कश्मीरी पंडित भाजपा का वह बाबासीर है, जिसको दिखा दिखा कर भाजपा हिन्दुओं को बीमार बना रहा है. ‘मोदी पाईल्स’ के नाम से कुख्यात कश्मीरी पंडितों को हथियार बनाकर भाजपा के स्लीपर सेल की ओर से बनी ’कश्मीर फाइल्स’ नामक फिल्म का प्रचार प्रसार भाजपा के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा जम कर किया जा रहा है.
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ‘कश्मीर फाईल्स’ के बहाने अब एक नया ‘डमरू’ मिल गया है, जिसकी मदद से अब वह 2024 चुनाव में जीत सुनिश्चित करना चाहता है. देश में कश्मीरी पंडितों के बहाने साम्प्रदायिक उन्माद भड़काता नरेन्द्र मोदी खुलेआम कश्मीर फाईल्स जैसे झूठी कहानी को ‘सच्चा इतिहास’ बताकर कुप्रचार कर रहा है. भाजपा के संसदीय बैठक में भाषण देते हुए नरेन्द्र मोदी कहते हैं, ‘उनको हैरानी हो रही है कि इस सत्य को इतने सालों तक दबा कर रखा गया जो अब तथ्यों के आधार पर बाहर लाया जा रहा है.’
मोदी का यह सत्य कितना ‘सत्य’ है जो ‘तथ्यों’ के आधार पर बाहर आ रहा है, उसका खुलासा खुद इस फिल्म के निर्माता अग्निहोत्री खुद अपने एक इंटरव्यू में दे रहा है कि ‘फिल्म का तथ्यों (फैक्ट्स) से क्या मतलब ?’ यानी दूसरे शब्दों में कहा जाये तो मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर देश को साम्प्रदायिक उन्माद की आग में झोंकने के लिए झूठ को सच्चा इतिहास बता रहा है.
मोदी ने अपने भाषण में आरोप लगाया कि ‘विभाजन और आपातकाल के दर्द को सामने लाते हुए अभी तक कोई फिल्म बनाने का प्रयास नहीं हुआ क्योंकि सच्चाई को दबाने का लगातार प्रयास किया गया.’ एक अनपढ़ व्यक्ति ठीक ऐसा ही सवाल उठाता है क्योंकि न तो उसे पढ़ने से कोई मतलब है और न ही पढ़े-लिखे लोगों से ही कोई ताल्लुक है.
एक अनपढ़ व्यक्ति जब सत्ता के शीर्ष पर पहुंच जाता है तब वह खुद को ही सत्य मानने लगता है और अपनी अज्ञानता को ही सच्चा इतिहास बताने लगता है. इस देश में न केवल विभाजन पर ही बल्कि कश्मीरी पंडित समेत तमाम समस्याओं पर हजारों किताबें लिखी जा चुकी है, फिल्में भी बनाई जा चुकी है. परन्तु वे तमाम किताबें और फिल्में संघ के साम्प्रदायिक उन्माद के कुप्रचार में हथियार नहीं बन पाता है, इसलिए उस किताबों और फिल्मों को मोदी की नजरों में कोई वजूद नहीं है.
वहीं, अग्निहोत्री और अनुपम खेर जैसे साम्प्रदायिक-जातिवादी गुंडों ने बिना किसी तथ्यों के बनाये गये ‘कश्मीर फाईल्स’ जैसी फिल्में संघ के साम्प्रदायिक उन्माद को भड़काता है इसलिए नरेन्द्र मोदी समेत भाजपाई इस तथ्यहीन फिल्म को प्रचार कर रहा है. भाजपा शासित राज्यों में इस फिल्म को टैक्स-फ्री कर दिया गया है ताकि देश एक बार फिर साम्प्रदायिक उन्माद की आग में जल सके और 2024 में भाजपा को एक बार फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी मिल सके.
फैक्ट के नाम पर झूठ की फैक्ट्री चला रहे विवेक अग्निहोत्री को किसानों से प्रॉब्लम है, इसको खान से प्रॉब्लम है, जो इसके अनुसार नहीं चले उस हर शख्स से इसको प्रॉब्लम है. इसको आजादी वाले नारे से प्रॉब्लम है, इसको JNU से प्रॉब्लम है, यहां तक कि महाराष्ट्र सरकार से भी प्रॉब्लम है मगर आज तक इसको भाजपा सरकार और उसकी नीतियों, अर्थव्यवस्था, ढहती GDP, बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई से कोई प्रॉब्लम नहीं है. 8 साल में कश्मीरी पंडितों के लिए कुछ नहीं हुआ, इससे इसको कोई प्रॉब्लम नहीं है.
नीरज भारती के मकान में किराया पर रहने वाले अनुपम खेर के परिवार पर नीरज भारती का सोशल मीडिया पर कमेंट वायरल हो रहा है. नीरज भारती बताते हैं कि अनुपम खेर का परिवार पचास के दशक में हिमाचल आ गया था. इसके पिता जी हिमाचल प्रदेश सरकार में वन विभाग में सरकारी नौकरी करते थे और वे नाभा एस्टेट (शिमला) में सरकारी आवास में रहते थे.
इसके पिता जो अस्सी के दशक में सेवानिवृत्त हुए, कुछ समय पहले तक जब इसके पिता जी जीवित थे, तब इसके माता पिता दोनों शिमला में मेरे किरायेदार थे और मेरे ही घर में रहते थे. ये इतना निकम्मा थे कि अपने माता पिता के लिए एक अदद घर तक खरीद कर न दे सका उनके बुढ़ापे में और अब लोगों को गुमराह कर के पीड़ित होने का दावा कर रहा है ! शिमला के बाद दिल्ली और अब सारी उम्र बॉम्बे में ऐश की जिन्दगी बिता कर घड़ियाली आंसू बहा रहा है.
वहीं, कश्मीर से विस्थापित कश्मीरी पंडित श्वेता कौल, जो इस घटना को देखी थी, लिखती हैं –
अचानक से देशभक्त भारतीयों का खून खोल रहा है और उन्हें इल्हाम हो रहा है कि कश्मीरी पंडितों के साथ कितना ज़ुल्म हुआ है ! थोड़ा पड़-लिख लेते तो पूरी कश्मीर समस्या जान जाते. ये भी जान जाते कि भारतीय राज्य कश्मीर में क्या गुल खिला रहा है.
ज़ुल्म. बिलकुल हुआ है. इससे बड़ा ज़ुल्म क्या हो सकता है कि आप अपनी ज़मीन से ही कट जाएं. इससे बड़ा ज़ुल्म क्या हो सकता है कि कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों की पीढियां एक दूसरे की दुश्मन बन गई है. इससे ज़्यादा ज़ुल्म क्या हो सकता है कि कश्मीरियत की मौत हो जाए.
हिंसा हुई और बेहिसाब हुई. गिरिजा टिकू का बलात्कार करके उसे आरा मशीन में दो टुकड़ों में काट दिया गया. सड़कों-मस्जिदों से ऐसे नारे लगे जो दिल दहलाने वाले थे. हमारे खुद के घर में आतंकवादी घुसे थे. मैं सिर्फ़ छह साल की थी जब रात के 2 बजे हमने हमेशा के लिए कश्मीर छोड़ दिया. पिछले अक्टूबर में 32 साल बाद मैं एक टूरिस्ट बनकर वहां गई. भारत में रहने वाला कोई इसे कभी महसूस नहीं कर सकता.
खैर, कश्मीरी पंडितों पर हुई हिंसा को काल्पनिक बताने वालों को पहले तो थोड़ा पढ़ लेना चाहिए. यही वजह है कि ऐसे लोगों की कोई विश्वसनीयता नहीं रहती. और यही वजह है कि संघियों को मौका मिल जाता है बार-बार इस मुद्दे को भुनाने का. एक भी इंसान की मौत (वो राज्य द्वारा प्रायोजित हो या मज़हब और धर्म में पागल हुए लोगों द्वारा हो), उस पर सवाल उठना चाहिए और हर किसी को उठाने चाहिए.
इस सबके बावजूद यह फ़िल्म किसी भी तरह से मेरे दर्द की कहानी नहीं है. मेरे दर्द का सहारा लेकर डायरेक्टर ने हिंदुस्तान में रह रहे मुसलमानों के लिए ज़िंदगी को जहानुम बनाने का प्रोजेक्ट पूरा करने की भूमिका में बड़ा योगदान दिया है. मेरे दर्द का सहारा लेकर, और तथाकथित वाम को निशाना बनाकर पूरे कम्युनिज्म की विचारधारा को बदनाम करने का काम किया है. मेरे दर्द का सहारा लेकर राजनीतिक तथ्यों को ज़बरदस्त तोड़ने-मरोड़ने का काम किया गया है. त्रासदी है कि लोग आजकल इतिहास फ़िल्मों से जान रहे हैं !
थिएटर में लग रहे नारे, ठोक के देंगे आज़ादी, जेएनयू को देंगे आज़ादी, जिस हिंदू का खून न खौला – खून नहीं वो पानी है’ आने वाले दिनों में घटने वाले खूनी मंज़र को साफ़ तौर पर आंखों के सामने रख रहा है. ये नारे आरएसएस के लोग लगा रहे हैं और जनता साथ में बह रही हैं. कश्मीरी पंडितों का दर्द तो बहाना है, असली निशाना भारत के मुसलमान हैं और कम्युनिज्म है.
यह मुद्दा आज आरएसएस के पाले में बखूबी तरीके से चला गया है. मेरा सवाल उन तमाम लिबरल्स से है, तथाकथित वाम पार्टियों से है, आखिर कैसे ? पिछले काफ़ी समय से कोशिश कर रही हूं कि कम्युनिस्ट पार्टियों का कोई ऐसा स्टेटमेंट मिले जिसमें उन्होंने कश्मीरी पंडितों के पलायन पर और कश्मीर की फिज़ाओं में इस्लामिस्ट नारों की गूंज की निंदा की हो. अभी तक नहीं मिला. आपको मिले, तो मुझे भेजिए क्योंकि अगर ऐसा कोई स्टेटमेंट नहीं है तो इतिहास में यह चुप्पी ज़रूर और ज़रूर दर्ज होनी चाहिए. क्या विचारधारा को यांत्रिक तरीके से लागू किया जा रहा था ?
मैं इतना जानती हूं कि इस फ़िल्म ने फासिस्ट प्रोजेक्ट को और आसान बनाने का काम किया है और वो भी मेरे दर्द का सहारा लेकर. पर मैं इस खूनी प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं बनूंगी. मैं सेलेक्टिव प्रतिरोध नहीं करती, मेरा प्रतिरोध हर ज़ुल्म पर है. और आपका ?
श्वेता कौल का प्रश्न तमाम वामपंथी दलों और तथाकथित प्रगतिशील तबकों के लिए है, जिन्होंने अपनी मूढ़ता और निकम्मेपन के कारण देश को फासिस्ट ताकतों का शरणगाह बना दिया है. प्रगतिशील बुद्धिजीवी रविन्द्र पटवाल कश्मीरी पंडितों के कश्मीर से पलायन लिखते हैं –
विस्थापितों में आदिवासियों का विस्थापन सबसे भयानक है लेकिन उनके लिए रोने वाला एक भी नहीं है. यह हमारी गलाजत का सबसे भयानक सुबूत है. हम खुद को भारतीय कहते हुए कभी भी शर्मिंदा नहीं होते. उसके बाद सदियों से अछूत वर्ण के उन हिंदुओं पर अत्याचार का नंबर आता है, फिर मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय का, तब कश्मीरी पंडितों का नंबर आता है. ईसाइयों के साथ आजकल जगह-जगह अत्याचार हो रहे हैं.
इससे कश्मीरी पंडितों का दर्द कम नहीं होता लेकिन वह एक शिक्षित कौम थी. उसने कश्मीर से विस्थापन का दर्द भोगकर भी अपना मुकाम हासिल कर लिया. आज वे देश और विदेशों में अच्छे मकाम पर हैं. और उनसे लाख गुना बेहतर हालत में हैं, जो उन पर हुए अत्याचार को देखकर दिमाग की भट्टी को खमखा गर्म कर रहे हैं. जिन्हें अभी तक यही नहीं पता कि जब कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से रातों रात भागने के लिए मजबूर होना पड़ा, तब सरकार वीपी सिंह की थी, कांग्रेस की नहीं. सरकार पर दबाव भाजपा का था. आडवाणी की बात टालने का अर्थ था, सरकार गिर जाती. मजबूरन जगमोहन को राज्यपाल बनाया गया, जो बाद में भाजपा के दो बार सांसद भी रहे.
इनके नाम सुनते ही फारूख अब्दुल्ला ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. राष्ट्रपति शासन के तहत पाकिस्तान समर्थित भयानक आतंकवाद से निपटने के लिए जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों को तत्काल घाटी खाली करने का आदेश दिया और आश्वस्त किया कि कुछ महीने की कार्यवाही के बाद सबको सुरक्षित कश्मीर मै दूंगा. बस वही दिन ‘अच्छे दिन’ कश्मीरी पंडितों के आज तक नहीं आए, जैसे हमें किसी ने 2014 में ‘अच्छे दिन’ का लेम्नचुस पकड़ाया था.
कश्मीरियों को आज भी याद है, लेकिन किसने कहा था वो याद नहीं. हम शेष भारतीय उनसे भी गए गुजरे हैं. हम ‘अच्छे दिन’ भूल अब ‘लाभार्थी’ बनने के लिए लाइन में लग चुके हैं. हम जैसों की जवानी कांग्रेस विरोध में खप गई लेकिन कांग्रेसी इतने बेशर्म हैं कि वे न नेहरू, गांधी के विचारों को बचा पा रहे हैं और अब तो हर कोई जब ‘कश्मीर फाइल्स’ देखकर सिनेमा हॉल से बाहर निकल रहा है, उन्हें ही गाली दे रहा है, तो उस पर खुद को भी बचाने की कोशिश नहीं कर पा रहे हैं. बेहद दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है.
युसूफ किरमानी का कहना है कि – अनुपम खेर और एक कोई अग्निहोत्री है जिसने कश्मीर फाइल्स के नाम से फिल्म बनाई है, कश्मीर में जो हो चुका है, जो हुआ था और जो हो रहा है, वो सभी के सामने है. अशोक कुमार पांडे की कश्मीरनामा से लेकर अरुंधति रॉय की किताब मौजूद है. विधु विनोद चोपड़ा जैसे फिल्मकार जिन्दा हैं. वे कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के उत्पीड़न का हाल बेहतर जानते हैं लेकिन सिनेमाई एक्टिविज्म से निकलकर कश्मीरी पंडितों के हालात पर कभी चर्चा नहीं होती. कश्मीरी पंडित आज जिन हालात में इस देश के संसाधनों को हमारे जैसे टैक्स पेयर के पैसे से भोग रहे हैं, उस पर कोई बात नहीं होती.
तो ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म पर हो रही बहस के दौरान कुछ तथ्य गौरतलब हैं –
- जम्मू 1947 का नरसंहार : 1 लाख मुस्लिमों का कत्ल-ए-आम
- नेल्ली (असम) 1983 का नरसंहार : 2 हजार मुस्लिमों का जनसंहार
- दिल्ली 1984 का जनसंहार : 3.5 हजार सिखों का कत्ल-ए-आम
1990 के दशक का कश्मीर –
- कुनान पोशपोरा (कश्मीर) 1991: 150 कश्मीरी महिलाओं से गैंगरेप
- 89 कश्मीरी पंडितों की उग्रवादियों ने हत्या की
- 1635 कश्मीरी मुसलमानों की उग्रवादियों ने हत्या की
कुछ और काबिलेगौर –
- सन् 2002 में गुजरात में 4000 मुस्लिमों का जनसंहार (बीजेपी शासन, मोदी सीएम)
- सन् 2013 मुजफ्फरनगर (यूपी) में 42 मुसलमानों का कत्ल, 110 महिलाओं से रेप
- सन् 2020 में उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगे 53 की हत्या, 2 हिन्दू 51 मुसलमान, कई हजार बेगुनाह काले कानून यूएपीए में आज भी जेलों में बंद हैं.
दिल्ली समेत तमाम राज्यों में कश्मीरी माइग्रैंट्स (कश्मीरी पंडितों) को आज भी तमाम चीजों में आरक्षण मिलता है. ये आरक्षण नौकरी, एडमिशन से लेकर तमाम सरकारी योजनाओं में है. इसमें कोई बुराई नहीं है, उनके साथ अगर जुल्म हुआ है तो उन्हें सभी लाभ मिलने चाहिए. लेकिन मेरे चश्मे में दो लेंस हैं. मैं कश्मीरी पंडितों को अलग से देखता हूं और इतिहास को तोड़ मरोड़कर पेश करने वाली कश्मीर फाइल्स फिल्म बनाता हूं. मेरा चश्मे का दूसरा लेंस गुजरात दंगे, साबरमती ट्रेन में कारसेवकों को आग के हवाले किया जाना, मुजफ्फरनगर दंगा, दिल्ली के दंगे भी देखते हैं. गुजरात फाइल्स किताबों में है लेकिन रुपहले पर्दे पर नहीं. क्या कोई फिल्मकार कभी गुजरात दंगों पर फिल्म बनाएगा ?
और हां, इसमें तमाम आदिवासियों, दलितों पर हुए असंख्य जुल्म-ओ-सितम का जिक्र नहीं है, जिनकी जमीनी छीन ली गईं, जिनके जंगल छीन लिए गए, जिनके संसाधनों पर किसी और का कब्जा है.
कश्मीर में हिंसा के पीछे का तथ्य
कश्मीर में जारी मौजूदा हिंसा उतनी ही पुरानी है जितनी भारत की तथाकथित आजादी. दरअसल भारत सै विभाजित होकर बने नये देश पाकिस्तान के साथ भारत का विवाद ही कश्मीर को लेकर है. इस विवाद में कश्मीर के आवाम की कोई बात नहीं कर रहा. तीन हिस्सों में विभक्त कश्मीर की जनता की अपनी अलग मांग है, जिससे न तो भारत को कोई मतलब है और न ही पाकिस्तान कहा.
तीन भागों में विभक्त कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में है तो एक हिस्सा भारत के कब्जे में. एक छोटा हिस्सा चीन के कब्जे में है. यही कारण है कि वहां हिंसा का स्तर भी तीन है. एक हिंसा लोगों के उन समूहों के द्वारा की जाती है जो पाकिस्तान में कश्मीर के विलय का पक्षधर है, दूसरा समूह उन लोगों का है जो कश्मीर के भारत में विलय का पक्षधर है. यह दोनों समूह एक दूसरों के समर्थकों पर जानलेवा हमला करता रहता है, जो हिंसा का सबसे बड़ा कारण है.
इस सबसे इतर एक बड़ा समूह ऐसे लोगों का है, जो न तो पाकिस्तान के साथ जाना चाहता है और न ही भारत के साथ, वह स्वतंत्र कश्मीर की मांग कर रहे हैं. फलतः भारत और पाकिस्तान समर्थक दोनों ही तरह के आतंकियों का सबसे आसान निशाना यही समूह है. भारत और पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों ने सबसे ज्यादा इसी समूह की हत्या की है.
कश्मीर में हिंसा का सबसे बड़ा कारण यही है. इसमें कहीं से भी हिन्दू मुसलमान का कोई मुद्दा नहीं है. वह हर समूह अन्य दो समूहों के निशाने पर है, उसके समर्थकों की हत्या करता है, भगा देता है, विस्थापित कर देता है. चूंकि कश्मीरी पंडित भारत समर्थक समूहों के साथ था, इसीलिए उसकी हत्या की गई.
लेकिन इसमें सबसे मजेदार तथ्य यह है कि कश्मीरी पंडितों को वहां के लोग नहीं बल्कि सत्ता पर काबिज संघी ऐजेंटों ने भगाया है, जिसका तत्कालीन प्रतिनिधि कश्मीर का राज्यपाल जगमोहन था, जिसने कश्मीरी पंडितों को गुमराह कर कश्मीर से भगाया. केन्द्रीय सरकार में वीपी सिंह के साथ भाजपा का भी था. जबकि कांग्रेस कोई तत्कालीन प्रतिनिधि राजीव गांधी ने कश्मीर में सेना भेजने की मांग को लेकर संसद का घेराव भी किया था.
कितना अद्भुत है जिस भाजपा ने कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से भगाया आज उसी भाजपा ने खुद को कश्मीरी पंडितों का तारणहार साबित कर रहा है और जिस कांग्रेस के प्रतिनिधि राजीव गांधी ने कश्मीरी पंडितों की हिफाजत के लिए सेना भेजने की मांग किया और संसद का घेराव किया, आज उसी कांग्रेस को गद्दार साबित कर कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जा रहा है.
ऐतिहासिक तथ्यों के साथ इससे बड़ा बलात्कार और क्या हो सकता है, जिसमें भाजपा उस्ताद भी है और निर्लज्ज भी. जनता मूर्ख भी है और स्मरणक्षीण भी. ‘कश्मीर फाईल्स’ देखकर निकलते लोगों का आक्रोश यही बताता है, कि यह फिल्म सही मायने में ‘मोदी पाईल्स’ है, जिससे रिसते गंदे खून एक दिन गटर में बहेंगे, वरना गुजरात दंगें की जांच करने वाले वरिष्ठ अधिकारी संजीव भट्ट, जो कश्मीरी पंडित हैं, को नरेन्द्र मोदी तिलतिल मरने के लिए जेल में बंद नहीं करता.
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