पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ
ज्यादातर मुस्लिम दीनी-तालीम के नाम पर अपने बच्चों को मदरसे में जरूरी तौर पर भेजते हैं लेकिन वे ये नहीं जानते कि दीनी-तालीम के नाम पर उनके बच्चों को गधा बनाया जा रहा है ! (ये शब्द इसलिये प्रयोग किया क्योंकि गधे के बारे में ये तथ्य सर्वसुलभ है कि गधे में बुद्धि नहीं होती और उससे रात-दिन काम करवाया जा सकता है. इसी से एक कहावत भी बनी थी ‘गधे की तरह काम में लगे रहना.’ इसी तरह मदरसों में बच्चों को मजहबी मुर्ख बनाया जाता है ताकि वे इस्लाम के नाम सही-गलत की परख किये बिना वो सब करते जाये, जो उनसे कहा जाता है.)
उन मुस्लिम बच्चों के माता-पिता स्वयं भी व्यावहारिक शिक्षा में अल्प शिक्षित होते हैं परन्तु मदरसों की गर्दभ-शिक्षा की तालीम उन्होंने भी घोंट-घोंट कर पी हुई होती है. तो ज्यादातर तो लकीर के फ़क़ीर हैं, जो ढर्रे पर ही चलते रहते हैं. कुछ अपवाद भी हैं जिन्होंने जीवन के साथ संघर्षरत रहकर भी शिक्षा हासिल की और अपने बच्चों को पढ़ाया. और अब वे शिक्षित बच्चे अपने बच्चों को शिक्षा दिला रहे हैं. बजाय मदरसे में भेजने के या बजाय दीनी-तालीम दिलाने के वे अपने बच्चों को अच्छी अंग्रेजी माध्यम की स्कूलों में पढ़ा रहे हैं.
असल में मदरसों में दीनी-तालीम के नाम पर उन्हें जिहादी (मजहबी मुर्ख के लिये ये शब्द सबसे सटीक है क्योंकि धर्म के नाम पर दुसरों की जान लेने के लिये खुद को मार देना, ये कोई मजहबी मुर्ख ही कर सकता है) बनाया जा रहा है (हालांंकि जिहादी का शुद्ध अर्थ अलग है, मगर आजकल जिहादी का यही अर्थ प्रचलन में है, जो मैंने लिखा है).
अभी चुनाव के समय रमजान का महीना था और उसमें मैंने देखा कि मदरसा संचालकों ने हजारों नाबालिग तालिबइल्मो के हाथ में चंदे की रसीद लेकर उन्हें घरों, दुकानों और कारखानों में ‘जकात’ के नाम पर अपनी अय्याशियों के लिये धन एकत्रित करने भेज दिया, जबकि इस्लाम में ‘ज़कात’ स्वेच्छा से निकालना और देना कहा है, उसे किसी से मांंगा नहीं जा सकता क्योंकि मांगने पर वो ज़कात नहीं कहलाती. ऐसा सिर्फ राजस्थान में ही नहीं बल्कि देश भर के लाखों मदरसा संचालकों द्वारा हर साल किया जाता है. और करोडों-करोड़ रूपये इकट्ठे किये जाते हैं लेकिन उस धन को वो बच्चों को तालीम देने के बजाय अपनी अय्याशियों में खर्च करते हैं. ये तथ्य भी अब किसी से छुपा हुआ नहीं है कि लगभग हर मदरसे में बच्चों का यौन-शोषण तो होता ही है, फिर भी वे अल्पशिक्षित मजहबी मुर्ख माता-पिता अपने बच्चों का शोषण करवाने मदरसों में भेज रहे हैं ताकि उनके बच्चों के रूप में कुछ और मजहबी मुर्ख बने !
मदरसों में बच्चों को भेजा जाता है तालीम के नाम पर लेकिन नतीजा आता है बढ़ते हुए अशिक्षितों और बेरोजगारों के रूप में. मदरसे में पढ़ने वाले ये बच्चे किसी लायक नहीं होते. हांं, धार्मिक क्रियाकांडों के पक्के अंधविश्वासी जरूर होते हैं. आगे जाकर और कुछ करे या न करे, मगर कबाड़ी का काम तो कर ही लेते हैं (बुरा लग रहा हो तो भले लगे मेरी बला से लेकिन यही सच है कि ज्यादातर ऐसे मुसलमान कबाड़ी का ही काम करते हैं) और जो दीनी-इल्म कुछ ज्यादा हासिल कर लेता है, वो किसी न किसी मदरसे और मस्जिद में बैठ कर अपना एक नया मसलक बनाकर कौम को आपस लड़ाने का काम करता है !
कुछ लोग तर्क देंगे कि मदरसे अब आधुनिक हो गये हैं और अब तो मोदी जी कम्प्यूटर भी लगवा रहे हैं. तो बता दूंं कि वे कम्प्यूटर पोर्न देखने/दिखाने के काम आने वाले हैं और बच्चों के शोषण को बढ़ाने वाले हैं. आधुनिकता का तर्क देने वाले लोग मेरे इस सवाल का प्रत्युत्तर भी सोच कर रखे और मुझे बताये कि रोज़ अखबारों में सफल स्टूडेन्ट (चाहे डाक्टरी, इंजीनियरिंग, कम्प्यूटर या किसी भी कोर्स में सफल) की तस्वीरें निकलती है, और मैं तो अक्सर उनके नाम भी पढता हूंं, लेकिन उसमें मुझे कभी भी कोई मुस्लिम नाम नहीं मिलता (बहुत ही रेयर चांस ऐसा हुआ होगा कि मैंने किसी मुस्लिम के नाम पर कोई उपलब्धि पढ़ी हो) और जो कोई अपवाद के रूप में मिलता है तो उनके नाम के फतवे उनकी डिग्री से भी ज्यादा होते हैं. उन्हें मजहबी गद्दार कहा जाता है !
मुझे भले ही न बताये लेकिन अपने आपको इस सवाल का जवाब जरूर दें कि जब आप दुनिया की जद्दोजहद में कहीं है ही नहीं, तो आखिर आप हैं कहांं ?? धार्मिक पाखंडों के नाम पर किसी और दुनिया के लिए सोचने से पहले अपने इस जीवन के बारे में सोचिये. चलो एक बार मान भी लूंं कि दीनी इल्म ज़रूरी हो सकती है लेकिन इसके लिए दिन में एक घंटा काफी है. नये उलेमा तैयार करने के लिये भी थोड़े से मदरसे काफी हैं तो फिर ये सारा दिन दीनी-इल्म के पीछे भागते रहना और हर साल मदरसों को बढ़ाते रहना कहांं तक उचित है ?
अगर अपनी कौम को बचाना चाहते हैं और अपने बच्चों को दुनिया के जद्दोजहद में शामिल करना चाहते हैं तो अपने बच्चों को शिक्षित करे (दीनी-इल्म में नहीं बल्कि व्यावहारिक शिक्षा ज्ञान में) ताकि आपका बच्चा मजहबी मुर्ख बनने के बजाय आत्मनिर्भर बने और मजहब / जाति से ऊपर उठकर अब्दुल कलाम की तरह, शाहरुख़ /सलमान / आमिर खान की तरह, डॉ. जाकिर हुसैन की तरह समाज में इज्ज़त की जिंदगी जिये, न कि मुस्लिम होने के कारण लोग उसे शक की नजर से देखे और उसे आंतकवादी समझे !
मुझे विश्वास नहीं हुआ जब मैंने भारत की एक मुस्लिम एथलीट का नाम खोजना चाहा. मगर मुझे पता लगा कि विश्व की टॉप-टेन मुस्लिम फीमेल एथलीट में किसी भी भारतीय मुस्लिम महिला का नाम नहीं है जबकि पाकिस्तान की दो मुस्लिम महिलायें टॉप-टेन में शामिल है. कहांं गयी मुस्लिम समाज की वो सानिया मिर्जा, शबाना आज़मी जैसी महान लड़कियांं ? जो कौम और घरवालों का सपोर्ट न होने पर भी घर ही नहीं बल्कि अपनी कौम और अपने देश का नाम अपने दम पर रोशन करती थी !
मैं तो ये तक चाहता हूंं कि सभी मुसलमानो को मदरसों का बायकाट करना चाहिये क्योंकि मदरसे मुस्लिम कौम को आगे बढ़ने से रोकने का काम कर रहे हैं और नौजवानों को गर्त में धकेल रहे हैं. बहुत मुमकिन है कि बहुत सारे मुसलमान मेरे इस लेख से सहमत नहीं होंगे और मुझे इस्लाम का दुश्मन समझेंगे. मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप मुझे दोस्त समझे या दुश्मन. ये महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि मैं हमेशा सच ही लिखूंगा और पाखंडपूर्ण तथ्यों को उजागर करूंंगा और आप मेरे बताये तथ्यों से नज़रें नहीं चुरा सकते !
नोट : किसी भी धर्म का मखौल उड़ाना मेरा ध्येय नहीं है बल्कि धर्म में फैली अंधी आस्था और कुरीतियों के खिलाफ समाज को जागरूक करना मेरा लक्ष्य है. मैं सभी धर्मोंं की कुरीतियों और रूढ़ियों पर अक्सर मैं ऐसे ही तथ्यपूर्ण चोट करता हूंं इसीलिये बात लोगों के समझ में भी आती है और वे मानते भी हैं कि मैंने सही लिखा है. जो लोग दूसरे धर्मो का मखौल उड़ाते हैं उनसे मैं कहना चाहता हूंं कि मखौल उड़ाने से आपका उद्देश्य सफल नहीं होगा और आपस की दूरियांं बढ़ेंगी तथा आपसी समझ घटेगी. अतः मूर्खतापूर्ण विरोध करने के बजाय कुछ तथ्यात्मक लिखे.
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