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किसान आंदोलन सरकार और गांधी की अहिंसा

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किसान आंदोलन सरकार और गांधी की अहिंसा

kanak tiwariकनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
तत्कालीन वायसराय लार्ड माउन्ट बेटन ने गांधी जी की हत्या पर लिखा था – ब्रिटिश हुकुमत अपने काल पर्यन्त कलंक से बच गई, आपकी हत्या आपके देश आपके राज्य आपके लोगों ने की है. यदि इतिहास आपका निष्पक्ष मूल्यांकन कर सका तो वो आपको ईसा और बुद्ध की कोटि में रखेगा. कोई कौम इतनी कृतघ्न और खुदगर्ज कैसे हो सकती है, जो अपने पिता तुल्य मार्गदर्शक की छाती छलनी कर दे. ये तो नृशंस बर्बर नरभक्षी कबीलों में भी नहीं होता है, और उस पर निर्लज्जता ये कि इन्हें इस कृत्य का अफसोस तक नहीं है.’

सोशल मीडिया और टेलीविजन पर अलग-अलग तरह की खबरों का अंबार है. फिलहाल उन सब पर पूरा भरोसा करना मुनासिब और मुमकिन नहीं है. टेलीविजन चैनल तो किराया लेकर ठहराने वाली धर्मशाला या सराय हैं. उनका चरित्र पैसा वसूलने की होटलों जैसा है. कई वर्षों से अधिकांश खबरों में निजाम और कॉरपोरेटी खरबपतियों के अहंकार का अट्टहास ही गूंजता रहा है. सोशल मीडिया को लगातार दूषित मनोविकारों को ढोता नाबदान बनाया जा रहा है. उन लोगों का कब्जा साफ-साफ दिखता है जिन्हें व्हाट्सएप विश्वविद्यालय, इंस्टाग्राम इंस्टीट्यूशन और फेसबुक संस्थान के व्यावसायिक जानकार डिग्रियां बांट रहे हैं. कई ऐसे लोग भी हैं जो इस वैचारिक आंधी, तूफान या बाढ़ में बह जाने के डर से भूल जाते हैं कि उन्हें अपने विचारों की ईमानदारी के साथ धरती पर पेड़ की तरह खड़ा रहना चाहिए. वे समाज चिंतक तो हैं लेकिन भावुकता से लबरेज होते रहते हैं.

भारत में सदियों की गरीबी, अशिक्षा, जातिवाद, मजहबी उन्माद जैसी तमाम कमजोरियों से एक माहौल बना गया है. इलेक्ट्रॉनिक यंत्र जोर-जोर से बजते हैं तो जनता वीरता और पौरुष के प्रतिमान तथा कभी कायरता से लकदक महसूस करने लगती है. लोग नहीं समझ पाते कि समाज का अंतिम सच किसके साथ है ? दो माह से ज्यादा चले भारत बल्कि संसार के सबसे बड़े किसान आंदोलन में गणतंत्र दिवस के दिन जाहिर तौर पर कुछ अनावश्यक, अवांछित और आकस्मिक हिंसात्मक झड़पें किसानों और पुलिस के बीच हुई हैं. गैर-गंभीर स्वयंभू, समाज विचारक उसे किसान आंदोलन के मनोविज्ञान का ही वायरस बनाकर ऐसा झूठा सच परोस रहे हैं, जो सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों में समानान्तर रूप से पसरा ब्यौरा भी होता है.

हिंसा और तशद्दुद की कोई ताईद नहीं करेगा. करना भी नहीं चाहिए. मोटे-मोटे अक्षरों में मीडिया में किसानों द्वारा की गई कथित हिंसा का ब्यौरा छपा और वाचाल भी है. सरकारी विज्ञापन, कॉरपोरेटी मालिकाना नियंत्रण और बरसाती नदी के बहाव की तरह बनाई जा रही अफवाहग्रस्त जनभावना में बहते हुए समाचार अभी तो नहीं लेकिन कभी न कभी वक्त की बांबियों से निकलकर अपनी सही खुली जगह तलाशेंंगे. तटस्थ, वस्तुपरक, निरपेक्ष देश में टूट रहा परेशान दिमाग, अल्पमत वैचारिक बुनियाद पर खड़ा होकर इतिहास से सवाल जरूर पूछेगा कि आखिर कहां हिंसा हुई ? कितनी हिंसा हुई ? हिंसा की परिभाषा क्या है ? भारतीय दंड विधान में हिंसा शब्द की परिभाषा नहीं है, लेकिन कई अपराधों की व्याख्या में हिंसा के विवरण के आधार पर मुकदमे होते हैं. दिल्ली की घटनाओं को लेकर पुलिस ने तमाम मुकदमे दर्ज भी अवैध किए हैं.

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भारत का यह किसान आंदोलन राष्ट्रीय पर्व की तरह याद रखा जाएगा. वह अवाम के एक प्रतिनिधि अंश का आजादी के बाद सबसे बड़ा जनघोष हुआ है. उसमें डेढ़ सौ से ज्यादा किसानों की मौतें हो चुकी हैं. वह लाखों करोड़ों दिलों का स्पंदन गायन तो बना है. वह ईंट दर ईंट चढ़ते इरादों की मजबूत दीवार की तरह लगा है. पुलिस-किसान भिड़ंत की कुछ हिंसक होती घटनाओं के कारण आन्दोलन स्थगित या रद्द हो भी जाए तो अहिंसा की सैद्धांतिकी से भी क्या उसे कोई नया मुकाम मिलेगा ? चौरीचौरा की घटनाओं के कारण गांधी ने आंदोलन वापस लिया था. उनकी बहुत किरकिरी की गई थी. 1942 में तो इससे कहीं ज्यादा हिंसा हुई. फिर भी भारत छोड़ो आंदोलन हिंसा की सामाजिकी का इतिहास विवरण अंगरेज द्वारा भी नहीं कहा जाता. उसमें केन्द्रीय भाव के रूप में अहिंसा ही अहिंसा गूंजती है. फिर आज उसके अनुपात में सरकार और मीडिया कैसे कह सकते हैं कि किसान आंदोलन का चरित्र हिंसक हुआ है ? रामचरितमानस में क्षेपक कविता का मूल हिस्सा नहीं है.

क्या विवरण है कि किसानों की लाठियों या अन्य हथियारों से पुलिस या नागरिकों की कितनी मौतें हुई हैं ? जाहिर है कई पुलिस वालों को काफी चोटें लगी हैं. कई किसानों को भी पुलिसिया दमनात्मक कार्रवाई का शिकार होना पड़ा है. बदनाम पक्ष तो यह है कि जिस व्यक्ति ने कथित रूप से लालकिले की प्राचीर पर चढ़कर झंडा फहराया, उसके कई चित्र सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं, उनमें वह प्रधानमंत्री, देश के गृहमंत्री तथा अन्य भाजपा नेताओं के साथ खड़ा होकर या बैठकर मुस्करा रहा है. क्या बैठकर कुछ योजनाएं बना रहा होगा और खड़ा होकर उनके मुकम्मिल हो जाने के पूर्वानुमान में मुस्करा भी रहा होगा ? कौन जाने !

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इस घटना की आड़ में केन्द्रीय निजाम बहुत कड़े और सरकारी प्रतिहिंसा के नए मानक बन रहे सोपानों पर चढ़कर किसान आंदोलन को कुचलने की हरचंद कोशिश करेगा. उसने शुरू कर दिया है. उसे किसानों की भूल महत्वाकांक्षा और उन्माद तथा अपनी भी कोशिशों से यह सुनहरा मौका मिला है. इसी दिन की तो उसे उम्मीद रही होगी. किसानों द्वारा ट्रैक्टर रैली करने के ऐलान को निजाम ने आपदा में अवसर की तरह भुना तो लिया है. इस निजाम ने तो कोरोना महामारी को भी भुनाकर देश की तमाम प्राकृतिक दौलत, जंगल, खनिज अपने मुंहलगे दो तीन खरबपति कॉरपोरेटियों को दहेज की तरह दे दिया है. पुलवामा को भी तो अवसर में बदला जा चुका है. अर्णव गोस्वामी के चैट्स को भी आपदा में अवसर समझकर सरकार विरोधियों को कुछ नहीं करने देगा.

इस देश की न्याय व्यवस्था पर पूरी तौर पर भले कब्जा नहीं हो, जुगाड़ कर निजाम ने संजीव भट्ट, लालू यादव, भीमा कोरेगांव के मानव कार्यकर्ताओं और केरल से लेकर के दिल्ली तक के ईमानदार पत्रकारों और छात्रों को जेल से नहीं छूटने देगा या उनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट पर टेसुए बहाकर भी उन छात्रों को ढूंढ़ा तो नहीं है. वह दिल्ली दंगों के विदूषकों से खलनायक बनाए गए व्यक्तियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का हुक्म देने वाला हाईकोर्ट के जज का आधी रात को तबादला करा ही चुका है. वह सुप्रीम कोर्ट के भावी चीफ जस्टिस पर अपने साथी दल के आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री के जरिए अवमाननायुक्त खुलकर आरोप लगवा कर चुप्पी साधे बैठा है. मौजूदा चीफ जस्टिस के इजलास से भी अब तक कोई सार्थक और न्याययुक्त कदम उठाया जा सके इसकी संभावना पर भी उसकी नज़र रहेगी.

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इस सिलसिले में गांधी का नाम बहुत तेजी से उभरा है. कुछ को मलाल है किसान आंदोलन पूरी तौर पर गांधीजी की अहिंसा की बैसाखी पर चढ़कर क्यों नहीं किया गया ? कुछ का कहना है आंदोलन का भविष्य गांधी की अहिंसा के लिटमस टेस्ट के जरिए ही आंका जा सकता है. कुछ का पूछना है इस पूरे आंदोलन की बुनियादी पृष्ठभूमि और सरकार के भी आचरण में गांधी रहे भी हैं. क्या असल में दुनिया के सबसे बड़े अहिंसक आंदोलन के जन्मदाता और प्रतीक गांधी मौजूदा निजाम की वैचारिकता द्वारा खारिज और अपमानित कर दिए जाने के बाद भी भले लोगों के लिए टीस या कभी कभी उभरते अहसास और सरकारों के लिए असुविधाजनक परेशानदिमागी बनकर वक्त के बियाबान को भी इतिहास बनाने के लिए अपनी दस्तक देते रहते हैं.

मौजूदा निजाम-विचार ने तो उन्हें अपमानित करने की गरज से सफाई और स्वच्छता का रोल मॉडल बनाकर शौचालय के दरवाजे पर चस्पा कर दिया है. गांधी की पार्टी और राजनीतिक वंशज उनका नाम भूल गए. भले ही उनके उपनाम से आज तक अपनी दूकान चला रहे हैं. कभी नहीं कहा था महात्मा ने कि लिजलिजे, पस्तहिम्मत, कायर और हताश लोगों के जरिए अहिंसा का पाठ पढ़ाया जा सकता है. यह भी नहीं कहा था अपने से कमजोर के लिए मन में खूंरेजी, नफरत और हथियारी ताकत लेकर अट्टहास करने वालों के जरिए की जा रही प्रतिहिंसा को अहिंसा कह दिया जाए.

कुछ किताबी बुद्धिजीवी, समझदार नागरिक और गांधी की तात्विकता को समझने वाले भले लोग नैतिक रूप से सही कह रहे हैं कि किसान आंदोलन की सद्गति गांधी की आत्मा की रोशनी के बिना अपने वांछित मुकाम या हर पड़ाव तक पहुंचने में दिक्कत का अनुभव करेगी. इस सैद्धांतिक सीख की आड़ और समझ के गुणनफल के हासिल के रूप में यह सहानुभूतिपूर्ण समझाइश गूंजी है कि किसानों को संसद के बाहर धरना या प्रदर्शन करने का इरादा स्थगित कर देना चाहिए. किसानों ने उसे स्थगित कर भी दिया है. यह भी कि किसान संगठनों को प्रायश्चित और मलाल में लाल किले की प्राचीर पर तिरंगे झंडे के बावजूद अन्य झंडा फहराने के आरोप के कारण उपवास या अनशन करना चाहिए. ईमानदार, उत्साही और अतिरिक्त सुझाव यह भी आया कि फिलहाल आंदोलन को ही स्थगित कर देना चाहिए.

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ऊहापोह की ऐसी स्थितियों के संदर्भ और गर्भ में इतिहास की कुलबुलाहट है कि इन सबमें गांधी कहां हैं ? ‘जयश्रीराम’ के बदले ‘रामनाम सत्य है’ या ‘हे राम’ का उच्चारण वाले अहिंसाभक्त गांधी की याद करने की क्या मजबूरी है ? गांधी के जीवित रहते संविधान सभा और बाद में भी न केवल उनकी अनदेखी बल्कि उन पर अपमानजनक टिप्पणियां की गईं. गांवों पर आधारित गांधी का हिंदुस्तान जाने कब से भरभरा कर गिर पड़ा है. गांवों पर दैत्याकार महानगर उगाए जा रहे हैं और उन्हें अंगरेजी की चाशनी में स्मार्ट सिटी का खिताब देकर देश के किसानों से उनकी तीन फसली जमीनों को भी लूटकर विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के नाम पर अंबानी, अडानी, वेदांता, जिंदल, मित्तल और न जाने कितने कॉरपोरेटियों को दहेज या नज़राने की तरह तश्तरी पर रखकर हिंदुस्तान को ही दिया जा रहा है.

मौजूदा निजाम चतुर वैचारिकता का विश्वविद्यालय है. उसकी विचारधारा के प्रतिनिधि ने गांधी की हत्या करने के बावजूद अपनी कूटनीतिक सयानी बुद्धि में समझ रखा है कि फिलहाल इस अहिंसा दूत को उसके सत्य के साथ मेरे प्रयोग के मुकाबले झूठ के साथ मेरे प्रयोग जैसी नई थ्योरी बनाकर धीरे-धीरे अपमानित किया जाए. उसे देश और दुनिया की यादों के तहखाने से ही खुरचा जा सके. फिर धीरे-धीरे जनता के स्वायत्त जमीर को दीमकों की तरह चाट लिया जाए, फिर हिंसा के खुले खेल में जयश्रीराम को बदहवास नारा बनाते विपरीत विचारधाराओं को रावण के वंश का नस्ली बताया जाए. दल बदल का विश्व कीर्तिमान बनाकर सभी दलों से नर पशुओं को खरीदा जाए. ईवीएम की भी मदद से संदिग्ध चुनावों को लोकतंत्र की महाभारत कहा जाए.

सदियों से पीड़ित, जुल्म सहती, अशिक्षित, गरीब, पस्तहिम्मत जनता को कई कूढ़मगज बुद्धिजीवियों, मुस्टंडे लेकिन साधु लगते व्यक्तियों से अनैतिक कर्मों में लिप्त कथित धार्मिकों के प्रभामंडल के जरिए वैचारिक इतिहास की मुख्य सड़क से धकेलकर अफवाहों के जंगलों या समझ के हाशिए पर खड़ा कर दिया जाए. भारत के अतीत से चले आ रहे राम, कृष्ण, बुद्ध, नानक, महावीर, चैतन्य, दादू, कबीर, विवेकानन्द, गांधी, दयानन्द सरस्वती, पेरियार, फुले दंपत्ति, रैदास जैसे असंख्य विचारकों के जनपथ को खोदकर लुटियन कन नगरी बताकर अपनी हुकूमत के राजपथ में तब्दील कर दिया जाए. मुगलसराय को दीनदयाल उपाध्याय नगर और औरंगजेब रोड नाम हटाकर या इलाहाबाद को प्रयागराज कहकर सांप्रदायिक नफरत को भारत का नया और पांचवां वेद बना दिया जाए. फिर भी कुछ लोग हैं जो आज गांधी की मरी मरी याद कर रहे हैं.

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कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को बिना उत्तेजना के याद रखना ज़रूरी होता है. गांधी ने भारत की आज़ादी के लिए जन आंदोलनों की अगुवाई अंगरेजों के खिलाफ की थी. वह विदेशियों से लड़ता रहा लेकिन प्रतिकूल हमवतनों से भी नहीं. आज आजादी के सत्तर बरस बाद भारत के लाखों करोड़ों किसान अवाम का सैद्धांतिक हरावलदस्ता बनकर निजाम से अपने जायज अधिकारों की पहली बार पुरअसर मांग कर रहे हैं. हमवतन सरकार से अपने संवैधानिक अधिकार लेने का यह एक जानदार मर्दाना उदाहरण तो है.

लोहिया कहते थे इतर सभ्यता के लोगों से लड़ना रामायणकालीन उदाहरण है. अपनों से लड़ना महाभारत में कृष्ण की गीता को जन्म देता है. आत्मिक हथियारों की वीरता की यह लड़ाई लाखों किसानों के शरीर नहीं लड़ते रहे. वे सरकार से अपनी नैतिक ताकत पर भरोसा करते अधिकारों की भीख नहीं मांग रहे. वे मुकम्मिल सत्याग्रह के रास्ते पर चलकर अधिकार हासिल करना चाहते रहे हैं, जो आखिरकार उनसे संसद के मुखौटे की आड़ में छीने जा रहे हैं. ऐसा भी नहीं है कि सरकारें कानून बनाकर उन्हें वापस नहीं लेती रही हैं.

ऐसा भी नहीं है कि किसानों के पक्ष में देश के बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री, सियासती ताकतें और ईमानदार नागरिक नहीं खड़े हैं. बीसियों बार बहस का रिहर्सल करने के बाद भी सरकार अपनी बात समझा पाने में असमर्थ क्यों है ? कृषि कानूनों में आश्वस्त प्रामाणिकता होती तो इन दिनों अवाम की उम्मीदों को निराश करता लगने वाला सुप्रीम कोर्ट भी कह देता कि शाहीन बाग की घटनाओं की तरह हटाओ अपने आंदोलन का टंटा. कोर्ट ने भी तो आननफानन में सरकारी समर्थकों की ऐसी कमेटी बनाई जो एक सदस्य के इस्तीफा दे देने से चतुर्भुज से त्रिभुज, नहीं नहीं त्रिशंकु की तरह हो गई.

वैश्विक समझ में भारतीय सरकार और सुप्रीम कोर्ट के विवेक की संयुक्त पेशबंदी का नायाब उदाहरण किसानों के कारण ‘प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः’ हो गया. राजसी मुद्रा में खुश होकर चापलूसों को अंगूठी देने वाली हुकूमतों की पारस्परिक मुद्रा में निजाम ने कहा वह इन कानूनों को डेढ़ साल तक स्थगित रखने को तैयार है. निजाम ने यह नहीं बताया कि अडानी जैसे काॅरपोरेट ने न जाने क्यों सैकड़ों बड़े-बड़े पक्के गोदाम बनवा रखे हैं ? वहां किसानों को कृषि कानूनों के चक्रव्यूह में फंसाकर पूरी उपज को लील लेने का षड़यंत्र किसी बांबी के सांपों की फुफकार की तरह गर्वोन्मत्त होता होगा.

कोई जवाब नहीं है सरकार के पास ऐसी नायाब सच्चाइयों के खिलाफ. कैसा देश है जहां सबसे बड़ी अदालत में किसी भी सरकार विरोधी को अहंकार की भाषा में सरकारी वकीलों द्वारा जुमला खखारती भाषा में आतंकी, अर्बन नक्सल, पाकिस्तानी एजेंट, खालिस्तानी, हिंसक देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही, टुकड़े टुकड़े गैंग का खिताब दिया जाए और शब्दों की बाल की खाल निकालने वाली बल्कि उसके भी रेशे रेशे छील लेने की कूबत वाले सुप्रीम कोर्ट को ऐसे विशषणों का कर्णसुख दिया जाए.

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लोकतंत्र में क्या प्रधानमंत्री अंतरिक्ष से आता है जो संविधान की एक-एक इबारत को सरकार की स्तुति के सियासी पाठ में तब्दील करने को भी आपदा में अवसर बनाना समझता होगा ! सरकारों ने महान संविधान में किए गए भविष्य वायदों के परखचे तो लगातार उखाड़े हैं. भोले संविधान ने हवा, पानी, धरती सब पर सरकार को मालिक नहीं, ट्रस्टी ही बनाया है. कोरोना महामारी में लाखों लोग संसार के इतिहास की सबसे बड़ी बैगैरत भीड़ बनकर मरते खपते सड़कों पर चलते टेलीविजन में देखे गए. हां, जनता की कायर अहिंसा अंदर ही अंदर निश्चेष्ट होकर सोचती भर रही कि इसके बावजूद देश के सबसे अमीर आदमी को दुनिया का सबसे अमर आदमी वक्त का फायदा उठाते कैसे बना दिया जा रहा है !

एक अपने निहायत अजीज उद्योगपति को इतनी तेज गति से विकसित किया जा रहा है जो गिनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रिकाॅर्ड में अव्वल नंबर पर दर्ज हो जाए. इंग्लैंड में मोम के पुतलों की नुमाइश में संविधान पुरुष का आदमकद दुनिया को दिखे. साथ-साथ सड़क पर रेंगते मरे हुए कुत्ते का मांस खाकर अपनी जिंदगी बचाने की कोशिश करते, नालियों, मोरियों की दुर्गंध अैर सड़ांध में जीते, लाखों गरीब बच्चे, औरतें, यतीम और जिंदगी से परेशान बूढे बुजुर्ग मौत मांगते भी निजाम के लिए जय हो, जय हो का नारा लगाना नहीं भूलें. देश में इसलिए भी गांधी एक दु:खद अहसास की तरह उभारे जा रहे हैं.

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किसान आंदोलन में तात्विक या अव्यक्त वैधानिक परिभाषा के अनुकूल कितनी हिंसा हुई है ? कितने पुलिसकर्मियों की किसानों या उनके बीच में छुपाए गए सरकारपरस्त व्यक्तियों ने हत्या की गई है ? लाखों की भीड़ में अंगरेजी बुद्धि की मानसिकता की भारतीय पुलिस से झड़प में अगर चोटें नहीं लगतीं तो आंदोलन की प्रकृति को मिलीजुली कुश्ती भी तो तमाशबीन, कायर और गालबजाऊ भाषा में कहा जा सकता था. गांधी तक ने 1942 के जनआंदोलन को जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद और न जाने कितने अहिंसा वीरों के बावजूद हिंसा से बचा पाना अनुभव नहीं किया. किसान आंदोलन की खसूसियत यही है कि उसका कोई एक निर्वाचित या मनोनीत नेता नहीं है. उसने राजनीतिक पार्टियों के बैनर, पोस्टर, झंडों और खुद नेताओं के शामिल होने तक से नीयतन और सावधाानीपूर्वक परहेज किया.

आंदोलनकर्ताओं को मालूम था कि अन्ना हजारे के आंदोलन में कौन-सी ताकतें वेष बदलकर अधनंगे शरीर के जरिए कवायदें सिखाती, दवाएं बेचती भी, सलवार पहनकर भागती भी घुस गई थी. उनमें ऐसे लोग भी थे जिन्हें कथित नागरिक सेवा के लिए मैगासेसे अवार्ड मिला था. बाद में दिल्ली की मुख्यमंत्री बनाने की मौजूदा निजाम की कोशिश के साथ ही मैगासेसे अवार्ड प्राप्त दूसरे व्यक्ति से चुनाव में पराजित होने पर पुडुचेरी की राज्यपाल बना दिया गया. वह मानसिकता वहां राज्यपाल पद को पुलिस कमिश्नर पद में तब्दील करने की कुलबुलाहट को राष्ट्रवाद समझती रहती है.

दो माह तक चले आंदोलन में किसान अपने साथियों की आत्मबलि देते रहे, लेकिन एक चूहा तक नहीं मारा. अचानक उन किसानों में से पंचमांगी निकल आए जिन्होंने उसे सरकार का एक महासंग्राम बनाकर अपनी असली औकात में पुलिसिया राग गाते अहिंसक आंदोलन की रीढ़ को तोड़ने की कोशिश की. भला हो सोशल मीडिया का जिसने प्रधानमंत्री और देश केे गृहमंत्री सहित कई महान हस्तियों के साथ उस झंडावीर की तस्वीरें जारी कर दी, जो किसान आंदोलन के चेहरे को बदलने के लिए कान फुंकवा कर आया होगा. अगर प्रशासनिक व्यवस्था में पूरी तौर पर साहस, निरपेक्षता, न्यायप्रियता और वस्तुपरकता हो तो लाल किले की झंडा घटना को लेकर किसानों के खिलाफ मुकदमा बनाने पर झंडावीर की सारी तस्वीरों में दिख रहे सियासत के मानववीरों को गवाह की सूची में दर्ज भी करना होगा. ऐसा लेकिन कभी नहीं होगा.

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(1 फरवरी को अपडेट) जो सरकार अर्णव गोस्वामी को प्रधानमंत्री कार्यालय सहित अन्य सरकारी फाइलों तक पहुंचने से नहीं रोक पाने की असमर्थता के कारण मौन व्रत में है. वही राष्ट्रऋषि तो दो माह से ज्यादा महान किसान आंदोलन चलते रहने पर भी किसानों से खुट्टी किए बैठे रहे. उसके विपरीत उद्योगपतियों, क्रिकेट खिलाड़ियों, फिल्मी तारिकाओं और न जाने किनसे किनसे दु:ख-सुख में मिलने या हलो हॉय करने की मानवीय स्थितियों की मुद्रा के प्रचारक हुए. भारतीय किसान आंदोलन का चरित्र पूरी तौर पर अहिंसक रहा है. यह दुनिया के किसी भी जनआंदोलन के मुकाबिल इतिहास की पोथियों में दर्ज किया जाएगा. रूस, वियताम, क्यूबा, मांटगोमरी और सैकड़ों जगहों पर जनआंदोलन हुए हैं. उन सबसे तुलना की जाए. नेताविहीन यह सामूहिक किसान आंदेलन भारत की ओर से विश्व इतिहास का श्रेय बनेगा. हो ची मिन्ह, लेनिन, मार्टिन लूथर किंग, फिदेल कास्त्रो और गांधी जैसा उनका कोई नेता नहीं रहा है.

दुनिया के पके हुए आंदोलनों से साहस, सीख और प्रेरणा लेकर भारत के किसानों ने इतिहास पर एक नई फसल बोई है. वह अमिट स्याही से लिखी है. वह पानी पर पत्थर की लकीर की तरह लिखी है. वह पीढ़ियों की यादों की आंखों में फड़कती रहेगी. उसे बदनाम करने की हर कोशिश में एक मनुष्य इकाई को दो किलो या मुफ्त में चावल मिल जाने वाले लोगों के वोट को निजाम की ताबेदारी करने का चुनावी आचरण बनाया जाता है. लोग इतिहास पढ़ने से डरते हैं. जिनके पूर्वजों ने इतिहास की उजली इबारतों पर काली स्याही फेर दी है, जो गोडसे के मंदिर में पूजास्तवन करते हैं. उनमें दिमागी वायरस होता है. वह पसीना बहाने वाले किसानों के अहिंसा आंदोलन को कॉरपोरेटियों की तिजोरियों, पुलिस की लाठियों, और मंत्रियों की लफ्फाजी में ढूंढ़ना चाहता है.

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शेर के शिकार का बचा हुआ हाड़ मांस गीदड़ों द्वारा लजीज भोज्य पदार्थ समझकर जूठन को चाटने की जनकथाएं बहुत सुनी गई हैं. मीडिया का बहुलांश भी क्या ऐसा ही नहीं है वह कॉरपोरेटी और सरकारी जूठन को छप्पन भोग समझता है. उसके पैरों के नीचे से उसके ही अस्तित्व की धरती खिसक गई है. उसका जमीर बिक गया है. उसकी कलम झूठी तस्वीरें खींचने के हुक्मनामे ढोते कैमरे और जीहुजूरी में तब्दील हो गई है. उसे पांच और सात सितारा होटलों में अय्याशी की आदत हो गई है. वह भारत के इतिहास का नया गुलाम वंश है. उसकी संततियां को आगे चलकर कभी अपने पूर्वजों के कलंकित इतिहास के कारण आईने के सामने खड़े होने में शर्म आएगी. उनमें से किसी को एकाध लाठी पड़ गई. एकाध का कैमरा टूट गया तो ये कारपोरेटी खिदमतगार महाभारत के युद्ध का संजय बनकर पूरी खीझ के साथ चिल्लाकर दिखा रहे हैं कि देखो किसानों ने हमको कैसे मारा है. ये वही मुंहबोले हैं जो डेढ़ सौ किसानों की मौत पर दरबारियों की तरह चुप थे. मानो उनकी जबान पर फालिज गिर गई थी. वे मुहावरे के नयनसुख बने रहे थे. मानो चलने की कोशिश करते तो उनके मालिकों ने उनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी होती.

जो जाबांज किसानों की मौत पर एक अक्षर नहीं लिख सकता वह अपने पृष्ठभाग पर किसी किसान द्वारा उत्तेजना के बावजूद सावधानीपूर्वक मध्यम शक्ति की लाठी पड़ने पर ऐसे चिल्ला पड़ा मानो महाभारत के प्रसंग में चीरहरण होने पर आर्तनाद हो रहा हो. इन्हीं दिनों एक बड़ी वाचाल भक्तमंडली का राष्ट्रीय जीवन में आविर्भाव हुआ है. उसे टेस्टट्यूब बेबी भी कहा जा सकता है. उसे इस बात से कोफ्त है कि किसान अमीर क्यों हैं ! उनके पास टै्रक्टर क्यों है ! वे छह महीने की लड़ाई की घोषणा करके पूरी तैयारी के साथ कैसे आ गए ! उनके घरों की महिलाएं, बच्चे, बूढ़े सभी उनके साथ क्यों हैं ! वे सभी तरह की तकनीकी जानकारियों और तकनीकी व्यवस्था से लैस क्यों हैं !

इन महान बुद्धिशत्रुओं को समझ नहीं है कि किसान तो वे भी हैं जो हर संकट झेलते लाखों की संख्या में लगातार आत्महत्या करने मजबूर रहे हैं, जिन्हें स्वामीनाथन रपट को मानने के आश्वासन के बावजूद सरकारों द्वारा फसल की कीमत देने को लेकर धोखा दिया जा रहा है. जिन्हें लफ्फाज राजनीतिक नेताओं द्वारा नियंत्रित सरकारी बैंकों में अपनी जमीन, महिलाओं के जेवर और पिता की बुढ़़ापे की पेंशन तक गिरवी रखनी पड़ रही है और छुड़ा पाने में असमर्थ हैं. बेटी का ब्याह नहीं कर पा रहे हैं. मां, बाप की दवा नहीं ला पा रहे हैं. अपनी पत्नी की अस्मत और अस्मिता को बुरी नजरों से बचाने मुनासिब वस्त्र तक नहीं खरीद पा रहे हैं. बच्चे हालात की मजबूरी के कारण पढ़ाई छोड़कर या तो मां बाप के खेतों पर काम कर रहे हैं या उन्हें बहला फुसलाकर शोहदे बनाकर लफंगों द्वारा ऐसे अपराध करवाए जा रहे हैं, जिनकी पीड़ितों में भारत की निर्भया जैसी बेटियां भी शामिल हैं. लफ्फाज़ नेता उनसे केवल वोट कबाड़ते हैं.

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आर्थिक और नैतिक अधोपतन के कारण वे एक बोतल शराब या कुछ रुपयों में अपना जमीर पांच साल के लिए इन्हीं नेताओं की बेईमानी में बंधक बना देते हैं. ये वही नेता हैं जो रेत की नीलामी में प्रति टन की दर से दलाली खा रहे हैं. देश का कोयला, लोहा, खनिज और धरती बेचकर एक ही मुंह से अडानी, अंबानी, जयश्रीराम, जयहिन्द, मेरा भारत महान और इंकलाब जिंदाबाद कर लेते हैं. शराबखोरी के कैंसर फैलाकर अपनी रातें रंगीन करते दलालों को नगरपिता बना रहे हैं. उनके दोमुंहे सांपों के आचरण को किसान समझता है क्योंकि सांप धरती पर ही तो रेंगते होते हैं. किसान धरती पुत्र ही तो हैं.

अजीब लोकतंत्र है ! यहां किसानों के बेटे पुलिस की नौकरी में हैं. उनका जमीर लाठी की अनुशासनसंहिता से संचालित है. सगे भाई की लाठी सगे किसान भाई की पीठ पर मारी जा रही है. पीठ पर लाठी मारने वाले भाई को किसान भाई का पेट नहीं दिखाया जाता. लोकतंत्र के लिए मुख्यतः नेहरू और अंबेडकर द्वारा लाया गया पुख्ता संविधान नहीं होता तो आज कोई निजाम टर्राता कि पुलिस और सेना के दम पर हर किसान आंदोलन को लाठियों और गोलियों से नेस्तनाबूद कर देगा. जिन इलाकों के किसान आगे बढ़कर आंदोलन कर रहे हैं, उनके ही बेटे सबसे ज्यादा संख्या में सेना के नौजवान और शहीद हैं.

इतिहास यह भी लिख ले कि इतिहास में मुसलमानों की संख्या आबादी के अनुपात में ज़्यादा है. मुल्क में औसत मनुष्य को तमाशबीन बनाकर सितम ढाया जा रहा है. कई बार अनधिकृत वसूली कर लेने के बाद भी किसानों की तकलीफों और मौतों से जानबूझकर बेखबर बनते राम मंदिर बनाने के नाम पर जबरिया चंदा उगाही की जा रही है. उस आचरण से तो भारतीय दंड संहिता की धारा 384 का आरोप भी बन सकता है. धरती के इतिहास में कभी नहीं हुआ कि लोकख्याति के आधार पर हुए चुनाव का सबसे बड़ा जनप्रतिनिधि अवाम से बात नहीं करने की कॉरपोरेटी गलबहियों की जुगाली करता रहे.

कहते हैं जहांगीर के दरबार में नामालूम बैल द्वारा घंटा बजा दिए जाने पर भी उसे न्याय मिला था. पिछड़े वर्ग के व्यक्ति ने अपने घर में अपनी बीवी के आचरण को कोसते हुए राजरानी सीता पर कटाक्ष कर दिया गया था, इस बात पर राम ने अपनी गर्भवती पत्नी तक का त्याग कर दिया था. उसी राम का मंदिर बनाने की चंदाखोरी में मशगूल लोग राम के चित्र को महानायक बना दिए गए प्रधानमंत्री की विराट देह की उंगली पकड़कर बच्चा बनकर जाते हुए देखने पर भी जयश्रीराम का नारा महान विपर्यय के रूप में लगाते रहते हैं.

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(4 फरवरी को अपडेट) नहीं गए थे किसान भारत की सुप्रीम कोर्ट में कि न्याय करो. किसानों के बेटे मूर्ख नहीं है. आलिम फाज़िल भी हैं. कइयों के पास अर्थशास्त्र, इंजीनियरिंग, डाॅक्टरी और मानव विज्ञानों की डिग्रियां हैं. वे नोटबंदी, जीएसटी, नागरिकता अधिनियम, कश्मीर, कोरोना पीड़ितों वगैरह के कई मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट का न्याय देख चुके हैं. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस द्वारा पचास हजार रुपए की हार्ले डेविडसन मोटरबाइक पर बैठ कर फोटो खिंचाने पर कटाक्ष करने वाले जनहित याचिकाकारों के पैरोकार वकील प्रशांत भूषण पर अवमानना का मुकदमा देख चुके हैैं. सुप्रीम कोर्ट के कुछ जज ऐसे मनोरंजक सुभाशित और सूक्तियों का प्रवचन करते रहते हैं कि उन्हें आने वाला न्यायिक इतिहास पढ़ पढ़कर सिर धुनते हुए पुलकित होना चाहेगा.

कई जज जरूर हैं जिनकी कलम और वाणी से सूझबूझ, निष्कपटता, साहस और न्यायप्रियता से मुनासिब आदेश झरते हैं. कई हाई कोर्ट में भी ऐसे जज हैं. नहीं होते तो न्याय महल भरभरा कर गिर भी जाता. इसलिए गांधी ने अंगरेजी गर्भ की अदालतों पर भरोसा नहीं किया था. उन्होंने संसद और प्रधानमंत्री पर भी तीक्ष्ण कटाक्ष किए थे. कहा था संसद एक वेश्या है, नर्तकी है. प्रधानमंत्री के इशारे पर नाचती है. गांधी का यह वाक्य कोई संसद अपनी दीवारों पर नहीं लिखवा सकती. वह तो जनता की आत्मा में पत्थर की लकीर की तरह लिख गया है, इसलिए जनता के सबसे बड़े हिस्से किसानों की आत्मा में.

किसान ही वह लोहारखाना हैं जहां मनुष्य की नैतिकता के उत्थान के लिए कालजयी हथियार बनते हैं. ये हथियार शोषक नहीं, रक्षक होते हैं. भारतीय किसानों का छिटपुट हिंसक हो चुकी घटनाओं के कारण अपमान करना और उनके किसान होने की अहमियत को मिटाने का कोई कुचक्र बनाए तो कुदरत के कानून पीठ नहीं दिखा सकते.

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कहां है देश की संसद ? कहां हैं विधानसभाएं ? केवल भाजपा नहीं कांग्रेस में भी वही सियासी आचरण है. कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को भाजपाई प्रधानमंत्री की शैली की नकल करने में अच्छा लगता है. एक एक राज्य का भाग्य एक एक खूंटे से बांध दिया गया है. उस खूंटे को मुख्यमंत्री कहते हैं. जनता तो गाय, बैल, भेड़, बकरी वगैरह का रेवड़ है. उनके संगठित पशु समाज को नहीं है उन्हें राजनीतिक दलाली के विश्वविद्यालय में दाखिला मिलता है. परिपक्व अक्ल और पूरी ईमानदारी के साथ गैरभाजपाई राज्यों में किसान आंदोलन को उसकी भवितव्यता के रास्ते पर चलाया जा सकता था. गैर भाजपाइयों ने भी बेईमानी की है.

केन्द्र सरकार कहती रही चित मैं जीती, पट तू हारी. राज्य सरकारें कहती रहीं बार-बार टाॅस करो. हम भी जनता से कहेंगे चित मैं जीती, पट तू हारी. भारतीय किसानों के असाधारण आंदोलन को गांधी का नाम जपने वाले सभी लोगों ने भी धोखा दिया है. देश को गांधी की अहिंसा के दार्शनिक, बहुआयामी और समकालीन पाठों के महत्व से कभी रूबरू नहीं कराया गया. अब कांग्रेस की सरकारों में भी किराए के वक्तव्यवीर बुलाकर मुस्कराते हुए भी तीस जनवरी का शहीद दिवस मना लिया जाता है. अब छाती कूटने का क्या मतलब है कि किसानों को गांधी के अहिंसक रास्ते पर चलना चाहिए ?

1942 के आंदोलन की सायास और सहसा हिंसा देखकर गांधी ने माना था कि वे पूरी तौर पर अहिंसा को रोक नहीं सके. हालांकि यह भी कहा कि दुनिया के विश्व आंदोलनों में सबसे बड़ी संख्या और परिमाण में भारत ने ही अहिंसा पर अमल किया है. यही तो किसान बंधु आज कर रहे हैं. कोई समझे, दो माह तक शतप्रतिशत अहिंसक आंदोलन कोई इसलिए करेगा कि वह गणतंत्र दिवस की परेड में शरीक होकर देश के राजपथ पर मार्च करने पर नैतिक दृष्टि से मजबूर या उदात्त आचरण करे, तब भी तो सत्ताशीन ताकतें जन आंदोलनों में दलालों, एजेंन्टों, अपराधियों का प्रवेश कराने का मुहूर्त किसी पुरोहित, पंडित या गंडाताबीज बांधने वाले से निकलवा लेती हैं. कांग्रेसी केन्द्र सरकार जाहिर कारणों से गांधी की हत्या करने वाले को पहले से पहचान या रोक, पकड़ नहीं सकी थी.

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(7 फरवरी को अपडेट) अब तो विपरीत मानसिकता की सरकार व्यापक, नेेताविहीन आंदोलन की भीड़ में (संभवत पुलिसिया मदद से) भी किसी अजूबे झंडावीर को घुसेड़कर मीडिया से अपनी महानता की दुन्दुभी बजाने का मौका कैसे छोड़ती ! मीडिया ढिंढोरची भी दो माह से मौन व्रत में थे. महान नेता की शैली अब वाचालता सप्तम स्वर में भैरवी का राग अलापेगी. यह अलग बात है कि दुनिया सिमट गई है. दुनिया के आधे मुल्कों ने दो माह से ज्यादा घटनाओं पर नज़र रखी है. पहली बार हुआ कि गणतंत्र दिवस की परेड में कोई विदेशी राजनयिक आने को तैयार नहीं मिला. कोरोना का तो बहाना है. भारत में कोरोना के लाए जाने के बाद भी ट्रंप सहित कई विदेशी राजनयिक आए हैं. आगे भी आएंगे.

महंगाई के सूचकांक के अनुपात और मुकाबिले में चंदाखोरी और निजाम का प्रशस्तिगायन बढता रहेगा. हर देश में अंधकार का युग आता है. भारत में मिथकों के काल से बार-बार आता रहा है, तभी तो दशावतार की परिकल्पना की गई. हर सत्ता सम्राट को हमारे महान विचारकों ने ही राक्षस कहा है. जिनकी छाती से जनसेवा के लिए देवत्व फूटा, वही समाज उद्धारक बना. यह भारतीय किसानों की छाती है जिससे भविष्य का जनसमर्थक इतिहास कभी न कभी फूटने वाला है.

मिथकों के युग के बाद भी पस्त भारतीय जनता ने विदेशी हमले झेले हैं. कुशाण, हूण, पठान, तुर्क, मुसलमान, मुगल, अंगरेज, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच और बाद में चीनी हमले देश ने झेले हैं. सल्तनतों की गुलामी की है. तब जाकर गांधी की अहिंसा और सत्य, अभय, भगतसिंह और चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत और सुभाष बोस के पराक्रम तथा भारत के तमाम संतों और बुद्धिजीवियों द्वारा उठो जागो और मकसद हासिल करो, स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है,जय जवान जय किसान, दिल्ली चलो, इंकलाब जिंदाबाद, तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा, आजादी की घास गुलामी के घी से बेहतर, किसानों, मजदूरों, विद्यार्थियों एक हो, आराम हराम है जैसे नारों ने भारत की मर्दानगी का इतिहास लिखा.

ये सभी नारे जिन जिस्मों और आत्माओं से फूटे और उनके खून में जो रवानी थी, उसके लिए अनाज किसानों ने अपने खून पसीने से धरती सींचकर पैदा किया था. किसान आंदोलन दीवाली या अन्य किसी त्यौहार पर फूटने वाला पटाखा या फुलझड़ी नहीं रहा है. यह भारतीय आत्मा की निरंतरता और प्रवाहमयता का पड़ाव रहा है. यह अनथक काल यात्रा तो चलती रहेगी, जब तक किसान जीवित हैं. उनमें जिजीविषा, जिद और जिरह है.

मौजूदा किसान आन्दोलन न तो पहली धडकन है और न ही अंतिम. इसमें हार जीत नहीं है. सरकारों, प्रतिहिंसकों, पुलिस सेना, अंधभक्तों, दलालों, काॅरपोरेटियों और हर तरह की अहंकारी शक्तियों के जमावडे़े को जनता की आवाज का यह एक प्रतिनिधि ऐलान है. इस आवाज को कुचल दिये जाने के बाद भी इसका फिर आगाज इतिहास में आगे चलकर दर्ज होता रहेगा. नौजवान छात्रों, महिलाओं, दलितों, वंचितों और किसानों द्वारा आज़ादी का नारा लगाते आंदोलन करना देश की धड़कन को जिलाए रखने का एक प्रोत्साहन है.

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दोहरे आचरण में जिलाया जा रहा भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे अभिशप्त उदाहरण बनाया जा रहा है.

गांधी की अहिंसा पर बार-बार लौटते कुछ बुनियादी बातों को समझना होगा. गांधी ने कभी नहीं कहा कि अहिंसा उनका अकेला हथियार है. उन्होंने अपनी किताब का नाम अहिंसा के साथ मेरे प्रयोग नहीं लिखा. उसे सत्य के साथ मेरे प्रयोग कहा था. कभी नहीं कहा कि कायरता और अहिंसा जुड़वा बहनें हैं. कहा था सत्य और अहिंसा में अगर छोड़ना पड़े तो सत्य को नहीं छोडूंगा, अहिंसा को छोड़ दूंगा. कहा था अहिंसा कायरों का हथियार नहीं है. वह आत्मा के बहादुरों का हथियार है. कहा था मैं अंगरेजी सरकार की जनता विरोधी उन रपटों पर भरोसा नहीं करता जो कहती हैं कि जनता ने हिंसात्मक कारगुजारी की है. कहा था गांधी ने कि जनता खुद जांचेगी कि जनता ने या उसके बीच घुसे हुए सत्ता के एजेंटों ने कितनी और कौन सी हिंसा की है. कहा था कि अगर हर मजबूरी के चलते अहिंसा साथ नहीं दे रही है, तो जनता के हक में जनकल्याणकारी फैसलों के लिए हिंसा का आनुपातिक, यथार्थपरक और वांछितता के साथ सहारा लिया जा सकता है.

इसी विचार को भारतीय प्राचीन मनीशा में धर्म के साथ आपद् धर्म कहा गया है. यही विचार है जिसे लेकर विवेकानन्द ने अंग्रेज़ी सल्तनत के खिलाफ बगावत करने के लिए क्रांतिकारी टुकड़ी का गठन किया था और अमेरिकी शस्त्र निर्माता हेराम मैक्सिम से हथियारों की खरीदी की सहायता की मांग की थी. यही वह शोला है जो भगतसिंह और चंद्रशेखर आज़ाद में दहका था. भगतसिंह ने कहा था मैं हिंसक नहीं हूं. मैं जनता में अहिंसा लेकिन साहसी इंकलाब का बीज बोना चाहता हूं. यह इतिहास को दु:ख है कि भगतसिंह की बौद्धिक तीक्ष्णता गांधी संयोगवश पढ़ नहीं पाए.

यही वह अग्नि है जो लाखों नाामालूम किसानों और करोड़ों देशवासियों में कहीं न कहीं सुलग तो रही है, भले ही उस पर सफेद राख उसके बुझ जाने का छद्म रच रही हो. जो लोग पंचमांगी, सांप्रदायिक, पूंजीपरस्त, देश के दुश्मन और गरीब के रक्तशोषक हैं, वे नहीं जानते पंजाब की पांचों नदियों में केवल हिमालय का ठंडा पानी नहीं गुरुनानक से लेकर भगतसिंह, ऊधमसिंह, करतार सिंह सराभा और बाद की पीढ़ी का भी गरमागरम लहू बहता रहा है.

यह देश गुलामों, पस्तहिम्मतों, बुद्धि-शत्रुओं, नादानों, बहके हुए लोगों और आवारा बनाई जा रही पीढ़ियों का मोहताज नहीं है. बहादुर तो कम ही होते हैं. बुद्धिजीवी भी कम होते हैं. विचारक तो और कम होते हैं. सच्चे साधु संत और भी कम लेकिन वे ही तो मनुष्यता के विकास के अणु और परमाणु होते हैं.

भारत अभी मरा नहीं है. कभी नहीं मरेगा. अमर है. भारत की सदियों में महान संतों और ऋषिमुनियों ने अपनी कुर्बानियों के जरिए मजबूत कालजयी संदेश दिया है. यह अलग बात है कि सत्तामूलक मानसिक बीमारों द्वारा प्रिंट, इलेक्ट्रॅानिक और सोशल मीडिया पर चीन के युवान शहर की तरह की उपजी कोई दूसरी वैचारिक महामारी कोविड 19 की जगह कोविड 21 की तरह काॅरपोरेट और निजाम की ताकत के बल पर फैलाई जा रही है. माहौल और इतिहास को प्रदूषित किया जा रहा है. अतीत को पढ़ने की नज़र पर भी रंगीन चश्मा चढ़ाया जा रहा है. लोग बहक रहे हैं. डरपोक हो गए लोग सरकारों से डरते हैं.

ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह भारत में यूरो अमेरिकी गुलामी का वेस्ट इंडिया बनाने की सरकारी कोशिश है इसलिए भारतीय नामों के बदले हमें ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्मार्ट इंडिया’, ‘स्मार्ट सिटी’, ‘बुलेट ट्रेन’, ‘स्टार्ट अप’, ‘अर्बन नक्सल’, ‘टुकड़े टुकड़ै गैंग’ जैसे विस्फोटक ककहरे पढ़ाए जा रहे हैं. कोरोना से लड़ने की अपनी दुर्बुद्धि और नाकामी छिपाने के लिए लोगों से तालियां, थालियां बजवाई जा रही हैं. दिए, मोमबत्ती और टाॅर्च जलवाए जा रहे हैं. आसमान से हवाई जहाजों पर बैठकर उन पर भी फूल बरसाए जा रहे हैं जिनके परिवार हुक्मरानों के अत्याचार के कारण तरह तरह से पीड़ित हैं.

विज्ञान के दम पर संवैधानिक यात्रा करने वाले देश को बताया जा रहा है कि बादलों में राडार छिप जाते हैं और तब उस पर सर्जिकल स्ट्राइक करने से पडोसी देश को पता तक नहीं चलता. जनता को सच नहीं बताया जाता. नक्शे जारी नहीं होते. गुलाम मीडिया का कैमरा नहीं पहुंचता कि चीन हमारे देश में घुसकर धरती नाप रहा है. गांव बसा चुका है. जनता को बताया जाता है कि चीनी वस्तुओं का इस्तेमाल नहीं करें, लेकिन खुद सरकार इसके बावजूद चीन से करार करती जा रही है. सरकार के काॅरपोरेटी नयनतारे काॅरपेारेटी चीन के साथ समझौते में हैं। पाकिस्तान के साथ भी हैं जबकि हर देशभक्त भारतीय पर पाकिस्तानी होने का ठप्पा लगा दिया जाता है. दोहरे आचरण में जिलाया जा रहा भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे अभिशप्त उदाहरण बनाया जा रहा है.

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