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मौत का आलम तथा सत्ता और मध्यवर्ग की बेरुखी

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मौत का आलम तथा सत्ता और मध्यवर्ग की बेरुखी

आज सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली, निजी एम्बुलेंस वालों की लूट, मौत के आलम तथा मध्यवर्ग की बेरुखी, इन सबको को एक साथ इतने करीब से देखने का जो मौका मिला है. यह एक ऐसी कहानी है, जो सच्ची तो है ही, लेकिन मुख्य बात यह है कि इसमें हम जैसे हज़ारों लोग अपनी कहानी प्रतिबिम्बित होते देख सकते हैं. इसे ऐसे समझिये.

मैं जिस मकान में किराये पर रहता हूं, उसी मकान में वह आदमी अपने परिवार (पत्नी और एक 10-12 साल की बच्ची) के साथ रहता था. उम्र लगभग 35-40 के बीच होगी. उससे भी कम हो सकती है. खैर, वह ट्यूशन कर के अपना छोटा-सा परिवार चलाता था. कल के पहले तक उसके बारे में इतनी ही जानकारी थी.

कल वह शाम को कुर्सी पर बैठा था कि एकाएक बेहोश हो गया. जिस समय मेरे घर के दरवाजे को पीटते हुए मुझे खबर किया गया, उस समय हमलोग मार्क्स के व्यक्तित्व, कृतित्व तथा उनकी जीवनी पर ऑनलाइन क्लास में चर्चा कर रहे थे.

हम अपने साथियों के साथ ऊपर वाले तल्ले पर पहुंचते हैं. वह व्यक्ति कुर्सी पर बेहोश पड़ा था और उसकी पत्नी और बेटी उसके सीने को बाईं ओर दबाकर उसकी सांस को दुबारा तेज करने की कोशिश कर रही थी. हमने तुरंत सारे संपर्कों का प्रयोग करते हुए उसे अस्पताल पहुंचवाने की कोशिश की. सौजन्य और कंचन इसमें बदहवास हो लगे रहे, दौड़ते रहे लेकिन सब कुछ बेनतीजा रहा. और इस बीच एक घण्टे का समय भी निकल गया.

वह व्यक्ति पहले की तरह अचेत पड़ा था. घरेलू उपचार सारे के सारे किये जा चुके थे. और हमलोग बिल्कुल निस्सहाय हो, सौ फीसदी समझ चुके थे कि वह जिंदा नहीं बचेगा. फिर भी लगे रहे. महिला और उसकी बेटी के अलावे मर्द में सिर्फ हमलोग ही मौके पर मौजूद थे. हां, नीचे तल्ले की एक बूढ़ी महिला और उनकी बेटी भी मदद करने की हर कोशिश कर रही थी. वे भी हम सब की तरह किरायदार हैं.

अंत में किसी तरह एक प्राइवेट एम्बुलेंस वाला मिला. आते ही पूछा, ‘किस हॉस्पिटल में चलना है ?’ किसी के पास कोई जवाब नहीं था. ये तो पहले ही पता चल गया था कि सरकारी में कहीं जगह नहीं है और निजी बड़े हॉस्पिटल में जाने की उस परिवार की क्षमता नहीं थी, अब तक यह पता चल चुका था. इस बारे में हममें से किसी को भी पूर्व से जानकारी नहीं थी इसलिए बगल के ही एक क्लिनिक में पहले ले जाया गया.

डॉक्टर या कम्पाउण्डर जो भी था उसने कहा कि बस दो-चार बीप और बाकी है औऱ फिर सबकुछ खत्म समझिये. दो रिश्तेदार (उसकी पत्नी के तरफ के) आ चुके थे जिन्हें यह बता दिया गया कि अंतिम क्षण आने वाला है या समझिये आ चुका है. फिर भी वे अपनी क्षमता के अनुसार एक छोटे से हॉस्पिटल में ले गए जहां उन्हें बिना किसी और जांच के मृत घोषित कर दिया. छोटा होने की वजह से वह बहुत देर तक यूं ही रोक कर इलाज़ के बहाने पैसे की लूट करने की स्थिति नहीं था, अन्यथा कोई बड़ा निजी अस्पताल होता तो लाखों का चूना लगाने के बाद ही मृत घोषित करता.

लेकिन रुकिये ! असली कहानी अभी बाकी है.

लगभग रात के 9 बज गए थे या बजने वाले थे. घर वापस लौटने पर पहले तो एम्बुलेंस वाले ने 7 से 8 किलोमीटर आने-जाने के लिए 8 हज़ार मांगा, जिससे हमलोगों को छोड़कर बाकी सभी अवाक थे. इससे पता चला कि ये लोग आज कल क्या हो रहा है उससे पूरी तरह अनभिज्ञ थे और अपने आप में सीमित रहने वाले लोग थे.

वैसे बात करने में एम्बुलेंस वाला उतना उदंड नहीं दिख रहा था. यह भी सही है कि रोगी को अस्पताल तक ले जाते वक्त बिना किसी हिल-हुज्जत के मान गया और थोड़ी-बहुत इधर-उधर में मदद ही कर रहा था. बीच-बीच में सांत्वना भी देता था. चाहता तो शुरू में ही पैसा गिनवा लेता लेकिन आठ हज़ार से नीचे उतरने को तैयार नहीं था. बोला, ‘यही रेट है, पता कर लीजिये.’

जब तक इससे निपटा जाता उससे पहले ही इस कहानी या कहानी के दो चरम बिंदुओं में से एक प्रकट हो जाता है. मकान मालिक का फरमान आता है ‘लाश अहाते में नहीं रखने देंगे.’ अजीब सा सन्नाटा पसर गया. भीड़ लग गयी. पीड़ित पत्नी और उसकी बच्ची रोने लगी. हमलोग भी सुनकर अवाक और सन्न रह गए. हालांकि मुझे कुछ ऐसा ही होगा इसकी उम्मीद थी, फिर भी ठीक सामने होते देखा तो पहले काठ मार गया यह सच है. वह मेरा भी मकान मालिक था (है) और मेरे सीधे विरोध का मतलब मुझे भी चंद दिनों के भीतर मकान खाली का निर्देश मिल जाता. लेकिन कुछ तो करना ही था. लेकिन क्या, समझ से परे था.

इसके कुछ देर पहले ही हमलोग घर आकर स्नान वगैरह और सैनिटाइज किये थे अपने को, फिर भी मन ही मन नीचे जाने की तैयारी करने लगे. लेकिन इसी बीच बगल के गाय-दूध का स्थायी व्यापार करने वाले लोग जुट गए और बात बढ़ने की आशंका और थाने को सूचित किये जाने की बात किसी के द्वारा बोलने के बाद मकान मालिक कुछ नरम हुआ. और मृत शरीर को रात भर के लिए अहाते में रखने दिया. ये सब ठीक मेरे नीचे ग्राउंड फ्लोर पर हो रहा था.

इसके बाद मकान मालिक ने न जाने क्या सोचते हुए बाहर अहाते का बिजली बल्ब बुझा दिया और अपना गेट बंद कर लिया. हमलोग ऊपर से देख रहे थे, मन में हो रहा था, जाऊं और दो-चार जोरदार थप्पड़ जड़ दूं. इसी उधेड़बुन में था कि बगल वाले लोगों ने फिर से चेताया, तो एक अत्यंत कम पावर वाला बल्ब जला दिया और गेट फिर से बंद कर खुद अंदर चला गया.

रात का समय, लॉक डाउन तथा अस्तव्यतता में उसकी पत्नी, जो अकेली जान थी, कुछ और व्यवस्था नहीं कर पाई. करती भी तो आखिर क्या करती. आर्थिक क्षमता का हमलोगों को अंदाजा हो गया था. उसके मायके के दो लोग (एक महिला और पुरुष, सम्भवतः भाई और भाभी या बहन और जीजा) नहीं आते तो पता नहीं क्या होता ! मेरी पत्नी ने धूपबत्ती आदि की तुरन्त मदद की. बाद में चाय आदि की व्यवस्था भी की और बगल के सहृदय ग्वाले भाइयों ने दूध पिलाया.

उसकी पत्नी शायद कुछ भी नहीं ले सकी. अहाते के बाहर ही उसका भाई या जीजा ने भूसे की बोरियों पर रात बिताई. हमलोग भी आराम करने लगे. सुबह उसकी पत्नी के अत्यंत बूढ़े पिता आये और लोग अंत्येष्टि के लिये निकले. उसकी पत्नी और बच्ची को लेकर बस चार या पांच लोग ही रहे होंगे. कोई धार्मिक क्रिया नहीं की गई. स्थिति ही नहीं थी. किसी तरह मिट्टी बन चुकी देह से मुक्ति पाने की जल्दी दिखी. शायद चाहकर भी कुछ करने की स्थिति नहीं बनी होगी. उसकी पत्नी बस चुप ही रही होगी शायद. हमलोग भावनात्मक रूप से उसकी स्थिति का सामना करने की स्थिति में नहीं थे इसलिए हमलोग भी चुप ही रहे.

लेकिन रुकिये ! कहानी अभी भी खत्म नहीं हुई है

दोपहर को हमलोग घर में थे कि एकाएक जोर-जोर की तेज आवाज़ आने लगी. वे लोग अभी तुरन्त घाट से लौटे ही थे कि मकान मालिक का अगला फरमान आया, ‘यहां कोई पूजा या भोज-भात नहीं करने देंगे, कहीं और कीजिये.’ बात होने लगी. ‘कहां जाएंगे, इनका अपना कोई घर नहीं है’ – उसकी तरफ के लोग बोले. ‘जो भी हो, हम नहीं करने देंगे.’ उधर से आवाज़ आयी -‘एकाएक ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है, जरा सोचिये’ – उसका जीजा या भाई जो भी था मिन्नत करने लगा. उसकी पत्नी बस चुप ही थी।

मकान मालिक का सीधा जवाब था -‘हम मरने के लिए किरायेदार नहीं रखते हैं.’ अब यह तो हद हो गई. सभी लोग समझ रहे थे. हमलोगों को समझ में नहीं आ रहा था क्या करें – इसी तरह से मिन्नतें करें जाकर या दो-थप्पड़ रसीद करें, लेकिन बहुत कुछ सोचकर चुप ही रहे. बात फिर से बढ़ने लगी. रात से भी ज्यादा. तेज आवाज में.

जब इधर से अड़ियल आवाज़ आई कि ‘कहां जाएंगे, यही करेंगे’, तो उधर से आवाज़ आई – ‘हम अभी ताला लगा देंगे.’ अब तय था कि झगड़ा बढ़ेगा. हमलोग इधर-उधर देख रहे थे, लोग जुट रहे हैं या नहीं ? दिन का 1 बज रहा होगा. बाहर चिलचिलाती धूप थी. तय करने के बारे सोच रहे थे कि हमारा अगला कदम क्या होना चाहिये. नजर उठायी तो देखा, इनके जैसे एक दो अन्य मकान मालिक दूर से ही झांक रहे थे.

एक बार फिर से मृत व्यक्ति की पत्नी के भाई ने कमर कसी और इस बार सबक सिखाने की बात करते हुए, थाने व अन्य लोगों को फोन करने लगा. हमलोगों ने ऊपर से मौन सहमति दी. लेकिन एक बार फिर से ‘ऐसे व्यक्ति को तो पीटना चाहिए” की आवाज़ आने लगी. देखा तो वही लोग, जिन्होंने कल इस पीड़ित परिवार को दूध पिलाया था, एक बार फिर से मोर्चा संभाल लिया. हमलोगों ने सोचा, अच्छा है यह भी हो ही जाए. मकान मालिक के घर के लोगों को सद्बुद्धि आयी और बीच-बचाव करते हुए इजाजत दे दी. लेकिन बूढ़े मालिक ने फिर से फरमान दे डाला, ‘मकान जल्द से जल्द खाली करो नहीं तो अच्छा नहीं होगा.’

पता चला कि वह व्यक्ति, जो अब नहीं रहा, पिछले एक दो महीने से किराया या तो नहीं दे पाया था या देने में देरी किया था. उसकी पत्नी के अनुसार, उनको कोरोना नहीं था, बीपी था और इधर कई महीनों से पैसे की कमी से अत्यंत तनाव में रह रहे थे और इसी से उनकी मृत्यु हुई है. लेकिन बाकी लोग कोरोना मानकर ही चल रहे थे. वह बोल रही थी, ‘ट्यूशन और कोचिंग दोनों खराब स्थिति में पहुंच गए थे.’

ऐसे न जाने कितने लोग इसी तरह मौत के शिकार हो गए हैं और हो जाएंगे. क्या यह मौत है, या फिर हत्या है ? यह उन सब लोगों की कहानी है जिन्हें इस महामारी और लॉक डाउन के बीच पूंजीवादी व्यवस्था ने यूं ही मरने के लिये छोड़ दिया है. इनमें कोई भी अपनी मौत नहीं मरेगा, सबकी हत्या कर दी जाएगी. इस तरह के लोग जो मरे हैं उनकी भी हत्या ही हुई है. गलत है यह कहना कि वे अपनी मौत मरे हैं या बस कोरोना से मरे हैं.

बहुत लोग ‘हत्यारा समय’ लिख रहे हैं. लेकिन समय का दोष क्या है ? हत्यारी तो यह व्यवस्था है जिसने समय को हत्यारा बना दिया है.

  • शेखर सिन्हा

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