पूरी नौकरशाही, सीबीआई, ईडी आदि तो सरकार के पालतू कुत्ते हैं ही. अब ज़रा आला अदालत की भी सुनिए. आला अदालत के आला मुंसिफ़ान ने कश्मीर पर दायर तमाम याचिकाओं की जल्दी सुनवाई से इनकार करते हुए कहा कि ‘जल्दी क्या है, सरकार पर भरोसा कीजिए !’
उधर प्रेस कौंसिल ऑफ़ इण्डिया ने ‘कश्मीर टाइम्स’ की कार्यकारी सम्पादक अनुराधा भसीन की याचिका की मुखालफ़त करने के लिए अपने वकील अंशुमान शुक्ला के ज़रिए ख़ुद ही अर्जी दाखिल की है और कश्मीर में प्रेस पर पाबंदियों को सही ठहराते हुए कहा है कि ‘ये पाबंदियांं सुरक्षा कारणों से लगाई गयी हैं.’
खैर, प्रेस कौंसिल की छोड़िये ! सारा मीडिया झुकने के लिए कहने पर रेंगने का काम पहले ही शुरू कर चुकी थी. अब पी.सी.आई. ने भी घोषित कर दिया कि ‘वह प्रेस की आज़ादी का पहरुआ नहीं बल्कि सरकारी स्वेच्छाचारिता का भोंपा है. ‘राम नाम सत्त है !’
लेकिन आदरणीय न्यायमूर्तिगण ! आपलोग तो एकदम मूर्तिवत हो गए हैं. आपका काम सरकार में भरोसा रखने की अपील करना कब से हो गया ? फिर अगर कश्मीर पर सरकारी फैसला किसी को असंवैधानिक लग रहा है तो वह न्याय का घंटा बजाने किस दर पर जाएगा ?
सच यह है कि बुर्जुआ जनवाद ही घंटा हो गया है. संविधान-प्रदत्त संवैधानिक उपचार निरर्थक हो चुके हैं. फासिज्म दस्तक नहीं दे रहा है, वह आ चुका है और सड़कों पर अपना खूनी नंगा नाच करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. न्याय का बुर्जुआ तंत्र गाल बजाएगा, बाजे की तरह. संसद में बैठे विपक्षी दल पालतू बनकर सत्तारूढ़ फासिस्टों के बताये गेम के रूल्स के हिसाब से पक्ष-विपक्ष का खेल खेलते रहेंगे.
कश्मीर में भारतीय सेना द्वारा कश्मीरी नागरिकों के घरों पर किया जा रहा पथराव (फिलहाल इस विडियो के सत्यता की पुष्टि नहीं हो पाई है- pd)
उधर कश्मीर की सच्चाइयांं विदेशी मीडिया से और कुछ साहसी रिपोर्टर्स के जरिये सोशल मीडिया से छन-छनकर लगातार बाहर आ रही हैं. पूरी घाटी में व्यापक जन-प्रतिरोध जारी है. कर्फ्यू के तमाम मुश्किलात और सेना-अर्द्ध सैनिक बलों के चेक-पॉइंट्स के बावजूद पेलेट गन्स से घायल बड़े और बच्चे लगातार अस्पताल पहुंंच रहे हैं. संसदीय राजनीति करने वाले सभी दलों के नेता नज़रबंद हैं या गिरफ्तार हैं. गिरफ्तार लोगों को अब पूरे देश के दूसरे जेलों में भेजा जा रहा है. घाटी में मोबाइल और इन्टरनेट तो बंद हैं ही, लैंडलाइन खुलने की सरकारी घोषणा भी पूरी तरह झूठ निकली है.
क्या सत्ताधारियों को इस ज़बरदस्त जन-प्रतिरोध का कोई अनुमान नहीं था ? मेरा ख़याल है कि पूरा अनुमान था. दरअसल देश जिस सामाजिक-आर्थिक विस्फोट की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, उसमें संघी फासिस्टों को अंध-राष्ट्रवादी उन्माद के एक-दो डोज़ देने की नहीं बल्कि एक लंबा कोर्स चलाने की ज़रूरत महसूस हो रही थी. कश्मीर एक नासूर की तरह रिसता रहे तो इसमें भारत और पाकिस्तान – दोनों के शासक वर्गों को फ़ायदा है क्योंकि दोनों ही असमाधेय संकट के दलदल में गहरे धंसते जा रहे हैं.
अफगानिस्तान में अमेरिका-तालिबान समझौते के बाद उधर से खाली होकर पाकिस्तान भी कश्मीर पर ज्यादा ध्यान दे सकेगा. भारत के मौजूदा फासिस्ट शासकों की यह खूनी सोच एकदम स्पष्ट है कि घाटी की सत्तर लाख आबादी की अगर फिलिस्तीन की गाज़ा पट्टी की तरह दीर्घकालिक सैनिक नाकेबंदी भी करनी पड़े तो वे करेंगे ताकि शेष भारत की एक अरब तीस करोड़ आबादी के बहुलांश में धार्मिक कट्टरपंथी और अंध-राष्ट्रवादी जुनून पैदा करके अपने साम्राज्य को ‘पचासों साल के लिए’ टिकाऊ बनाया जा सके.
लेकिन सत्ताधारियों के इस कैलकुलेशन में एक भारी गड़बड़ी थी. वे यह समझ नहीं पाए कि कश्मीर घाटी को अगर वे गाज़ा बना भी दें तो पूरे भारत को इस्राएल नहीं बना सकते, जहांं की यहूदी आबादी का बहुलांश (विशेष ऐतिहासिक कारणों से) जायनवाद के नशे में पगलाई हुई है. भारत की उत्तर से लेकर दक्षिण तक की आबादी को उन्माद की ऐसी घुट्टी पिला पाना नामुमकिन है. आर्थिक संकट जिस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, उसमें एक ओर जहांं उन्मादी फासिस्ट गैंगों में भरती होने वालों की तादाद बढ़ेगी, वहीं आर्थिक बदहाली की शिकार आम मेहनतकश आबादी का बहुलांश फासिस्ट अंध-राष्ट्रवादी उन्माद के नशे से मुक्त होकर सत्ता-विरोधी संघर्षों में लामबंद होने लगेगा.
मोदी-शाह-डोभाल और ‘कड़ी निंदा’ सिंह आदि ने इस स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी कि धारा-370 हटाने की घोर निरंकुश, असंवैधानिक और विश्वासघाती कार्रवाई का कश्मीर के बाहर सड़कों पर और सोशल मीडिया में इतना विरोध होगा. इन मूढ़मतियों ने सोचा तक नहीं था कि इतने बड़े पैमाने पर अवकाश-प्राप्त नौकरशाह और सेनाधिकारी भी इस फैसले का विरोध करेंगे. इससे पता चलता है कि सेवारत नौकरशाहों और सेनाधिकारियों में भी विरोध के स्वर मौजूद हैं.
सरकारी फैसले को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं में हिंदल हैदर तैय्यबजी (जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्य सचिव), जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासी और कश्मीरी पंडित एयर वाइस मार्शल कपिल काक (सेवानिवृत्त), मेजर जनरल अशोक कुमार मेहता (सेवानिवृत्त), भारत सरकार के इंटर स्टेट्स काउंसिल में सचिव रह चुके अमिताभ पांडे, गोपाल कृष्ण पिल्लई (पूर्व गृह सचिव) और जम्मू कश्मीर के मुद्दे पर भारत सरकार की ओर से (2010-11 में) वार्ताकार रह चुकी प्रो. राधा कुमार शामिल हैं.
जनवरी में आईएएस से इस्तीफा देते हुए कश्मीरी मूल के आई.ए.एस.अधिकारी शाह फैसल ने कहा था कि केंद्र सरकार कश्मीर में 10 हज़ार लोगों के नरसंहार के जिम्मेदार है. कल केरल के आईएएस अधिकारी गोपीनाथ कन्नन ने भी इस्तीफा दे दिया. इस्तीफे का कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि ‘जब कोई पूछेगा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने एक पूरे राज्य पर बैन लगा दिया, लोगों के मौलिक अधिकार भी छीन लिए, तब आप क्या कर रहे थे ? मैं कह सकूंंगा कि मैंने विरोध में नौकरी से इस्तीफा दिया था.’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘मुझे नहीं लगता मेरे इस्तीफ़ा देने से फ़र्क़ पड़ेगा. पर सवाल उठेगा कि जब देश इतने कठिन वक़्त से गुज़र रहा था, तब आप क्या कर रहे थे ? मैं ये नहीं कहना चाहता कि मैंने छुट्टी ली और पढ़ने अमेरिका चला गया. बेहतर है कि मैं नौकरी छोड़ दूंं.’ उन्होंने कहा कि ‘मैंने सिविल सर्विस इसलिए जॉइन की थी कि मैं खामोश किये जा चुके लोगों की आवाज़ बन सकूंं. पर यहांं तो मैंने खुद अपनी आवाज़ खो दी.’
जाहिर है कि सरकार के इस फैसले से व्यवस्था का संकट इतना गहरा हो गया है कि राज्य-तंत्र की अट्टालिका में ढेरों दरारें दीखने लगी हैं और ढेरों अंतर्विरोध सतह पर आ गए हैं.
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि धारा 370 हटाने से लद्दाख और जम्मू में भी नौकरी, व्यापार आदि को लेकर आम लोगों में भय और असुरक्षा का माहौल बन गया है. बड़ी तादाद में जम्मू के आम नागरिक और कश्मीरी पंडित भी इस फैसले का विरोध कर रहे हैं.
– कविता कृष्णापल्लवी
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