रविश कुमार, मैग्सेसे अवार्ड प्राप्त जन पत्रकार
क्या सरकार ने देह से दूरी के अनिवार्य सिद्धांत का त्याग कर सबको राम भरोसे छोड़ दिया है ? रेलवे ने टिकट काउंटर खोल दिए हैं. राजधानी दिल्ली में टिकट काउंटर तक पहुंचने से पहले गेट पर पहले की तरह भीड़ देखी गई. काउंटर पर गोल निशान बने हैं लेकिन गेट के बाहर वही लोग एक दूसरे से सटे खड़े हैं. राशन की दुकान वाला अपनी दुकान के बाहर गोले बनाकर देह से दूरी को सुनिश्चित कर रहा है, मगर रेलवे के काउंटर पर पहुंचने से पहले ही देह से दूरी की धज्जियां उड़ने लगीं.
इसी तरह का घालमेल रेलवे ने 1 मई को किया. अचानक एलान कर दिया कि श्रमिक स्पेशल चलेगी. ऐसे वक्त में अचानक एलान करने की इस बीमारी ने हालात को विस्फोटक बना दिया. मज़दूरों पर पंजीकरण की एक नई व्यवस्था लाद दी गई. वह समूह में कभी पुलिस स्टेशन के बाहर तो कभी स्क्रीनिंग के नाम पर खोले गए सेंटरों के बाहर जमा होने के लिए मजबूर हुआ. इन जगहों में भी खानापूर्ति की जा रही थी. इन सेंटरों में देह से दूरी की धज्जियां उड़ने लगीं. उसके बाद रेलवे स्टेशन के बाहर का हाल आप तक पहुंच ही गया होगा.
1 मई से श्रमिक स्पेशल चलाने के वक्त रेलवे ने कहा कि एक बोगी में क्षमता से 25 फीसदी यात्री कम होंगे. एक बोगी में 72 यात्री आते हैं तो 54 यात्रा करेंगे. 1200 लोग ही यात्रा करेंगे, फिर 12 मई को कहा कि मिडिल बर्थ खाली नहीं रहेगी. हर सीट पर यात्री होंगे. 1 मई और 12 मई के इन फैसलों का वैज्ञानिक आधार क्या था ? क्या भारत ने इस बात की खोज कर ली है कि कोविड-19 का संक्रमण एक दूसरे के संपर्क में आने से नहीं होता है ? तो फिर एक दूसरे से दूर रहने की नीति भारत ने किस वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर अपनाई थी ?
हम नहीं जानते हैं कि रेल मंत्री ने जब मिडिल बर्थ खाली रखने का फैसला किया, तब क्या सोचा ? और हफ्ते भर के भीतर मिडिल बर्थ भर देने का फैसला किया, तब क्या सोचा ?
इसके बाद 30 स्पेशल एयरकंडिशन ट्रेन और बिना एयरकंडिशन वाली 200 ट्रेनें चलाने का एलान कर दिया गया. इन ट्रेनों में भी देह से दूरी के पालन की गुज़ाइश नहीं रखी गई. सारी सीटों पर लोगों को बिठा कर कोच के भीतर मार्शल लगाने की बात है, जिसका काम यह देखना होगा कि भीड़ जमा न हो लेकिन बर्थ तो करीब करीब होते हैं. लोग एक दूसरे के इतने करीब बैठेंगे तो फिर वो मार्शल क्या कर लेगा ? जब बैठने या सोने में देह से दूरी का पालन नहीं हो रहा है तो बाथरूम के पास भीड़ न लगे इसके लिए मार्शल लगा कर कौन सा तीर मार लेंगे ?
एक हास्यास्पद फैसला और है. यात्री एक गेट से चढेंगे और दूसरे से उतरेंगे. ज़रा-सा दिमाग़ लगाएं कि इससे क्या हो जाएगा ? यात्री तो हर सीट पर बैठे ही मिलेंगे. उन्हें अंत में बर्थ के पास पहुंच कर एक दूसरे से मिलना ही है.
जब यही करना था तो फिर तालाबंदी के समय रेलगाड़ियां बंद क्यों हुई ? उस समय तक तो संक्रमण व्यापक रूप से नहीं फैला था, तभी एक तिहाई सीटों पर यात्रा जारी रह सकती थी. जिसे जहां पहुंचना होता पहुंच जाता. कम लोगों की स्क्रीनिंग और क्वारिंटिन का भार पड़ता. तालाबंदी के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने रेल चलाने की बात की थी लेकिन मना कर दिया तो रेलवे बताए कि एक महीने बाद उसे किस आधार पर यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि श्रमिक स्पेशल चलाने चाहिए ?
जब चला ही रहे थे तब सारे मज़दूरों का टेस्ट करते. जो निगेटिव आते उन्हीं को भेजते लेकिन ऐसा नहीं किया ? तालाबंदी के 2 महीने बीत जाने के बाद भी भारत यह क्षमता हासिल नहीं कर सका. अगर सरकार खुद ही सामाजिक दूरी का त्याग कर रही है तब रेड ज़ोन से लेकर ग्रीन ज़ोन बनाने का क्या फायदा ?
ज़ाहिर है रेलवे भ्रमित अवस्था में रही. यह उस सरकार का हाल है जिसकी बुनियाद ‘मज़बूत नेतृत्व और कड़े निर्णय’ के प्रोपेगैंडा पर टिकी है. इसी ‘कड़े निर्णय’ की सनक ने नोटबंदी की वाहवाही कराई थी, इस बात के बावजूद कि अर्थव्यवस्था तबाह हो गई. लोगों की आर्थिक ज़िंदगी 5 साल पीछे चली गई. अब तालाबंदी के बाद 10 साल पीछे चली गई. मिडिल क्लास को थाली बजाने के और मौके मिलेंगे.
अब आते हैं नागरिक उड्डयन मंत्रालय की तरफ
अगर यह मंत्रालय जनवरी, फरवरी और मार्च के महीने में विदेशों से लौटने वाले यात्रियों को लेकर मुस्तैद रहता, विदेश और स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ मिल बाहर से आने वाले यात्रियों का पता लगाता, उनकी जांच करता, उन्हें क्वारिंटिन पर रखता तो आज पूरे भारत में तालाबंदी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती. ये कम मुश्किल काम था..तब अधिक से अधिक 40-50 एयरपोर्ट पर ही निगरानी करनी पड़ती. आप अर्धसैनिक बल और कम संख्या में डाक्टरों को लगा कर यह काम कर सकते थे. लेकिन यह काम नहीं हुआ और हुआ भी तो ख़ानापूर्ति के तौर पर हुआ. इस मोर्चे पर हुई ग़लती की कीमत भारत के आम लोगों ने चुकाई है. इस लेख को पढ़ने वाला पाठक भी चुकाएगा.
अब आते हैं एक बुनियादी प्रश्न पर
तालाबंदी के साथ रेल की तरह हवाई उड़ानों को रद्द करने का फैसला क्यों लिया गया ? इसके पहले क्या तैयारी की गई ? ठीक है कि दुनिया भर में कई जगहों पर हवाई उड़ाने रद्द हो रही थीं लेकिन दुनिया के कई देश, विदेशों से आने वाले यात्रियों की चेकिंग के सिस्टम को तुरंत लागू करने में सफल हुए और उनका मुल्क तबाही से बच गया. हम क्यों नहीं कर सके ?
फिर भी मान लेते हैं कि हवाई उड़ाने बंद हुई क्योंकि विमान के भीतर देह से दूरी का पालन नहीं हो सकता था. हर सीट पर लोग बैठे होते हैं लेकिन अब नागरिक उड्डयन मंत्री हरदीप पुरी कहते हैं कि बीच की सीट खाली नहीं रहेगी क्योंकि ख़ाली रहने के बाद भी देह से दूरी का पालन नहीं होता है. दो सीटों के बीच की दूरी बहुत कम है तो देह से दूरी का पालन नहीं हो सकेगा तो क्या आप इस जीवन रक्षक सिद्धांत का ही परित्याग कर देंगे ?
सैनिटाइज़ेशन के मामले में हवाई जहाज़ पहले से ही बेहतर रहे हैं. कई विमान यात्राओं में हमने देखा है कि विमान उतरने के पहले छिड़काव किया जाता है. इस दौरान सैनिटाइज़ेशन की कोई नई तकनीय या रसायन भी नहीं तो आया, जो है वो पहले से था दुनिया में.
यहां याद दिला दूं कि विश्व स्वास्थ्य संगटन ने तालाबंदी का सुझाव नहीं दिया था. कहा था कि यह वक्त वैज्ञानिक रुप से तथ्यों और तर्कों के आधार पर फैसला लेने का है.
अब आइये एक दूसरे पहलू पर
इंडियन एक्सप्रेस के प्रणव मुकुल अनिल ससी की रिपोर्ट पड़ताल करती है कि नागरिक उड्डयन मंत्रालय ने अचानक से विमानों को उड़ाने का फैसला क्यों किया ?
17 मई को गृहमंत्रालय आदेश जारी करता है कि 30 मई तक भारत में घरेलु यात्राएं बंद रहेंगी. रेल नहीं चलेगी. विमान नहीं उड़ेंगे. तीन दिन बाद 20 मई को नागरिक उड्डयन मंत्री कहते हैं कि ’25 मई से उड़ाने शुरू होंगी.’
आखिर गृहमंत्रालय ने किन वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर आदेश जारी किया कि 30 मई तक विमान नहीं उड़ेंगे ? फिर 3 दिन के भीतर उसे कौन से नए तथ्य मिल गए जिसके आधार पर फैसला हुआ कि पांच दिन के भीतर ही विमान उड़ेंगे ?
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार 18 मई को विमान कंपनियों के प्रतिनिधियों ने नागरिक उड्डयन मंत्रालय के अधिकारियों से मुलाकात की. साफ़-साफ़ कह दिया कि जब रेल चल सकती है तो फिर विमान क्यों नहीं ? अगर विमान नहीं उड़ेंगे तो हमें बडे पैमाने पर कर्मचारियों की छंटनी करनी होगी और विमान कंपनियां दिवालियां हो जाएंगी.
इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन ने कहा कि 30 लाख से अधिक नौकरियां दांव पर थीं. 25 मार्च से इनका राजस्व शून्य हो चुका है. वैसे भी इन 30 लाख लोगों को पहले से कम सैलरी पर और अधिक काम करना होगा. अभी भी बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियां जाएंगी, इसमें हमारे ही मिडिल क्लास के लोग होंगे जो थाली बजा रहे थे, बजाए इसके तालाबंदी को लेकर प्रश्न करते और सरकार की योजनाओं को ठीक से समझने का प्रयास करते.
ऐसा नहीं है कि मीडिया के भीतर नौकरियां नहीं गई हैं. बहुतों की गई हैं. सैलरी भी कम हुई है. हर क्षेत्र में काम करने वाला आर्थिक तौर पर दस साल पीछे चला गया है.
अब आप एक प्रश्न कीजिए
जिस तरह से देह से दूरी का पालन का त्याग सरकार ने किया है, क्या यह समझा जाए कि उसने लोगों को मरता हुआ छोड़ देने का मन बना लिया है ? कोई सरकार ऐसा नहीं चाहेगी तो फिर ये सरकार ऐसा क्यों कर रही है ?
हर राज्य में बाहर से आए श्रमिकों के कारण भी संक्रमण तेज़ी से फैल रहा है. श्रमिक इसके लिए दोषी नहीं है. व्यवस्था दोषी है. व्यवस्था की पैदा की गई अव्यवस्था के कारण श्रमिकों के बीच संक्रमण फैला है. श्रमिकों से संक्रमण नहीं फैला है. एक बार फिर से दोष श्रमिकों पर डालने की तैयारी हो चुकी है, जिस तरह से आरंभ में तबलीग जमात के सहारे जनता के एक बड़े हिस्से को यह दलील पिला दी गई कि मुसलमानों के कारण फैला है. मूर्खता का यह स्वर्ण युग चल रहा है.
महाराष्ट्र में संक्रमण की संख्या 40,000 के पार हो चुकी है. वहां की सरकार के होश उड़े हुए हैं इसलिए 80 फीसदी प्राइवेट अस्पतालों को टेक ओवर किया गया है. अगर सरकारों ने संक्रमित व्यक्ति और उसके संपर्क में आए लोगों का पता लगाने का सिस्टम ठीक से बनाया होता तो आज हम स्थिति को नियंत्रित कर रहे होते लेकिन जिस वक्त दुनिया के कई देशों में हालात नीचे की तरफ आ रहे हैं, भारत में संख्या ऊपर की तरफ जा रही है.
24 घंटे में कोरोना के सबसे अधिक मामले आए हैं. यह अब तक का रिकार्ड है. 6088 नए मामले सामने आए हैं. भारत में संक्रमित मरीज़ों की संख्या 1 लाख 18 हज़ार से अधिक हो चुकी है. भारत में इस वक्त जो संक्रमित मरीज़ हैं, जो ठीक नहीं हुए हैं, जिन्हें एक्टिव मरीज़ कहा जाता है, उनकी संख्या इटली और स्पेन के बराबर हो गई है.
फैसला आपको करना है. आपकी ज़िंदगी दांव पर है. तालाबंदी न सही फैसला था और एक बार ग़लत फैसला लेने के बाद भी उस दौरान हमने हासिल करने से पहले सफलता का जश्न मनाना शुरू कर दिया. दो महीने हो रहे हैं तालाबंदी के. कहां तो हमारी स्थिति हर क्षेत्र में बेहतर होनी चाहिए थी, हम अभी भी अव्यवस्थाओं और संक्रमण का प्रसार ही देख रहे हैं.
24 मार्च को जब बगैर किसी योजना के तालाबंदी का एलान हुआ, तब जनता को थाली बजाने के काम में लगा दिया गया. जनता को लगा कि मस्ती का टाइम है तो थाली बजाने लगी. ऐसे घोर संकट में भी किसी की लोकप्रियता मापी जा रही थी. अखबारों में विश्लेषण छप रहे थे कि ग़ज़ब की लोकप्रियता है. टिक टाक में भी इस तरह के अनेक लोकप्रिय लोग लाइक और कमेंट बटोरे घूम रहे हैं. क्या इसे हासिल करने के लिए आप जनता की ज़िंदगी दांव पर लगा देंगे ?
याद रखिएगा. एक दिन आप इस जैसे लेखों को सीने से लगाकर रोएंगे, जिन्हें लिखने के लिए गालियां सुननी पड़ी. धमकियां सुननी पड़ीं. ये किसी के ख़िलाफ़ नहीं हैं. ये वो प्रश्न हैं जो मेरी आपकी ज़िंदगी से जुड़े हैं. घर के घर उजड़ गए और जनता का एक वर्ग जिसे प्रश्न करना था, वो न्यूज़ चैनलों पर एक व्यक्ति की लोकप्रियता के सर्वे से गदगद हो रहा था. मैं सबकी भलाई चाहता हूं.
अभी आपको लंबे लेख पढ़ने में दिक्कतें आ रही है. बाद में आपकी दिक्कतें लंबे लंबे लेख में बदल जाएंगी. कोई सुनने और लिखने वाला नहीं मिलेगा.
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