कुछ हलचल हुई है कोरोना के बाद जिसमे की सर्वाधिक नुकसान किसान और मजदूर वर्ग को हुआ है, जिस पर भारत की 55% आबादी आश्रित रहती है लेकिन जीडीपी में हिस्सेदारी मात्र अब 14% रह गयी है, क्यों ?
अगर स्वतंत्रता के बाद देखा जाये तो कृषि का जीडीपी में सर्वाधिक हिस्सेदारी था, लेकिन अब वही तीसरे पायदान पर आ गया है. अगर पिछले दो-दशक का आंंकलन करे तो किसानों के लिए भायवह परिस्थिति रही है.
पिछले 5 साल और ही भयावह है. लगभग 3 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है, इसमें सबसे दुःख भरी बात है कि इन 3 लाख में 20% से अधिक महिला किसान शामिल है.
महिला किसान कि आत्महत्या से एक घातक संदेश जाता है कि कृषि में महिलाओ का आना बहुत ही आत्मघातक कदम साबित हो सकता है, जो की आने वाली किसान महिलाओ को अंधकार भविष्य दिखाता है. इससे उनकी भागीदारी कृषि में कम होगी.
महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक और पंजाब राज्यों में यह तेजी देखी गई है. रिपोर्ट के अनुसार इन आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण ऋण की अदायगी न कर पाना, कर्ज में वृद्धि, खाद्यान्न उत्पादन में कमी, अनाज की घटती कीमत तथा लगातार फसलों की बर्बादी है.
इन सभी राज्यों में किसान कपास और गन्ना जैसी नगदी फसलें उगाते हैं, जिनकी लागत बहुत अधिक होती है. रिपोर्ट के अनुसार इन राज्यों में किसान 24 से 50 प्रतिशत ब्याज पर निजी साहूकारों से ऋण लेता है, जिसे अदा करने की उसकी क्षमता नहीं होती. यहां से सरकार के उस KCC ऋण पर सवाल उठते है.
यूपीए की पहले दौर की सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार 2005 में किसान की औसत आमदनी 14 रुपए प्रतिदिन थी. उड़ीसा में किसान की प्रति व्यक्ति आय सबसे कम अर्थात 6 रुपए प्रतिदिन तथा मध्य प्रदेश में 9 रुपए प्रतिदिन थी.
आगे सफर करते हैं तो देखा जाता है कि ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन’ (एनएसएसओ) के 59वें दौर की रिपोर्ट के आधार पर ‘राष्ट्रीय किसान आयोग’ ने अपनी सिफारिश (2007) में उल्लेख किया था कि भारत के 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़ने को तैयार बैठे. अभी हालत और बदतर है. सरकार इसकी जानकारी भी मुहैया नहीं करा रही है.
एनएसएसओ के 70वें दौर के सर्वे की रिपोर्ट किसानों की आय की बदहाली बयांं करती है. उसके अनुसार वर्ष 2013 में भारत में एक खेतीहर परिवार की औसत मासिक आय 6,426 रुपए थी. वर्तमान में भी यह आय लगभग उतनी ही है.
इस आय के तहत पांंच सदस्यों वाले किसान परिवार के हरेक सदस्य रोज लगभग 42 रुपए कमाते हैं. अंदाजा लगा सकते हैं क्या हालत है. उस पर अपने परवरिश को अच्छा स्कूल, कपड़ा इत्यादि देने का दवाब रहता है.
वर्ष 2014-15 के अन्तरिम बजट में किसान को कर्ज देने के लिए 8 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जो राष्ट्रीय बजट के 45 प्रतिशत के बराबर है.
पूंंजी केन्द्रित कारपोरेट खेती को बढ़ावा दे रही भारत सरकार ने किसान को बैंक का कर्ज पटाने वाला बंधुआ मजदूर बनाकर रख दिया है.
घाटे का सौदा बना दी गई खेती से अब तक 1.5 करोड़ किसान पलायन कर चुके हैं और प्रतिदिन खेती छोड़ने वाले किसानों की संख्या 2 हजार से अधिक हो गई है.
लगता है अब ‘क’ से कलम नहीं –कफ़न और किसान हो गया है.
- मृत्युंजय कुमार
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