[ भारत के क्रांतिकारी इतिहास में स्वर्णिम काल तब आया जब अमर शहीद भगत सिंह का उज्ज्वल नाम भारत के मस्तक पर चमकने लगा. तमाम कट्टरपंथियों, धार्मिक उन्मादियों और अराजकतावादियों को भारत के पूरे इतिहास में भगत सिंह से ज्यादा किसी और ने पूरी दृढ़ता के साथ सर्वाधिक चुनौती नहीं दी है. यही कारण है कि भगत सिंह आज भी इन कट्टरपंथियों, धार्मिक उन्मादियों और अराजकतावादियों के निशाने पर रहे हैं और उनका माकूल जवाब देने में आज भी भगत सिंह पूरी तरह सक्षम हैं. भगत सिंह की प्रसिद्ध रचना ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ पूरे कट्टरपंथियों और धार्मिक उन्मादियों की धज्जियां बिखेरने में आज भी पूरी ताकत के साथ खड़ा है.
यही कारण है कि आज जब देश में धार्मिक कट्टरवादियों ने देश में भगवा आतंक पैदा कर दिया है, और चहुं ओर इस धार्मिक भगवा आतंक में लोग जीने को अभिशप्त हो रहे हैं, इसके विरोध में उठ रही हर आवाज को गोलियों से भूना जा रहा है, मॉब-लिंचिंग के तहत उनकी हत्या की जा रही है, उन्हें अपमानित किया जा रहा है, तब एक बार फिर भगत सिंह को पढ़ने और उसे लोगों को पढ़ाने की जरूरत है, जिन्होंने अपने विचारों को अपने ही खून से सींचा है.
भगतसिंंह ने जेल में यह लेख 5-6 अक्टूबर, 1930 को लिखा था. यह पहली बार लाहौर से प्रकाशित अंग्रेज़ी पत्र ‘द पीपुल’ के 27 सितम्बर, 1931 के अंक में प्रकाशित हुआ था. इस महत्त्वपूर्ण लेख में भगतसिह ने सृष्टि के विकास और गति की भौतिकवादी समझ पेश करते हुए उसके पीछे किसी मानवेतर ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व की परिकल्पना को अत्यन्त तार्किक ढंग से निराधार सिद्ध किया है. ]
एक नया सवाल उठ खड़ा हुआ है. क्या मैं अहम्मन्यता के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता हूंं ? मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि मुझे कभी ऐसे सवाल का सामना करना पड़ेगा. लेकिन कुछ मित्रों से हुई बातचीत में मुझे यह संकेत मिला कि मेरे कुछ दोस्त – अगर उन्हें दोस्त मान कर उन पर मैं बहुत ज़्यादा अधिकार नहीं जता रहा हूंं तो – मेरे साथ के अपने थोड़े से सम्पर्क से इस नतीजे पर पहुंंचना चाहते हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर बड़ी ज़्यादती कर रहा हूंं और यह कि मुझमें कुछ अहम्मन्यता है जिसने मुझे इस अविश्वास के लिए प्रेरित किया है.
बहरहाल, समस्या गम्भीर है. मैं ऐसी शेख़ी नहीं बघारता कि मैं इन मानवीय कमज़ोरियों से एकदम ऊपर हूंं. मैं एक मनुष्य हूंं, इससे ज़्यादा कुछ होने का दावा कोई भी नहीं कर सकता. सो मुझमें भी यह कमज़ोरी है सचमुच अहम्मन्यता मेरे स्वभाव का एक अंग है. अपने साथियों के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था. यहाँ तक कि मेरे मित्र श्री बी.के. दत्त भी कभी-कभी मुझे निरंकुश कहा करते थे. कई अवसरों पर तानाशाह कह कर मेरी निन्दा की गयी. कुछ मित्रों को सचमुच यह शिकायत है, और गम्भीर शिकायत है, कि मैं अनजाने ही अपने विचार दूसरों पर थोपता हूँ और अपनी बातें ज़बरन मनवा लेता हूँ. मैं इन्कार नहीं करता कि एक हद तक यह बात सच है. इसे अहम्मन्यता भी कहा जा सकता है. जितनी अहम्मन्यता अन्य लोकप्रिय मतों के मुक़ाबले हमारे मत में है, उतनी मुझमें भी है. मगर वह निजी नहीं है. हो सकता है, हमारे मत में यह केवल एक समुचित गर्व हो और इसे अहम्मन्यता न माना जाता हो. अहम्मन्यता, अथवा और ज़्यादा ठीक-ठीक कहें तो अहंकार, किसी को अपने ऊपर हो जाने वाले अनुचित गर्व का नाम है. यहाँ मैं जिस सवाल पर चर्चा करना चाहता हूँ, वह यही है कि क्या मैं नास्तिक इसलिए बन गया हूँ कि मुझे अपने ऊपर ऐसा अनुचित गर्व है ? अथवा इस विषय के सचेत अध्ययन और काफ़ी सोच-विचार के बाद मैंने ईश्वर में विश्वास करना छोड़ा है ? वैसे, मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि अहंकार और अहम्मन्यता दो भिन्न चीज़ें हैं.
अव्वल तो मैं यह बात क़तई नहीं समझ सका कि अनुचित गर्व या मिथ्या दम्भ किसी को आस्तिक बनने से कैसे रोक सकता है. वास्तव में मैं किसी महान व्यक्ति की महानता से इन्कार कर सकता हूँ, बशर्ते कि वैसी योग्यता न होने पर भी, अथवा महान होने के लिए वास्तव में आवश्यक या अनिवार्य गुण न होने पर भी, मुझे किसी हद तक वैसी ही लोकप्रियता मिल जाये. यहाँ तक तो बात समझ में आती है. मगर यह कैसे हो सकता है कि कोई आस्तिक निजी अहम्मन्यता के कारण ईश्वर में विश्वास करना छोड़ दे ? दो ही बातें हो सकती हैं : आदमी या तो स्वयं को ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या यह मानने लगे कि वह स्वयं ही ईश्वर है. लेकिन इन दोनों ही स्थितियों में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता. पहली स्थिति में वह अपने प्रतिद्वन्द्वी के अस्तित्व से इन्कार ही नहीं करता, दूसरी स्थिति में भी वह एक ऐसी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करता है जो अदृश्य रहकर प्रकृति की तमाम क्रियाओं को निर्देशित करती है. हमारे लिए इस बात का कोई महत्त्व नहीं कि वह स्वयं को सर्वोच्च सत्ता समझता है अथवा किसी सर्वोच्च सचेत सत्ता को स्वयं से अलग समझता है. मूल बात ज्यों की त्यों है। उसका विश्वास ज्यों का त्यों है. वह किसी भी तरह से नास्तिक नहीं है.
बहरहाल, मेरी बात मान लीजिये। मैं न तो पहली श्रेणी में आता हूँ न दूसरी में. मैं उस सर्वशक्तिमान परमात्मा के अस्तित्व से ही इन्कार करता हूँ. क्यों इन्कार करता हूँ, इसकी चर्चा बाद में करूँगा. यहाँ मैं केवल यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि नास्तिकता के सिद्धान्तों को अपनाने की दिशा में मुझे मेरी अहम्मन्यता ने प्रेरित नहीं किया है. मैं न तो ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी हूँ न उसका अवतार, न स्वयं परमात्मा. पक्की बात है कि अहम्मन्यता ने मुझे ऐसा सोचने के लिए प्रेरित नहीं किया है. इस आरोप को मिथ्या सिद्ध करने के लिए मुझे तथ्यों की जाँच-पड़ताल करने की इजाज़त दीजिये. मेरे इन दोस्तों के मुताबिक़ दिल्ली बमकाण्ड और लाहौर षड्यन्त्र काण्ड के कारण चले मुक़दमों के दौरान मुझे जो आवश्यक लोकप्रियता मिल गयी है, शायद उसी ने मुझमें मिथ्या दम्भ पैदा कर दिया है. ख़ैर, देख लेते हैं कि उनकी बात सही है या नहीं.
मेरी नास्तिकता इतनी नयी चीज़ नहीं. मैंने तो ईश्वर को मानना तभी बन्द कर दिया था जब मैं एक अज्ञात नौजवान था और मेरे उपर्युक्त मित्रों को मेरे अस्तित्व का पता भी नहीं था. कम से कम कॉलेज का एक छात्र ऐसा अनुचित गर्व नहीं पाल सकता जो उसे नास्तिक बना दे. हालाँकि कुछ प्रोफ़ेसर मुझे पसन्द करते थे और कुछ नापसन्द, पर मैं कभी भी परिश्रमी या पढ़ाकू लड़का नहीं रहा. अहम्मन्यता जैसी भावनाएँ पालने का मेरे लिए कोई मौक़ा नहीं था. मैं तो बड़े शर्मीले स्वभाव का लड़का था और अपने भविष्य को लेकर कुछ निराशावादी ख़यालों में खोया रहता था. और उन दिनों मैं पक्का नास्तिक नहीं था. मेरे दादा, जिनके प्रभाव में मेरा पालन-पोषण हुआ, कट्टर आर्यसमाजी हैं. आर्यसमाजी और चाहे कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता. अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैं लाहौर के डी.ए.वी. स्कूल में दाखिल हुआ और वहाँ के बोर्डिंग हाउस में पूरे एक साल तक रहा. वहाँ सुबह और शाम की प्रार्थनाओं के अलावा भी मैं घण्टों गायत्री मन्त्र जपता रहता था. उन दिनों मैं पूरा भगत था. आगे चलकर मैं अपने पिता के साथ रहने लगा. जहाँ तक धार्मिक कट्टरता का सवाल है, वे उदारतावादी हैं. उन्हीं के उपदेशों से मुझमें आज़ादी के उद्देश्य के लिए अपना जीवन अर्पित कर देने की आकांक्षा उत्पन्न हुई. लेकिन वे नास्तिक नहीं हैं. वे मुझे प्रतिदिन सन्ध्या उपासना करने के लिए प्रोत्साहित किया करते थे. इस ढंग से मेरा पालन-पोषण हुआ. असहयोग आन्दोलन के दिनों में मैं नेशनल कॉलेज में दाखिल हुआ. वहीं जाकर मैने उदारतावादी ढंग से सोचना और सारी धार्मिक समस्याओं के बारे में, यहाँ तक कि ईश्वर के बारे में भी, बहस और आलोचना करना शुरू किया. मगर ईश्वर में मेरा अब भी पक्का विश्वास था. अब, मैं बिना कटे-छँटे दाढ़ी और केश रखने लगा था, मगर मैं सिख मत या किसी अन्य धर्म के मिथकों और सिद्धान्तों में विश्वास कभी नहीं कर पाया. फिर भी ईश्वर के अस्तित्व में मेरी पक्की आस्था थी.
आगे चलकर मैं क्रान्तिकारी दल में शामिल हुआ. सबसे पहले मैं जिन नेता के सम्पर्क में आया, वे ईश्वर को मानते तो नहीं थे, लेकिन उसके अस्तित्व को नकारने का साहस उनमें नहीं था. मैं ईश्वर के बारे में लगातार उनसे प्रश्न करता जाता तो वे कह दिया करते थे, “जब तुम्हारा मन करे, प्रार्थना कर लिया करो.” अब यह तो ऐसी नास्तिकता हुई कि नास्तिक बनने चले हैं और नास्तिक बनने की हिम्मत आप में नहीं. मैं जिन दूसरे नेता के सम्पर्क में आया, वे आस्तिक थे. उनका नाम बता ही दूँ – वे थे आदरणीय साथी शचीन्द्रनाथ सान्याल, जो कराची षड्यन्त्र काण्ड के सिलसिले में आजीवन कालेपानी की सज़ा भुगत रहे हैं. उनकी प्रसिद्ध और एकमात्र पुस्तक ‘बन्दी-जीवन’ में पहले पृष्ठ से ही ईश्वर की महिमा का ज़बरदस्त गुणगान किया गया है. उस ख़ूबसूरत किताब के दूसरे भाग के अन्तिम पृष्ठ पर अपने वेदान्तवाद के कारण उन्होंने ईश्वर को जो रहस्यवादी स्तुतियाँ गायी हैं, वे उनके विचारों का बड़ा अजीबोग़रीब हिस्सा हैं. 28 जनवरी, 1926 को जो क्रान्तिकारी परचा पूरे भारत में बाँटा गया था, वह मुक़दमे के काग़ज़ात के अनुसार उन्हीं के मानसिक श्रम का परिणाम था. अब यह तो होता ही है कि गुप्त कार्रवाई में प्रमुख नेता अपने उन निजी विचारों को व्यक्त कर डालता है जो उसे निजी तौर पर बहुत प्रिय होते हैं, और शेष कार्यकर्ताओं को मतभेदों के बावजूद उन विचारों से मौन सहमति प्रकट करनी पड़ती है. उस पर्चे में एक पूरा पैराग्राफ़ सर्वशक्तिमान ईश्वर की लीला और करनी की प्रशंसा से भरा हुआ था. वह सब रहस्यवाद है.
मैं कहना यह चाहता हूँ कि नास्तिकता का विचार क्रान्तिकारी दल में भी पैदा नहीं हुआ था. काकोरी काण्ड के चारों विख्यात शहीदों ने अपना अन्तिम दिन प्रार्थनाएँ करते हुए बिताया था. रामप्रसाद बिस्मिल कट्टर आर्यसमाजी थे. समाजवाद और साम्यवाद के अपने विस्तृत अध्ययन के बावजूद राजेन्द्र लाहिड़ी उपनिषदों और गीता के श्लोकों का पाठ करने की अपनी इच्छा को दबा नहीं सके थे. उन लोगों में मैंने सिर्फ़ एक आदमी ऐसा देखा जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहा करता था कि “दर्शन मानवीय दुर्बलता या सीमित ज्ञान से पैदा होता है.” वह भी आजीवन कालेपानी की सज़ा भुगत रहा है. लेकिन ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस वह भी कभी नहीं जुटा सका.
तब तक मैं रूमानी आदर्शवादी क्रान्तिकारी ही था. तब तक हम केवल अनुयायी थे, आगे चलकर पूरी ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर उठाने का समय आया. अनिवार्यतः प्रतिक्रिया इतनी ज़बरदस्त थी कि कुछ समय तक तो दल का अस्तित्व ही असम्भव लगता रहा. उत्साही साथी, नहीं-नहीं, नेता हमारा मज़ाक़ उड़ाने लगे. कुछ समय तक मुझे ऐसा लगता रहा कि कहीं मैं भी अपने कार्यक्रम को व्यर्थ न मानने लगूँ. यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक मोड़ था. मेरे दिमाग़ के हर कोने-अन्तरे से एक ही आवाज़ रह-रह कर उठती – “अध्ययन करो. स्वयं को विरोधियों के तर्कों का सामना करने लायक बनाने के लिए अध्ययन करो !” “अपने मत के समर्थन में तर्कों से लैस होने के लिए अध्ययन करो !”
मैंने अध्ययन करना शुरू किया, उससे मेरी पूर्ववर्ती आस्थाओं और मान्यताओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए. केवल हिंसात्मक उपायों में विश्वास रखने का रूमानीपन, जो हमसे पहले के लोगों पर हावी था, दूर हो गया और उसका स्थान गम्भीर विचारों ने ले लिया. रहस्यवाद और अन्धविश्वास के लिए अब कोई गुंजाइश नहीं रही. यथार्थवाद हमारा मत बन गया. अब हमारी समझ में आया कि शक्ति का प्रयोग अत्यन्त आवश्यक होने पर ही उचित है और आम जनता के तमाम आन्दोलनों के लिए अहिंसा की नीति अपरिहार्य है. यह तो हुई तरीक़ों की बात. सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी उस आदर्श की स्पष्ट अवधारणा जिसके लिए हमें लड़ना था. चूँकि उस समय सक्रियता के स्तर पर कोई ख़ास गतिविधियाँ नहीं थीं, इसलिए विश्व-क्रान्ति के विभिन्न आदर्शों का अध्ययन करने के अवसर मुझे ख़ूब मिले. मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, थोड़ा-सा साम्यवाद के जनक मार्क्स को पढ़ा, और अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति करने वाले लेनिन, त्रात्स्की तथा अन्य लोगों को ख़ूब पढ़ा. ये सब नास्तिक थे. बाकुनिन की पुस्तक ‘ईश्वर और राज्य’ अधूरी-सी होने के बावजूद इस विषय का एक रोचक अध्ययन है. बाद में निर्लम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मेरे पढ़ने में आयी. उसमें महज एक रहस्यवादी नास्तिकता थी. अब यह विषय मेरे लिए सबसे ज़्यादा रोचक बन गया. 1926 के अन्त तक मैं इस बात का कायल हो गया कि सारी दुनिया को बनाने, चलाने और नियन्त्रित करने वाली सर्वशक्तिमान परमसत्ता के अस्तित्व का सिद्धान्त निराधार है. मैंने अपने अविश्वास के बारे में दूसरों को बता भी दिया था. मित्रों के साथ मैं इस विषय पर बहस करने लगा. मैं घोषित रूप से नास्तिक बन चुका था. मगर इसका मतलब क्या था, इसकी चर्चा नीचे की जा रही है.
मई 1927 में लाहौर में मेरी गिरफ्तारी हुई. गिरफ्तारी अचानक हुई. मुझे ज़रा भी अन्देशा नहीं था कि पुलिस मेरी तलाश में है. अचानक एक बाग़ में से गुज़रते हुए मैंने पाया कि मैं पुलिस द्वारा घेर लिया गया हूँ. मुझे ख़ुद इस बात की हैरानी है कि मैं उस समय एकदम शान्त रहा. न तो मुझे कोई घबराहट हुई, न मैंने किसी उत्तेजना का अनुभव किया. मुझे हिरासत में ले लिया गया. अगले दिन मुझे रेलवे पुलिस की हवालात में ले जाया गया जहाँ मैंने पूरा एक महीना गुज़ारा.
पुलिस अफ़सरों से कई दिन की बातचीत के बाद मैंने अनुमान लगाया कि उन्हें काकोरी दल से मेरे सम्बन्ध होने तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन से सम्बन्धित मेरी अन्य गतिविधियों के बारे में कुछ जानकारी है. उन्होंने मुझे बताया कि जिन दिनों मुक़दमा चल रहा था, मैं लखनऊ गया था; कि मैंने अभियुक्तों से मिलकर उन्हें छुड़ाने की योजना बनाई थी; कि उनकी अनुमति पाकर हम लोगों ने कुछ बम जमा किये; कि जाँच के तौर पर उनमें से एक बम 1926 के दशहरे के दिन भीड़ में फेंका गया था, फिर उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम क्रान्तिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए एक बयान दे दो, इससे तुम्हें जेल में नहीं डाला जायेगा. बल्कि अदालत में मुख़बिर बतौर पेश किये बिना ही तुम्हें छोड़ दिया जायेगा. मैं उनके इस प्रस्ताव पर हँस दिया. उनकी सब बातें वाहियात थीं. हमारे जैसे विचारों वाले लोग अपनी बेकसूर जनता पर बम नहीं फेंका करते. एक दिन सी.आई.डी. के तत्कालीन वरिष्ठ अधीक्षक मिस्टर न्यूमैन मेरे पास आये. और काफ़ी देर तक सहानुभूति जताने वाली बातें करने के बाद उन्होंने मुझे यह ख़बर सुनायी – जो उनके हिसाब से अत्यन्त दुखद थी – कि वे लोग जैसा बयान मुझसे चाहते हैं, मैंने नहीं दिया तो मजबूर होकर उन्हें मुझ पर काकोरी काण्ड के सिलसिले में शासन के विरुद्ध लड़ाई छेड़ने के षड्यन्त्र और दशहरा बमकाण्ड के सिलसिले में हुई क्रूर हत्याओं के लिए मुक़दमा चलाना पड़ेगा. फिर उन्होंने मुझे बताया कि उनके पास मुझे सज़ा दिलाने और फाँसी चढ़ाने के लिए काफ़ी सबूत मौजूद हैं. उन दिनों मैं यह मानता था – हालाँकि मैं बिल्कुल निर्दोष था – कि पुलिस चाहे तो ऐसा कर सकती है. उसी दिन कुछ पुलिस अफ़सरों ने मुझे सुबह-शाम दोनों समय नियम से प्रार्थना करने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया. अब मैं ठहरा नास्तिक. मैंने अपने मन में यह फ़ैसला कर लेना चाहा कि मैं सुख-शान्ति के दिनों में ही नास्तिक होने की शेखी बघारता हूँ या ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी अपने सिद्धान्तों पर अटल रह सकता हूँ. बहुत सोच-विचार के बाद मैंने यह निश्चय किया कि मैं स्वयं को ईश्वर में विश्वास करने और उसकी प्रार्थना करने के लिए तैयार नहीं कर सकता. और मैंने प्रार्थना नहीं की. एक बार भी नहीं की. यह असली परीक्षा थी और मैं उसमें उत्तीर्ण हुआ. एक क्षण के लिए भी मेरे मन में यह विचार नहीं आया कि कुछ अन्य चीज़ों की क़ीमत पर मैं अपनी जान बचा लूँ. इस तरह मैं पक्का नास्तिक था और तब से आज तक हूँ. उस परीक्षा में उत्तीर्ण होना कोई आसान काम नहीं था. आस्तिकता मुश्किलों को आसान कर देती है, यहाँ तक कि उन्हें ख़ुशगवार भी बना सकती है. आदमी ईश्वर में बड़ी ज़बरदस्त राहत और दिलासा पा सकता है. उसके बिना आदमी को अपने ऊपर ही भरोसा करना पड़ता है. और आँधियों-तूफ़ानों के बीच अपने पैरों पर खड़े रहना बच्चों का खेल नहीं है. परीक्षा की ऐसी घड़ियों में अहम्मन्यता अगर हो भी तो कपूर की तरह उड़ जाती है और आदमी प्रचलित विश्वासों को ठुकराने की हिम्मत नहीं कर पाता, अगर करता है तो हमें कहना पड़ेगा कि उसमें निरी अहम्मन्यता के अलावा कोई और ताक़त है.
ठीक यही स्थिति आज है. सब लोग अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे मुक़दमे का फ़ैसला क्या होना है. हफ्तेभर में वह सुना भी दिया जायेगा. मेरे लिए इस ख़याल के अलावा और क्या राहत हो सकती है कि मैं एक उद्देश्य के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने जा रहा हूँ ? ईश्वर में विश्वास करने वाला हिन्दू राजा बनकर पुनर्जन्म लेने की आशा कर सकता है, मुसलमान या ईसाई जन्नत में मिलने वाले मज़े लूटने और अपनी मुसीबतों और क़ुर्बानियों के बदले इनाम हासिल करने के सपने देख सकता है. मगर मैं किस चीज़ की उम्मीद करूँ ? मैं जानता हूँ कि जब मेरी गरदन में फाँसी का फन्दा डालकर मेरे पैरों के नीचे से तख़्ते खींचे जायेंगे, सबकुछ समाप्त हो जायेगा. वही मेरा अन्तिम क्षण होगा. मेरा, अथवा आध्यात्मिक शब्दावली में कहूँ तो मेरी आत्मा का, सम्पूर्ण अन्त उसी क्षण हो जायेगा. बाद के लिए कुछ नहीं रहेगा. अगर मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस है तो एक छोटा-सा संघर्षमय जीवन ही, जिसका अन्त भी कोई शानदार अन्त नहीं, अपनेआप में मेरा पुरस्कार होगा. बस और कुछ नहीं. किसी स्वार्थपूर्ण इरादे के बिना, इहलोक या परलोक में कोई पुरस्कार पाने की इच्छा के बिना, बिल्कुल अनासक्त भाव से मैंने अपना जीवन आज़ादी के उद्देश्य के लिए अर्पित किया है, क्योंकि मैं ऐसा किये बिना रह नहीं सका.
जिस दिन ऐसी मानसिकता वाले बहुत से लोग हो जायेंगे जो मानव-सेवा और पीड़ित मानवता की मुक्ति को हर चीज़ से ऊपर समझ कर उसके लिए अपनेआप को अर्पित करेंगे, उसी दिन आज़ादी का युग शुरू होगा. जब वे राजा बनने के लिए नहीं; इहलोक में, अगले जन्म या मृत्यु के उपरान्त स्वर्ग में जाकर कोई अन्य पुरस्कार पाने के लिए नहीं बल्कि मानवता की गरदन पर रखा दासता का जुवा उतार फेंकने के लिए और स्वतन्त्रता एवं शान्ति की स्थापना के लिए दमनकारियों, शोषकों और अत्याचारियों को चुनौती देने की प्रेरणा ग्रहण करेंगे, तभी वे इस मार्ग पर चल सकेंगे जो व्यक्तिगत रूप से उनके लिए भले ही ख़तरनाक हो लेकिन उनकी महान आत्माओं के लिए एकमात्र गौरवपूर्ण मार्ग है.
इस महान उद्देश्य के लिए स्वयं को अर्पित करने में उन्हें जो गर्व होगा, क्या उसे अहम्मन्यता कहा जा सकता है ? उन पर ऐसा घृणित लांछन लगाने की हिम्मत कौन कर सकता है ? अगर कोई करता है तो मैं कहूँगा कि या तो वह मूर्ख है या धूर्त. चलिए, हम उसे माफ़ किये देते हैं, क्योंकि वह हृदय की गहराई और आवेग को, उसमें उठने वाली भावनाओं और उदात्त अनुभूतियों को समझ ही नहीं सकता. उसका दिल मांस का बेजान लोथड़ा है. उसकी आँखों पर अन्य स्वार्थों का परदा पड़ा हुआ है, इसलिए वे अच्छी तरह देख ही नहीं सकतीं.
आत्मनिर्भरता को अहम्मन्यता के रूप में व्याख्यायित कर लेने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है. यह बड़ी दुखद और बुरी बात है, लेकिन इसके बारे में कुछ किया नहीं जा सकता. आप किसी प्रचलित विश्वास का विरोध करके देखिये, किसी ऐसे नायक या महान व्यक्ति की आलोचना करके देखिये, जिसके बारे में लोग यह मानते हों कि वह कभी कोई ग़लती कर ही नहीं सकता इसलिए उसकी आलोचना की ही नहीं जा सकती, आप के तर्कों की ताक़त लोगों को मजबूर करेगी कि वे अहंकारी कहकर आप का मज़ाक़ उड़ायें. इसका कारण मानसिक जड़ता है. आलोचना और स्वतन्त्र चिन्तन क्रान्तिकारी के दो अनिवार्य गुण होते हैं. यह नहीं कि महात्माजी महान हैं इसलिए किसी को उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए; चूँकि वे पहुँचे हुए आदमी हैं इसलिए राजनीति, धर्म, अर्थशास्त्र या नीतिशास्त्र पर वे जो कुछ कह देंगे वह सही ही होगा; आप सहमत हों या न हों पर आप को कहना ज़रूर पड़ेगा कि यही सत्य है. यह मानसिकता प्रगति की ओर नहीं ले जाती. साफ़ ज़ाहिर है कि यह प्रतिक्रियावादी मानसिकता है.
चूँकि हमारे पूर्वजों ने किसी परमसत्ता में – सर्वशक्तिमान ईश्वर में विश्वास बना लिया था, इसलिए उस विश्वास को या उस परम सत्ता को चुनौती देने वालों को अगर काफ़िर और ग़द्दार कहा जाना है; चूँकि उसके तर्क इतने वज़नी हैं कि उनकी काट सम्भव नहीं और उसकी भावना इतनी प्रबल है कि सर्वशक्तिमान के कोप से उस पर पड़ने वाली मुसीबतों का भय दिखा कर भी उसे दबाया नहीं जा सकता, इसलिए अहंकारी कह कर उसका और अहम्मन्यता कहकर उसकी भावना का मज़ाक़ उड़ाया ही जाना है तो फिर इस बेकार बहस में समय नष्ट करने की ज़रूरत ही क्या ? इस सारे मसले पर जिरह करने की कोशिश ही क्यों ? मैं जो यह विस्तृत चर्चा छेड़ बैठा हूँ, उसकी वजह यह है कि जनता के सामने यह सवाल पहली बार आ रहा है और पहली बार इस पर किसी लागलपेट के बिना बातचीत हो रही है.
जहाँ तक पहले सवाल का सम्बन्ध है, मेरा ख़याल है मैंने यह स्पष्ट कर दिया है कि मैं अहम्मन्यता से प्रेरित होकर नास्तिक नहीं बना. मेरी तर्कपद्धति स्वीकार्य है या नहीं, यह फ़ैसला मुझे नहीं, बल्कि मेरे पाठकों को करना है. मैं जानता हूँ कि यदि मैं आस्तिक होता तो इन परिस्थितियों में मेरी ज़िन्दगी आसान हो गयी होती, मेरा बोझ हलका हो गया होता. ईश्वर में विश्वास न करने के कारण मेरी हालत खुश्क है और इससे भी बदतर हो सकती है. थोड़ा-सा रहस्यवाद इस स्थिति को ख़ुशगवार बना सकता था, मगर मैं अपनी नियति का सामना करने के लिए किसी नशे का सहारा लेना नहीं चाहता. मैं यथार्थवादी हूँ. मैं अपनी सहजवृत्ति पर विवेक से विजय पाने की कोशिश करता रहा हूँ. मैं इस कोशिश में हमेशा क़ामयाब नहीं रहा हूँ. मगर इन्सान का फ़र्ज़ है कि वह कोशिश करे. सफलता तो संयोग और परिस्थितियों पर निर्भर करती है.
जहाँ तक दूसरे सवाल का सम्बन्ध है कि यदि ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी पुराने और प्रचलित विश्वास में अविश्वास अहम्मन्यता के कारण नहीं तो उसका कोई और कारण होना चाहिए, मुझे यह कहना है कि हाँ, कारण है. मेरे विचार से जिस आदमी में थोड़ा-सा भी विवेक होता है, वह हमेशा अपनी परिस्थितियों को तर्कसंगत ढंग से समझना चाहता है. जहाँ सीधे प्रमाण नहीं मिलते वहाँ दर्शन हावी हो जाता है. जैसाकि मैं पहले कह चुका हूँ, मेरे एक क्रान्तिकारी मित्र कहा करते थे कि दर्शन मानवीय दुर्बलता का परिणाम है. हमारे पूर्वज जब इस दुनिया के रहस्यों की गुत्थी सुलझाने की कोशिश करते थे; इसके अतीत, वर्तमान और भविष्य को तथा इससे सम्बन्धित ‘क्यों’ और ‘कहाँ से’ आदि को समझने चलते थे, तो उनके पास फ़ुरसत की तो कोई कमी नहीं होती थी मगर प्रत्यक्ष प्रमाण बहुत ही कम होते थे. इसलिए हर आदमी अपने ढंग से समस्या को हल करने की कोशिश करता था. यही कारण है कि विभिन्न धार्मिक मतों में बुनियादी सिद्धान्त पर भारी मतभेद मिलते हैं, जो कभी-कभी नितान्त विरोधी और शत्रुतापूर्ण रूप ग्रहण कर लेते हैं.
प्राच्य और पाश्चात्य दर्शनों में भिन्नता है ही, विश्व के प्रत्येक भू-भाग की अपनी विचार प्रणालियों में भी मतभेद है. प्राच्य धर्मों में इस्लाम और हिन्दू धर्मों में कोई अनुकूलता नहीं है. केवल भारत में ही देखें तो बौद्ध और जैन धर्म कहीं-कहीं ब्राह्मणवाद से बिल्कुल अलग हैं, जो स्वयं आर्यसमाज और सनातन धर्म जैसे परस्पर विरोधी विश्वासों में बँटा हुआ है. इन सबसे अलग प्राचीन काल में चार्वाक दर्शन में एक अपने ही ढंग का स्वतन्त्र विचार मिलता है. चार्वाक ने बहुत पहले ही ईश्वर की प्रभुसत्ता को चुनौती दे दी थी. जीवन और जगत-सम्बन्धी आधारभूत प्रश्न पर इन सभी मतों में भिन्नता है और हर कोई अपनेआप को ही सही मानता है. यही है सारी बुराई की जड़.
प्राचीन काल के विद्वानों और चिन्तकों के प्रयोगों तथा उद्गारों को आधार बनाकर अज्ञान के विरुद्ध आगे की लड़ाई लड़ने और इस रहस्यमयी समस्या का समाधान खोजने के बजाय हम निकम्मे लोग – हमने सिद्ध कर दिया है कि हम निकम्मे हैं – विश्वास की, अपने-अपने मतों में अटल और अडिग विश्वास की, चीख़-पुकार मचाते रहते हैं. इस प्रकार हम मानवीय प्रगति को अवरुद्ध कर देने के दोषी हैं.
प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से सम्बन्धित हर बात की आलोचना करे, उसमें अविश्वास करे और उसे चुनौती दे. प्रचलित विश्वास की एक-एक बात के हर कोने-अन्तरे की विवेकपूर्ण जाँच-पड़ताल उसे करनी होगी. यदि कोई विवेकपूर्ण ढंग से पर्याप्त सोच-विचार के बाद किसी सिद्धान्त या दर्शन में विश्वास करता है तो उसके विश्वास का स्वागत है. उसकी तर्क-पद्धति भ्रान्तिपूर्ण, ग़लत, पथ-भ्रष्ट और कदाचित हेत्वाभासी हो सकती है, लेकिन ऐसा आदमी सुधरकर सही रास्ते पर आ सकता है, क्योंकि विवेक का ध्रुवतारा सही रास्ता बनाता हुआ उसके जीवन में चमकता रहता है. मगर कोरा विश्वास और अन्धविश्वास ख़तरनाक होता है. क्योंकि वह दिमाग़ को कुन्द करता है और आदमी को प्रतिक्रियावादी बना देता है.
यथार्थवादी होने का दावा करने वाले को तो समूचे पुरातन विश्वास को चुनौती देनी होगी. यदि विश्वास विवेक की आँच बरदाश्त नहीं कर सकता तो ध्वस्त हो जायेगा. तब यथार्थवादी आदमी को सबसे पहले उस विश्वास के ढाँचे को पूरी तरह गिराकर उस जगह एक नया दर्शन खड़ा करने के लिए ज़मीन साफ़ करनी होगी.
यह तो हुआ नकारात्मक पक्ष. इसके बाद शुरू होता है सकारात्मक कार्य, जिसमें कई बार पुराने विश्वास की कुछ सामग्री पुनर्निर्माण के लिए इस्तेमाल की जा सकती है. जहाँ तक मेरी बात है, पहले ही कह दूँ कि मैं इस विषय का ज़्यादा अध्ययन नहीं कर पाया हूँ. मेरी बड़ी इच्छा थी कि प्राच्य दर्शन का अध्ययन करूँ, लेकिन वैसा कोई संयोग या अवसर मुझे नहीं मिला, मगर जहाँ तक नकारात्मक पक्ष का सम्बन्ध है, मैं पुराने विश्वास के सही होने की बात पर प्रश्नचिह्न लगाने का कायल हो चुका हूँ. मुझे पक्का विश्वास हो गया है कि प्रकृति का निर्देशन और संचालन करने वाली किसी चेतन परम सत्ता का कोई अस्तित्व नहीं है. हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और प्रकृति को मानव सेवा में नियोजित करने के लिए उसे मनुष्य की वशवर्ती बनाना समूचे प्रगतिशील आन्दोलन का लक्ष्य है। उसे चलाने वाली कोई चेतन शक्ति उसके पीछे नहीं है, यही हमारा दर्शन है.
नकारात्मक पक्ष की ओर से हम आस्तिकों से कुछ सवाल पूछते हैं: यदि आप के विश्वास के अनुसार कोई सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ ईश्वर है, जिसने इस पृथ्वी या दुनिया की सृष्टि की तो कृपया यह बताइये कि उसने ऐसा क्यों किया ? उसने ऐसी दुनिया क्यों बनाई जिसमें तमाम दुख हैं, तकलीफ़ें हैं, जिसमें वास्तविक जीवन की त्रासदियों का एक अनन्त सिलसिला है और जिसमें एक भी प्राणी पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं है ?
कृपा करके यह न कहिये कि यह उसका नियम है, क्योंकि वह किसी नियम से बँधा हुआ है तो सर्वशक्तिमान नहीं है, तब तो वह हम जैसा ही एक ग़ुलाम है. कृपया यह भी न कहिये कि यह उसकी लीला या क्रीड़ा है जिसमें उसे आनन्द आता है. नीरो ने तो एक ही रोम को जलाया था. उसने तो थोड़े-से लोगों की ही जानें ली थीं. उसने तो पूर्णतः अपने आनन्द के लिए कुछ ही त्रासदियों को जन्म दिया था. और इतिहास में उसकी जगह कहाँ है ? इतिहासकार उसे किस नाम से याद करते हैं ? दुनियाभर की नफ़रतभरी लानतें उस पर बरसायी जाती हैं. अत्याचारी, हृदयहीन और दुष्ट नीरो की भर्त्सना करते हुए पृष्ठ पर पृष्ठ गालियों से भरी कटु निन्दाओं से काले किये गये हैं. एक चंगेज़ख़ाँ था, जिसने हत्या का आनन्द लेने के लिए कुछ हज़ार लोगों की जानें ले ली थी और हम उसके नाम तक से नफ़रत करते हैं. तब आप अपने सर्वशक्तिमान, शाश्वत नीरो को उचित कैसे ठहरायेंगे जो हर दिन, हर घण्टे और हर मिनट असंख्य त्रासदियों को जन्म देता रहा है और आज भी दे रहा है ? कैसे आप उसके उन दुष्कृत्यों का समर्थन करेंगे, जो प्रतिक्षण चंगेज़ख़ाँ के दुष्कृत्यों को मात करते हैं ?
मैं पूछता हूँ, उसने यह दुनिया बनायी ही क्यों, जो साक्षात नर्क है, जो अनन्त और तल्ख़ बेचैनी का घर है ? उस सर्वशक्तिमान ने मनुष्य की सृष्टि क्यों की जबकि उसके पास ऐसी सृष्टि न करने की शक्ति थी ? इस सबका औचित्य क्या है ? क्या कहा, परलोक में निर्दोष उत्पीड़ितों को पुरस्कार और कुकर्म करने वालों को दण्ड देने के लिए ? अच्छा, तो यह बताइये कि उस आदमी को आप कहाँ तक सही ठहरायेंगे जो बाद में मुलायम और आरामदेह मरहम लगाने के लिए आपके शरीर को ज़ख़्मों से छलनी कर दे ? ग्लैडिएटरों की संस्था के समर्थक और प्रबन्धक, जो पहले तो लोगों को भूखे और क्रुद्ध शेरों के सामने फेंक देते थे और बाद में अगर वे लोग ज़िन्दा बच जाते तो उनकी बड़ी अच्छी देखभाल करते थे, कहाँ तक सही थे ? इसीलिए मैं पूछता हूँ कि उस चेतन परम सत्ता ने इस दुनिया की और उसमें मनुष्य की सृष्टि क्यों की ? अपने मज़े के लिए ? तो फिर उसमें और नीरो में क्या फ़र्क़ है ?
हिन्दू दर्शन के पास तो अभी और भी तर्क होंगे, लेकिन मुसलमानो और ईसाइयो, मैं आप लोगों से पूछता हूँ कि आप के पास ऊपर के सवाल का क्या जवाब है ? आप तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते. हिन्दुओं की तरह आप यह तर्क नहीं दे सकते कि प्रत्यक्ष रूप से निर्दोष लोग इसलिए दुख पा रहे हैं कि पूर्वजन्म में उन्होंने बुरे कर्म किये थे. मैं तो आप से पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिमान ने छह दिनों तक शब्द के द्वारा इस दुनिया को बनाने की मेहनत क्यों की और क्यों प्रतिदिन यह कहा कि सब ठीक है ? आज उसे बुलाइये. उसे पिछला इतिहास दिखाइए. उससे कहिये कि वह वर्तमान स्थिति का अध्ययन करे. देखें वह कैसे कहता है कि “सब ठीक है” ! जेलों की कालकोठरियों, गन्दी बस्तियों और झुग्गी-झोंपड़ियों में भूखे मरते लाखों लोग, पूँजीवादी राक्षसों द्वारा अपना रक्त चूसे जाने की प्रक्रिया को धैर्यपूर्वक या रिक्त भाव से देखने वाले शोषित मज़दूरों, मामूली समझ वाले आदमी को भी आतंकित कर देने वाली मानवीय ऊर्जा की फ़िज़ूलख़र्चियों और ज़रूरतमन्द उत्पादकों में बाँटने के बजाय अतिरिक्त उत्पादन को समुद्र में फेंक देने जैसे कार्यों से लेकर नरकंकालों की नींव पर खड़े किये गये शाही महलों तक, हर चीज़ उसे दिखाइये और ज़रा उससे कहलाइये कि “सब ठीक है” ! यह सब क्यों और कहाँ से आया ? यह है मेरा सवाल. आप ख़ामोश हैं ? तो ठीक है, मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ.
अच्छा, हिन्दुओ, आप कहते हैं कि जो लोग आज दुख पा रहे हैं वे पूर्वजन्मों के पापी हैं. ठीक, आप यह भी कहते हैं कि आज के उत्पीड़क लोग पूर्वजन्मों के धर्मात्मा हैं इसलिए उनके हाथ में सत्ता है. मानना पड़ेगा कि आप के पूर्वज बड़े चालाक थे. उन्होंने ऐसे सिद्धान्त खोज निकालने का प्रयास किया जिनसे विवेक और अविश्वास के आधार पर की जाने वाली तमाम कोशिशों को दबा दिया जाये. लेकिन आइये, विश्लेषण करके देखें कि वास्तव में इस तर्क में कितना दम है.
क़ानून के प्रसिद्धतम जानकारों की राय में दुष्कर्म करने वाले को दी जाने वाली सज़ा केवल तीन-चार उद्देश्यों की दृष्टि से ही उचित ठहरायी जाती है. ये उद्देश्य हैं : प्रतिकार, यानी बदला लेना; सुधार यानी दोषी व्यक्ति को सुधारकर सही रास्ते पर लाना; और निवारण यानी दण्ड का भय दिखाकर लोगों को दुष्कर्म करने से रोकना. प्रतिकार के सिद्धान्त की भर्त्सना तो आज के सभी प्रगतिशील विचारक करते ही हैं, निवारण के सिद्धान्त का भी यही हश्र होने वाला है. एकमात्र सुधार का सिद्धान्त ही सारवान और मानवीय प्रगति के लिए अपरिहार्य है. इसका उद्देश्य है दोषी व्यक्ति को अत्यन्त सुयोग्य एवं शान्तिप्रिय नागरिक बनाकर समाज को लौटा देना. लेकिन अगर हम सभी मनुष्यों को अपराधी मान भी लें तो ईश्वर द्वारा उन्हें दी जाने वाली सज़ा कैसी है ? आप कहते हैं कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, वृक्ष, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर दुनिया में भेजता है. आप इन सज़ाओं की संख्या 84 लाख बताते हैं. मैं पूछता हूँ, इसका मनुष्य पर कौन-सा सुधारात्मक प्रभाव पड़ता है ? आप को ऐसे कितने लोग मिले जो कहते हों कि पाप करने के कारण पिछले जन्म में वे गधा बने थे ? एक भी नहीं. अपने पुराणों के उद्धरण रहने दीजिये. आप की पौराणिक कहानियों में उलझने की फ़ुरसत मेरे पास नहीं है. आप तो यह बताइये, क्या आप जानते हैं कि इस दुनिया में सबसे बड़ा पाप ग़रीब होना है, लेकिन आप के अनुसार यह लोगों को ईश्वर द्वारा दी गयी सज़ा है. मैं पूछता हूँ, आप उस अपराधविज्ञानी को, उस विधिवेत्ता या विधायक को कैसे उचित ठहरायेंगे जो आदमी को अनिवार्यतः और ज़्यादा अपराध करने के लिए मजबूर करने वाली सज़ाएँ तजवीज़ करे ? क्या आपके ईश्वर ने इस चीज़ पर ग़ौर नहीं किया ? या उसे भी ऐसी बातें अनुभव से सीखनी पड़ती हैं ? लेकिन मानवता को अकथनीय दुख झेलकर इसके लिए कितनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है !
किसी ग़रीब और अनपढ़ चमार या भंगी के घर पैदा होने वाले आदमी की नियति आप के ख़याल से क्या होगी ? वह ग़रीब है इसलिए पढ़-लिख नहीं सकता. तथाकथित ऊँची जाति में पैदा होने के कारण स्वयं को श्रेष्ठ मानने वाले उसके संगी-साथी उससे नफ़रत करते हैं और अछूत मानकर अलग-थलग रखते हैं. उसका अज्ञान, उसकी ग़रीबी और उसके साथ किया जाने वाला बरताव समाज के प्रति उसके हृदय को कठोर बना देगा. मान लीजिये, वह कोई पाप करता है, तो उसकी सज़ा कौन भुगतेगा ? ईश्वर ? वह स्वयं, या समाज के ज्ञानवान लोग ? घमण्डी और स्वार्थी ब्राह्मणों द्वारा जान-बूझकर अज्ञानी बनाकर रखे गये उन लोगों की सज़ा के बारे में आप क्या कहते हैं जिन्हें आप के पवित्र ज्ञान-ग्रन्थों, यानी वेदों की कुछ पंक्तियाँ सुन लेने का दण्ड अपने कानों में पिघले हुए गरम सीसे की धार झेलकर भरना पड़ता था ? अगर उनका कोई अपराध था भी तो उसके लिए ज़िम्मेदार कौन था और उसका नतीजा किसको भुगतना चाहिए था ?
मेरे प्यारे दोस्तो, ये सिद्धान्त विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के मनगढ़न्त सिद्धान्त हैं. वे इन सिद्धान्तों के जरिये ज़बरदस्ती हथियाई हुई अपनी शक्ति, सम्पन्नता और श्रेष्ठता को उचित ठहराते हैं. याद आया, शायद अप्टन सिक्लेयर ने कहीं लिखा है कि आदमी को अमरता में विश्वास करने वाला बना दो और उसके पास धन-सम्पत्ति आदि जो कुछ भी है, सब लूट लो. वह उफ़ नहीं करेगा, यहाँ तक कि अपने को लूटने में ख़ुद आप की मदद करेगा. धार्मिक उपदेशकों और सत्ताधारियों की मिलीभगत से ही जेलों, फाँसियों, कोड़ों और इन सिद्धान्तों का निर्माण हुआ है.
मैं पूछता हूँ, जब कोई आदमी पाप या अपराध करना चाहता है तो आपका सर्वशक्तिमान ईश्वर उसे रोकता क्यों नहीं ? उसके लिए तो यह बहुत ही आसान काम होगा. उसने जंगबाज़ों को मारकर या उनके भीतर युद्धोन्माद को मारकर मनुष्यता को विश्वयुद्ध की महाविपत्ति से क्यों नहीं बचाया ? वह अंग्रेज़ों के मन में कोई ऐसी भावना क्यों नहीं पैदा कर देता कि वे हिन्दुस्तान को आज़ाद कर दें ? वह तमाम पूँजीपतियों के दिलों में परोपकार का ऐसा जज़्बा क्यों नहीं भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपने निजी स्वामित्व के अधिकार को त्याग दें और इस प्रकार सारे मेहनतकश वर्ग को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज को पूँजीवाद के बन्धन से मुक्त कर दें ? आप समाजवाद के सिद्धान्त की व्यावहारिकता पर बहस करना चाहते हैं. चलिये, मैं यह ज़िम्मेदारी आपके सर्वशक्तिमान पर ही डालता हूँ कि वह उसे व्यावहारिक बना दे. लोग इतना तो मानते ही हैं कि आम जनता की भलाई के लिए समाजवाद अच्छी चीज़ है. उसका विरोध करने के लिए उनके पास एक ही बहाना है कि वह व्यावहारिक नहीं है. तो अपने सर्वशक्तिमान को बुलाइये और उससे कहिए कि वह बाक़ायदा सारी दुनिया में समाजवाद क़ायम कर दे.
अब आप गोलमाल तर्क देना बन्द कीजिये, वे चलेंगे नहीं. मैं आपको बता दूँ, अंग्रेज़ों का शासन यहाँ इसलिए नहीं है कि यह ईश्वर की इच्छा है, बल्कि इसलिए है कि उनके पास ताक़त है और हम उनका विरोध नहीं करते. वे ईश्वर की सहायता से नहीं, बल्कि तोपों, बन्दूक़ों, बमों और गोलियों, पुलिस और फ़ौज तथा हमारी उदासीनता की सहायता से हमें ग़ुलाम बनाये हुए हैं और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का निर्लज्ज शोषण करने का सबसे घृणित पाप समाज के विरुद्ध सफलतापूर्वक करते चले जा रहे हैं. ईश्वर कहाँ है ? वह क्या कर रहा है ? क्या वह मानवजाति के इन सब दुखों और तकलीफ़ों का मज़ा ले रहा है ? तब तो वह नीरो है, चंगेज़ख़ाँ है, उसका नाश हो !
क्या आप मुझसे यह जानना चाहते हैं कि यदि मैं ईश्वर को नहीं मानता तो दुनिया और इन्सान को कहाँ से पैदा हुआ मानता हूँ ? ठीक है, बताता हूँ. चार्ल्स डार्विन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है. उसका अध्ययन कीजिये. निर्लम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ पढ़िए. इससे कुछ हद तक आपके सवाल का जवाब मिल जायेगा. यह प्राकृतिक घटना है. विभिन्न पदार्थों के आकस्मिक संयोग से उत्पन्न नीहारिका से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई. कब ? यह जानने के लिए इतिहास देखिये. इसी प्रकार जीवधारी उत्पन्न हुए और उनमें से ही एक लम्बे अरसे के बाद मनुष्य का विकास हुआ. डार्विन की पुस्तक ‘जीवों की उत्पत्ति’ पढ़िए. और इसके बाद की तमाम प्रगति प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए मनुष्य द्वारा उसके विरुद्ध किये गये अनवरत संघर्ष से हुई है. इस घटना की यह संक्षिप्ततम व्याख्या है.
आपका दूसरा तर्क यह हो सकता है कि जन्म से ही अन्धे या लंगड़े पैदा होने वाले बच्चे यदि पूर्वजन्म के कर्मों के कारण नहीं तो और किस कारण से ऐसे पैदा होते हैं. जीवविज्ञानी इसकी व्याख्या कर चुके हैं और उनके अनुसार यह महज एक जीववैज्ञानिक घटना है. उनके अनुसार इसके लिए माता-पिता उत्तरदायी होते हैं, चाहे वे गर्भावस्था में ही बच्चे में हो जाने वाली विकृतियों को जन्म देने वाले अपने कार्यों के प्रति सचेत हों या न हों.
स्वाभाविक है कि अब आप एक और सवाल पूछेंगे – हालाँकि सारतः वह सवाल बचकाना है. आपका सवाल होगा: यदि ईश्वर था ही नहीं तो लोग उसमें विश्वास कैसे करने लगे ? मेरा उत्तर स्पष्ट और संक्षिप्त है. लोग जिस तरह भूतों और प्रेतात्माओं में विश्वास करने लगे, उसी तरह ईश्वर में विश्वास करने लगे; फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि ईश्वर में विश्वास सर्वव्यापी है और इसका दर्शन बहुत विकसित है. कुछ परिवर्तनवादी यह मानते हैं कि ईश्वर की उत्पत्ति शोषकों की चालबाज़ी से हुई, जो एक परमसत्ता के अस्तित्व का प्रचार करके और फिर उससे प्राप्त सत्ता और विशेष अधिकारों का दावा करके लोगों को ग़ुलाम बनाना चाहते थे. मैं यह नहीं मानता कि उन्हीं लोगों ने ईश्वर को पैदा किया, हालाँकि मैं इस मूल बात से सहमत हूँ कि सभी विश्वास, धर्म, मत और इस प्रकार की अन्य संस्थाएँ अन्ततः दमनकारी तथा शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों और वर्गों की समर्थक बनकर ही रहीं. राजा के विरुद्ध विद्रोह करना हर धर्म के मुताबिक़ पाप है.
ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने जब अपनी कमियों और कमज़ोरियों पर विचार करते हुए अपनी सीमाओं का अहसास किया तो मनुष्य को तमाम कठिन परिस्थितियों का साहसपूर्वक सामना करने और तमाम ख़तरों के साथ वीरतापूर्वक जूझने की प्रेरणा देने वाली तथा सुख-समृद्धि के दिनों में उसे उच्छृंखल हो जाने से रोकने और नियन्त्रित करने वाली सत्ता के रूप, ईश्वर, की कल्पना की. अपने निजी नियमों वाले और पालनहार जैसी उदारता वाले ईश्वर की कल्पना ख़ूब बढ़ा-चढ़ाकर की गयी और वैसा ही उसका विशद चित्रण किया गया. उसके क्रोध और मनमाने नियमों की चर्चा करके उसका इस्तेमाल एक निवारक तत्त्व के रूप में किया जाता था, ताकि आदमी समाज के लिए ख़तरा न बन जाये. उसके पालनहार जैसे गुणों की चर्चा करके उससे पिता, माता, बहिन और भाई, मित्र और सहायक का काम लिया जाता था, ताकि आदमी जब भारी मुसीबत में हो और सब लोग धोखा देकर उसका साथ छोड़ गये हो तो वह इस विचार से तसल्ली पा सके कि कम से कम एक तो उसका सच्चा मित्र है जो उसकी सहायता करेगा, उसे सहारा देगा, और जो ऐसा सर्वशक्तिमान है कि कुछ भी कर सकता है. आदिम युग के समाज में यह चीज़ सचमुच बड़ी उपयोगी थी. मुसीबत में पडे़ आदमी के लिए ईश्वर का विचार मददगार होता था.
समाज ने जिस प्रकार मूर्तिपूजा और धार्मिक संकीर्णताओें के विरुद्ध संघर्ष किया है, उसी प्रकार उसे इस विश्वास के विरुद्ध भी संघर्ष करना होगा. इसी तरह इन्सान जब अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करेगा और यथार्थवादी बनेगा, तो उसे अपनी आस्तिकता को झटककर फेंक देना पड़ेगा और परिस्थितियाँ चाहे उसे कैसी भी मुसीबत और परेशानी में डाल दें, उनका सामना मर्दानगी के साथ करना पड़ेगा. मेरी हालत ठीक इसी तरह की है.
मेरे दोस्तो, यह अहम्मन्यता नहीं है. यह मेरे सोचने का तरीक़ा है, जिसने मुझे नास्तिक बना दिया है. मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास करने और रोज़ प्रार्थना करने से – जिसे मैं आदमी का सबसे स्वार्थपूर्ण और घटिया काम समझता हूँ – मुझे राहत मिलती या मेरी हालत और भी बदतर हुई होती. मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने साहसपूर्वक सारी मुसीबतों का सामना किया. उन्हीं की तरह मैं भी यह कोशिश कर रहा हूँ कि आखि़र तक, फाँसी के तख़्ते पर भी, मर्द की तरह सिर ऊँचा किये खड़ा रहूँ.
देखिये, इस कोशिश में कहाँ तक क़ामयाब होता हूँ. एक मित्र ने मुझसे प्रार्थना करने के लिए कहा था. जब उन्हें पता चला की मैं नास्तिक हूँ, तो उन्होंने कहा, “अपने अन्तिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे.” मैंने कहा, “नहीं जनाब, यह नहीं होगा. मैं इसे अपने लिए अपमान और पस्तहिम्मती का काम समझूँगा. स्वार्थपूर्ण इरादों से प्रार्थना हरगिज़ नहीं करूँगा.” पाठको और मित्रो, क्या यह अहम्मन्यता है ? अगर है तो मैं इसका हामी हूँ.
(अक्टूबर, 1930)
Raed Also –
अटल बिहारी बाजपेयी : ब्राह्मणवाद-साम्प्रदायिकता का मानवीय मुखौटा ?
धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम
यदि शर्म आये तो अपने निर्लज्ज गालों पर खुद तमाचे मार लीजियेगा !
बलात्कार और हत्या : मोदी का रामराज्य
धार्मिक नशे की उन्माद में मरता देश
भीमा कोरेगांवः ब्राह्मणीय हिन्दुत्व मराठा जातिवादी भेदभाव व उत्पीड़न के प्रतिरोध का प्रतीक
सिवाय “हरामखोरी” के मुसलमानों ने पिछले एक हज़ार साल में कुछ नहीं किया
हिन्दुत्व की आड़ में देश में फैलता आतंकवाद
ब्राह्मणवादी सुप्रीम कोर्ट के फैसले दलित-आदिवासी समाज के खिलाफ खुला षड्यन्त्र
हरिशंकर परसाई की निगाह में भाजपा
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]
[ प्रतिभा एक डायरी ब्लॉग वेबसाईट है, जो अन्तराष्ट्रीय और स्थानीय दोनों ही स्तरों पर घट रही विभिन्न राजनैतिक घटनाओं पर अपना स्टैंड लेती है. प्रतिभा एक डायरी यह मानती है कि किसी भी घटित राजनैतिक घटनाओं का स्वरूप अन्तराष्ट्रीय होता है, और उसे समझने के लिए अन्तराष्ट्रीय स्तर पर देखना जरूरी है. प्रतिभा एक डायरी किसी भी रूप में निष्पक्ष साईट नहीं है. हम हमेशा ही देश की बहुतायत दुःखी, उत्पीड़ित, दलित, आदिवासियों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के पक्ष में आवाज बुलंद करते हैं और उनकी पक्षधारिता की खुली घोषणा करते हैं. ]