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प्रदर्शन करने के अधिकारों के खिलाफ बनता कानून

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प्रदर्शन करने के अधिकारों के खिलाफ बनता कानून

रविश कुमार

जनता कहां प्रदर्शन करेगी, क्या उस शहर में प्रदर्शन नहीं होगा जहां कोई मैदान या बड़ा पार्क नहीं होगा और होगा तो सरकार नहीं देगी. भारत में प्रदर्शन शुरू नहीं होता कि बंद कराने की बात होने लगती है. अब अमेरिका में भी प्रदर्शन करने के अधिकारों के खिलाफ कानून बनने लगे हैं.

प्रदर्शन करने का अधिकार मौलिक अधिकार है लेकिन किसी सड़क को क्या अनिश्चित समय के लिए जाम किया जा सकता है, इस सवाल पर गुरुवार को भी बहस हुई और अब अगली बहस सात दिसंबर को होगी. यानी तब तक किसान आंदोलन को हटाने के मामले से राहत ही समझी जा सकती है.

इस आंदोलन के मुद्दों से ज्यादा इसके लंबा चलने और हटाने को लेकर बहस हो रही है लेकिन किसान आंदोलन के वकील दुष्यंत दवे ने आज फिर कहा कि वे सड़क जाम नहीं करना चाहते. उन्हें रामलीला मैदान आने दिया जाए तब सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि फिर कुछ लोग रामलीला मैदान और जंतर मंतर में घर बना लेंगे. उनकी इस बात में जवाब मिल सकता है कि किसान सड़क पर क्यों हैं, रामलीला मैदान में क्यों नहीं.

कृषि कानूनों को लेकर किसान और सरकार के बीच बातचीत बंद है. किसान नेता और उनके वकील दुष्यंत दवे अदालत और अदालत से बाहर कहते रहे हैं कि सड़क किसानों ने नहीं दिल्ली पुलिस ने बंद किया है. दुष्यंत दवे ने कहा कि 2020 में सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने आदेश दिया था कि विरोध प्रदर्शन नहीं हटाया जाए. कोर्ट ने कहा कि सड़क को अनिश्चित काल के लिए ब्लाक नहीं किया जा सकता है.

अब अदालत ने अपनी पुरानी टिप्पणी में संशोधन भी किया और कहा कि मामला विचाराधीन हो तब भी विरोध करने का अधिकार है. पिछले साल से किसान रामलीला मैदान में प्रदर्शन करने की बात कर रहे हैं लेकिन इस वक्त तो वहां भी कोरोना के लिए अस्थायी अस्पताल बना हुआ है. किसानों ने दिल्ली गाज़ीपुर बोर्डर पर नेशनल हाइवे 24 के सर्विस लेन को खोल दिया, उनके अनुसार पुलिस ने बंद किया था जिससे लोगों को दिक्कत हो रही थी.

इस बहस से यह सवाल मज़बूती प्राप्त कर रहा है कि जनता कहां प्रदर्शन करेगी, क्या उस शहर में प्रदर्शन नहीं होगा जहां कोई मैदान या बड़ा पार्क नहीं होगा और होगा तो सरकार नहीं देगी. इसका एक उत्तर 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ही मिलता है.

2017 में ग्रीन ट्रिब्यूनल ने ध्वनि प्रदूषण का हवाला देते हुए जंतर मंतर पर प्रदर्शन करने पर रोक लगा दी थी, मज़दूर किसान शक्ति संगठन ने इसे सुप्रीम कोर्ट मे चुनौती दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह लोगों का अधिकार है कि वे उन जगहों पर प्रदर्शन करें जहां से सत्ता के केंद्रों को सुनाई दे. प्रदर्शन शांतिपूर्ण हो.

जस्टिस सीकरी ने कहा था कि खुली जगहों और सड़कों पर जमा होना हमारे राष्ट्रीय जीवन का हिस्सा है. राज्य औऱ प्रशासन का हर खुली जगह पर अधिकार हो गया है. अगर राज्य और निगम किसी सड़क और पार्क को पूरी तरह से लोगों के जमा होने के लिए प्रतिबंधित कर सकते हैं लेकिन इसका नतीजा यह होगा कि किसी बड़े शहर में प्रदर्शन करना असंभव हो जाएगा.

इस फैसले में यह भी लिखा है कि प्रदर्शन के अधिकार को सुनिश्चित कराने के लिए जगह देनी ही होगी. गुजरात के पाटीदार आंदोलन के समय इस बात को लेकर भी आंदोलन हुआ था कि साबरमती के किनारे बने रिवरफ्रंट पर प्रदर्शन करने की अनुमति नहीं दी गई थी.

अमेरिकी संविधान के पहले संशोधन में यह बात लिखित रूप में दर्ज है कि सड़क या फुटपाथ पर प्रदर्शन करने के लिए किसी अनुमति की ज़रूरत नहीं है बशर्ते इससे ट्रैफिक में बाधा न आए. अगर परमिट नहीं है तो पुलिस अफसर किनारे जाकर प्रदर्शन करने के लिए कह सकता है. कानून में लिखा है कि जिन मामलों में परमिट की ज़रूरत है पुलिस प्रक्रियाओं का बहाना बनाकर प्रदर्शन को नहीं रोक सकती है. भारत में प्रदर्शन शुरू नहीं होता कि बंद कराने की बात होने लगती है. अब अमेरिका में भी प्रदर्शन करने के अधिकारों के खिलाफ कानून बनने लगे हैं.

मिनसोटा, फ्लोरिडा, न्यू कांसस, मौंटैना, ऐलबामा, आयोवा, ओक्लाहोमा जैसे राज्यों में कानून बनाए गए हैं जिनके ज़रिए प्रदर्शनों पर कई तरह के अंकुश लगाए गए हैं. पुलिस को अधिक शक्ति दी गई है और संपत्ति के नुकसान का हर्जाना वसूलने की बात है. इस तरह के कानून 21 राज्यों में पास होने के इंतज़ार में हैं.

लोकतंत्र को देखकर लोकतंत्र नहीं सीख रहा है, हर लोकतंत्र एक दूसरे से यह सीख रहा है कि कैसे लोकतंत्र को कुचला जा सकता है. दुनिया भर में प्रदर्शन के अधिकार को कुचलने के लिए तरह तरह के कानून लाए जा रहे हैं. भारत भी उनमें से एक है. प्रदर्शन करने के ख़तरे बढ़ा दिए गए हैं ताकि आप 114 रुपया लीटर पेट्रोल भराते समय राहत भी महसूस करें कि कोई बोल नहीं रहा है, हम क्यों बोलें.

आर्डनंस फैक्ट्री का निगमीकरण हो रहा था तब The Essential Defence Services act 2021 पास किया गया. इसके अनुसार जो कर्मचारी हड़ताल में शामिल होगा या प्रोत्साहित करेगा उसे जेल होगी और जुर्माना लगेगा. यह कानून संसद से पास हुआ और किसी ने नोटिस नहीं लिया कि इसकी आड़ में आने वाले दिनों में कितने नियम बनेंगे और इसका विस्तार ही होगा. क्या सरकारी कर्मचारी सरकार की ग़लत नीति के खिलाफ प्रदर्शन नहीं करेंगे ?

संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को लोकतंत्र की मां, इंगलिस में मदर कहा था. जिस कानून की बात कर रहा हूं वो कानून लोकतंत्र की मां इंगलिस में मदर भारत की संसद में पास हुआ है. कई मज़दूर संगठनों ने इसे अदालत में चुनौती दी है. यह कानून उस ब्रिटिश हुकूमत की याद दिलाता है जब सरकारी कर्मचारियों के आंदोलन में भाग लेने पर पाबंदी थी लेकिन आज़ादी के बाद जब हम मदर ऑफ ऑल डेमोक्रेसी बने तो 75वें साल में इस कानून की ज़रूरत पड़ गई.

भारत में ब्रिटिश हुकूमत के दौर के कानूनों की वापसी हो रही है और ब्रिटेन उपनिवेश के लिए बनाए कानूनों को अपने ही नागरिकों पर लागू कर रहा है. ब्रिटेन में ब्रेक्सिट के बाद से कई तरह के आंदोलन हुए हैं. आंदोलनों का स्वरूप तो वही है लेकिन उन पर नियंत्रण करने के लिए ब्रिटेन की सरकार एक कानून लेकर आई है. द पुलिस, क्राइम, सेंटेंसिंग एंड कोर्ट (courts) बिल. PCSC बिल.

इस साल मार्च में जब यह बिल संसद में लाया गया तो ब्रिटेन में इसके खिलाफ प्रदर्शन होने लगे. प्रदर्शनकारियों का कहना था कि बलात्कार की सज़ा पांच साल है लेकिन प्रदर्शन के दौरान किसी मूर्ति या स्मारक को नुकसान पहुंचाने की सज़ा दस साल तक की है.

इस बिल में प्रदर्शन को लेकर पुलिस को बहुत ज़्यादा शक्ति दे दी गई है. पुलिस तय करेगी कि प्रदर्शन कब शुरू होगा और कब खत्म होगा. पुलिस यह भी तय करेगी कि कितने जो़र से नारे लगेंगे और आवाज़ का स्तर क्या होगा. सरकार का ध्यान खींचने के लिए किसी भी प्रदर्शन में अलग अलग तरह के व्यवधान उत्पन्न किए जाते ही हैं लेकिन अब यह अपराध हो गया है. यानी अब आप प्रदर्शन के दौरान पानी की टंकी पर भी नहीं चढ़ सकते. यह बिल कानून बन गया है. अगर आपको लगता है कि यह तो ब्रिटेन में हो रहा है, भारत में नहीं तो इन किसानों को फिर से सुनिए.

संपत्ति के नुकसान के नाम पर भारत के राज्यों में कई तरह के कानून बन रहे हैं जिनका इस्तेमाल प्रदर्शनों को कुचलने और भय पैदा करने में किया जा रहा है. नागरिकता कानून के विरोध के समय यूपी सरकार ने 2007 में सुप्रीम कोर्ट के सुझावों और 2011 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश का सहारा लेते हुए सैकड़ों लोगों को वसूली के लिए नोटिस जारी किया और अब इसे कानून का रूप दे दिया गया है.

इसी साल मार्च महीने में यूपी विधानसभा में Uttar Pradesh Recovery of Damages to Public and Private Property Bill पास हो गया. इस कानून के तहत सरकारी या निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हुए पकड़े जाने पर एक साल तक की जेल हो सकती है.

दिसंबर 2019 के दौरान की मीडिया रिपोर्ट बताती है कि करीब 400 लोगों को नोटिस भेजा गया. 60 लाख से ज्यादा की रिकवरी के नोटिस भेजे गए. यहां तक कि हिंसा के आरोप लगाकर लोगों के फोटो की लखनऊ में बड़ी बड़ी होर्डिंग बना दी गई. यह कुछ नहीं किसी प्रदर्शन में शामिल लोगों को अपराधी की तरह पेश करने जैसा ही है लेकिन भारत लोकतंत्र की मां है, इसमें कोई डाउट नहीं है.

इसी महीने जब गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा के इस्तीफे की मांग को लेकर किसानों ने रेलगाड़ियां रोकी तो न्यूज़ एजेंसी ANI ने एक ट्वीट किया कि लखनऊ के पुलिस आयुक्त ने अपने विभाग के अफसरों को निर्देश दिया है कि जो भी धारा 144 का उल्लंघन करे, रेल रोको में शामिल हो उसके खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून NSA लगा दिया जाए.

इंटरनेट सर्च कीजिए. यूपी में NSA का इस्तेमाल किसी को भी फंसाने में किया जाता है. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कई मामलों में NSA को रद्द किया है. इस ट्रैक रिकार्ड के साथ पुलिस और सरकार है. शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के मामले में इससे कहीं बेहतर रिकार्ड जनता का है.

संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने से रोकने का कानून पहले से है लेकिन जिस तरह से इस कानून को सख्त किया गया है और लागू किया जा रहा है, इसका मकसद प्रदर्शनों में लोगों के भरोसे को कमज़ोर करना है. याद रखिएगा किसी प्रदर्शन के भीतर हिंसा सरकार भी पैदा कर सकती है और करती भी है. किसान आंदोलन के संदर्भ में ही सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को ऐसा न करने की हिदायत दी है.

प्रदर्शन करना अगर मौलिक अधिकार है तो इसे सुनिश्चित कौन कराएगा ? हरियाणा में भी इसी तर्ज पर विपक्ष के भारी विरोध के बाद भी कानून बना है. संपत्ति के नुकसान का जिम्मेदार आप हैं या नहीं, इसके लिए ट्रिब्यूनल का भी प्रावधान है.

हरियाणा के एसडीएम आयुष सिन्हा के उस वीडियो को आप भूल गए होंगे जिसमें तत्कालीन एसडीएम कह रहे हैं कि ‘सीधी तरह से स्पष्ट कर देता हूं, सर फोड़ देना. मैं ड्यूटी मजिस्ट्रेट हूं. लिखित में बता रहा हूं. कोई डाउट ? मारोगे ? कोई जाएगा इसे ब्रीच करके, सीधे उठा उठा के मारने बस.’

संपत्ति के नुकसान की आड़ में सरकार की भाषा बदल रही है. कार्रवाई होने से पहले मुख्यमंत्री ने इस अफसर का बचाव किया था. बाद में मुख्यमंत्री ही अपने कार्यकर्ताओं से कहते हैं लठ चलानी है. इस बयान के लिए माफी मांग ली. कैथल में एसडीएम ने किसानों से कह दिया कि आप निर्देश का पालन नहीं करेंगे तो पांव में गोली मार देंगे. किसानों ने कहा सीने पर मार दो.

हरियाणा सरकार ने एक पुराने फैसले को 54 साल बाद पलट कर सरकारी कर्मचारियों को आरएसएस और जमात-ए इस्लामी की गतिविधियों से जुड़ने की इजाज़त दे दी है लेकिन इसी सरकार ने एक और आदेश पारित किया है कि सरकारी कर्मचारी किसी आंदोलन का हिस्सा नहीं हो सकते हैं. आरएसएस में जाइये मगर आंदोलन में नहीं.

इसी आदेश में यह भी लिखा है कि यह सभी सरकारी कर्मचारियों का कर्तव्य होना चाहिए कि वह अपने परिवार के किसी सदस्य को सरकार के विरुद्ध होने वाले किसी आंदोलन में शामिल होने या किसी भी तरह की सहायता करने से रोके. ऐसा आंदोलन जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सरकार के नियमों को चुनौती देता हो. अगर सरकारी कर्मचारी इन्हें नहीं रोक पाता है तो उसकी सूचना सरकार को देगा.

बाप बेटा एक ही पार्टी में और अलग अलग पार्टी में हो सकते हैं, आईएएस अफसर कब अफसर है कब नेता फर्क करना मुश्किल हो जाता है लेकिन कर्मचारियों के लिए नियम बनता है कि वे अपने बेटे बेटियों के आंदोलन में जाने पर उनकी जानकारी सरकार को देंगे. क्या यह बताने की ज़रूरत है कि यह निर्देश कितना अपमानजनक है, क्या प्रदर्शन के मौलिक अधिकार का मजाक नहीं है ?

सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में बिहार से जुड़े एक मामले में अपने ही एक पुराने फैसले में कहा है कि नियम तो सरकारी कर्मचारियों को किसी प्रदर्शन में भाग लेने से रोकते हैं लेकिन अदालत मानती है कि इससे सरकारी सेवक का मौलिक अधिकार खत्म नहीं हो जाता है. ऐसे नियम आर्टिकल 19(1)b के उल्लंघन ही माने जाएंगे.

अब उसी बिहार सरकार ने एक नया आदेश पारित किया है. इस साल फरवरी में सरकार ने निर्देश जारी किया है कि जो लोग हिंसक प्रदर्शनों में शामिल पाए जाएंगे उन्हें सरकार स्थायी या अस्थायी नौकरी नहीं देगी. जिनके खिलाफ चार्जशीट दायर होगी उन्हें नौकरी नहीं मिलेगी.

अंतिम सत्य सरकार के पास है. वह किसी प्रदर्शन को हिंसक भी बोल सकती है और हिंसा भी करा सकती है. उस पर किसी तरह की सज़ा का प्रावधान नहीं है. एक तरफ प्रदर्शन को मौलिक अधिकार कहा जा रहा है दूसरी तरफ निर्देश, नियम और कानूनों के सहारे इस अधिकार को असंभव बना दिया जा रहा है.

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदर्शनों में जाना किसी भी परिस्थिति में अपराध नहीं होना चाहिए लेकिन इस तरह के नियमों से खौफ पैदा किया जा रहा है ताकि नागरिक अपने मानवाधिकारों को लेकर प्रदर्शन करने से डर जाएं. इसे चिलिंग इफेक्ट कहा गया है. आपको डरने की ज़रूरत नहीं है. क्यों प्रदर्शन करना है, 114 रुपया लीटर पेट्रोल भराते रहिए.

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ROHIT SHARMA

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