टेगौर से शिकायत रही है कि उन्हें नोबेल पुरस्कार भले मिल गया हो, लेकिन ‘गीतांजलि‘ तो उन्होंने बांग्ला भाषा और लिपि में ही लिखी. एक कवि को अपनी मातृभाषा में रचना करने का अधिकार है लेकिन भारत के पाठकों और नागरिकों को इतिहास के इस पड़ाव पर खड़े होकर यह भी कहने का अधिकार है कि हमारे सबसे बड़े बौद्धिक नेताओं को देवनागरी लिपि में लिखने में क्या दिक्कत होती ?

लोहिया को महात्मा गांधी से भी शिकायत हुई है कि ‘हिन्द स्वराज‘ नाम की अमर कृति 1909 में मातृभाषा गुजराती में लिखी, उसे देवनागरी लिपि में भी तो लिख सकते थे. जो काम गांधी और टैगोर नहीं कर सके, जो काम हिन्दी के लेखक आज तक करते नहीं हैं, साहसपूर्वक बात तक नहीं करते हैं, उसके बरक्स भगत सिंह जैसे तरुण ने हिन्दुस्तान के इतिहास को रोशनी दी. उनके ज्ञान-पक्ष को लेकर ताजा इतिहास अज्ञानी क्यों है ?

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तीसरी बात है कि भगतसिंह जिज्ञासु विचारक थे, क्लासिकल विचारक नहीं. तेईस वर्षों की उम्र का एक नौजवान स्थापनाएं करके चला जाये – ऐसी संभावना भी इतिहास में अमूमन नहीं होती है. युवा भगत सिंह विकासशील थे. अपने चरमोत्कर्ष तक नहीं पहुंचे थे, इसके बावजूद इतिहास में वे एक उल्लेखनीय घटना थे. उन्हें इस तरह इतिहास और भूगोल के संदर्भ में रखकर प्रत्यक्ष विवेचित करने से उर्वर और स्फुरणशील निर्णय निकलते हैं.

भगत सिंह राष्ट्रवादी और देशभक्त परिवार में पैदा हुए थे, वणिक या तानाशाह परिवार में नहीं. भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह एक विचारक, लेखक, देशभक्त नागरिक थे. पिता भी देशभक्त थे. सबका भगत सिंह के जीवन पर असर पड़ा. लाला छबीलदास जैसे पुस्तकालय के प्रभारी से मिली किताबें भगत सिंह ने दीमक की तरह चाटी. वे कहते थे कि भगत सिंह किताबों को पढ़ता नहीं निगलता था.

1914 से 1919 तक हुए पहले विश्व युद्ध का भी भगत सिंह पर गहरा असर हुआ. भगत सिंह के पिता और चाचा कांग्रेसी थे. भगत सिंह जब राष्ट्रीय राजनीति में धूमकेतु, ध्रुवतारा या नियामक बनकर उभरने की भूमिका में आए, तब 1928 का वर्ष आया. 1928 हिन्दुस्तान की राजनीति के मोड़ का बहुत महत्वपूर्ण वर्ष है. 1928 से 1930 के बीच ही कांग्रेस की हालत बदल गई. जो कांग्रेस केवल पिटीशन या अंग्रेज के जाने की बातें करती थी, उसे मजबूर होकर लगभग अर्धहिंसक आंदोलनों में भी अपने आपको कभी कभी झोंकना पड़ा. यह भगतसिंह का कांग्रेस की नैतिक ताकत पर पौरुषपूर्ण प्रभाव था. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रकट या प्रचारित कर्तव्य-चरित्र मुख्यतः भगत सिंह की वजह से बदला क्योंकि भगत सिंह कांग्रेस के समानांतर एक सक्रिय आंदोलन चला रहे थे.

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राजनीतिक व्याख्याकार गांधीजी को अहिंसा का प्रवर्तक और भगत सिंह को हिंसक योद्धा कह देते हैं. भगत सिंह वस्तुतः हिंसक नहीं थे. उन्हें समझने के लिए अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, ब्याजस्तुति और ब्याजनिंदा अलंकारों की जरूरत नहीं है. उन्होंने ‘मैं नास्तिक क्यों हूं ?‘ लेख तथा ‘नौजवान सभा का घोषणा पत्र‘ लिखा जो कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के समानांतर कहा जाता है. उन्होंने अपनी जेल डायरी भी लिखी जो आधी अधूरी ही मिली है. उन्होंने ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी एसोसिएशन‘ का घोषणा पत्र और संविधान भी बनाया.

भगत सिंह ने ऐसे बुनियादी मौलिक प्रयोग देश की राजनीतिक प्रयोगशाला में किए हैं. इनके मित्र काॅमरेड सोहन सिंह जोश उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी में ले जाना चाहते थे. भगत सिंह ने मना कर दिया जबकि वे कट्टर मार्क्सवादी थे. फांसी के फंदे पर चढ़ने का फरमान पहुंचने के बाद जब जल्लाद उनके पास आया तब बिना सिर उठाए भगत सिंह ने उससे कहा ‘ठहरो भाई, मैं लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं. एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है.’ भगत सिंह की कद काठी के मृत्युंजय हिन्दुस्तान क्या दुनिया के इतिहास में इने गिने ही हुए हैं.

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‘इंकलाब जिंदाबाद‘ मूलतः भगत सिंह का नहीं कम्युनिस्टों का नारा है. भगत सिंह ने इसके साथ एक नारा जोड़ा था ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद.‘ यह भी कि ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ का नारा आज भी कुलबुलाता रहता है. भगत सिंह ने ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ का नारा जब दिया, तब तक गांधी जी ने भी ऐसा कोई नारा नहीं दिया था. भगत सिंह ने कहा ‘दुनिया के मजदूरों एक हो.’

अंग्रेजों के बनाए काले कानून आज भी उसकी आत्मा पर शिकंजा कसे हुए हैं. यह गौरव होता रहता है कि पटवारी को पचास रुपए घूस खाते हुए पकड़वा दिया. खुशी तब भी छलकती है जब लायंस या रोटरी क्लब के अध्यक्ष प्याऊ या मूत्रशाला खोलते अपनी फोटो छपवाते हैं. खुशी होती है पड़ोसी को बताते हुए कि बेटा आई.टी.आई. में फर्स्ट आया है और अमेरिका जाकर वहां की नौकरी कर रहा है. सेवानिवृत्त होने के बाद उसके बच्चों के कपड़े धोने मां बाप जा रहे हैं.

भगत सिंह भारत के शायद पहले नागरिक, विचारक और नेता हैं जिन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान में केवल किसान और मजदूर के दम पर नहीं, नौजवानों को साथ लेकर ही क्रांति हो सकती है. कोई पार्टी नौजवानों को राजनीति में सीधे आने का आह्वान नहीं करती. यह अच्छा हुआ कि राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीकाल में 18 वर्ष के नौजवान को वोट डालने का अधिकार तो मिला, वरना नौजवान को बौद्धिक दृष्टि से हिन्दुस्तान की राजनीति में बांझ समझा जाता रहा है.

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देश की जनता को नगरपालिकाओं से पीने का पानी तक पाने का मौलिक अधिकार नहीं है. इस देश के सुप्रीम कोर्ट और कानून का कहना है कि नगरपालिकाएं यदि पीने का पर्याप्त और साफ पानी नहीं भी दें तो भी टैक्स और पानी के अधिकार में, स्वायत्तशासी संस्थाओं और नागरिकों के पारस्परिक कर्तव्य में कोई अन्योन्याश्रित रिश्ता नहीं है.

देश के अधिकतर बुनियादी कानून 19वीं सदी की उपज हैं. भारतीय दंड विधान, दंड प्रक्रिया संहिता, संविदा अधिनियम, सिविल प्रक्रिया संहिता, भारतीय सुखभोग अधिनियम, आबकारी अधिनियम, सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, भू-अर्जन अधिनियम, वन अधिनियम वगैरह अंगरेज कौम की उपज हैं. 20वीं सदी इस लिहाज से धाय मां है. अंग्रेजी कानूनों में सरकार को राक्षसी ताकत दी गई है कि जन-आंदोलनों को कुचलने में सरकार चाहे जो करे, उसका कृत्य वैध माना जाएगा.

संविधान के साठ वर्ष बाद भी इन कानूनों को बदलने के लिए संसद में पहल और हिम्मत नहीं दीखती. आवाज तक नहीं उठती. भगतसिंह संविधान सभा में तो थे नहीं, न ही वे आज़ादी तक जिए. उनका लेकिन कहना था समाजवाद एक जीवित लक्ष्य के रूप में चाहिए. उसमें नौजवान की जरूरी हिस्सेदारी होगी. अस्सी बरस से ज्यादा के बूढ़े नेता देश चला रहे हैं. चुनाव भी लड़ते हैं. साठ वर्ष के नेता को तो युवा कह दिया जाता है, जबकि सरकारी कर्मचारी इस उम्र में सेवानिवृत्त हो जाते हैं. न्यूनतम आयु अर्थात 25 वर्षों के नौजवानों को संसद में कोई नहीं भेजता. गांधी भी कहते थे कि साठ वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्ति को चुनाव का टिकट नहीं देना चाहिए.

आज भारत दुनिया में सबसे ज्यादा आवारा पशुओं, वेश्याओं, बेकारों, भिखारियों, कुष्ठ रोगियों, एड्स के रोगियों, अपराधियों, भ्रष्ट नेताओं, चूहों, पिस्सुओं, वकीलों का देश है. चीन को छोड़कर (लेकिन शायद उससे ज्यादा हो जाने वाली) आबादी का देश भी भारत ही है. क्या यही भगत सिंह की कल्पना का देश था ?

श्रमिक आंदोलनों की आज क्या हालत है ? कितनी लोकशाही बची है ? आंदोलनों को कुचल दिया गया है. कोई श्रमिक आंदोलन होता ही नहीं है. होने की संभावना भी नहीं है. इस मामले में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों की भूमिका है. ऐसा न तो भगत सिंह का सपना था, न ही पाथेय.

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एक उल्लेख नीयतन होता रहता है. कहा जाता है कि गांधी और भगत सिंह एक दूसरे के राजनीतिक विरोधी थे. भगत सिंह को गांधी-प्रचारित अहिंसा का रास्ता पसंद नहीं था. वैसे खुद भगत सिंह हिंसा के रास्ते पर नहीं थे. फांसी की सजा के पहले उनके जैसा बेहतर बयान आज तक किसी राजनीतिक कैदी ने वैधानिक इतिहास में नहीं दिया. जेल की छोटी से छोटी अनियमितता भी भगत सिंह के दायरे के बाहर नहीं थी. कैदियों को ठीक भोजन और सुविधाएं नहीं मिलती थी. भगत सिंह के आमरण अनशन पर बैठने से वे उनको मिलने लगी. हिन्दुस्तान की जेलों में नागरिक मूल्यों और अधिकारों की हालत क्या ठीक है ?

भगत सिंह को संगीत और नाटक में भी दिलचस्पी थी. भगत सिंह के जीवन में विविधताएं थी. उन्हें जीवन के जीवंत आयामों में दिलचस्पी थी. वैचारिक मुठभेड़ करना भगत सिंह का सबसे बड़ा बौद्धिक रोमांच था. वे देशभक्त, प्रगतिशील और कुशल जनवादी पत्रकार भी थे. आज अमेरिकी विचारों की प्रतिछाया, पद्धति और सोच के ज्यादातर अखबार हैं लेकिन उन्हें पढ़ने में पांच मिनट भी नहीं लगते. टेलीविजन के चैनलों में एक ही तरह की खबरों और एक ही समय ब्रेक की परिपाटी है. ‘प्रताप‘, ‘किरती‘, ‘महारथी‘ और ‘मतवाला‘ सहित अन्य पत्रिकाओं में हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी में भगत सिंह अभिव्यक्त हुए हैं.

भगत सिंह का शरीर-सौष्ठव ऐसा कि एक बार चंद्रशेखर आजाद से दोस्ताना विवाद हो गया तो भगत ने आजाद को कुश्ती में चित्त कर दिया. बहुआयामी जीवन की चुनौतियां लिए भगत सिंह पस्तहिम्मत या निराश नहीं हुए. 30-35 ऐसे बड़े लेखक जरूर होंगे जिन्हें भगत सिंह ने बाकायदा पढ़ रखा था. समाजवाद के पक्ष में भगत सिंह ने बाकी वैचारिकों के समानांतर एक लकीर खींची लेकिन प्रयोजन से भटक कर ऐसा विवाद उत्पन्न नहीं किया जिससे अंगरेजी सल्तनत को लाभ हो.

हिन्दुस्तान की राजनीति में शीर्ष नेता मिलकर काम क्यों नहीं कर सके ? गांधी और विवेकानंद मिलकर हिन्दुस्तान की राजनीतिक दिशा पर बात नहीं कर पाये. गांधीजी बेलूर मठ गए थे लेकिन विवेकानंद की बीमारी के कारण सिस्टर निवेदिता ने मिलने नहीं दिया. यह नहीं कहा जा सकता कि विवेकानंद के विचारों से भगत सिंह परिचित नहीं थे. इस महान क्रांतिकारी के चेहरे से बहुत से कंटूर अब भी उभर रहे हैं. उन्हें तलाशने की ताब देश को होनी चाहिए.

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भगतसिंह के लिए समाजवाद और धर्म अलग-अलग थे. दोनों को सम्पृक्त करते विवेकानंद समझते थे कि (धार्मिक) जनता को धर्म के आधार पर समाजवाद की घुट्टी यदि पिलायी जाए तो विचार हृदयंगम होंगे. गांधी भी इसी प्रकृति के प्रयोगधर्मी थे. भगत सिंह हिन्दुस्तान के पहले महत्वपूर्ण वैचारिक थे जो पूरी तौर पर प्रचलित मजहबी रूढ़ियों के दायरों से बाहर थे. भगत सिंह को अंग्रेज जल्लादों से बचने के लिए अपने केश काटकर प्रथम श्रेणी के डिब्बे में दुर्गादेवी वोहरा के साथ कलकत्ता तक यात्रा करनी पड़ी.

सिख मतावलम्बियों ने आलोचना की कि पांच धार्मिक प्रतीकों में से एक केश है, उन्हें क्यों कटवा लिया. भगत सिंह ने धार्मिक जुमले में उन्हें निरुत्तर किया कि वे भी सिख ही हैं. गुरु गोविंद सिंह का आदेश है कि अपने धर्म की रक्षा करने के लिए अपने शरीर का अंग अंग कटवा दो. केश कटवा दिए. अब मौका मिलेगा तो अगला अंग अपनी गरदन कटवा देंगे.

1931 के पहले से यह भगत सिंह का इतिहास को उद्बोधन था कि गरीब के लिए इंकलाब और आर्थिक बराबरी लाने, समाजवाद को साकार करने, देश का निर्माण करने, चरित्र के नये आयाम गढ़ने तथा दुनिया में हिन्दुस्तान का यश रेखांकित करने के लिए मजहबों के अहसान की जरूरत नहीं होनी चाहिए. ऐेसी चुनौतियों का जवाब 21वीं सदी ढूंढ़ नहीं पा रही है.

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भगत सिंह की स्मृति को लेकर सब कुछ बहुत औपचारिक है. भगत सिंह केवल षहीद नहीं थे. इतनी ही अल्पायु में मदनलाल धींगरा और करतार सिंह सराभा भी चले गए थे. भगत सिंह ने मृत्यु का स्वेच्छया वरण किया. यदि वे पंजाब की असेंबली में बम नहीं फेंकते तो कुछ और समय क्रांतिरत ही रहते. कांग्रेस के इतिहास को भगत सिंह का ऋणी होना पड़ेगा. लाला लाजपत राय, विपिनचंद्र पाल और बाल गंगाधर तिलक की तिकड़ी तब कांग्रेस की अगुआ थी.

भगत सिंह पहले लाला लाजपत राय के समर्थक और अनुयायी थे. उनका परिवार आर्य समाजी था. भूगोल और इतिहास से असम्पृक्त होकर उनके कद और व्यक्तित्व को नहीं परखा जा सकता. लाजपत राय की जलियांवाला बाग की घटना के दौरान लाठियों से पीटे जाने की वजह से मृत्यु हो गई. भगत सिंह ने केवल उस अपराध का बदला लेने के लिए सांकेतिक हिंसा की और सांडर्स की हत्या हो गई.

भगत सिंह इसके बाद भी चाहते तो जी सकते थे. आजादी की अलख जगाते रह सकते थे. उन्होंने सोचा कि सही वक्त आ गया है जब इतिहास की सलवटों पर शहादत की इस्तरी चलाई जा सकती है. वक्त के तेवर पढ़ने का माद्दा और ताकत होने पर ही कोई इतिहास पुरुष होता है. भगत सिंह ने दुनिया का ध्यान अंग्रेज हुक्मरानों के अत्याचार की ओर खींचा और जानबूझकर असेंबली बम कांड रचा.

वे इतिहास की समझ के बहुत बड़े नियंता थे. ऐसे भगत सिंह का ज्यादा चर्चा क्यों नहीं होता ? भगत सिंह एक चित्र में चारपाई पर अग्निमय शोलों की दहक को मासूमियत की परत ओढ़े बैठे हैं. ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान बैठा हुआ है.

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भगत सिंह को लेकर अब भी शोध होना बाकी है. कुछ तत्व भगत सिंह के जन्मदिन और शहादत-पर्व को मनाते थे. अब उनके हाथों में साम्प्रदायिकता के झंडे आ गए हैं. राजनीतिक पाटिर्यों के घोषणा पत्रों में समाजवाद के ढकोसलों का डंका पिट रहा है. कोई भगत सिंह का वंशज कहलाने का अधिकारी नहीं है. अमेरिकी साम्राज्यवाद के सामने राजनीतिज्ञ घुटने टेक रहे हैं. यूरोप के सामने बिकते और बिछते जा रहे हैं. इसके बाद भी ऐतिहासिक फरेब करते हैं कि हिन्दुस्तान को दुनिया की बड़ी ताकत बनाएंगे.

गांधी और भगत सिंह में अलग-अलग शैली की गहरी राजनीतिक समझ थी. भगत सिंह ने गांधी के समर्थन में भी लिखा. उनके रास्ते नि:स्संदेह अलग-अलग थे. कांग्रेस के एक नौजवान नेता ने भगत सिंह का वकील बनकर मुकदमा लड़ने की पेशकश की और गांधी का विरोध किया. सुभाष बोस 1938 में हरिपुरा और 1939 में त्रिपुरी की कांग्रेस में गांधी के उम्मीदवार को हराकर कांग्रेस के अध्यक्ष बने. उनकी विजय में भगत सिंह के पुण्य, संघर्ष और तेवरों की अनुगूंज है.

नौजवानों को नेतृत्व सौंपने की जुगत भगत सिंह ने ही बनाई थी. लेकिन उस रास्ते पर भारत का इतिहास नहीं चला. उस दौर के नौजवान केवल ताली बजाने में इस्तेमाल नहीं किए गए. नौजवानों को राजनीति से अलग रखना उनका सच नहीं था. 18 वर्ष के नौजवानों को वोट देने का अधिकार भले मिल गया है, लेकिन भगत सिंह के जुमले में राजनीति का मतलब केवल या पहले कुर्सी नहीं है. यह उनका कालजयी आह्वान था. जब तक नौजवान किसानों के साथ पसीना बहाकर काम नहीं करेंगे, तब तक हिन्दुस्तान की आजादी का कोई मुकम्मिल अर्थ नहीं होगा.

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हिन्दुस्तान को पूरी आजादी भगत सिंह के अर्थ में नहीं मिली है. अंगरेजों के रचे काले कानून देश पर हावी हैं. सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री फतवे जारी करते हैं कि संविधान की रक्षा होनी है. संविधान में अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, केनेडा, स्विट्जरलैंड, जर्मनी, जापान वगैरह कई और देशों की अनुगूंजें शामिल हैं. इसमें याज्ञवल्क्य, मैत्रेयी, चार्वाक, कौटिल्य और मनु के सर्वकालिक विचारों के अंश नहीं है. गांधी, भगत सिंह, लोहिया भी नहीं हैं. इसमें निखालिस भारतीय समावेशी परम्पराएं नहीं हैं.

संवैधानिक विधायन को लेकर देष क्या किसी अंतर्राष्ट्रीय साजिश का शिकार हो गया है ? भारत के स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों ने संविधान की कितनी रचना की ? सेवानिवृत्त आई.सी.एस. अधिकारियों, दीवान साहबों, रायबहादुरों और कई पश्चिमाभिमुख विधिक बुद्धिजीवियों ने दरअसल मूल पाठ रचा. संविधान की पोथी का अपमान अभीष्ट नहीं है. रामायण, गीता, कुरानशरीफ, बाइबिल और गुरु ग्रंथ साहब पर यदि बहस होती है कि इनके सच्चे अर्थ क्या हैं. तो जिस पोथी की आड़ में प्रशासन चल रहा है, उसकी भी आयतों के मर्म को बहस के केन्द्र में डालने का भी अधिकार जनता को लेना चाहिए. यही भगत सिंह का तर्क है.

उन्होंने तर्क के बिना किसी भी विचार या निर्णय को मानने से परहेज किया. उनके तर्क में भावुकता है और भावना में तर्क है. भगत सिंह देश के शायद पहले विचारक हैं जिन्होंने दिल्ली के क्रांतिकारी सम्मेलन में कहा था कि सामूहिक नेतृत्व के जरिए पार्टी को चलाने का शऊर सीखना होगा. यदि कोई चला भी जाए तो पार्टी नहीं बिखरे क्योंकि व्यक्ति से पार्टी बड़ी होती है और पार्टी से सिद्धांत बड़ा होता है. देश को बार-बार तमंचे भांजने वाला भगत सिंह क्यों याद कराया जाता है. यदि कोई थानेदार अत्याचार करे तो यह उत्तेजना भगत सिंह की है कि उसे गोली मार दी जाए ? वह अजय देवगन या धर्मेन्द्र के बेटे सनी देओल का पूर्वज संस्करण नहीं हैं. वह फिल्म के इतिहास में नहीं, इतिहास की फिल्म के नायक बतौर जीवित रहेंगे.

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भगत सिंह का लौकिक यश किताबों और विचारों के तहखाने का मोहताज नहीं है. उसे बहस के केन्द्र में लाने की जरूरत है. विमर्श का एक रास्ता भी उन्होंने बताया था. उनका कथन था कि (तत्कालीन) बड़े-बड़े अखबार तो बिके हुए हैं, क्रांतिकारी दल के साथी इसलिए छोटे-छोटे ट्रैक्ट और पुस्तिकाएं छाप कर बांटते थे. सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध यह प्रतिरोधी रणनीति बहुत कारगर हुई. आज भी बुद्धिजीवी यही कर लें तो बहुत है. विचारों की सान पर जो चीज चढ़ेगी वही तलवार होती है – यह उस कालजयी क्रांतिकारी ने सिखाया था.

उनके जुमले में देश में तार्किकता, बहस, अभिव्यक्ति की आजादी, जनप्रतिरोध, सरकारों के खिलाफ अराजक तक होकर खड़े होने का अधिकार छिन रहा है. देश में मूर्ख (भी) सत्ता पर लगातार बैठ रहे हैं. जो चारित्रिक हस्ताक्षर नहीं हैं, देश के राजनीतिक चेक पर दस्तखत कर रहे हैं. आई.ए.एस. की नौकरशाही में अब भ्रष्ट अधिकारी इतने ज्यादा हैं कि अच्छे अधिकारी ढूंढ़ना मुस्किल है. देश में निकम्मे साधुओं की जमात है जो समाज के वटवृक्ष पर अमरबेल की तरह चढ़ी मलाई खा रही है. मेहनतकश मजदूरों के लिए वेतन बढ़ने की सम्भावनाएं और असंगठित मजदूर नक्कारखाने में तूती की तरह हैं.

असंगठित मजदूरों को संगठित करने की कोशिश नहीं होती. पहले से ही अंगरेजों की तरह सुरक्षित लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के और कड़े कानून बनते जा रहे हैं. संसद ने आज तक नहीं सोचा कि किसानों के भी कुछ बुनियादी अधिकार भारतीय किसान अधिनियम जैसे कानून में होने चाहिए. फसल के मूल्य मिलने का कोई मानक आधार नहीं है. किसान को उत्पाद के सौ रुपये मिलें. बाजार में उपभोक्ता को वही वस्तु हजार रुपये में मिलती है. नौ सौ रुपये बिचवाली, बिकवाली और दलाली में खाए जाते हैं. उन पर सरकार और कानूनों का संरक्षण ही नहीं है. सरकार दलाली भी करती है. इन किसानों की रक्षा के लिए भगत सिंह उठ खड़े हुए थे.

उन्होंने उद्योगपतियों की एकता का नारा नहीं दिया. कभी नहीं कहा कि अपनी बीवी के जन्मदिन पर हवाई जहाज तोहफे में भेंट करो, उसे भी देश का गौरव कहो. कभी नहीं कहा कि वकील या डाॅक्टर एक हो जाएं. दुनिया के मजदूरों, किसानों और नौजवानों की एकता की ही उनकी कशिश थी. उन पर समाजवादी देशजता का नशा छाया हुआ था. वह रास्ता हालांकि मार्क्स के विचारों से निकल कर आता था. यह अभिनव प्रयोग भारत की राजनीति में हो रहा था.

भगत सिंह असमय काल कवलित हो गए. राजनीतिक विचारधारा के अधिकारिक, औपचारिक नेता बन नहीं पाए. अंगरेज और भारतीय हुक्मरान दोनों उनसे भय खाते हैं. उनके विचारों को क्रियान्वित करने में कानूनों की घिग्गी बंध जाती है. संविधान पोषित राज्य व्यवस्था में यदि कानून ही अजन्मे, अपरिभाषित और गूंगे रहेंगे, तो लोकतंत्र की प्रतिबद्धताओं का क्या होगा ? भगत सिंह ने इतने अनछुए सवालों का स्पर्श किया है कि उन पर अब भी समझ विकसित होना बाकी है. उनके विचार केवल प्रशंसा के योग्य नहीं हैं. उन पर क्रियान्वयन कैसे हो – इसके लिए बौद्धिक और जन आन्दोलनों की जरूरत है.

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भारतीय क्रान्तिकारियों के सिरमौर तथा युवा पीढ़ी की धड़कन बने भगत सिंह शीर्ष देशभक्त होने के साथ-साथ हवा की गति से तेज विकसित होते राजनीतिक बुद्धिजीवी भी थे. यह एक साथ देश और उनका दुर्भाग्य है कि रूमानी क्रांतिकारी चेहरे ने उनकी तेजस्विता को इस कदर ढांक लिया है कि उनके मिथकीय महापुरुष बन जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है.

24वें वर्ष शहीद हो जाने वाले इस महान नवयुवक ने बौद्धिकता की ऊंचाइयों को लांघ लिया था. वह एक असाधारण करिश्मा था. क्रान्ति और किताबों से उनके साहचर्य की कहानी का विस्तार बमुस्किल पांच वर्षों का ही है. यही आधा दशक उपलब्धियों की सदी बनकर इतिहास का उज्जवल परिच्छेद बन गया है. भगत सिंह और पंजाब तथा बंगाल के उनके साथी नहीं होते तो क्रान्तिकारी आन्दोलन कुछ नवयुवकों के उत्सर्ग का उत्सव बनकर रह जाता.

भगत सिंह ही थे जिन्होंने मंसे भींगने की उम्र से भारतीय विद्यार्थियों के लिए अध्यवसाय के मानदंड निर्धारित कर दिए थे. वे विश्व स्तर पर किसी भी शोध छात्र के लिए चुनौती बन गए हैं. समाजवाद और साम्यवाद के प्रति गहरा झुकाव उन्हें क्रान्तिकारी आन्दोलन की बौद्धिकता का भगवतीचरण वोहरा तथा शचीन्द्र नाथ सान्याल की तरह जिज्ञासु शिल्पकार बनाता है. लेकिन यह कहना तथ्यात्मकता के प्रतिकूल है कि भगत सिंह का पहला चयन साम्यवाद के प्रति समर्थन था. समाजवाद के सिद्धान्तों के प्रति भगत सिंह की प्रतिबद्धता का इतिहास गहरी छानबीन का विषय है.

इस महान वैचारिक नवयुवक को लेकर लाल या भगवा फतवा आसानी से नहीं दिया जा सकता. भगत सिंह की वास्तविक पहचान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के निष्कर्ष का जरूरी अंश है. तरुण भगत सिंह तथा सुखदेव आदि उनके साथी अराजकतावादी नेताओं तथा विभिन्न देशों के स्वाधीनता आन्दोलन के जननायकों जैसे रूसी अराजकतावादी बाकुनिन, इटली के मैजिनी, फ्रांसीसी दार्षनिक प्रूक्लेन (अराजकतावाद के जन्मदाता), प्रिंस क्रापाटकिन, एमा गोल्डमैन, अलेक्जेन्डर ब्रेकमैन आदि से प्रभावित थे.

इन्हीं दिनों उनकी मुलाकात मशहूर कम्युनिस्ट नेता और पंजाबी मासिक पत्रिका ‘किरती’ के सम्पादक कामरेड सोहन सिंह जोश, तिलक स्कूल ऑफ पाॅलिटिक्स (नेशनल काॅलेज) के प्राचार्य लाला छबील दास और लाला लाजपतराय द्वारा स्थापित द्वारकादास लायब्रेरी के प्रभारी राजाराम शास्त्री आदि से हुई. भगवतीचरण वोहरा पहले से ही समाजवादी रुझान के थे.

मुख्यतः ‘किरती’ में लिखने के आमंत्रण के कारण भगत सिंह ने द्वारकादास लायब्रेरी और रामकृष्ण एंड सन्स की किताब की दूकान को पूरी तौर पर खंगाल लिया. बकौल राजा राम शास्त्री ‘भगतसिंह वस्तुतः पुस्तकों को पढ़ता नहीं, निगलता था, फिर भी उसकी प्यास अनबुझी ही रहती थी.’ भगतसिंह का अध्ययन व्यवस्थित, वैज्ञानिक और व्यवहारिक था. वह पुस्तकों के नोट्स बनाकर साथियों से विमर्श करने के बाद अन्तिम राय कायम करने के पक्षधर थे. इस दौरान भगत सिंह को अधिकतर ऐसी पुस्तकें पढ़ने मिलीं जो मार्क्सवाद से सम्बन्धित थी. यह एक प्रमुख कारण था जिससे भगतसिंह के राजनीतिक आदर्श अराजकतावाद से समाजवाद की ओर परिवर्तित हुए.

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मई 1928 में ‘किरती‘ में अराजकतावाद पर लिखी लेखमाला में भगत सिंह ने लिखा ‘अनार्किस्ट.’ उसके लिए हिन्दी में ‘अराजकतावादी’ शब्द ही प्रयोग में लाया जाता है. यह यूनानी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है एनत्रनाट, आर्कीत्ररूल, अर्थात शासनविहीन.

इन्सान में पहले से ही अधिक से अधिक स्वाधीनता पाने की चाह रही है. एक यूनानी दार्शनिक ने कहा है ‘हम न शासक बनना चाहते हैं और न ही प्रजा.’ मैं समझता हूं कि हिन्दुस्तान में विश्व भ्रातृत्व और संस्कृत के वाक्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ आदि में भी यही भाव है.’

भगत सिंह जब नेशनल काॅलेज में पढ़ते थे, तब ही क्रांतिकारी बनने का विचार उनमें आ गया था. शायद यह विचार उन्हें फ्रांस की असेम्बली में बम फेंकने वाले फ्रांसीसी अराजकतावादी वेलां के किस्से से मिला था. नेशनल काॅलेज के विद्यार्थी के रूप में भगत सिंह ने इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र का गम्भीर अध्ययन किया. भगवतीचरण वोहरा और सुखदेव ने रूसी सामाजिक क्रान्तिकारियों की तर्ज पर अध्ययन केन्द्र भी चलाए.

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भगत सिंह के साथी शिव वर्मा के अनुसार ‘समाजवाद की दिशा में उनकी वैचारिक प्रगति की रफ्तार बहुत तेज थी.‘ 1924 से 1928 के बीच भगत सिंह ने रूसी और फ्रान्सीसी क्रान्तियों, अराजकतावाद और मार्क्सवाद के अध्ययन के साथ ताजा भारतीय राजनीतिक इतिहास का भी गहरा अध्ययन किया था.

उनके साथी भगवानदास माहौर के अनुसार भगत सिंह ने उन्हें बाकुनिन की पुस्तक ‘दी गाॅड एन्ड दी स्टेट‘ पढ़ने को दी थी. उन्होंने माहौर को मार्क्स की ‘केपिटल‘ भी पढ़ने को दी लेकिन बकौल माहौर वह उनके पल्ले नहीं पड़ी. माहौर के अनुसार अपनी समाजवादी प्रतिबद्धताओं के बावजूद ‘भगत सिंह समाजवाद के अच्छे पंडित नहीं थे. परन्तु भगत सिंह की विशेष क्रान्तिकारी देन यही है कि उनके समय से क्रान्तिकारियों का आदर्श समाजवादोन्मुख हो गया.’

शिव वर्मा भी कहते हैं, ‘8, 9 सितम्बर 1928 की दिल्ली मीटिंग में हालांकि समाजवाद को सिद्धान्त के रूप में और समाजवादी समाज की स्थापना को अन्तिम उद्देश्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया था. असल में हम लोग उसी पुराने व्यक्तिवादी ढंग के कामों में लगे रहे…हमारी वैज्ञानिक समाजवाद अर्थात मार्क्सवाद की समझ अधकचरी थी. मार्क्सवाद अमल को सिद्धान्त से अलग करने की इजाजत नहीं देता. यह बात हम समझ नहीं पाये थे और यह कि उसमें व्यक्तिगत कामों के लिए कोई स्थान नहीं है.’

भगत सिंह और उनके साथी धीरे-धीरे समाजवाद के सिद्धांतों के प्रति आकर्षित होते हुए भी क्रांतिकारी गतिविधियों को उनसे सम्पृक्त करने की कोशिश करते रहे. भारतीय या अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के किसी नामधारी नेता ने इन क्रान्तिकारियों को कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल करने अथवा उनके आन्दोलन को सक्रिय मदद देने की पहल नहीं की. यदि ऐसा किया गया होता तो सम्भव है कि असेम्बली में बम फेंकने के पहले सम्भावनाओं के इस शिखर पुरुष को समाजवादी यथार्थ के श्रेष्ठ नायक की ऐतिहासिक हैसियत मिली होती.

15 दिसम्बर 1924 के ‘वाॅनगार्ड‘ में विदेश में गठित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा ‘राष्ट्रवादियों से अपील‘ नामक प्रकाशन में अनुरोध किया गया था – ‘गुप्त संस्थानों द्वारा किए जाने वाले छुटपुट आतंकवादी काम भी कुछ कम प्रभावहीन नहीं हैं. इस प्रकार के व्यर्थ के उग्रवाद को अपनाने वालों की क्रान्ति की समझ भी उतनी ही गलत है. एक खास सामाजिक व्यवस्था या राजनीतिक संस्था को उसके चन्द समर्थकों को मारकर कभी समाप्त नहीं किया जा सकता और यह तो और भी नामुमकिन है कि थोड़े से सरकारी अफसरों को मारकर या ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में बहुत से सुधार पास करवाकर देश की आजादी हासिल की जा सके.’

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भगत सिंह ने अपने क्रान्तिकारी जीवन की शुरुआत कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी के पत्र ‘प्रताप‘ से की थी. उसमें वे ‘बलवन्त‘ के नाम से लिखा करते थे. विद्यार्थी और भगत सिंह की घनिष्ठता का रहस्य बहुत बाद में उजागर हुआ. इन दिनों भगत सिंह की साम्यवाद की समझ अपरिपक्व, अस्पष्ट और अमूर्त थी.

उनके समवयस्क अजय घोष ने, जो बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने, लिखा भी है, ‘उस समय भगत सिंह एक देहाती लड़के के नमूने थे. ये वे दिन थे जब हम क्रान्ति के सपने देखा करते थे – लड़कों के से सपने. लगता था कि क्रान्ति अब दूर नहीं है. पर भगत सिंह क्रान्ति के आसन्न होने के बारे में उतने आश्वस्त नहीं थे. इसी कारण मैं उनके निराशावादी दृष्टिकोण का मजाक उड़ाता था.’

अपने प्रखर राष्ट्रवाद के कारण भगतसिंह ने अपने साथियों का विदेश जाकर आर्थिक सहायता प्राप्त करने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया था. दरअसल उन्होंने क्रांतिकारियों को एकजुट करने की पहली गम्भीर कोशिश की थी.

शचीन्द्रनाथ सान्याल ने 1923 में रिपब्लिकन एसोसिएशन की नींव डाली. इस पार्टी के घोषणा पत्र में एक महत्वपूर्ण उल्लेख किया गया था, ‘यह क्रान्तिकारी पार्टी (इन अर्थों में) राष्ट्रीय न होकर अंतर्राष्ट्रीय है कि इसका अन्तिम उद्देश्य विश्व में मेल एवं सामंजस्य स्थापित करना है. यह विभिन्न राष्ट्रों और राज्यों के बीच प्रतिद्वंद्विता के बजाय सहयोग चाहती है और इन अर्थों में वह भारत के उज्जवल अतीत के महान ऋषियों एवं आज के बोल्शेविक रूस का अनुसरण करेगी.’

सोवियत रूस को ‘विजयी समाजवाद का पहला देश‘ कहने के बावजूद शचीन्द्रनाथ सान्याल पूरी तौर पर मार्क्सवादी नहीं थे. उनका झुकाव ईश्वर और रहस्यवाद की ओर भी था. शचीन्द्रनाथ सान्याल की पुस्तक ‘बन्दी जीवन‘ से विश्वमित्र उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘शचीन्द्रनाथ सान्याल और उनका युग‘ में यह कथन उद्धृत किया है, ‘कम्युनिस्ट दर्शन में इतिहास के भौतिकवादी विश्लेषण का एक महत्वपूर्ण स्थान है और इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या में वर्ग संघर्ष की अवधारणा शुरू से आखिर तक लगातार मौजूद है. मैं आज भी इन सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं कर पाया हूं.’

शिव वर्मा के अनुसार एक और महत्वपूर्ण मुद्दा जिस पर सान्याल का कम्युनिज्म से मतभेद था – सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व की अवधारणा. उनका यह मत था कि ‘सिर्फ मध्यवर्ग के नौजवान ही नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता रखते हैं, जबकि मजदूर और किसान क्रान्तिकारी सेना के सिपाही का काम करेंगे.’

( 26 )

1925 में काकोरी प्रकरण में अधिकांश क्रान्तिकारियों के गिरफ्तार हो जाने के बाद भगत सिंह और चन्द्रशेखर आजाद जैसे इने गिने क्रांतिकारी ही जेल से बाहर थे. अपनी अध्ययन प्रियता के कारण तराशे हुए बौद्धिक व्यक्तित्व को लेकर भगत सिंह को इतिहास ने बिखरे हुए क्रांतिकारी आन्दोलन को फिर से खड़ा करने का अवसर दिया.

वर्ष 1928 के भारतीय जीवन के सम्बन्ध में जवाहर लाल नेहरू ने ‘आत्मकथा’ में लिखा है, ‘राजनीतिक दृष्टि से वर्ष 1928 ढेर सी गतिविधियों का पूर्ण वर्ष था. एक नया जोश लोगों को आगे धकेल रहा था, एक नया आन्दोलन जो सबको सराबोर किए हुए था. 1928 के शुरु में हिन्दुस्तान एक सुप्त, निष्क्रिय तथा 1919-1922 की पराजय से नहीं उबरा देश था. 1928 में भारत तरोताजा, सक्रिय तथा ताकत से भरा हुआ मुल्क था.’ यह राष्ट्रीय माहौल जो मुर्दों में भी प्राण का संचार किए हुए था.

इसका कारण कोई सर्वहारा क्रांति या वर्ग संघर्ष नहीं था बल्कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय जनता की आन्दोलन में भागीदारी की तीक्ष्णता थी. ऐसे समय जब साधारण लोगों में उत्साह भरा हुआ था, तब दुर्धर्ष क्रांतिनायक भगत सिंह को प्रख्यात अंग्रेज कवि वर्डसवर्थ के फ्रांसीसी क्रांति के दिनों के शब्दार्थों की तरह महसूस होता होगा, ‘उस उषाकाल में जीना ही खुशकिस्मती थी लेकिन नौजवान होना तो स्वर्ग के सुख के समान था.’

नेहरू यह भी कहते हैं कि वर्ष 1928 को इतिहास में युवक आन्दोलनों के सबसे सशक्त गवाह के रूप में याद रखा जाएगा. अर्ध धार्मिक, क्रांतिकारी सभी तरह के युवक संगठनों और उनके कार्यक्रमों का देश में तूफान उमड़ रहा था. ये नवयुवक संगठन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तन के पक्षधर और प्रवक्ता बने हुए थे. उद्दाम यौवन का यह परिवेश था जिसने युवा और शक्ति से लकदक भगत सिंह को एक ऐतिहासिक अवसर देकर रातों रात दन्तकथाओं का नायक बना दिया.

( 27 )

पंजाब केसरी लाला लाजपतराय पर हुए आक्रमण के बाद 17 दिसम्बर 1928 को सान्डर्स की हत्या करने के कारण भगत सिंह और उनके साथी भारतीय जनजीवन के लोक गीतों में समाहित हो गए. इसी वर्ष भगत सिंह ने क्रांति के बचे खुचे साथियों को इकट्ठा कर 8 सितम्बर 1928 को दिल्ली के फीरोजशाह कोटला में ऐतिहासिक बैठक में समाजवाद के पक्ष में पुरजोर दलीलें रखी थीं और क्रांतिकारियों के प्रतिनिधि संगठन के मूल नाम को बदलकर इंडियन रिपब्लिकन सोसलिस्ट एसोसिएशन करने में सब साथियों का बहुमत से अनुमोदन प्राप्त किया.

चार दस्तावेज बुनियादी तौर पर भगत सिंह और उनके साथियों के विचार विमर्ष के प्रामाणिक सन्देश वाहक बन गए हैं –

  1. लाहौर की नौजवान भारत सभा का घोषणा पत्र {अप्रेल, 1928}
  2. असेम्बली बम प्रकरण में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त का अदालती बयान {6ः जून, 1929}
  3. कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के समय वितरित घोषणा पत्र {1929}
  4. ‘बम का दर्शन‘ {26 जनवरी 1930}

इसके अतिरिक्त ‘किरती‘ में छद्म नामों से लिखे गये लेख, सुखदेव को भूख हड़ताल के समय लिखे पत्र और 2 फरवरी 1931 को पंजाब केशरी में प्रकाशित ‘क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा’ भगत सिंह के राजनीतिक दर्शन को समझने की आंखें हैं.

इन दस्तावेजों में भगत सिंह के वामपन्थी क्रांतिकारी विचारों की विरोधाभासी और सुसंगत दोनों तरह की रोशनी दिखती है. असेम्बली बमकांड पर दिए गए अपने सनसनीखेज ऐतिहासिक बयान में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने समाजवादी प्रतिबद्धता के बावजूद देश में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलन का श्रेय गुरु गोविन्द सिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, रिजाखां, जार्ज वाशिंगटन, गेरीबाल्डी, लायाफेर और लेनिन सभी को दिया.

1929 में अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के चलते इतनी पारदर्शी, सूक्ष्म और निष्कपट बात केवल ये क्रांतिकारी ही कर सकते थे. इसी तरह भगत सिंह ने सुखदेव को लिखे पत्र में साफ कहा है, ‘साम्यवाद का जन्मदाता मार्क्स, वास्तव में उस विचार को जन्म देने वाला नहीं था. असल में यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति ने ही विशेष प्रकार के विचारों वाले व्यक्ति उत्पन्न किए थे, उनमें मार्क्स भी एक थे. अपने स्थान पर मार्क्स भी निस्संदेह कुछ सीमा तक समय के चक्र को एक विशेष प्रकार की गति देने में आवश्यक सहायक सिद्ध हुए. मैंने (और आपने भी) इस देश में समाजवाद और साम्यवाद के विचारों को जन्म नहीं दिया, वरन् यह तो हमारे ऊपर समय एवं परिस्थिति के प्रभाव का परिणाम है.’

( 28 )

2 फरवरी 1931 को लिखे अपने लगभग अन्तिम महत्वपूर्ण दस्तावेज में भगत सिंह ने देश के लिए क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा जारी किया था. भगत सिंह ने कहा था उनका आदर्श नये ढंग की सामाजिक संरचना यानी मार्क्सवादी ढंग से करने से था. वे अपने राजनीतिक दल का नाम भी कम्युनिस्ट पार्टी रखने का ऐलान करते हैं.

मार्क्सवादी समाजवाद की गहरी मीमांसा करने के बाद भगत सिंह जिस आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक कार्यक्रम का ऐलान करते हैं, उसके सम्बन्ध में साम्यवाद को लेकर उनमें कोई संशय नहीं है.

इसी अपील में भगत सिंह का कहना था – ‘मैंने एक आतंकवादी की तरह काम किया है, लेकिन आतंकवादी नहीं हूं. मैं तो ऐसा क्रान्तिकारी हूं जिसके पास एक लम्बा कार्यक्रम और उसके बारे में सुनिश्चित विचार होते हैं. मैं पूरी ताकत के साथ बताना चाहता हूं कि मैं आतंकवादी नहीं हूं और कभी था भी नहीं, कदाचित कुछ उन दिनों को छोड़कर जब मैं अपने क्रान्तिकारी जीवन की शुरुआत कर रहा था. मुझे विश्वास है कि हम ऐसे तरीकों से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं.’

यह दस्तावेज भगतसिंह की शहादत के डेढ़ माह पहले का ही है. वह जेल से जारी किया गया. 19 अक्टूबर 1929 को पंजाब स्टूडेंट्स कांग्रेस के नाम एक सन्देश उन्होंने भेजा था, ‘आज हम नौजवानों को बम और पिस्तौल अपनाने के लिए नहीं कह सकते. इन्हें औद्योगिक क्षेत्र की बस्तियों और गांवों के टूटे फूटे झोपड़ों में रहने वाले करोड़ों लोगों को जगाना है.’

कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में उन्होंने आपसी सहमति से मुख्यतः भगवतीचरण वोहरा द्वारा लिखित पर्चा बंटवाया था, जिसमें विदेशियों की गुलामी से भारत की मुक्ति के लिए एसोसियेशन की सशस्त्र संगठन द्वारा भारत में क्रान्ति के लिए संकल्पबद्धता का ऐलान किया गया. नौजवानों को दिए गए सन्देश में भगत सिंह ने यह इशारा भी किया था कि ‘लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस देश की आज़ादी के लिए जबर्दस्त लड़ाई की घोषणा करने वाली है. राष्ट्रीय इतिहास में इन कठिन क्षणों में नौजवानों के कन्धों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ पड़ेगी.’ इस तरह भगत सिंह ने कथित तौर पर पूंजीवादी, अभिजात्य तथा मध्यवर्गीय मिले जुले तत्वों की कांग्रेस का आज़ादी के आन्दोलन में समर्थन किया था.

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अपने साथियों की लाला लाजपतराय से ‘किरती’ में अनेक असहमति के लेखों के प्रकाशन की जानकारी के बावजूद भगत सिंह ने लालाजी पर हुए हमले का बदला सांडर्स की हत्या करके लिया था, ये बातें कम्युनिस्ट पार्टी के सिद्धांतों और कार्यक्रमों से मेल नहीं खाती थी. गांधी जी से तमाम असहमति के बावजूद भगत सिंह गांधीवाद की ऐतिहासिक भूमिका को एक वैज्ञानिक यथार्थवादी की तरह आंकते थे, वे गांधीवाद को पूरी तरह रद्द नहीं करते. यहां भी वे भारतीय कम्युनिस्टों से अलग चलने का प्रयास करते हैं.

कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के अवसर पर दिसम्बर 1928 में भगत सिंह ने कामरेड सोहनसिंह जोश से कहा था ‘हम आपकी पार्टी के कामों से और उसके कार्यक्रम से सौ फीसदी सहमत हैं लेकिन कभी कभी ऐसे क्षण आते हैं जब जनता में विश्वास की भावना जागृत करने के लिए दुश्मन के प्रहार का सशस्त्र कामों द्वारा तत्काल जवाब देना आवश्यक हो जाता है.’

मजदूरों, किसानों को संगठित करने का क्रांतिकारियों का फैसला बकौल शिव वर्मा ‘एक पवित्र इरादा बनकर ही रह गया. हमारी शक्ति का अधिकांष हिस्सा प्रतिशोधात्मक कामों को संगठित करने में ही जाया हुआ.’

एक अपील में भारतीय क्रान्तिकारियों से असहमति व्यक्त करते हुए खुलासा किया गया था, ‘क्रान्ति क्या है ? आम तौर पर क्रान्ति को बम, रिवाल्वर और गुप्त संस्थाओं से जोड़ दिया जाता है. भारतीय राजनीतिक शब्दकोष में बहुप्रचलित वाक्य ‘क्रान्तिकारी अपराध’ क्रान्ति की इसी गलत अवधारणा की उपज है.’

( 30 )

भगत सिंह ने विदेश जाने से इन्कार किया था. उन्हें रूसी या अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों ने शायद निमंत्रित भी नहीं किया था. भारतीय क्रान्तिकारियों के एक दल ने रूस प्रवास किया था. इन पर महान अक्तूबर क्रान्ति का गहरा असर था. लेनिन के अनुसार ये क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन में सम्मिलित होने की घोषणा के साथ ‘अपने पूर्वग्रह, प्रतिक्रियावादी हवाई कल्पनाएं, कमजोरियां और गलतियां भी लेकर आए.’

वर्ग संघर्ष की चेतना पर आधारित साम्यवादियों ने मसलन ‘भारत का इतिहास‘ (मास्को 1984) नामक पुस्तक में क्रांतिकारियों के आन्दोलन का महत्व कमतर आंकते हुए यही लिखा कि ‘भूमिगत क्रांतिकारियों की आतंकवादी कार्रवाइयों ने वस्तुतः औपनिवेशिक शासन के खिलाफ किसी जनव्यापी आन्दोलन को जन्म नहीं दिया.’

असल में भगत सिंह के विचारों और कार्यों में सुसंगतता और प्रत्यक्ष विरोधाभास के कारण उनके राजनीतिक मानस की पड़ताल करना एक चुनौती भरा कार्य है. तेईस चौबीस वर्ष की उम्र में सड़कों पर आकर संसार की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताकत से मुट्ठी भर साथियों के साथ लड़ाई लड़ रहे भगत सिंह ने केवल अध्ययन और अध्यवसाय के कारण बौद्धिकता के इतिहास में अपनी जगह बना ली है.

सेन्ट्रल जेल लाहौर से 24 जुलाई 1930 को जयदेव को लिखे पत्र में फांसी के इन्तजार के बावजूद निम्नलिखित पुस्तकों को पढ़ने की मांग करते हैं –

  1. सोवियट्स ऐट वर्क
  2. म्यूचुअल एंड प्रिंस कोपाटकिन
  3. फील्ड्स फैक्टरीज़ एंड वर्कशॉप्स
  4. सिवलवार इन फ्रांस-मार्क्स
  5. लेन्ड रिवोल्यूशन इन रशिया
  6. व्हाई मेन फाइट-बी. रसेल
  7. कोलैप्स ऑफ सेकन्ड इन्टरनेशनल
  8. मिलिटरिज्म-कार्ल लीन्वेख्त
  9. स्पाई-अप्टन सिंक्लेयर
  10. थ्योरी ऑफ हिस्टाॅरिकल मैटीरियलिज़्म-बुखारिन
  11. पंजाब पीजेन्ट्री इन प्रास्पेरिटी एंड डेट-डार्लिंग
  12. लेफ्ट विंग कम्युनिज्म

( 31 )

इन किताबों के अलावा अन्य सभी उपलब्ध किताबों के सूची पत्र की मांग करते भगत सिंह किताबों को क्रान्ति की बुनियाद बनाने की कोशिश करने वाले एक महान देशभक्त, क्रांतिकारी और समाजवादी बनने की पहल करते हैं. 1984 में मास्को से प्रकाशित ‘भारत का इतिहास‘ में अंतोनोबा, बोगर्द-लेविन और कातोवस्की लिखते हैं – ‘भूमिगत क्रांतिकारियों को विश्वास था कि बड़े पैमाने पर आतंकवादी कार्रवाइयां व्यापक किसान संघर्ष को आवश्यक प्रोत्साहन प्रदान करेंगी. उनके विचार में भारत में औपनिवेशिक शासन की समाप्ति स्वतःस्फूर्त ढंग से उभरती किसान क्रांति के दबाव में होगी और वे मजदूर वर्ग की भूमिका तथा श्रमजीवी जनता के जन संगठनों के कार्य को कम महत्व देते थे.’

मजदूरों के पक्ष में लेकिन भगत सिंह लगातार बयान देते रहे हैं. ‘क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा’ में वे साफ कहते हैं – ‘वास्तविक क्रांतिकारी सेनाएं तो गांवों और कारखानों में हैं – किसान और मजदूर‘ ‘क्रांति राष्ट्रीय हो या समाजवादी, जिन शक्तियों पर हम निर्भर हो सकते हैं वे हैं किसान और मजदूर‘ ‘किसानों और मजदूरों का सक्रिय समर्थन हासिल करने के लिए भी प्रचार जरूरी है.’

क्रांति के लिए हथियारों के इस्तेमाल के सवाल पर भगत सिंह और साथियों को कांग्रेस सहित कम्युनिस्टों का भी प्रोत्साहन या सहयोग नहीं मिला. लाहौर कांग्रेस के समय बांटे गए पर्चे में क्रांतिकारी साफ ऐलान करते हैं – ‘विदेशियों की गुलामी से भारत की मुक्ति के लिए यह एसोसियेशन सशस्त्र संगठन द्वारा भारत में क्रांति के लिए दृढ़ संकल्पित है – हम हिंसा में विश्वास रखते हैं – अपने आप में अन्तिम लक्ष्य के रूप में नहीं बल्कि एक नेक परिणाम तक पहुंचने के लिए अपनाए गए तौर तरीके के नाते.’

उसी दिन भगत सिंह विद्यार्थियों के नाम पत्र में उनसे आह्वान करते हैं कि नौजवानों को क्रांति का यह सन्देश देश के कोने कोने में पहुंचाना है, फैक्टरी कारखानों के क्षेत्रों, गन्दी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आज़ादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का षोषण असम्भव हो जाएगा.

आतंकवाद तथा अराजकतावाद से समाजवाद की ओर सफर करते हुए भगत सिंह ने ये कालजयी निर्णायक वाक्य भी कहे थे – ‘मेरा मतलब यह कदापि नहीं है कि बम व पिस्तौल बेकार हैं, वरन इसके विपरीत यह लाभदायक हैं. लेकिन मेरा मतलब यह जरूर है कि केवल बम फेंकना न सिर्फ बेकार, बल्कि नुकसानदायक है. पार्टी के सैनिक विभाग को हमेशा तैयार रहना चाहिए ताकि संकट के समय काम आ सके. इसे पार्टी के राजनीतिक काम में सहायक के रूप में होना चाहिए. यह अपने आप स्वतंत्र काम न करें.’

( 32 )

भगत सिंह सम्भावनाओं के जननायक बनकर इतिहास में अपनी उज्जवल उपस्थिति दर्ज कराते हैं. उन्हें इस देश के लिए जीने की औसत उम्र भी नहीं मिली. ईश्वर के प्रति भगत सिंह को आस्था नहीं थी. वे प्रखर नास्तिक बने रहे. धर्म के प्रति वे शंकालु थे. 21वीं सदी की दहलीज पर भगत सिंह पिस्तौल या बम के आतंक के प्रतीक बनाए जा रहे हैं. मातृभूमि और मनुष्य के लिए बलिदान करने के अन्यथा सबसे बड़े ऐतिहासिक उदाहरण हैं. जरूरत है भगत सिंह के मानस की पड़ताल की जाए. उन विचारों को खंगाला, पुनर्परिभाषित और प्रासंगिक बनाया जाए जो भारतीय क्रांतिकारियों का दर्शन बने हुए हैं.

भगत सिंह को राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में वास्तविक स्थान पर स्थापित करने की जरूरत है. भगत सिंह का सम्पूर्ण लेखन आज तक सामान्य पाठकों तक नहीं पहुंचा है. इस महान वीर युवक के साहसिक जोखिम के तिलिस्म से उबरकर कब उसे काॅमरेड समझा जाएगा ?

भगत सिंह को मिथक पुरुष बनाए जाने की गैर जिम्मेदार कोशिशें चलती रहती हैं. दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद को वीर पूजा की भावना के सहारे अपने बांझ तर्कशास्त्र को ढोने की आदत है इसलिए ऐसे सभी महापुरुषों का जो उसकी थ्योरी के प्रचार के लिए अपने आंशिक प्रतिस्मरण के जरिए उपयोग में लाए जा सकते हैं, शोषण करने से भी उसे परहेज नहीं है. मसलन सरदार पटेल इसलिए राष्ट्रवादी बना दिए जाते हैं क्योंकि उन्होंने इस्लामी देसी रियासतों का विलीनीकरण करने का जोखिम उठाया था.

अम्बेडकर यदि इस्लाम का विरोध करते हैं तो उनके लिए प्रगतिशुल हैं. अब तो गांधी भी हिन्दुत्व के पैरोकार के रूप में और धर्मांतरण के खिलाफ दिखाई पड़ने के कारण उनके दफ्तरों की दीवारों पर टंग गए हैं. भगत सिंह भी उन्हें एक हिंसक दीखते वीर हैं जो विरोधी विचारधारा पर बम फेंक कर भी अपने निर्णय की पुष्टि इतिहास से करा सकते हैं. क्या यही भगत सिंह होने का तात्विक अर्थ है ?

दुनिया में 24 वर्ष से कम उम्र का कोई ऐसा बुद्धिजीवी पैदा नहीं हुआ है जिसने कम से कम पांच वर्ष अपने देश के इतिहास को अपने कांधों पर उठाए रखा. दुनिया में क्या कोई जननेता पैदा हुआ है जिसने तेईस वर्ष की उम्र में अपनी देह से बुद्धिजीविता के स्फुलिंगों का निर्झर पैदा किया हो ? भगत सिंह ने समाजवाद या साम्यवाद के वैचारिक वर्क की इतनी बारीक परतें अपने तर्क से चीर कर दी हैं जो रूढ़ वामपंथी विचारकों के लिए संभव नहीं है. वह अपनी प्रयोगधर्मिता में एक शोध विद्यार्थी की तरह देशभक्ति का जज़्बा हमसे उस उत्पाद के कच्चे माल की तरह मांगता है जो उसकी कुर्बानी की धमन भट्टी से ऐसा पैदा हुआ कि लोग भगत सिंह के प्रति अपनी समझ को उसकी स्थायी व्याख्या बनाने का पेटेंट करने की ज़िद कर रहे हैं.

( 33 )

भगत सिंह आजीवन प्रतिबद्ध समाजवादी की हैसियत लिए लड़ते रहे. संविधान सभा की बहस में समाजवाद का उल्लेख होने पर भगत सिंह के नाम का जिक्र तक नहीं आया. नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण और लोहिया जैसे समाजवादी विचारकों की तिकड़ी ने भी भगत सिंह को एक वैचारिक की तरह तरजीह नहीं दी. भारतीय समाजवादी विचारक मार्क्सवाद और यूरोप की अन्य प्रचलित समाजवादी अवधारणाओं के कायल रहे हैं.

भगत सिंह का जन्म स्मृतिशेष विभाजित भारत की भूगोल अर्थात पाकिस्तान में है. भगत सिंह का इतिहास लेकिन उनके भविष्य में है. उनकी देह दाह संस्कार के लिए परिवार और देश को मिली थी. वह अधजली और टुकड़े टुकड़े थी. ऐसा भी किसी बड़े देशभक्त के साथ नहीं हुआ. शैक्षणिक पाठ्यक्रम में समकालीन विचारक भगत सिंह शामिल नहीं हैं. ऐसे लेखकों की पुस्तकें अलबत्ता दर्ज होती हैं जो विचार के जनपथ के हाशिए तक के लायक नहीं हैं.

भगतसिंह के लेखन को सम्पादित और चयनित कर वास्तविक पाठ्यक्रम में शामिल कर उस पर शोध किए जाने की जरूरत है. जिस साथीपन के साथ उनकी टीम ने भारतीय आजादी के लिए मुकम्मल संघर्ष किया, वह साथीपन लोकतंत्र से गायब है. समाजवाद को संविधान के जीवित लक्ष्य के रूप में घोषित करने के बाद भी देश वैश्वीकरण, मुक्त बाजार और साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेके हुए है.

धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मकसद के बावजूद भारत सांप्रदायिक दंगों का दुनिया का सबसे बड़ा अखाड़ा है. अछूत से भाईचारा रखना भगत सिंह ने समझाया था. वह जगह जगह सवर्णों की हिंसा का शिकार है. इस किसान पुत्र ने जिन्हें भारतीय अर्थनीति की रीढ़ बताया था वे किसान थोकबन्द आत्महत्याएं कर रहे हैं. सरकारें उन पर अहसान बताकर कर्ज माफ कर रही हैं लेकिन पैदावार का उचित मूल्य और भूमि सुधार नहीं दे पातीं.

किसानों के अधिकारों के बारे में प्रदेश सरकारें एक नहीं हैं. किसान आज भी राष्ट्रीय बहस के केन्द्र में नहीं हैं. नौजवान भगत सिंह का सपना थे. वे ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना तथा बेकारी के भत्ते से लेकर सड़कों पर उत्पात करने की सांस्कृतिक गतिविधियों में लिप्त हैं. मजदूरों को भगत सिंह मार्क्सवाद से प्रभावित होकर जेहाद बोलने के काम पर लगाना चाहते थे. वे अपने अधिकारों में लगातार कटौती किए जाने से लुंज पुंज हो गए हैं. भगत सिंह की नास्तिकता के बरक्स देश में अशिक्षित धर्मांध साधुओं का हिप्पीवाद भारतीय धार्मिकता का पर्याय बनाया जा रहा है.

( 34 )

भगत सिंह ने छोटे से छोटे सवाल तक को उपेक्षित नहीं किया था. वे उपेक्षित प्रश्नों के अनाथालय थे. जेल के नियमों के अनुसार अंग्रेजी पोशाक पहने हुए गिरफ्तार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को जेल में बेहतर दर्जा मिल सकता था लेकिन भगत सिंह ने जेल नियमावली में कैदियों के अधिकारों की समानता को लेकर एक बड़ा आंदोलन किया, उसमें उनके मित्र क्रांतिकारी जतिन दास की भूख हड़ताल में मौत हो गई.

भगत सिंह न्यायाधीशों के सामने सर झुकाने से इंकार करते थे. उनके अनुसार न्यायाधीश न्याय करने नहीं बैठते थे, बल्कि एक औपचारिकता का निर्वाह कर रहे थे. भगत सिंह के प्रखर कर्मों का ताप झेलना मौजूदा राजनीति में किसी के वश में नहीं है. भगत सिंह की कुरुचिपूर्ण मूर्तियां कन्याकुमारी से गौहाटी और जम्मू तक मिल जाएंगी. भगत सिंह की स्मृति में देश में सबसे बड़ा केन्द्रीय पुस्तकालय/वाचनालय खोलने की जरूरत है क्योंकि भगत सिंह से ज्यादा बड़ा पढ़ाकू भारतीय राजनीति में कोई नहीं हुआ.

सरकारें उनके स्मृति-आयोजनों में शिरकत करने वाले मंत्रियों की सुरक्षा पर जितना खर्च कर देती हैं, उतने धन से भगत सिंह के साहित्य को प्रकाशित कर देश के विद्यार्थियों में यदि वितरित कर दिया जाए तो देश (और भगत सिंह) का ज्यादा भला हो सकता है.

1857 के स्वतंत्रता युद्ध के सैनिकों को संसदीय कानूनों के अभाव में सजा नहीं दे पाने के कारण अंग्रेजों ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जनविरोधी कानूनों का जंगल उगाया. वे कानूनी जंगल और न्यायिक बीहड़ भारतीय जनता का षोषण कर रहे हैं. इसके बरक्स भारतीय संविधान रचने में समकालीन स्वतंत्रता सैनिकों की जद्दोजहदयुक्त मनीषा को दरकिनार करते हुए संविधान निर्माताओं ने किताबी किस्म की पश्चिमी बुद्धिजीविता से प्रेरणा ग्रहण करते हुए विक्टोरियन युग की टकसाली भाषा में ऐसा विधायन किया, जिसमें भगत सिंह के कालजयी आह्वान से छत्तीस का आंकड़ा बैठता है.

भगतसिंह को जन स्मृति से दूर रखने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियां एक हैं. ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ के मुकाबले देष ‘इंडिया शाइनिंग‘, ‘फील गुड‘, ‘नक्सलवाद‘, ‘जेहाद‘ ‘मोदी दर्शन‘, ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र‘, ‘सेंसेक्स‘, ‘परमाणु करार‘ के नवयुग में आ गया है. भगत सिंह की भाषा और तर्कों की चमक आज भी धूमिल नहीं हुई है. पिछली सदी के तीसरे दशक में भविष्यमूलक सवाल देश की छाती पर उन्होंने उकेरे थे.

21वीं सदी केे पहले दशक में भगत सिंह की क्रांति का पुनर्पाठ हो रहा है. यह महान नवयुवक भारत के वैचारिक फलक का ध्रुवतारा है. ताजा इतिहास के पिछले अस्सी वर्षों में भगत सिंह ध्रुव तारे की तरह स्थायी तो हैं लेकिन आसमान में ध्रुव तारा झिलमिलाता हुआ दिखाई देता है. कहते हैं जिसकी मौत निकट आ गई हो ध्रुव तारा उसे दिखाई देना बंद हो जाता है. भारत को यह ध्रुव तारा दिखाई तो देता रहे.

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ROHIT SHARMA

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