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सत्ता की मलाई चाटते मोदी क्रोनी कैपिटलिजम के सबसे घनिष्ट प्यादे हैं

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‘द वेल्थ रिपोर्ट’ के अनुसार दुनिया में अरबपतियों की संख्या में भारत तीसरे रैंक पर है. पहले स्थान पर अमेरिका है, जहां 748 अरबपति हैं, दूसरे स्थान पर चीन है, जहां 554 अरबपति हैं एवं भारत तीसरे स्थान पर है, जहां 145 अरबपति हैं. फोर्ब्स रियल टाइम बिलेनियर इंडेक्स के मुताबिक 123 अरब डॉलर नेटवर्थ के साथ गौतम अदानी दुनिया के पांचवें अमीर बन गए हैं एवं एशिया के प्रथम. अंतरराष्ट्रीय एजेंसी OXFAM के अनुसार भारत के 9 अमीरों के पास कुल जनसंख्या की 50% लोगों से ज्यादा संपत्ति है.

  • वैश्विक स्तर पर – दुनिया भर में मौजूद अमीर लोगों की संपत्ति में 12% बढ़ोत्तरी देखने को मिल रही है, जबकि दुनियाभर में मौजूद गरीब लोगों की संपत्ति में 11% का घाटा देखने को मिला है.
  • ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2021 , भुखमरी में 116 देशों की सूची में भारत का 101 पायदान पर है, नेपाल, पाकिस्तान से भी पीछे.
  • वर्ल्ड हैपीनेस इंडेक्स-2022 में 146 देशों की लिस्ट में 136 रैंक पर है.

इस आंकड़े से आप समझ चुके होंगे कि क्यों अरबपतियों की संख्या में जिस भारत का नम्बर तीसरे स्थान पर है, उसी भारत में दुनिया की सबसे गरीब आबादी निवास करती है, जिनके पास शिक्षा, स्वास्थ्य, रोटी, रोजगार, आवास की मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं है. इसके पीछे जिम्मेदार है – पूंजीवादी अर्थव्यवस्था.

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में बाजार का तर्क सिर्फ ‘स्व’ को केंद्र में रखता है, ‘अन्य’ को नहीं. बाजार का ‘स्व’ पर क्या असर होगा, ‘स्व’ को क्या लाभ देगा यह तो हमें खूब बताया गया, किन्तु  ‘अन्य’ पर क्या असर होगा, इसके सम्बन्ध में कुछ नहीं बताया गया. कम्पनियों और कार्पोरेट घरानों को क्या लाभ होगा यह तो बताया गया, किन्तु व्यवस्थागत तौर पर क्या क्षति होगी इसके बारे में कभी नहीं बताया गया, जिसमें क्रोनी कैपिटलिजम की भी अहम भूमिका है.

सत्ता की मलाई खाने के आदी मोदी क्रोनी कैपिटलिजम के सबसे घनिष्ट प्यादे हैं. आज राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपति की आपस में साठ-गांठ, भ्रष्टाचार इस मुल्क को दीमक की तरह चाट रही है. इसमें गोदी मीडिया, न्यायपालिका, सुरक्षा एवं प्रशासनिक सस्थाएँ सब सपोर्ट एवं सहभागी हैं.

उदाहरण सामने है, याद कीजिए 2014 का लोकसभा चुनाव. जब नरेंद्र मोदी प्रतिदिन गुजरात के गांधीनगर से देश के कोने-कोने में जिस शक्स के चार्टर प्लेन से भाषण देने जाते थे, वो किसी और के नहीं, गौतम अदानी के ही थे, फलस्वरूप एहसान चुकाने के एवज में चुनाव जितने के तुरन्त बाद अदानी को आस्ट्रेलिया में कोयला खदान के लिए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से 10 हजार करोड़ का लोन दिलाया था एवं बाद में मुल्क के अनेकों प्रॉफिट मेकिंग कम्पनियों, कारखानों, निगमों को अदानी के हाथों कौड़ियों में बेच रहे हैं.

हर तरफ भाग दौड़, सबको ‘जीत’ चाहिए, सबकी अपनी महत्वाकांक्षा है, पावर की, पद की, पैसे की, प्रेस्टीज की, वगैरह वगैरह. हर कोई व्यस्त है किन्तु बेचैन है, स्ट्रेस में है जबकि पूंजीवादी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की बात करते हैं.

हेनरी डेविड थोरो ने कहा था कि ‘व्यस्त होना पर्याप्त नहीं है, व्यस्त तो चींटियाँ भी हैं, सवाल ये है कि हम किस बारे में व्यस्त हैं.’ इस समाज, व्यवस्था में जिस मनुष्य के पास too much है, उसके भी निजिता, स्वतन्त्रता, एकलता, स्वछंदता, मस्ती, पीस गायब है, अपितु वो टकराव, संघर्ष (conflict) में है.

मुझे विलियम वर्ड्स वर्थ याद आ रहे हैं, उनके अनुसार ‘दुनिया हमारे साथ जरूरत से ज्यादा है (the world is too much with us). सही भी है, अब इतना भी नहीं होना चाहिए कि हमारे एकांत, शांति का आनंद, मस्ती और सौंदर्य ही खत्म हो जाये.
वहीं स्वतंत्रता (freedom) को कार्ल मार्क्स के अनुसार समझते हैं : The realm of freedom begins when the realm of necessity is left behind. स्वतन्त्रता का मतलब होता है जब आपके पास खाने के लिए पर्याप्त भोजन, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा आदि चीजें उपलब्ध हो.’ जबकि इस पूंजीवादी व्यवस्था के बनाये चिड़ियाघर मे आप स्वतन्त्र है, जिसके गेट में बड़े ताले लगे हैं.

स्वतंत्रता (Freedom) को समझाने के लिए प्रो. अमर्त्यसेन ने अपनी पुस्तक development as freedom में एक नये टर्म un-freedoms का प्रयोग किया है. जैसे कि lack of security, lack of education, lack of helth आदि और सही है इन तमाम un-freedoms के रहते स्वतन्त्रता के क्या मायने ? स्वतन्त्रता के संबंध में जोसेफ स्टालिन द्वारा रॉय हॉवर्ड को निम्न साक्षात्कार दिया गया था –

‘मेरे लिए यह कल्पना करना कठिन है कि एक बेरोजगार भूखा व्यक्ति किस तरह की ‘निजी स्वतंत्रता’ का आनन्द उठाता है. वास्तिवक स्वतंत्रता केवल वहीं हो सकती है जहाँ एक व्यक्ति द्वारा दूसरे का शोषण और उत्पीड़न न हो, जहाँ बेरोजगारी न हो और जहाँ किसी व्यक्ति को अपना रोजगार, अपना घर और अपनी रोटी छिन जाने के भय में जीना न पड़ता हो. केवल ऐसे ही समाज में निजी और किसी भी अन्य प्रकार की स्वतंत्रता वास्तव में मौजूद हो सकती है, न कि सिर्फ कागज पर.’

पूंजीवाद के ‘पिता’ एडम स्मिथ के अनुसार ‘उत्पादन में निरंतर वृद्धि सारी समस्याओं का हल हो सकती है. फिर कहा गया कि यदि जरूरतें पूरी जायेगी तो उत्पादन में इतनी वृद्धि की जरूरत ही क्या ? फिर दूसरे पूंजीवादी अर्थशास्त्री प्रो. मार्शल ने कहा कि उत्पादन में वृद्धि के लिए आवश्यक है कि आप ‘कृत्रिम मांग’ पैदा करें क्योंकि कृत्रिम मांग के बिना उत्पादन में वृद्धि संभव ही नहीं.

अब ये कृत्रिम जरूरतें हमारे समाज, शरीर, चेतना, प्रकृति के साथ क्या कर रही है ? प्रतिदिन सुबह से रात सोने तक हम कितनी सारी चीजें इस्तेमाल करते हैं, जिनकी हमें जरूरत ही नहीं है. इतना पैसा गैर-जरूरी चीजों पर खर्च कर रहे हैं. स्वास्थ्य, मस्तिष्क, पर्यावरण भी खराब कर रहे हैं.

हर्बर्ट मार्क्युज़ ने सही कहा था कि हम समृद्धि के नरक में जी रहे हैं, क्योंकि मनुष्य की स्वतन्त्रता के आयाम खो गयें हैं. मनुष्य अब कोई क्रांतिकारी की तरह नहीं सोचता, बल्कि व्यवस्था का गुलाम हो गया है.

पूंजीवादी सिस्टम ने हर व्यक्ति को अकेला एवं अस्थिर कर दिया है. मनुष्य भौतिक, सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर बिल्कुल अकेला होता जा रहा है. वह आंतरिक संघर्ष में है, अलगाव में है. बेटा जहां बाप का कतल कर दे रहा है, पत्नी, पति का, भाई दूसरे भाई का, हताश, कुंठित युवा आत्महत्या कर रहा है. इस सिस्टम ने मनुष्य को मनुष्य रहने ही नहीं दिया है, या तो जानवर बना दिया है या फिर रोबोट.

स्वीडन में ‘हंसी’ पर सर्वे किया गया था, जिसमें पाया गया कि लगभग 50 वर्ष पूर्व पश्चिमी देशों में लोग दिन में औसतन 30 मिनट हंसा करते थे, जबकि आज लोग दबी-छिपी हंसी हँसते हैं, वो भी केवल 6 मिनट के लिए. आंखें सूनी है तो मस्तिष्क विखण्डित. जिसे कार्ल मार्क्स self alienation एवं मनोचिकित्सक Personality Disorder कहते हैं.

ऐसे में आप अपने डस्टी माइंड से सिस्टम, समाज से कैसे लड़ पाएंगे ? डस्टी आई से आप क्रीएसन, इंवेन्शन, या फिर समाज में नेतृत्व, बदलाव या क्रांति नही कर सकते. जब तक आप अपने पुरातन कूड़ा को empty नही कर देते, डिस्ट्रॉय नही कर देते, डिसकनेक्ट नही हो जाते.

कबीर तभी तो कहते हैं – ‘घूंघट के पट खोल रे, तोहे पिया मिलेंगे.’

घूंघट को खोलने (awareness) से ही पिया ( truth) को जान पाओगे. सिस्टम ने ही स्वयं और ‘मैं’ (self Interest) के सम्बन्ध में केंद्रित होने के लिए प्रेरित किया. इच्छा संपत्ति की, पद की, शक्ति की, सुविधा की, प्रतिष्ठा की, जिससे पैदा होती है प्रतियोगिता, असुरक्षा, लालसा, लोभ, हिंसा, आकांक्षा.

इस समस्त प्रक्रिया का निरीक्षण करने से देख पाएंगे कि यहां सदा कोई लक्ष्य है जिसे पाने के लिए व्यक्ति का मन लालायित रहता है और इस प्रक्रिया में प्रतिरोध, प्रलोभन, अनुशासन निहित है. कबीर के ‘सांई इतना दीजिए, जामे कुटुबं समाय’ एवं कार्ल मार्क्स के ‘to each according to his needs’ की सीमा-रेखा को पार कर रहे हैं.

डेनियल गोलमैन के अनुसार self मे सबसे पहले self awareness का ज्ञान होना जरूरी होता है, उसके बाद self management का. आत्म जगरूकता के लिए अवचेतन मन को जानना जरूरी है.

परिवर्तन और क्रांति के लिए मन का रिक्त होना जरूरी है, केवल तभी सृजन की संभावना होती है. रिक्तता सतही नही, संपूर्ण होना चाहिए. सतही तौर पर रिक्त व्यक्ति अपने अंदर जारी संघर्ष, अशांति, दिल बहलाव के लिए मनोरंजन की तलाश में ड्रग्स, सेक्स, दारू, सिनेमा, पूजा, पुस्तकों, व्याख्यानों की ओर दौड़ते रहते हैं. इसीलिए कबीर कहते हैं कि ‘जो घर जारै आपनो, चलै हमारे साथ.’

जो अपने व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन से पुरातन को, यथास्थितिवाद को, अपने व्यवस्थित दुनिया को भस्मिभूत करने का साहस रखता है, वही हमारे साथ चले. Total Transformation की बात करते हैं. नूतन हो जाने की बात करते हैं क्योंकि पुरातन अनुशीलन से कोई भी परिवर्तन पुराने की संशोधित निरंतरता ही होगी. अत : नूतन मन से ही नवजीवन, नूतनता और क्रांति की संभावना होती है.

  • विश्वजीत सिंह

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