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कश्मीर से 370 हटाने और अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास के साथ गोलवलकर के सपनों का भारत अब साकार लेने लगा है ?

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कश्मीर से 370 हटाने और अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास के साथ गोलवलकर के सपनों का भारत अब साकार लेने लगा है ?

गोलवलकर ऐसे पहले व्यक्ति नहीं थे जिन्होंने हिंदू राष्ट्र या हिंदुत्व की पैरवी की हो लेकिन उनके विचारों में कई ऐसी बातें ज़रूर थी जिनसे हिंदुत्व की एक नयी परिभाषा गढ़ी गयी, जिसका असर अब साफ-साफ दिखाई दे रहा है.

आज़ादी के बाद जब देश दो भगों में बंट चुका था, भारत अपना वर्तमान स्वरूप ले रहा था, शरणार्थियों को बसाया जा रहा था, अलग-अलग रियासतों का विलय हो रहा था और देश का नया संविधान बनाने के लिये संविधान सभा में बहस चल रहा था, तो नेहरू, पटेल और अंबेडकर कंधे-से-कंधा मिलाकर इस कार्य में लगे हुए थे. धारा 370 के माध्यम से कश्मीर का भारत में विलय हो चुका था. गांधी के बाद देश के तीन बड़े नेता नेहरू, पटेल और अंबेडकर सरकार के बड़े स्तंभ थे लेकिन 1950 के अंत में ही जब सरदार पटेल का निधन हो गया और उसके बाद किसी कारणवश हिंदू कोड बिल के सवाल पर अंबेडकर सरकार से इस्तिफा दे दिये थे, तब नेहरू की बराबरी का कोई भी नेता न तो सरकार में रह गया था और न ही कांग्रेस पार्टी में. नेहरू का क़द बाक़ी नेताओं से इतना बड़ा था कि कोई भी उनके फ़ैसलों या विचारों को चुनौती देने की स्थिति में नहीं था. ऐसे में सरकार से बाहर ज़रूर नेहरू के कई आलोचक थे और इन्हीं में से एक थे माधव सदाशिव गोलवलकर, जिन्होंने संविधान और राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का जमकर विरोध किया था और कहा था कि आज भले ही कांग्रेस ने हिंदू राज का विरोध करके यह संविधान और तिरंगा देश पर थोप दिया है लेकिन एक दिन जरूर देश इसे नकार देगा. संघ ने कभी भी तिरंगे को अपने नागपुर कार्यालय में फहराया ही नहीं, कभी भी इसे दिल से स्वीकार भी नही किया.

फ़रवरी 1906 में जन्में गोलवलकर ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से जीव विज्ञान में पोस्ट ग्रैजूएशन किया था और फिर नागपुर से वकालत की पढ़ाई पूरी की थी. विज्ञान की पढ़ाई के साथ ही गोलवलकर को हिंदू ग्रंथों का भी अच्छा ज्ञान था और कई भाषाओं पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी जैसे कि संस्कृत, बंगाली, मराठी, हिंदी और इंग्लिश. गोलवलकर का बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में रिसर्च असिस्टेंट के पद पर काम कर रहे थे, उसी दौरान संघ प्रमुख हेडगवार पं. मदन मोहन मालवीय के यहां अतिथि बनकर आये थे, शायद 1929 या 1931 का बर्ष था, हेडगवार ने हिंदू राष्ट्र की सेवा के लिये पं. मदन मोहन मालवीय से किसी नौजवान लड़के की बात की, तब मालवीय जो खुद हिंदू महासभा के प्रेसिडेंट रह चुके थे, ने गोलवलकर को हेडगवार को सौंप दिया और साथ ही का.हि.वि.वि. में संघ की आफिस खोलने के लिये बिल्डिंग भी दिया, जिसे संघ भवन कहते थे. आपातकाल में श्रीमती गांधी के निर्देश पर इसे नेस्तनाबूद कर दिया गया. आरएसएस एक उग्र हिंदुवादी संगठन था, जिसमें एक ऐसे ‘हिंदू राष्ट्र’ के लिए समर्पित युवाओं को शामिल किया जाता था, जिसकी सोच थी, ‘राष्ट्र हिंदुओं का, हिंदुओ के द्वारा, हिंदुओं के लिए’ चलाया जाये.

गोलवलकर की ऊर्जा और बुद्धिमत्ता से हेडगेवार इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने आरएसएस की कमान गोलवलकर को सौंप दी. 1940 में जब हेडगेवार की मृत्यु हुई तो गोलवलकर ही आरएसएस के सरसंघचालक बने जबकि हेडगवार के सहयोगी उनके इस चुनाव से हतप्रभ थे. गोलवलकर को बाल गंगाधर तिलक के यह विचार भी काफ़ी भाते थे कि राष्ट्रीय एकता के लिए सांस्कृतिक एकता ज़रूरी है. लेकिन गोलवलकर इस मायने में बाक़ियों से अलग हो जाते थे कि वे अपने देश और हिंदू संस्कृति के मोहब्बत की बात करने के साथ ही मुस्लिम, ईसाइयों के प्रति नफ़रत की बात भी उतनी ही मज़बूती से करते थे.

‘अनेकता में एकता’ जैसे सिद्धांतों पर गोलवलकर का विश्वास नहीं था. उनका ज़ोर हमेशा उन कथित दुश्मनों को चिह्नित करने पर होता जिन्हें वो ‘भीतरी दुश्मन’ कहते थे. हिंदू राष्ट्र के निर्माण में गोलवलकर को मुख्यतः तीन ख़तरे नज़र आते थे : मुस्लिम, ईसाई और वामपंथी. गोलवलकर इन तीनों को ‘राक्षस’ कहते थे और उनका मानना था कि हिंदू इन तीनों का ही नाश करके मातृभूमि की सेवा करेंगे. शायद यह बात किसी को पता हो या नहो कि गोलवलकर कभी अखबार नहीं पढ़ते थे. अपनी ही सोच को अंतिम सत्य मानते थे. दुनियां मे क्या हो रहा है क्या नहीं, इन सब बातो से परे वह भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिये रात-दिन लगे रहते थे, वे चाहते थे कि वे जो कहे, सभी उनकी बात माने , प्रश्न करना मना था.

महात्मा गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर को गिरफ़्तार कर लिया गया था और आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया. ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि नाथूराम गोडसे एक समय में आरएसएस से जुड़ा रहा था और गांधी की हत्या से पहले ख़ुद गोलवलकर ने उनके और कांग्रेस के ख़िलाफ़ कई भड़काऊ भाषण दिये थे. जुलाई 1949 में गोलवलकर की रिहाई के साथ ही आरएसएस का प्रतिबंध इस शर्त के साथ हटा लिया गया कि यह संगठन कभी हिंसा का सहारा नहीं लेगा और उस संविधान के गणतांत्रिक सिद्धांतों का अनुपालन करेगा जो संविधान तब लिखा जा रहा था. गोलवलकर का राजनीति में कोई लगाव नहीं था लेकिन बहुत लोगों के दबाव में वे जनसंघ की स्थापना को राजी हुये.

1952 में जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिंदुओं को वरीयता देने वाले ‘जनसंघ’ की शुरुआत की तो आरएसएस ने इसके साथ काम करना शुरू कर दिया और स्वयंसेवक जन संघ को मज़बूत करने में जुट गये जबकि आरएसएस विशुद्ध रूप से सिर्फ़ एक सांस्कृतिक संगठन होने का दावा करता था. जनसंघ ने आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी का रूप ले लिया और आरएसएस से उसका जुड़ाव आज भी वैसा ही बना हुआ है, बल्कि हाथी के जो दांत दिखाने के लिये थे, वे ही अब पूरी तरह खाने के लिये हो गये हैं. मोहन भागवत खुलकर संविधान के खिलाफ नंगा नाच कर रहे हैं. आज़ादी के तुरंत बाद जब जगह-जगह सांप्रदायिक दंगे भड़के, ध्रुवीकरण बढ़ा और कश्मीर में पाकिस्तान ने हमला कर दिया तो इस दौरान आरएसएस ने तेज़ी से अपनी पकड़ मज़बूत की.

गोलवलकर के नेतृत्व में आरएसएस ने ‘भीतरी दुश्मनों’ को चिह्नित करने की बातें शुरू की और ध्रुवीकरण के उस दौर में इन बातों को लोगों ने हाथो-हाथ स्वीकार भी किया. गोलवलकर के आने से आरएसएस उसी दिशा में बढ़ा जिस दिशा में कभी हिटलर के नेतृत्व में नाज़ी बढ़ रहे थे. नाज़ियों की तर्ज़ पे ही आरएसएस मातृभूमि से प्रेम और ‘सांस्कृतिक तौर पर अशुद्ध’ (जर्मनी में यहूदी और भारत में मुस्लिम) लोगों से नफ़रत की बातें करता था. गोलवलकर ये लगातार दोहराते थे कि ‘सिर्फ़ हिंदू ही इस राष्ट्र से सच्चा प्रेम कर सकते हैं और इसके दुश्मनों को पहचाना जाना बेहद ज़रूरी है.’ उनके इन दुश्मनों में मुसलमान सबसे पहले आते थे.

गोलवलकर के विचारों को ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ नाम की एक किताब में प्रकाशित किया गया है. इसी किताब में एक लेख है जिसका शीर्षक है ‘हिंदू राष्ट्र और इसके दुश्मन.’ इस लेख में गोलवलकर कहते हैं, ‘जब हम कहते हैं कि ये एक हिंदू राष्ट्र है तो कई लोग तुरंत ये सवाल करने लगते हैं कि ‘इस देश में रह रहे मुसलमानों और ईसाई का क्या ? क्या वे इसी देश में पैदा नहीं हुए, क्या वे यहीं पले-बढ़े नहीं हैं ? क्या सिर्फ़ अपना मजहब बदल देने के कारण वे विदेशी या बाहरी हो गये ?’ लेकिन सबसे अहम मुद्दा तो ये है कि क्या उन लोगों (मुसलमान और ईसाई) को याद भी है कि वे इसी मिट्टी की संतानें हैं ? सिर्फ़ हमारे याद रखने से क्या होता है ? इस मिट्टी से जुड़ाव का भाव उनमें होना चाहिए, इसकी क़द्र उन्हें होनी चाहिए. हमारे सामने तो आज ये सवाल है कि उन लोगों का आज रवैया कैसा है जो इस्लाम या ईसाई धर्म अपना चुके हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि वे लोग यहीं पैदा हुए. लेकिन क्या आज वो इस देश की मिट्टी के लिए वफ़ादार हैं ? क्या वो इस धरती के शुक्रगुज़ार हैं जिसने उन्हें पाला-पोसा ? क्या वो महसूस करते हैं कि इस धरती की सेवा करना उनका कर्तव्य है ? नहीं. धर्म और आस्था बदलने के साथ ही उनका इस धरती के प्रति प्यार और समर्पण भी ख़त्म हो चुका है.’

इसी लेख में गोलवलकर आगे कहते हैं, ‘इतना ही नहीं. ये लोग दुश्मनों की सरज़मीं से ख़ुद को जोड़ कर देखते हैं, विदेशी भूमि को अपना पवित्र और पूजनीय स्थल मानते हैं. ख़ुद को शेख़ और सैयद कहते हैं. शेख़ और सैयद तो अरबों के वंशज हैं. ये लोग ख़ुद को अरबों का वंशज इसीलिए मानते हैं क्योंकि इस धरती से जुड़े होने का भाव इनमें नहीं है. ये ख़ुद को आक्रांताओं से जोड़कर देखते हैं और आज भी ये लोग मानते हैं कि इनका उद्देश्य इस धरती पर क़ब्ज़ा करके अपना साम्राज्य स्थापित करना है.’

‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ में ही एक अन्य लेख है जिसमें गोलवलकर मुसलमानों को असल ख़तरा बताते हुए कहते हैं, ‘आज भी कई लोग ऐसे हैं जो कहते हैं कि मुसलमानों से इस देश को कोई ख़तरा नहीं है क्योंकि जो दंगाई मुसलमान पाकिस्तान की मांग करते थे वो हमेशा के लिए वहां जा चुके हैं और बाक़ी के मुसलमान इस धरती के प्रति समर्पित हैं. लेकिन मैं पूछता हूं कि जो मुसलमान यहीं रह गये वो आज़ादी के बाद बदल गये क्या ? क्या उनकी हत्यारी प्रवृत्ति जिसके चलते 1946-47 में कई दंगे, लूट, हत्याएं बलात्कार हुए वह अब थम गयी है ? ये मानना आत्मघाती होगा कि पाकिस्तान बनने के साथ ही यहां बचे मुसलमान रातों-रात देशभक्त बन गये हैं जबकि हक़ीक़त ये है पाकिस्तान के निर्माण के साथ ही मुसलमानों से ख़तरा सौ गुना बढ़ गया है.

इस लेख में गोलवलकर आगे कहते हैं कि मुसलमानों की आक्रामक रणनीति हमेशा द्विस्तरीय रही है. एक सीधे हमले की जिसे जिन्ना ने ‘डाइरेक्ट ऐक्शन’ कहा था और जिसके चलते उन्हें एक ही झटके में पाकिस्तान मिल गया. हमारी ही मातृभूमि से एक मुस्लिम राष्ट्र अलग काट लिया गया. इनकी दूसरी रणनीति अपनी जनसंख्या बढ़ाने की है. कश्मीर के बाद इनका निशाना असम, त्रिपुरा और बंगाल है. पूरे देश में जहां भी इनकी मस्जिद या मोहल्ले हैं, ये उसे अपनी अलग रियासत मानते हैं.’

गोलवलकर के पहले भी हिंदू दक्षिणपंथी विचारों की पैरवी करने वाले सावरकर और मदन मोहन मालवीय जैसे नेता रहे थे लेकिन गोलवलकर के विचार इनसे कहीं ज़्यादा उग्र थे और उनका प्रभाव भी ज़बरदस्त रहा. जिन तीन दशकों में गोलवलकर ने आरएसएस की कमान थामें रखी, उस दौरान इस संगठन ने भारतीय समाज में अपनी जड़ें सबसे ज़्यादा मज़बूत की. ता-उम्र ब्रह्मचारी रहने वाले और हिंदू धर्मगुरु की छवि स्थापित कर गोलवलकर ने हिंदू धर्म की बात करने के साथ ही अन्य धर्मों को देश का दुश्मन बताया.

गोलवलकर की मृत्यु 1973 में हुई, लेकिन हिंदू धर्म की व्याख्या के जो बीज उन्होंने 1950 और 60 के दशक में आरएसएस के माध्यम से बोए, उसकी फ़सल आगे के दशकों में ख़ूब जमकर लहलहायी. अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी देश के प्रधानमंत्री और उप प्रधानमंत्री बने जो उन्हें अपना गुरु मानते थे. मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लंबे समय तक आरएसएस से जुड़े रहे हैं और वैचारिक तौर उन्हें आडवाणी या वाजपेयी की तुलना में गोलवलकर के ज़्यादा क़रीब माना जाता है. उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद हिंदुत्व का विमर्श भी बेहद तेज़ी से बढ़ा है. अंदर के दुश्मनों को बाहर करने की कवायद भी शुरू कर दी गयी है, और इसका विरोध करने वालों को ‘पाकिस्तान चले जाओ’ की नसीहतें देने का चलन भी शुरू हो गया है. इसके साथ ही योगी आदित्यनाथ और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर जैसे नेताओं का भारतीय राजनीति में मज़बूत हस्तक्षेप, अल्पसंख्यकों पर हमले, धर्म का राजनीति में ज़बरदस्त प्रभाव और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जिस तेज़ी से बीते पांच सालों में बढ़ा है, वह यही इशारा देता है कि गोलवलकर ने जिस भारत का सपना देखा था, वह अब आकार लेने लगा है.

यहां तक आने के लिये संघ, जनसंघ/भाजपा को कई नैतिक, अनैतिक गलियों से गुजरना पड़ा है. जिन वामपंथियों को ये गाली देते हैं, देश समाज, हिंदुओं का दुश्मन बताते नहीं थकते हैं, उनके भी चरणों में लोटकर समर्थन लेकर 1967 में कांग्रेस के खिलाफ सरकार बनाये हैं. जो लोहिया कहते थे कि वामपंथी जनसंघ के घूरे पर पलने वाले गंदे कीड़े हैं, उन्हीं लोहिया को ये संसद में भेजे, बदले में लोहिया ने गांधी के हत्यारों को जो गांधी हत्या के बाद अछूत थे, को राजनिति के मुख्य धारा में स्थापित किये. जो पटेल आरएसएस को गांधी हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगाकर गोलवलकर को जेल में डाल दिया, वही पटेल आज संघ के आदर्श बने हुये हैं. संघ की एक नीति है कि काम पड़े तो किसी को भी अपना बाप बना लो और जब काम निकल जाय तो पिछवाडे़ पर लात मारकर भगा दो. अडवानी से ज्यादा हिंदु-हिंदु का प्याज कौन खाया था, सींधी होकर हिंदुस्तान के हिंदुओं का मसीहा बनने का ख्वाब देख रहे थे, क्या हुआ ? मोदी का भी उससे भी बुरा हाल होगा.

मालवीय जो 4 बार कांग्रेस के प्रेसिडेंट रहे, सावरकर, गोलवलकर, हेडगवार को भारत रत्न नही दिये, मालवीय को दिये. क्यूं कभी सोचा है आपने ? उत्तर भारत के ब्राह्मणों को संदेश दिये कि कांग्रेस ने तुम्हारा सम्मान नही किया, मैं कर रहा हूं और भारत देश में तथाकथित महामना का का.हि.वि.वि आज देश का सबसे बड़ा फासिज्म की केंद्र बनकर रह गया है.

ऐसा इसलिए भी है क्योंकि भारतीय राजनीति अब जिस दिशा में बढ़ रही है, उसे रोकने-टोकने वाला आज कोई नहीं है. विपक्ष पूरी तरह से ग़ायब है और विकल्पहीनता की स्थिति भारतीय जनमानस के दिल-दिमाग़ में घर कर चुकी है. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का शोर इतना तेज़ है कि उसने विरोध की सभी आवाज़ों को दबा दिया है. अब सिर्फ़ एक हिंदू-हृदय सम्राट है और बाक़ी सारा देश या तो उस सम्राट के पीछे खड़ा है या गैर-ज़रूरी क़रार दे दिया गया है.

नरेंद्र मोदी इस संघी विनाशलीला के मूल कारण (विचारधारा) को साकार करने वाले सिर्फ एक मोहरे की तरह हैं, जिनकी भूमिका नीति निर्धारकों की इच्छानुसार उनके लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक की है और जिनकी नियति काम निकलने के बाद दूध की मक्खी जैसा हो जाना तय है. पर्दे के पीछे से मोदी को एक कठपुतली की तरह नचाने वाले संघ ने अपनी सुदीर्घ रणनीति के अनुसार एक ओर अनुच्छेद—370 व धारा 35ए हटाकर जम्मू-कश्मीर का विभाजन कराने के बाद सुप्रीम कोर्ट से आदेश हासिल कर राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण की प्रक्रिया शुरू करा दी है तो दूसरी तरफ इलैक्टोरल बॉन्ड्स तथा पीएम केअर फंड के माध्यम से अपने लिए अकूत दौलत इकट्ठा करने का इंतजाम कर लिया है.
इसके अलावा गोलवलकर के ब्ल्यूप्रिंट के अनुसार भारत की आर्थिक रूप से कमर तोड़ी जा चुकी है, जिसे अगले 50 साल तक सीधा करना असंभव नहीं तो अत्यंत कठिन जरूर होगा.

आगे गोलवलकर की योजना को पूरा करने में जो दो कमियां शेष रह गई हैं, वे हैं—संविधान समाप्त कर एकदलीय शासन प्रणाली लागू करना और मुसलमानों, ईसाइयों, बौद्धों, जैनियों, सिक्खों, दलितों व आदिवासियों का पूरी तरह हिंदूकरण या उच्छेदन. इनमें से संघी राष्ट्रसेवा का पहला ‘शुभकार्य’ मोदी जी के करकमलों से सम्पन्न कराने के बाद उनको भी बलराज मधोक, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, प्रवीण तोगड़िया आदि की पंगत में बैठा देने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है.

संवैधानिक मूल्यों को ‘बहुमत के फ़ैसले’ के आगे गौण कर दिया गया है और गांधी के हत्यारों की पूजा करने वालों को बहुमत से क्लीन चिट मिल रही है. ये बहुमत गोलवलकर के विचारों पर मुहर भी लगा रहा है और देश को उसी राह पर बढ़ने की हिम्मत भी दे रहा है. हालांकि दुनिया भर में इस राह की सफलता का एक भी उदाहरण नहीं है, जबकि इसके उलट ऐसे कई उदाहरण हैं जहां लोग इस घातक राह के परिणाम आज भी भोग रहे हैं. भारत हिटलर के जर्मनी बनने की राह पर तेजी से दौड़ रहा है. कब हिंदू राष्ट्र की घोषणा लाल किले से हो जायेगी, कहा नहीं जा सकता.

  • डरबन सिंह

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