यह बेहद हैरतअंगेज है कि मोदी सरकार के जिस किसान विरोधी कानून के खिलाफ करोड़ों किसान लगातार दिल्ली का घेराव किये हुए हैं, असल में इस किसान विरोधी कानून का सबसे बड़ा असर उस मध्यमवर्गीय लोगों की थाली पर पड़ेगा, जो आज ‘मोदी-मोदी’ करते हुए किसानों को खालिस्तानी, आतंकवादी, अर्बन नक्सल, अल्ट्रा लेफ्ट, चोर-डाकू, धनी-कुलक आदि जैसे न जाने कितने विशेषण से नवाज रहे हैं.
ये वही मध्यम वर्ग है, जो यह कहते नहीं थकता है कि बाल-बच्चों समेत भूख से मर जायेंगे लेकिन वोट मोदी को देंगे. तो यह नि:संदेश समझ लेना चाहिए कि इस किसान विरोधी कानून का सबसे बड़ा असर भी यह थाली बजाने और मोदी-मोदी करने वाले मध्यम वर्ग पर ही पड़ेगा. अगर किसान आंदोलन किसी भी रुप में असफल हुआ तो मध्यम वर्ग की यह आकांक्षा कि बाल-बच्चों समेत भूख से मर जायेंगे पर वोट मोदी को देंगे, अक्षरसः लागू होगा.
मोदी के गुजरात मॉडल में तो इस मध्यम वर्ग की हालत इससे भी भयानक है. एक रिपोर्ट के अनुसार एक गुजराती महिला अपना जेबर बेचकर आटा-दाल खरीदने पर मजबूर कर दिया गया है, जल्दी ही यही हालत समूचे देश की होने जा रही है. प्रबोध सिन्हा अपने सोशल मीडिया पेज पर इस पीड़ा को जाहिर कर रहे हैं –
आज किसान आन्दोलन का 16 दिन हो चुका है, पर सरकारी महकमा टस से मस नहीं हो रही. बर्फ है कि पिघलता ही नहीं लेकिन एक बात जरूर है कि अहम के वजह से मशीनरी टस से मस नहीं हो रही है. उनको यह नहीं समझ आ रहा है कि वो बरफ का गोला पकड़े हैं, देर सबेर वो पिघल जाएगा और कितना तबाही करेगा, पता नहीं.
जाहिरातौर पर जो कृषि कानून है उनमें सबसे मुख्य जो कानून है अनाज के भंडारण की खुली छूट. उसका असर यह पड़ने वाला है कि शहरों की मध्यम वर्ग के थाली से खाना गायब होने वाला है. मसलन जब यह कानून पास किया गया तो तुरंत ही अपनी शगल अख्तियार कर लिया. आलू आप खुशी से 50 रुपये खा रहे हैं, पर दर्द नहीं होता. प्याज 60 रुपये किलो खा रहे हैं पर आपको दर्द नहीं होता. अभी आज ही मैनें सरसों का तेल लाया वह 175 रुपये प्रति किलो हो चुका है.
इस कानून के अमलियजामा होने के बाद से सबसे ज्यादे असर मध्यम वर्ग पर ही पड़ने वाला है. किसान पर बहुत नहीं पड़ेगा क्योंकि वह सब्जी अनाज स्वयं पैदा करता है. किसान अपने पास अनाज स्टोर नहीं कर सकता और अधिकतर किसान उतना ही पैदा करते हैं कि कुछ अनाज वह अपने लिए साल भर के लिए रख लेते हैं, बाकी बचा अनाज वो बेंच देते हैं ताकि जो पैसा मिले उससे अपने बच्चों की पढ़ाई और लड़कियों की शादी विवाह कर सके.
यानि किसान हैंड टू माउथ है. रही बात शहरी वर्ग का उसे अभी नहीं पता चल रहा है कि क्या स्थ्ति आने वाली है. यही आलू कुछ दिनों में 100 रुपये किलो भी हो सकती है और दाल 200 रुपये प्रति किलो. बाकी चीजों पर आप नजर डालिए एक ब्रेड का पैकेट 30 या 35 रुपये में आप लाते हैं वो अब 80 या 90 रुपये पैकेट हो सकता है. कितना भी पैसा वाला इंसान हो पर एक दिन कुएं का पानी भी खत्म हो जाता है. और हम न चाहते हुए भी मरने को बाध्य होंगे. ये चीज जितना जल्दी समझ आ जाये तभी अच्छा है.
अब आते हैं प्रादेशिक स्तर पर और विश्लेषण करते हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार मजदूरों के रूप में कच्चे माल का मुख्य उत्पादनकर्ता है. अगर इस बात से किसी को ठेस लगे तो क्षमा चाहूंगा पर यह सच है. देश के दो ऐसे प्रदेश हैं जो सभी प्रदेशों को मजदूरों को पूर्ति करता है. शिक्षा के स्तर पर सबसे पिछड़ा प्रदेश है. मोबाइल होना, टीवी होना, फ्रिज होना यह किसी के विकास का पैमाना नहीं. विकास का पैमाना है पठन पाठन से और शैक्षिक स्तर से हैं.
उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ ये सब ऐसे प्रदेश हैं जहाँ शाम होते ही अँधेरा का शासन चलता है. शहर को छोड़ दीजिए गाँव पर आइये और टाउन एरिया पर आइये. वहाँ खण्ड-खण्ड में बिजली आती है. इंटरनेट का स्तर शहर में ही बहुत खराब है. गाँव और टाउन एरिया का वहाँ तो इंटरनेट का कोई व्यवस्था भी नहीं है. ऑनलाइन पढाई की नौटंकी हर जगह है, जब जिसकी मोबाइल खरीदने की औकात नहीं फिर ऑनलाइन पढाई का क्या मतलब ? बहुत ऐसे बच्चे इस व्यवस्था से फ्रस्टेशन के शिकार हो रहे. ऐसी व्यवस्था जो हम सब में खाई पैदा करे, उसका क्या मतलब.
कुछ न मिलना बच्चे बड़े और फिर मजदूर के रूप में कच्चा माल बना दिये जाते हैं, जिसकी अन्य राज्यों और अन्य देशों में खपत है. इतनी बुरी स्थिति है. बनिस्बत पंजाब और हरियाणा का किसान कुछ हद तक पढा-लिखा है तो वह अपने हक समझता है, जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान फटेहाल रहता है. उसके शरीर पर बमुश्किल ही अच्छे कपड़े होते हैं. गाल पर दाढ़ी बढ़ी हुई और धोती कुछ फ़टी हुई, इसी को किसान कहते हैं. जब जो किसान इतनी दुर्दिन्ता देखता हो तो उसका दिमाग चलेगा कैसे ?
शायद आपको जानकारी हो या न हो पर देश में बहुत वेयरहाउस बन चुके हैं और उसमें इतने अनाज रक्खें जा सकते हैं कि उससे 10 साल की देश की भूख मिट सकती हैं और यहाँ का किसान फटेहाल. क्या किसान इस वेयरहाउस से मुकाबला कर सकते हैं ? कतई नहीं. इसलिए मेरे नजर में अनाज भंडारन भी बहुत अहम मुद्दा है. इसे हल्के से लेने का अर्थ हम सब के दुर्दिन भरे दिन की आहट.
सोचियेगा जरूर. जो विरोध कर रहे किसानों का उनको किसान दयनीय के रूप में और मजबूर के रूप में अच्छे लगते हैं. यही दुःखद पहलू है. मेरी अपील है कि ऐसे किसी भी विचार से बचना चाहिए. किसानों के बारे में ठंडे से सोचिये.
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