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लाॅकडाउन के नाम पर भयानक बर्बरताओं को महसूस कीजिए

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लाॅकडाउन के नाम पर भयानक बर्बरताओं को महसूस कीजिए

दूर के अत्याचारों की कथा पढ़ते हुए हम हैरान-परेशाान ज्यादा होते हैं. जब किसी दिन हमें अमेरिका के मूल निवासियों के नरसंहार की कहानियां पता चलती है तो हम काफी उत्तेजित (शायद रोमांचित) हो जाते हैं. हम अपने जैसे कम जानकारों के बीच यह सब दोहराते हैं कि किस तरह अमेरिका में गए गोरों ने वहां के मूल निवासियों की जगह-जगह घेरेबंदी की, उनका खाना-पीना बंद कर दिया और उन्हें तड़पा-तड़पा कर मार दिया. दूसरे देशों के यातानघर, इंसानी बूचड़खाने, बर्बरताएं, दास प्रथा जैसी अमानुषिकताएं हमें अफसोस से भर देती हैं कि मनुष्य का इतिहास कितना शर्मनाक है लेकिन जरूरी नहीं कि तब भी हम अपने आसपास की भयानक बर्बरताओं को महसूस कर पाएं. हम उन पर उछल-उछल कर गर्व नहीं भी कर रहे हों तो भी उन बर्बरताओं से बने अपने शरीर और उस से मिली अपनी सांसों को पहचान पाना आसान नहीं होता.

इस वक्त देश के विभिन्न हिस्सों को छोड़िए, देश की राजधानी और उसके आसपास के इलाकों में ही जो दृश्य हैं, वे जीनोसाइड के दृश्य नहीं हैं तो और क्या हैं ? यह बात अलग है कि अदालत हमें पहले ही बता चुकी है कि जीनोसाइड एक विदेशी अवधारणा है, हमारी नहीं. एक-दो दिन कोई भोला मानुष मान सकता है कि बड़ी भूल हुई या अचानक अव्यवस्था फैल गई लेकिन, 50 दिनों तक लोगों को सड़कों पर मारा-पीटा, दौड़ाया जा रहा हो और फिर भी कोई न माने कि सब कुछ हांका लगाकर सुनियोजित ढंग से किया जा रहा है, तो यह साफ है कि समाज का बड़ा हिस्सा इस बर्बरता में शामिल है. उसी दिन से जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक लॉकडाउन का ऐलान किया था, कौन नहीं जानता था कि उसी वक्त कारखानों और किराये के घरों से मजदूरों को लात लगा दी जाएगी, उनकी तनख्वाहें भी मार ली जाएंगी और उनके लिए कोई सहानुभूति तक नहीं उपजेगी.

यूं, यह कोई साधारण बात नहीं है कि करोड़ों लोग सड़कों पर इस तरह मारे-मारे फिर रहे हैं. उन्हें दुत्कारा जा रहा है, वे लाशों में बदल रहे हैं, बच्चे एक पूरी उम्र की यातनाओं से कई गुना ज्यादा कमसिनी में ही झेल कर दम तोड़ रहे हैं और सब कुछ साधारण-सी बात की तरह है. टेलीविजन के एंकर और नेता मजे से महफिल लगाते हैं, लोग आईटी सेल के मैसेज आगे बढ़ाते हैं और जीनोसाइड और लूट के नये दस्तावेज तैयार किए जा रहे हैं. यह सब इतने सहज ढंग से हो पा रहा है तो इसकी वजह सत्ता में फासिस्टों का होना और पूंजीवाद के साथ गठजोड़ से अपराजेय-सा हो जाना है, पर वजह सिर्फ इतनी ही नहीं है. इसकी वजहें हमारे समाज में मौजूद हैं. इन मजदूरों के साथ यह बे-दिली अचानक पैदा नहीं हुई है, बस यह एक बहुत बड़े पैमाने पर प्रकट हो गई है. यह सिर्फ इस सत्ता की बर्बरता नहीं है, उस कथित सभ्य समाज की बर्बरता है, जो कोरोना आने से पहले रोज अपने खेतों में, फैक्ट्रियों में, बसों में, रेलों में, घरों में, अपनी बातों में, अपने दिलों में, अपने दिमागों में इन लोगों से, इनके बच्चों से घृणा के साथ पेश आता रहा है, वरना क्या यह संभव था कि भले ही सत्ता न चाहती, इतना बड़ा समाज उनकी मदद के लिए खड़ा न हो जाता. कोरोना के कारण ऐसा न हो पाने का बहाना न कीजिएगा.

सत्ता ने मुसलमानों के खिलाफ नफरत और उत्पीड़न के अभियान चलाकर नफरत को गहरा करने का काम जरूर किया पर यह नफरत हमारे यहां सदियों से प्रचुर मात्रा में है, इसे बस हवा दी गई है. हमारी बर्बरता हमारी जड़ों में है. क्या हम स्वीकार कर सकते हैं कि हम एक ऐसी वर्ण व्यवस्था के साथ बड़े होते हैं, जिसे हमारी महान परंपरा बताया जाता है और जिस पर गर्व करते हुए हम बड़े होते हैं. हम अपने ही शहरों, कस्बों और गांवों में दलितों की बस्तियों के अलग-थलग और बुरी स्थिति में होने से परेशान नहीं होते. हम छुआछूत, अत्याचार, उन पर सामूहिक हमलों, अपने ही परिवार के लोगों के मुंह से उनके प्रति आम बोलचाल में नफरत के वमन वगैरह को लेकर इतने सहज रहते हुए बड़े होते हैं कि हम मान ही नहीं पाते कि हमारे यहां ईंट-पत्थरों की इमारतें बनाए बिना ही सदियों से खुले में डिटेंशन सेंटर चलाए जाते हैं, जिन्हें हम बेहतर बदलाव की शक्तियां कहते हैं, उनमें से ही आए दिन बड़े-बड़े लोग इसे जायज ठहराते रहते हैं.

हम सभी जानते हैं कि फिलहाल अपने ही देश में निरीह जानवरों की तरह मारे-मारे घुमाए जा रहे लोगों में से 99 फीसदी लोग दलित, ओबीसी, मुसलमान, आदिवासी समुदायों के हैं, तो समाज क्यों विचलित होने लगा ! यह उसके लिए राहत की बात क्यों न होगी ?

  • धीरेश सैनी

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