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लोकतंत्र का गला घोंटने पर उतारू है चुनाव आयोग

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लोकतंत्र का गला घोंटने पर उतारू है चुनाव आयोग

कल लोकतंत्र के उत्सव का सबसे महत्वपूर्ण दिन है ! इधर तमाम चैनल हिंसा की संभावनाओं की चर्चा भी कर रहे हैं. कल सरदाना और आमिष जैसे बिकाऊ पत्रकार खुलकर इस आग में नफरत का जहर उड़ेल रहे थे लेकिन हिंसा की इन खबरों का आधार क्या है ? आईए, सिलसिलेवार ढंग से समझते हैं.

वर्तमान चुनाव आयोग ने 7 चरणों के लोकसभा चुनावों का प्रारूप पूर्णतः सरकार की सुविधा और सहायता को ध्यान रख कर किया. बंगाल जैसे राज्य में (इतिहास में पहली बार) 7 चरणों में चुनाव, प्रत्येक फेज में लोकसभा क्षेत्र का चयन सब किसी अज्ञात शक्ति के इशारे पर किया गया. विपक्ष का रवैया हमेशा की तरह अनमने ही सही किंतु ढुलमुल रहा.




फिर खेल शुरू हुआ आदर्श आचार संहिता की आड़ में व्यक्ति विशेष को बार-बार हर कीमत पर बचाने का. यहांं तक कि एक चुनाव आयुक्त ऐतिहासिक साहस दिखाते हुए अपनी पीड़ा को लेकर सीधे मीडिया से रूबरू हो गये. नतीजा वहीं ढाक के तीन पात, विपक्ष ने व्याकुलता तो दिखाई किंतु सब कुछ सह गया.

तदोपरांत प्रधानमंत्री की केदारनाथ यात्रा का प्रसंग आया. चुनाव आयोग ने पलकें बिछाकर साहब को अनुमति दे दी (जबकि सत्य यही है कि अरोड़ा जी, साहेब की आज्ञा से ही ये सब करते आए). चुनावों का वह प्रतिनिधि जिसकी अपनी सीट पर चुनाव चल रहा था, सारे मुख्य मीडिया में दो दिन तक छाया रहा. कभी गुफा में तो कभी नमस्कार वाली मुद्रा में ! वैसे तो मीडिया 2104 से ही उन्हें दिखाती रही किंतु ऐसे अवसर पर ये हरकत संविधान की खिल्ली उड़ाने वाली थी. विपक्ष इसे भी सह गया.




लेकिन 20 मई से ही एक अप्रत्याशित घटनाक्रम शुरू हुआ जिसने समूचे विपक्ष को एक बार फिर लामबंद कर दिया. दरअसल देश के कई हिस्सों से ईवीएम के खुले में अथवा होटलों ऑटो आदि में देखे जाने की खबरों की एक प्रकार से बाढ़ सी गई. यहांं आपका यह जान लेना जरूरी है कि ईवीएम के स्थानांतरण के लिये भी चुनाव आयोग की सख्त गाइडलाइंस हैं. जाहिर है उनका अनुपालन नहीं हुआ. इधर सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर विपक्ष की वीवीपैट की 50 फीसदी मिलान वाली याचिका खारिज कर दी. हालांकि न्यायालय ने ये आदेश जरूर दिया कि किसी भी विधानसभा क्षेत्र की कोई 5 रेंडम वीवीपैट का मिलान करवाया जाए.

अब विपक्ष 22 मई को एकसाथ चुनाव आयोग से मिला और अपनी मांगे फिर से रखी और जैसा तय था, के.चु. आ. (केन्द्रीय चुनाव आयोग) ने एक सिरे से उनकी सभी मांगें ठुकरा दीं. यहांं सनद रहे कि उच्चतम न्यायालय ने 50 फीसदी मिलान वाली जो बात नहीं मानी, वह फैसला भी केचुआ की रिपोर्ट पर ही आधारित था.




आज दोपहर आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता ने एक बेहतरीन प्रेस कांफ्रेंस की और बड़े तर्कसंगत सवाल उठाए. दरअसल विपक्ष और चुनाव आयोग में केवल एक मतान्तर है वो ये कि विपक्ष चाहता कि यदि 5 ही वीवीपैट का मिलान करवाना है तो भी ठीक लेकिन ये वोटों की गिनती शुरू होने से पहले किया जाए. केचुआ को यह भी मंजूर नहीं. दलील ये कि इस से परिणामों में 6 घंटे की देरी हो जाएगी (कड़वी सच्चाई ये है कि देश तो लगभग 3 महीने तक चुनाव झेलता है, इस दौरान सरकार कोई भी विशेष काम नहीं करती, ऐसे में 6 घंटे बचाने पता नहीं क्यों जरूरी हो गये). लेकिन मजे की बात ये की मरता क्या न करता कि तर्ज पर विपक्ष ने ये बात भी मान ली. अंत में, विपक्ष की केवल एक मांग थी (ध्यान से समझिये) कि चुनावों के अंतिम परिणाम केवल और केवल वीवीपैट की पर्ची मिलान के बाद हों. जबकि चुनाव आयोग पूर्ववत अड़ा है कि पहले परिणाम घोषित होंगे फिर पर्चियों का मिलान होगा तो इस पर विपक्ष झुंझला गया. उनके तर्क में दम भी है क्योंकि यदि एक प्रतिनिधि जो परिणाम में तो जीत गया लेकिन यदि वीवीपैट के मिलान में गड़बड़ी पाई गयी तो संवैधानिक तौर पर उसकी जीत निरस्त हो जाएगी, ऐसे में क्या उसके समर्थक भड़केंगे नहीं ?




आपने क्रमवार देखा है कि ये झुंझलाहट एक दिन का परिणाम नहीं है. इधर इसी गड़बड़झाले से भड़के कुशवाहा जैसे दलबदलू और कुछ अन्य मूर्ख नेताओं ने भड़किले बयान दे डाले. मीडिया चाहता तो उन बयानों की निंदा करके शांति की अपील कर सकता था. पर फिलहाल तो रक्त में उबाल का दौर चल रहा है. चीख-चिल्लाकर नफरत भरा जोश जगाना, भक्ति का नवीनतम पैमाना है. सत्ता तो चाहती ही है कि किसी बहाने विवाद चलता रहे और उनकी सत्ता कायम रहे.

गलत और सही का फैसला सुधीजन स्वयं करें किन्तु, एक सहज नागरिक के नाते हमारी करबद्ध प्रार्थना है कि किसी प्रकार की हिंसा में कतई भाग ना लें. यहीं असली राष्ट्रधर्म है, यहीं हमारा कर्तव्य है. वैसे भी संविधान में विरोध के अन्य कईं शान्तिपूर्ण तरीके हैं.

कुल मिलाकर यह तो तय है कि अरोड़ा साहब ने चुनाव आयोग की साख को ऐतिहासिक रूप से मटियामेट कर दिया है.

– संजीव मिश्रा



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