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माओवादियों पर हमला : शर्म कहीं बची हो तो डूब मरो

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माओवादियों पर हमला : शर्म कहीं बची हो तो डूब मरो

पिछले तीन महीने में माओवादियों के 28 लोगों को पुलिस ने जान से मार डाला. बदले में माओवादियों ने 23 पुलिस को मार गिराया. आंकड़ा अभी भी बराबरी से 5 अंक कम है, फिर भी माओवादियों को हिंसक और पुलिस को अहिंसा का पुजारी बताया जाता है. बहरहाल हम यहां चर्चा कर रहे हैं माओवादियों और पुलिसिया कार्यशैली की.

3 अप्रैल को हुई मुठभेड़ में 23 पुलिस को माओवादियों ने मार गिराया, 31 को घायल किया और सीआरपीएफ के 1 कोबरा कमांडो राजेश्वर सिंह को माओवादियों ने गिरफ्तार कर लिया. अब माओवादी उस कोबरा ‘जवान’ की रिहाई सुनिश्चित करने के लिए सरकार के समक्ष चाहे जो ही शर्तें रखी हो, परन्तु इतना तय है कि उस कोबरा ‘जवान’ को किसी भी तरह की शारीरिक पीड़ा नहीं पहुंचाई गई, यहां तक की समुचित मानवीय संवेदना व्यक्त की गई.

परन्तु, यहीं पर आप यह कल्पना कीजिए, यदि मुठभेड़ स्थल से माओवादियों के किसी गुरिल्ला को पुलिस ने पकड़ लिया होता तो उनके साथ पुलिस किस क्रूरता से पेश आती. इसकी कल्पना ही रुह को कंपा देने के लिए पर्याप्त है.

जब कभी पुलिस को किसी गरीब का बेटा, किसान का बेटा कहकर उसकी मासूमियत को दर्शाया जाता है तभी पुलिस बना वह ‘गरीब का बेटा’ ‘किसान का बेटा’ किसी लॉकअप में किसी गरीब, बेसहारा औरत की आबरू लूट रहा होता है, उसके योनी में पत्थर भर रहा होता है, किसी के बेटे को गोलियों से उड़ा रहा होता है, किसी सामाजिक कार्यकर्ता को बांधकर जिन्दा जला रहा होता है, किसी के शरीर में बिजली का करंट दौड़ा रहा होता है, किसी गरीब का घर उजाड़ रहा होता है.

पुलिस बना यह यह दरिंदा अपनी दरिंदगी का चरम आनंद लेते हुए हर बर्ष हजारों की तादाद में लोगों का खून पीता हुआ जब खुद को अहिंसा का पुजेरी बता सकता है तभी 5 पुलिस की कम हत्या करने वाला माओवादी अहिंसक क्यों नहीं हो सकता ? ध्यातव्य हो कि माओवादी हिंसा का सहारा केवल तभी लेता है जब उसे अपनी अथवा लोगों की जान बचानी होती है. यानी आत्मरक्षा में किया गया हिंसा, हिंसा की परिभाषा में नहीं आता.

सवाल है पुलिस अपने ही नागरिकों पर यह हिंसक हमला क्यों करती है ? अपने ही नागरिकों के जान और आबरु को क्यों खत्म करती है ? जवाब हमें प्रसिद्ध गांधीवादी हिमांशु कुमार इस प्रकार देते हैं –

राम मोहन जी हमारे मित्र थे. आज ही के दिन 2018 दिल्ली में एम्स में उनका देहांत हुआ था. वे आईपीएस अधिकारी थे. वे बीएसएफ के चीफ रहे. राम मोहन जी एक दिन हमारे घर आये. उन्होंने एक किस्सा सुनाया.

एक बार वो आंध्रप्रदेश में सीआरपीएफ के किसी कार्यक्रम में बोल रहे थे. वहां उन्होंने कहा कि ‘हमें हिंसा कम करने के लिए नक्सलियों से वार्ता करनी चाहिए.’ इस पर सीआरपीएफ के लोग बिफर गये और बोले ‘वो हमें मारने के लिए हमारे नीचे बारूदी सुरंग बिछाते हैं, हम उनसे बात कैसे कर सकते हैं ?’

राम मोहन जी ने कहा कि ‘आप यहां किसकी रक्षा करने आये हो ? और किसकी रक्षा कर रहे हो ? आंध्रप्रदेश में क़ानूनी तौर पर कोई भी तीस एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं रख सकता लेकिन जमींदारों ने कई-कई हजार एकड़ जमीन अपने पास रखी हुई है. आप कानून तोड़ने वाले जमींदारों की रक्षा करते हो. जिस दिन आप जमींदारों को कहोगे कि हम आपको ये गैर क़ानूनी जमीन नहीं रखने देंगे और आप वो जमीन गांव के गरीबों में बंटवा दोगे, उस दिन से आपके नीचे बारूदी सुरंगे लगनी बन्द हो जायेंगी.

गरीब के खिलाफ काम करोगे, कानून के खिलाफ काम करोगे, संविधान के खिलाफ काम करोगे तो लोग आप पर हमला करेंगे ही. देश के हर सिपाही को, हर सैनिक को अपने आप से पूछना चाहिये कि वो किसका सैनिक है ? उसे किसकी तरफ से लड़ना है और किसके खिलाफ लड़ना है ?’

ये वही राम मोहन जी हैं जिन्हें दंतेवाडा में छिहत्तर सीआरपीएफ के सिपाहियों के मरने पर भारत सरकार ने जांच करने के लिए भेजा था. और आज तक सरकार की हिम्मत नहीं हुई कि उनकी दी हुई रिपोर्ट प्रकाशित कर कर सके. राम मोहन जी हमेशा मानते रहे कि आदिवासियों को उनके अधिकार दिए बिना शान्ति नहीं आ सकती.

संविधान की 5वीं अनुसूची कहता है आदिवासियों की जमीन बिना उनके ग्राम सभा की अनुमति के नहीं ली जाये, परन्तु भारत सरकार अपने चंद धन्नासेठों के हित में संविधान विरोधी कदम उठाते हुए आदिवासियों की जमीन को जबरन छीनती है. इस जमीन को छीनने के लिए बकायदा संविधान द्वारा निर्मित सेना और पुलिस का सहारा लेकर आदिवासियों को उसके ही जमीन से खदेड़ती है, मारती है, उनके परिवारों पर जघन्य हमला करती है.

आदिवासी संविधान प्रदत्त अपने अधिकार और संविधान विरोधी हिंसक पुलिस की दरिंदगी से अपनी रक्षा के लिए हथियार उठा लिए हैं. आत्महत्या ही नहीं आत्मरक्षा करने का भी अधिकार यह संविधान हर मनुष्य को प्रकृति देती है. अब संविधान प्रदत्त अपने अधिकार की रक्षा में आदिवासियों अगर संविधान विरोधी पुलिसिया दल पर हमला करते हैं तो यह कहीं से भी हिंसा नहीं कहला सकता.

क्या भारत सरकार माओवादियों को पराजित कर सकती है ?

उपरोक्त सवाल का एक शब्द में जवाब है – नहीं. छत्तीसगढ़ के आदिवासी माओवादियों के नेतृत्व में गोलबंद हैं. उनकी अपनी राजनीतिक गतिविधि का केन्द्र है, जिसका नाम है – भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी). उनकी अपनी सैन्य शक्ति का केन्द्र है, जिसका नाम है – पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (जनमुक्ति गुरिल्ला सेना), जो आगे चलकर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (जनमुक्ति सेना) बनेगी. यही जनमुक्ति सेना कभी चीन में बनाई गई थी, जो जापान और अमेरिका जैसी क्रूर सेना को मार गिराया था. यही वह सेना है जिसने हिटलर जैसी संहारक फौज को जमीन में दफन कर दिया था.

यह एक भ्रम है जो शासक वर्ग आम लोगों में फैलाती है कि सरकार चाहे तो माओवादी को चुटकी में मसल सकती है. परन्तु, यह एक भ्रम है. भारत सरकार चाहकर भी इसे खत्म नहीं कर सकती. भारत सरकार ही क्यों पूरी दुनिया की पूंजीवादी फौज मिलकर भी इसे मिटा नहीं सकती. क्यों ?

पिछले अनुभव से सीखना चाहिए. पिछला अनुभव रुस और चीन, वियतनाम, कोरिया, यहां तक की पड़ोसी देश नेपाल का है. 1917 में रुस में सोवियत क्रांति सम्पन्न होने के साथ ही 54 देशों की पूंजीवादी सरकार ने एक साथ मिलकर सोवियत संघ पर नृशंस हमला दो दो दफा किया था, पर सोवियत की श्रमिक जनता ने सभी को धूल चटा थी. चीन, वियतनाम, कोरिया पर भी अमेरिका समेत अन्य पूंजीवादी देशों ने मिलकर हमला किया था, परन्तु वहां की श्रमिक जनता ने उस फौज को मिट्टी में दफन कर दिया.

नेपाली शासक राजा महेंद्र सिंह, जो अपने भाई राजा विरेन्द्र सिंह के सम्पूर्ण परिवार को भारत और अमेरिकी शासक के षड्यंत्र से एक साथ गोलियों से भूनकर मार डाला था, ने जब नेपाली माओवादियों के खिलाफ युद्ध की घोषणा किया तो उसे अपदस्थ होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. हम सब इसके साक्षी हैं. आज, चाहे जैसी भी हो, नेपाल में नेपाली माओवादी सरकार में है और सत्ता का संचालन कर रही है.

भारत में भी परिस्थितियां इससे जुदा नहीं हो सकती. माओवादियों पर भारत सरकार जितना ही तेज हमला करेगी, माओवादी और उसकी जनमुक्ति सेना (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) उतनी ही मजबूत होती जायेगी, जिसका प्रारंभिक स्वरूप अभी पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी है.

एक स्टडी के अनुसार छत्तीसगढ़ में जब माओवादियों पर हमले कम थे तब उसके पास पांच सौ से भी कम फौजे थी, परन्तु, ज्यों ही माओवादियों पर सरकारी दमन बढ़ाया गया माओवादियों की गुरिल्ला फौज की संख्या 50 हजार से भी आगे निकल गई है. अगर यही रफ्तार रहा तो निश्चित तौर पर माओवादी जनमुक्ति सेना गठन कृने में कामयाब हो जायेगा. और अगर एकबार माओवादियों की जनमुक्ति सेना बन गई तब वह अंबानी अदानी की एजेंट भारत सरकार के लिए एक खौफ से कम नहीं होगी.

छत्तीसगढ़ के पूर्व DGP विश्वरंजन बातचीत में बताते हैं कि कश्मीर में तीन-चार की संख्या में आतंकी हमला करते हैं, पर माओवादी की गुरिल्ला आर्मी 250 से 300 की संख्या में पहाड़ पर होते हैं, अगर वहां एम्बुश लगा है तो वहां आर्मी भी लगा दो तो भी बचना मुश्किल होता है.

भारत सरकार की फौज भी आदिवासियों पर हमले से परेशान

माओवादियों को मिटाने के लिए मोर्चो पर तैनात किये गये जवान आये दिन नौकरी छोड़कर वापस चले जाते हैं अथवा खुदकुशी कर लेते हैं. इसकी विभीषिका इसी बात से समझी जा सकती है कि छत्तीसगढ़ जिले में पिछले 7 सालों में 12 ‘जवानों’ ने खुदकुशी कल ली, जिसमें 7 ‘जवानों’ ने अपनी ही सर्विस रायफल से गोली मार ली जबकि 4 ने फांसी लगा कर तथा एक जवान ने आग लगा कर अपनी जान दे दी.

माओवादी आदिवासियों के खिलाफ लड़ रहे भारत सरकार की विवशता को जानते और समझते हैं, इसीलिए वह युद्ध के मोर्चे पर गिरफ्तार किये गये युद्ध बंदी सरकारी फौजियों की हत्या नहीं करते, उल्टे उसकी ससमय रिहाई सुनिश्चित करने का प्रयास करते हैं. वर्तमान में और पहले भी गिरफ्तार किये गये फौजियों का उदाहरण हमारे सामने है. इसके साथ ही माओवादी फौज के सिपाहियों से भी लगातार अपील करते रहते हैं.

माओवादी के शहीद गुरिल्ला

छत्तीसगढ़ के पूर्व DGP विश्वरंजन बातचीत में बताते हैं कि माओवादियों के 300 गुरिल्ला लडते हैं और गांव वाले उनकी मदद करते हैं. जैसे ही कोई (माओवादी गुरिल्ला) मरते हैं तो वो दो चीजें बचाते हैं, एक शव को और दूसरा हथियार. जहां (माओवादी के गुरिल्ला) का शव जायेगा वहां उनकी समाधि बनती है. समाधि

अर्थात सम्मान, जिस आदिवासी को भारत सरकार कीड़े-मकोड़े समझकर अपमानित करना अपना कर्तव्य और अधिकार समझते हैं, वहीं माओवादी गुरिल्ला उनका सम्मान करते हैं और हर वर्ष उनकी समाधि स्थल पर अपना आभार प्रकट करते हैं. वहीं, मारे गये पुलिसकर्मी को उनके ही विभाग में अपमानित किया जाता है, उनके परिजनों को भी समाज में ही नहीं, सरकार भी कोई सम्मान नहीं देती. यहां तक कि जहां पर पुलिस की हत्या होती है, उस जगह पर अगर दुबारा कोई पुलिस दल जाती है तो उस जगह से कटकर निकलते हैं, मानो वह कोई घृणित जगह हो.

स्वभाविक है अपने सम्मान और संविधान और प्रकृति प्रदत्त अधिकारों के लिए लड़ते और शहीद होते माओवादी गुरिल्ले का सामाजिक सम्मान संविधान और प्रकृति प्रदत्त अधिकारों को लूटने वाले पुलिसकर्मियों की तुलना में बहुत ऊंचा है. यही कारण है कि आदिवासियों और माओवादियों के विरुद्ध लड़ने वाले पुलिसकर्मी न केवल सामाजिक अपमान का ही घूंट पीते हैं बल्कि वह मरने के बाद भी इस अपमान के साथ जीने के लिए अभिशप्त होते हैं.

महात्मा गांधी लिखते हैं –

‘रचनात्मक काम का यह अंग अहिंसापूर्ण स्वराज्य की मुख्य चाभी है. आर्थिक समानता के लिए काम करने का मतलब है, पूंजी और मजदूरी के बीच के झगड़ों को हमेशा के लिए मिटा देना. इसका अर्थ यह होता है कि एक ओर से जिन मुट्ठी भर पैसे वाले लोगों के हाथ में राष्ट्र की संपत्ति का बड़ा भाग इकट्ठा हो गया है, उनकी संपत्ति को कम करना और दूसरी ओर से जो करोड़ों लोग अधपेट खाते और नंगे रहते हैं उनकी संपत्ति में वृद्धि करना.

जब तक मुट्ठी भर धनवानों और करोड़ों भूखे रहने वालों के बीच बेइंतेहा अंतर बना रहेगा, तब तक अहिंसा की बुनियाद पर चलने वाली राज व्यवस्था कायम नहीं हो सकती.

आजाद हिन्दुस्तान में देश के बड़े से बड़े धनिकों के हाथ में हुकूमत का जितना हिस्सा रहेगा उतना ही गरीबों के हाथ में भी होगा; और तब नई दिल्ली के महलों और उनकी बगल में बसी हुई गरीब बस्तियों के टूटे फूटे झोंपड़ों के बीच जो दर्दनाक फर्क जो आज नज़र आता है वह एक दिन को भी नहीं टिकेगा.

अगर धनवान लोग अपने धन को और उसके कारण मिलने वाली सत्ता को खुद राजी खुशी से छोड़कर और सबके कल्याण के लिए सबके साथ मिलकर बरतने को तैयार ना होंगे तो यह तय समझिये कि हमारे देश में हिंसक और खूंखार क्रांति हुए बिना ना रहेगी.’ (मोहन दास करमचन्द गांधी, अध्याय – आर्थिक समानता; रचनात्मक कार्य, उसका रहस्य और स्थान)

3 अप्रैल की मुठभेड़ के बाद बढ़ते हौसले

हालिया मुठभेड़ में 23 पुलिसकर्मियों को मार गिराने के बाद लोगों में एक भ्रम फैला था कि संभव हो माओवादियों में कोई दहशत हुई हो, आखिर शासकीय हमला की आशंका तो होगी न. परन्तु, यह भ्रम भी तब दूर हो गया जब माओवादियों ने गिरफ्तार सीआरपीएफ के कोबरा ‘जवान’ को जन अदालत में घसीट लाया और वहां हजारों लोगों के बीच उसे पेश कर दिया.

इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह रहा कि माओवादियों ने जन अदालत के लिए उसी जगह का चयन किया जहां चंद रोज पहले ही माओवादियों ने 23 पुलिसकर्मियों को मार गिराया था. इस जन अदालत की सबसे खास बात यह भी रही कि इसके कवरेज के लिए पत्रकारों, समाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धजीवियों को भी आमंत्रित किया था. इस जन अदालत से जो चीज निकलकर सामने आई एक मीडिया ने उसकी रिपोर्टिंग इस प्रकार की है, जो भौचक्का कर देने के लिए काफी है.

एक अन्य जन अदालत में जो चंद महीने पहले का है, में गिरफ्तार ‘जवान’ माओवादियों को भगवान बतलाते हुए कहता है कि तमाम दुखियों, पीड़ितों का वह सहारा है. आईये उस जन अदालत का भी नजारा यहां देख लेते हैं.

जबकि इसके उलट अंबानी-अदानी जैसे औद्योगिक घरानों की हिफाजत करने वाली भारत सरकार और उसके कारिंदों ने माओवाद को मिटाने के नाम पर निहत्थे आदिवासियों को पीट दिया. प्रसिद्ध गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार सोशल मीडिया पर लिखते हैं –

माओवादियों से बुरी तरह मार खाई पुलिस ने एक गांव में जाकर आदिवासियों को बुरी तरह पीटा है और एक किसान के 4 दांत तोड़ दिए हैं. सरकार को शांति स्थापना के नाम पर बस यही करना आता है और हम सरकार को यही समझाते हैं कि शांति स्थापना का यह तरीका नहीं है इस तरह कभी शांति नहीं आएगी, तो हमसे कहा जाता है कि हम देशद्रोही है.

मतलब आप जाकर निहत्थे लोगों के दांत तोड़ दे तो हमें आपका समर्थन करना चाहिए और इस तरह खुद को देशभक्त साबित करना चाहिए. माफ कीजिए हमारे लिए देश का मतलब देश के लोग होते हैं. कृपया शांति स्थापना के लिए निहत्थे लोगों के दांत तोड़ना बंद कीजिए.

आप चाहे किसी भी भ्रम का शिकार हो, माओवादी इस देश और समाज की आखिरी उम्मीद हैं. वे समाज के सबसे बेहतरीन, ईमानदार और सचेतन लोग हैं, उनके खिलाफ बोलना, उन पर हमला करना न केवल असंवैधानिक ही है, अपितु समाजिक रूप से भी निंदनीय है. जितनी जल्दी हो भारत सरकार देश के सर्वोतम बेटों पर हमला बंद करें.

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