Home युद्ध विज्ञान कश्मीर समस्या और समाधन : समस्या की ऐतिहासिकता, आत्मनिर्णय का अधिकार और भारतीय राज्य सत्ता का दमन

कश्मीर समस्या और समाधन : समस्या की ऐतिहासिकता, आत्मनिर्णय का अधिकार और भारतीय राज्य सत्ता का दमन

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कश्मीर में कश्मीरी राष्ट्रीयता की आजादी के सवाल पर कश्मीरी जनता के द्वारा चलाये जा रहे सशस्त्र संघर्ष और गैर सशस्त्र आंदोलन को उसकी ऐतिहासिकता में समझना जरूरी है. इसके वगैर हम किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते. एक छात्र संगठन के द्वारा हमें भेजे गये इस आंदोलन पर एक गंभीर अध्ययन अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं.

कश्मीर समस्या और समाधन : समस्या की ऐतिहासिकता, आत्मनिर्णय का अधिकार और भारतीय राज्य सत्ता का दमन

कश्मीर घाटी को भारत का स्विट्ज़रलैण्ड कहा जाता है. कश्मीर उत्तर में चीन, पश्चिम में पाकिस्तान और दक्षिण में भारत के दो राज्यों हिमाचल प्रदेश और पंजाब की सीमाओं से जुड़ा हुआ है. अनेक झीलों, नदियों और दर्रों को यह भू-भाग अपने आगोश में समेटे हुए है. अपनी अद्वितीय सुंदरता के कारण ही कश्मीर घाटी दुनिया भर के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है. इस समय कश्मीर का भू-भाग तीन देशों भारत, पाकिस्तान और चीन के नियंत्रण में है. कश्मीर में मुसलमानों का ही बहुलांश है परन्तु अन्य धर्मों जैसे हिन्दू व सिख भी वहां मौजदू हैं. इसके बावजदू भी कश्मीर में शेष भारत की तरह साप्रंदायिक झगडे़ नहीं होते हैं. यहां कश्मीरी भाषा के साथ-साथ अनेक बोलियां भी बोली जाती हैं.

कश्मीर में जारी संघर्ष को समझने के लिए यह आवश्यक है कि कश्मीर की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की स्पष्ट और सही जानकारी हो. हमें कश्मीर में जारी संघर्ष को जनवादी मांगों के रूप में ही देखना चाहिए. इस संघर्ष को पूरे उपमहाद्वीप में मौजूद राष्ट्रीयता की समस्या और राष्ट्रीयता के लिए चलने वाले आंदोलनों के अंग के तौर पर ही देखना चाहिए. हालांकि कश्मीर के संघर्ष को, भारत-पाक शासकों द्वारा एक दूसरे के यहां किये जानेवाले गैर-सैनिक हस्तक्षेपों, साम्राज्यवाद की भूूमिका, हिन्दू-मुस्लिम कट्टरपंथियों की भूूमिका और दोनों ओर के शासकों के सैनिक हस्तक्षेपों ने बहुत ज्यादा जटिल बना दिया है.

कश्मीर राज्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि राजतरंगिणी (कल्हण) तथा नीलमत पुराण के अनुसार, कश्मीर घाटी पहले बहुत बड़ी झील थी. भू-गर्भशास्त्रियों के अनुसार, भू-गर्भीय परिवर्तनों के कारण खदियानयार, बारामूला में पहाड़ों के घर्षण से झील का पानी बहकर निकल गया, परिणामस्वरूप घाटी का निर्माण हो गया. ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट अशोक द्वारा कश्मीर में बौद्ध धर्म का प्रचार किया गया. छठी शताब्दी के आरम्भ में कश्मीर पर हूणों का अधिकार था, इसके बाद वहां पर कार्कोट, उत्पल और लोहार वंशीय राजाओं ने शासन किया. हिन्दू राजा ललितादित्य ने अन्तिम बौद्ध शासकों को पराजित कर दिया, तब से कश्मीर का इतिहास सामाजिक अशान्ति, दुर्गति और जन-हत्याओं में बदल गया. कश्मीर के इतिहास की यह अवस्था लगभग 1339 में उस समय समाप्त हुई, जब यह स्थानीय मुस्लिम शासकों के अधीन आ गया. परंतु 1586 में अकबर द्वारा इस भू-भाग को अपने राज्य में शामिल कर लेने के साथ ही स्थानीय शासन समाप्त हो गया. अगले वर्षों में तातारों, चेकों, मुगलों और पठानों ने कश्मीर पर शासन किया.

18वीं सदी की शुरूआत में सिख शासकों का पंजाब में उभार हुआ. इस उभार के बाद 1819 में राजा रणजीत सिंह ने कश्मीर के पठान शासकों को पराजित कर दिया और कश्मीर को अपने प्रभुत्व में ले लिया. इसके बाद 1947 तक इस पर डोगरा शासकों ने शासन किया. अंग्रेज हुकूमत और डोगरा शासकों के बीच 1846 में एक संधि हुई, जिसे अमृतसर संधि के नाम से जाना जाता है. अंग्रेजों ने अपने पिट्ठू शासकों के माध्यम से कश्मीर पर अपना प्रभाव बनाये रखा. कश्मीरी जनता डोगरा शासकों के अधीन अधम निर्धनता में जीने को अभिशप्त रही.

कश्मीरी एक राष्ट्रीयता है

कश्मीर विचारों और संस्कृतियों के घुलने-मिलने का पात्र रहा है. यहां हर आस्था को अपनाया गया, परन्तु पुरानी उपलब्धियों को त्यागा नहीं गया. बौद्ध के पंथ, वेदान्त की शिक्षाओं और इस्लाम के रहस्यवाद इन सबने एक के बाद एक कश्मीर में अपनी जगह बनायी.

सांस्कृतिक एकरूपता और भौगोलिक सघनता के कारण प्राचीन काल से ही कश्मीर घाटी में आने वाले लोगों ने अपनी-अपनी पहचान को एक वृहत्तर पहचान में विलय कर दिया. कश्मीरी विद्वान और इतिहासकार मोहम्मद दीन फौक के अनुसार जो लोग अरब, ईरान, अफगानिस्तान, तुर्किस्तान से छः या सात सौ वर्ष पहले आये, कश्मीरी मुसलमानों की संस्कृति, सभ्यता और वैवाहिक सम्बन्धों में ऐसे घुल-मिल गये कि उनकी जीवन शैली से सभी गैर-कश्मीरी पहचानें गायब हो गयी. सच तो यह है कि कश्मीरी भू-भाग का इतिहास पांच हजार वर्ष पुराना है, वैदिक युग तथा आर्यों से पहले का.

इसके इतिहास को पहले ही उद्धृत किया जा चुका है. इस लम्बे समय तक रहने वाली भौगोलिक सीमा के कारण ही नहीं वरन् भाषा के मामले में भी कश्मीरी भाषा का विकास अलग से हुआ है. भाषा एक अन्य आधार है, जो कश्मीरी व्यक्तित्व को अलग करती है. भारतीय भाषाओं पर अग्रणी प्राधिकार रखने वाले जार्ज ग्रियर्सन का मानना है कि ‘कश्मीरी भाषा का जन्म या विकास संस्कृत भाषा से नहीं हुआ है बल्कि इसकी उत्पत्ति दारदिक से है.’ इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में कहा गया है कि ‘कश्मीरी भाषा न तो ईरानी है और न ही इंडो-आर्यन.’

ब्रिटिश शासकों के आगमन से पहले हिन्दुस्तान में सामंती उत्पादन प्रणाली की वजह से बाजार का विकास नहीं हुआ था. कुछ आवश्यक वस्तुओं को छोड़कर शेष सभी का उत्पादन ग्रामीण स्वयं किया करते थे. अंग्रेजों ने भूमि बंदोबस्त के माध्यम से एक नयी उत्पादन प्रणाली ‘अर्द्ध-सामंती उत्पादन प्रणाली’ लागू की. इस नयी प्रणाली ने जिस हद तक पुरानी उत्पादन प्रणाली को प्रतिस्थापित किया था, उस हद तक ग्रामीण जीवन की बाजार पर निर्भरता बढ़ी थी. ब्रिटिशकालीन भारत में पूंजीवाद का विकास चाहें जितना अवरोधों का शिकार रहा हो, फिर भी इससे अनेक कौमों को उनकी अपनी पहचान से परिचित होने में मदद मिली.

आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों ही भागों में पूंजीवादी विकास की प्रक्रिया में तेजी आयी. पूंजीवादी विकास के परिणामस्वरूप सभी मंडी से जुड़ने को बाध्य हुए. कश्मीर भी इसका अपवाद नहीं रहा. भारत और पाक दोनों द्वारा अधिकृत कश्मीर में नकदी फसलों का भारी पैमाने पर उत्पादन शुरू हुआ. भारत अधिकृत कश्मीर में पर्यटन का विकास भी किया गया है. सम्पूर्ण कश्मीर में शॉल और कालीन उद्योग का काफी विकास हुआ है. यहां हस्तकला उद्योग काफी विकसित है. कहने का आशय यह है कि पूंजीवादी विकास होते जाने के परिणामस्वरूप कश्मीर में एक एकीकृत बाजार व्यवस्था का भी विकास हुआ. एकीकृत बाजार व्यवस्था सभी कश्मीरियों को एक-दूसरे पर निर्भर बनाती है, और उनको एक बंधन में बांधती है. इसका यह कहीं से भी अर्थ नहीं है कि कश्मीरी बाजार व्यवस्था अखिल भारतीय बाजार व्यवस्था से विच्छिन्न है. यहां केवल कश्मीरी बाजार व्यवस्था को रेखांकित किया गया है. पूंजीपति वर्ग इसी बाजार पर अपना एकाधिकार बनाये रखने के वास्ते अलग राष्ट्र की मांग उठाता है.

इस प्रकार उपर्युक्त चीजें मिलकर कश्मीरी राष्ट्रीयता का निर्माण करती हैं. यही वह भावना है, जो कश्मीरियों को एकता के सूत्र में तमाम मजहबों के बावजूद बांध कर रखती है. इसे ही कश्मीरी अपनी कश्मीरियत कहते हैं. इसी भावना के कारण ही आम कश्मीरी भारत या पाकिस्तान में रहने के बजाय स्वतंत्र कश्मीर चाहते हैं. यहीं यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कश्मीरी, अकबर द्वारा कश्मीर को अपने शासन में मिला लिये जाने के बाद से ही अपनी गुलामी की शुरूआत मानते रहे हैं. उनके लिए चाहें शासक मुस्लिम रहे हों या ईसाई और हिन्दू उनके लिए वे सभी विदेशी थे, इसलिए कश्मीर के इतिहास में सांप्रदायिक नजरिये का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं रहा है बल्कि उनके लिए कश्मीरी और गैर-कश्मीरी का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण रहा है. उनके लिए गैर-कश्मीरी मुसलमान हो या हिन्दू, वे दोनों ही उनके लिए समान रूप से पराये हैं, इसलिए कश्मीरी और कश्मीरियत को साम्प्रदायिक नजरिये से देखना ही अयुक्तिसगंत है.

आजादी पूर्व कश्मीर में सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष

प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद से ही ब्रिटिश सरकार की नीति सामंती तत्वों से मैत्री रखने की रही. जमीन्दार वर्ग ब्रिटिश साम्राज्यवाद का सामाजिक आधार था. तत्कालीन समाज में यह वर्ग सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी वर्ग था. इस वर्ग को ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा सबसे ज्यादा सहूलियतें प्रदान की जाती थी और सामंती निरंकुशता को बनाये रखने और बढ़ाने में इस जमीन्दार वर्ग को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से हर प्रकार का सहयोग मिलता था. ये रजवाड़े सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक रूप से अधिकाशंतः पिछड़े ही रहे. ये छोटे-छोटे निरंकुश तंत्र ही बने रहे, इन पर उन सीमित कानूनों एवं नागरिक अधिकारों को कोई प्रभाव नहीं पड़ा था, जिन्हें तमाम सुधारवादियों के संघर्षों, बुद्धिजीवियों व राष्ट्रीय आंदोलन के दबाव के कारण ब्रिटिश हुकूमत को लागू करना पड़ा था. (वैसे तो सामंती उत्पादन प्रणाली के खिलाफ किसानों के विद्रोह 19वीं सदी में ही शुरू हो गये थे. फिर भी रजवाड़ों की जनता के व्यापक आंदोलनों की शुरूआत 1930 के दशक में ही हुई). देश में सामंतवाद-साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का इन रजवाड़ों की जनता पर भी असर पड़ा था. रजवाड़ों की जनता के ये संघर्ष सामंती निरंकुशता, उत्पीड़न, बेगार प्रथा व मालगुजारी आदि के खिलाफ होते थे. कई बार तो रजवाड़ों की जनता के आंदोलन साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष के साथ-साथ ही उठ खडे़ होते थे. कश्मीर रियासत के विशेष संदर्भों में भी यही बात सच है. कश्मीरी रियासत की जनता का आंदोलन पूरे देश में चलने वाले सामंतवाद-साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष से अभिन्न रूप से जुड़ा रहा है और इन संघर्षों से अभिप्रेरित भी होता रहा है.

कश्मीर रियासत में यद्यपि मुस्लिम बहुसंख्यक थे, जो मूलतः किसान थे, परंतु राजा हिन्दू डोगरा शासक थे. अच्छे ओहदे गिने-चुने हिन्दू समुदाय के पंडितों के पास थे. मुसलमान बहुत गरीब थे. उनका मध्यवर्ग भी हिन्दुओं के बरक्स पक्षपात का शिकार था. मुसलमानों का इस पक्षपात के विरूद्ध प्रदर्शन पिछली शताब्दी के शुरू में ही विभिन्न रूढ़िवादी संघर्षों (अंजुमनों) द्वारा किया गया, जो कि अपने नजरिये से धार्मिक दृष्टिकोण के थे.

1931 से यहां मुसलमान स्नातकों के एक समूह ने आंदोलन की शुरूआत की, जिनमें शेख अब्दुल्ला भी सम्मिलित थे. 1931 में राजनीतिक सुधारों की मांग को लेकर पूरे राज्य की मस्जिदों में होने वाली बैठकों के रूप में आंदोलन ने संगठित संवेग प्राप्त किया. इस आंदोलन की चरम परिणति श्रीनगर जेल पर जनता के आक्रमण में हुई. इस आंदोलन की मुख्य मांगें थी कि बेगार प्रथा बंद की जाये, टैक्स कम किये जाएं, पुराने कर्जों और बकाया देने का भुगतान बंद रखा जाये, राष्ट्रीय और धार्मिक उत्पीड़न बंद किया जाये. जनता के संघर्षों के उपरांत लोगों की शिकायतों की जांच के लिए राज्य की ओर से एक कमीशन गठित किया गया. इस कमीशन ने कुछ रियायतें – मुस्लिम शिक्षा को प्रोत्साहन, सरकारी कब्जे वाली मुसलमान धार्मिक इमारतों की वापसी, चराई शुल्क में आंशिक छूट और सरकारी कार्य के लिए पारिश्रमिक दिया जाना – प्रदान की. परन्तु, यह रियायतें भी बढ़ते हुए आंदोलन को न रोक सकी. कमीशन द्वारा उपर्युक्त मांगों की संस्तुति ने 1932 में ‘ऑल जम्मू एण्ड कश्मीर मुस्लिम काम्फ्रेंस’ की स्थापना के लिए मार्ग प्रशस्त किया. 1939 में मुस्लिम कांग्रेस में विभाजन हो गया और शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल काम्फ्रेंस का जन्म हुआ. यहां यह पुनः दृष्टव्य है कि कश्मीर रियासत में जनांदोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलन का काल एक ही है.

किसानों के मुस्लिम और राजाओं के हिन्दू होने के कारण कश्मीर का सामंतवाद विरोधी संघर्ष साप्रंदायिक रूप ग्रहण कर लेता था. इसके मद्देनजर शेख अब्दुल्ला ने सचेत तौर पर धर्मनिरपेक्ष कश्मीरी राष्ट्रीयता के दृष्टिकोण से इस संघर्ष का विकास किया था. शेख अब्दुल्ला का संघर्ष किसी धार्मिक समूह के खिलाफ नहीं (उस समय इस संघर्ष को सांप्रदायिक रूप देने का प्रयास किया गया था), वरन सामंतशाही के खिलाफ था. उन्होंने सचेत तौर पर नेशनल काम्फ्रेंस के नेतृत्व के पदों पर हिन्दुओं को भी रखा ताकि उनके संघर्ष पर साम्प्रदायिकता का लेबल न चस्पा किया जा सके. शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में किये जाने वाले प्रदर्शनों ने वाजिब लोकप्रियता हासिल की. उनके संघर्षोंं ने उन्हें कश्मीरी जनता के बीच कश्मीरी राष्ट्रीयता का नायक बना दिया.

नेशनल काम्फ्रेंस ने सितम्बर 1944 में ‘नया कश्मीर’ नाम से एक कार्यक्रम स्वीकार किया. कश्मीर की सरकार को राज्य के आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्गठन का एक विस्तृत ज्ञापन दिया गया. कार्यक्रम कहता है कि ‘कश्मीर की समस्या’ भारत और पूर्णरूप में संसार की समस्याओं के विस्तृत संकेन्द्रित घेरे में आवेष्ठित है. इस कार्यक्रम में जनतांत्रिक और नागरिक अधिकारों को स्वीकारा गया. ‘नया कश्मीर’ की योजना में प्रत्येक सदस्य के लिए एक ऐसे समाज की अवधारणा रखी गयी (निश्चय ही समाजवादी नहीं), जिसमें उसके विकास के समान अवसर मुहैय्या हो और जीवन का एक न्यूनतम नागरिक स्तर सुनिश्चित हो सके. जमींदारी उन्मलून, लोगों का जंगलों पर अधिकार, किसान चार्टर, मजदूर चार्टर, राष्ट्रीय स्वास्थ्य चार्टर और औरतों के लिए चार्टर भी सुनिश्चित किया गया.

1945 में नेशनल काम्फ्रेंस ने कश्मीर में निरंकुश शासन के विरूद्ध संघर्ष शुरू किया (1946 में अमृतसर-संधि के उन्मलून और कश्मीर के लोगों की सर्वोच्चता की पुनर्स्थापना की मांग की). नेशनल काम्फ्रेंस ने महाराजा ‘कश्मीर छोड़ो’ आन्दोलन की शुरूआत की. इसमें कश्मीर के सभी समुदायों के सदस्यों ने भागीदारी की. राजा ने इस आन्दोलन का क्रूरतापूर्वक दमन किया और अब्दुल्ला व उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया. नारा वापस न लेने के कारण शेख अब्दुल्ला को जेल में डाल दिया गया. इससे आन्दोलन और भी तेज हो गया, जो भारत विभाजन तक चलता रहा.

इस प्रकार नेशनल काम्फ्रेंस के नेतृत्व में चलाये जाने वाले इस आन्दोलन में जनतांत्रिक मांगों और जनतांत्रिक दायरे में एक नये कश्मीर को बनाने का ख्वाब मौजदू था. शायद इसलिए ही नेशनल काम्फ्रेंस, अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ज्यादा करीब थी और मुस्लिम लीग को नवाबों की पार्टी मानती थी. इस संघर्ष और अपने व्यापक दृष्टिकोण के कारण ही नेशनल काम्फ्रेंस कश्मीर में मुसलमानों के बहुतायत में होने के बावजदू एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण (धार्मिक नहीं) अपनाने में कामयाब रही.

राष्ट्रीयता का प्रश्न और भारतीय उपमहाद्वीप

सामतंवाद के खिलाफ़ पूरी दुनिया में पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में संघर्ष लड़ा गया. हालांकि विगत शताब्दी के कुछ एक संघर्षोंं का नेतृत्व उसने नहीं किया. सामंतवादी उत्पादन प्रणाली जैसे-जैसे कमजोर होती जाती है, वैसे-वैसे उसका स्थान पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली ग्रहण करती जाती है. पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के विकास के साथ ही उद्योग, व्यापार और उसके अनुरूप बाजार का विकास भी होता जाता है. बाजार के विकास ने सभी मंडियों को एक-दूसरे से जोड़कर एकीकृत बाजार व्यवस्था का निर्माण किया. परिवहन के विकास ने सभी नागरिकों को एक-दूसरे के अत्यंत करीब ला दिया. एक भाषा, एक संस्कृति और एक भौगोलिक सीमा में रहने वाले सभी नागरिक मिलकर एक राष्ट्रीयता का निर्माण करते हैं. पंजीपति वर्ग, जिसके लिए अपना माल बेचने के लिए बाजार की आवश्यकता होती है, हर कीमत पर इस बाजार पर अपना नियंत्रण बनाये रखना चाहता है. मुक्त बाजार व्यवस्था के जमाने से ही घरेलू बाजार उसके लिए अत्यंत फ़ायदे की चीज रहा है. पूंजीपति वर्ग अपने इस घरेलू बाजार को संरक्षित करने के लिए ही राष्ट्र-राज्य का प्रश्न उठाता है. इस प्रकार हम देखते हैं आधुनिक राष्ट्र-राज्यों का प्रश्न पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली और पूंजीवादी वर्ग के विकास के साथ ही सामने आता है. राष्ट्र-राज्य ऐतिहासिक विकास क्रम के एक खास मोड़ पर अस्तित्व में आता है. यूरोप के आधुनिक पूंजीवादी राष्ट्रों का निर्माण इसी आधार पर हुआ था. परन्तु इसके विपरीत तीसरी दुनिया में राष्ट्र निर्माण उसी तरह नहीं हुआ, जिस प्रकार यूरोप के देशों का हुआ था.

साम्राज्यवाद द्वारा उपनिवेश बनाये जाने से पहले या तो ये देश सामंती राज्य थे या अन्य पिछड़ी हुई अवस्थाओं में ये देश राष्ट्र थे ही नही. यदि साम्राज्यवाद द्वारा इन देशों को उपनिवेश नहीं बनाया गया होता तो निश्चय ही ये सामंती राज्य भी उसी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया से गुजरते जैसा कि यूरोप के सामंती राज्य गुजरे थे. इन देशों में होने वाला स्वाभाविक पूंजीवादी विकास इन्हें इसी दिशा में ले जाता. किन्तु साम्राज्यवाद के हस्तक्षेप ने इन सामंती राज्यों को दो प्रकार से प्रभावित किया. एक ओर इन देशों के स्वाभाविक पूंजीवादी विकास को बाधित करके इन देशों की राष्ट्र उत्पत्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बना, तो दूसरी ओर साम्राज्यवाद द्वारा उप-उत्पाद के तौर पर होने वाले पूंजीवादी विकास से ही राष्ट्र निर्माण की भौतिक प्रक्रिया शुरू भी हुई.

ये एक ही प्रक्रिया-उपनिवेशीकरण से पैदा होने वाले दो विरोधी परिणाम थे. चूंकि साम्राज्यवाद इन देशों के पूंजीवादी विकास को अवरूद्ध कर रहा था, वह उस वर्ग की उत्पत्ति और विकास को, जो राष्ट्र निर्माण के संघर्ष का झंडावरदार बनता है, को अवरूद्ध कर रहा था इसलिए यह स्वाभाविक था कि राष्ट्र निर्माण के लिए जो भी संघर्ष होना है, वह साम्राज्यवाद के खिलाफ़ केन्द्रित हो अर्थात् साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष सबसे पहले और प्रथमतः राष्ट्र निर्माण का संघर्ष है. इस संघर्ष की प्रक्रिया में और आजादी की प्राप्ति के बाद एक लम्बे समय में राष्ट्र का निर्माण होता है. (यहीं पर यह बता देना भी आवश्यक है कि उपनिवेशों में सामंतवाद साम्राज्यवाद का सामाजिक अवलम्ब था). राष्ट्र निर्माण का संघर्ष यदि एक ओर साम्राज्यवाद के विरूद्ध लक्षित होता है, तो उसका यह भी प्रधान कार्य बन जाता है कि वह सामंतवाद का भी खात्मा करे. सामंतवाद का खात्मा किये बिना, किसानों की मुक्ति हुये बिना, राष्ट्र निर्माण सम्भव नहीं है.

इन अर्थों में राष्ट्र निर्माण की समस्या वास्तव में किसान समस्या है. किसी भी औपनिवेशिक समाज में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के विरूद्ध संघर्ष जितना आगे बढ़ता है, उतना ही राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया आगे बढ़ती जाती है. इन पिछडे़ हुए देशों में से कुछ ने प्रत्यक्ष साम्राज्यवादी शोषण-उत्पीडऩ के खिलाफ़ उग्र संघर्ष किया तो कुछ ने समझौता-संघर्ष-समझौता का रास्ता अपनाया. (यहां हम मजदूर वर्ग के नेतृत्व में होने वाली जनवादी क्रांति को छोड़कर चल रहे हैं. जहां साम्राज्यवाद और सामंतवाद से मुकम्मिल संबंध-विच्छेद किया गया), किंतु इन देशों में जारी संघर्ष साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था की सीमाओं के भीतर ही था. वे साम्राज्यवाद और सामंतवाद के समूल नाश की ओर नहीं गये और एकाधिकारी पूंजीवाद के और अपनी वर्गीय सीमाओं के कारण वे ऐसा कर भी नहीं सकते थे. इन देशों ने उपरोक्त रास्तों से स्वतंत्रता तो अर्जित की किन्तु सीमित अर्थों में ही, साम्राज्यवाद के भीतर रहते हुए वे पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो ही नहीं सकते थे, यहीं पर पुनः दोहराना उचित होगा कि पिछड़े देशों के पूंजीपति वर्ग का साम्राज्यवाद के साथ जिस हद तक भी संघर्ष था, उसके पीछे की नियामक गति घरेलू बाजार पर नियंत्रण करना ही था.

इन देशों के पूंजीपति वर्ग ने जिस हद तक साम्राज्यवाद विरोधी-सामंतवाद विरोधी कार्यभारों को अंजाम दिया, उस हद तक राष्ट्र निर्माण का कार्य भी पेश हुआ. फिर भी, साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था के दायरे में रहते हुए इस राष्ट्र निर्माण की बहुत ज्यादा सीमायें हैं, इनमें से एक है, एक मुकम्मिल राष्ट्र का न बन पाना या देशों के भीतर राष्ट्रीयताओं की समस्या का बने रहना.

इन देशों में साम्राज्यवाद के प्रत्यक्ष शासन की समाप्ति और राष्ट्र निर्माण का कार्य एक हद पूरा हो जाने के बाद पूंजीपति वर्ग की ऐतिहासिक भूमिका समाप्त हो गयी है. वह प्रतिक्रियावादी बन जाता है. वह साम्राज्यवाद से एकाकार होने लगता है. ऐसे में राष्ट्रीय मुक्ति के बचे हुए कार्यभार को अब इन देशों का पूंजीपति वर्ग कभी पूरा नहीं करेगा और इसलिए इस कार्यभार को केवल मजदूर वर्ग ही पूरा कर सकता है.

जैसा कि कहा जा चुका है, राष्ट्र निर्माण के कार्यभार के एक हद तक पूरा हो जाने के बाद सत्ताशीन यह पूंजीपति वर्ग अब स्वयं प्रतिक्रियावादी वर्ग बन चुका है. विश्व पूंजीवाद के साथ एकागार होते जाने के साथ-साथ यह विश्व पूंजीवाद की पतनशीलता के साथ भी एकीकृत होता जा रहा है. जिस भजनता की प्रभुसत्ता की नैतिक जमीन पर खडे़ होकर यह उपनिवेशवाद का विरोध किया करता था, आज जनता की उसी प्रभुसत्ता का खून करते हुए वह अपने देशों के भीतर के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षोंं को दरिंदगी के साथ कुचल रहा है. आज ऐसे संघर्षोंं को साम्राज्यवाद से प्रत्यक्ष रूप से टकराना नहीं पड़ रहा है, आज उन्हें सीधे तौर पर अपने देशों के शासकों के साथ संघर्ष करना पड़ रहा है.

इसके साथ ही इन राष्ट्रीयताओं के संघर्ष की दिक्कत यह है कि अपनी चेतना न होने के चलते वे साम्राज्यवादी जोड़-तोड़ के शिकार हो जाते हैं और कई बार साम्राज्यवादियों के मुहरे बन जाते हैं. इस वस्तुगत तथ्य के कारण ही साम्राज्यवाद आज के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षोंं को दो किंतु एक दूसरे के विरोधी तरीकों से प्रभावित कर रहा है. एक ओर तीसरी दुनिया के देशों के भीतर चलने वाले राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षोंं को कुचलने में साम्राज्यवाद इन प्रतिक्रियावादी राज्यसत्ताओं की हर सम्भव मदद करता है तो दूसरी ओर तीसरी दुनिया के शासकों की बाहें मरोड़ने के लिए वह इन्हीं संघर्षोंं का इस्तेमाल भी करता है. अपनी इस प्रकृति के कारण ही साम्राज्यवाद इन संघर्षोंं का ऊपरी तौर पर समर्थक प्रतीत होता है. इतिहास की यह विडम्बना ही है कि दुनिया की सबसे क्रूर, अमानवीय और प्रतिक्रियावादी राज्य सत्तायें ही मुक्ति की समर्थक प्रतीत होती हैं. लेकिन साम्राज्यवाद द्वारा समर्थित ऐसा कोई संघर्ष यदि सफ़ल हो भी जाता है तो उसका केवल एक यही परिणाम निकलेगा कि वह छोटे और कमजोर शासक वर्ग की गिरफ्त से छुटकारा पाकर बडे़ और सबसे ज्यादा मजबूत प्रतिक्रियावादी शासकों के चंगुल में फ़ंस जायेगा.

इन संघर्षोंं के मार्ग में एक अन्य बाधा यह भी पैदा हो गयी है कि मजदूर राज्य सत्ताओं की समाप्ति और एक ध्रुवीय दुनिया के बन जाने से वैश्विक स्तर पर प्रतिक्रियावादी ताकतों को तात्कालिक तौर पर बढ़त हासिल हो गयी है. आज राष्ट्रीयता के इन संघर्षोंं को प्रत्यक्ष तौर पर और नैतिक तौर पर भी समर्थन करने वाली न तो कोई मजदूर राज्यसत्ता है और न ही कोई राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षोंं की कोई श्रखंला है. इसकी वजह से आज राष्ट्रीयता के यह संघर्ष सबसे ज्यादा कठिन दौर से होकर गुजर रहे हैं.

उपर्युक्त सभी बातों से यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि साम्राज्यवाद विरोध के बिना इन राष्ट्रीयता के संघर्षोंं का कोई खास भविष्य नहीं है. यह भी कि साम्राज्यवाद-विरोध रहित संघर्षोंं का एक तो मंजिल तक पहुंचना ही कठिन है और यदि पहुंच भी गये तो उनका साम्राज्यवाद के अप्रत्यक्ष नियंत्रण में जाना लगभग तय है. ऐसे में अब इस राष्ट्रीय उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने का कार्य केवल मजदूर वर्ग और उसकी क्रांति ही कर सकती है. ऐतिहासिक तौर पर राष्ट्रों के बनने, साम्राज्यवाद द्वारा इस प्रक्रिया को बाधित करना और इन संघर्षोंं में मौजूद कमजोरियों और जटिलता को जान लेने के उपरांत अब भारतीय उपमहाद्वीप के भीतर राष्ट्रीयताओं के प्रश्न को समझना आसान होगा.

(भारतीय उपमहाद्वीप में राष्ट्रीयता की समस्या पूरी तरह से सम्राज्यवाद की देन है. यदि एक ओर साम्राज्यवाद ने राष्ट्रीय निर्माण के स्वाभाविक विकास को बाधित किया तो दूसरी ओर उसने इन देशों के आजाद होने के समय राष्ट्रीयताओं का कोई ख्याल नहीं रखा.) अपने प्रतिक्रियावादी चरित्र के कारण ही उसने जनता को अपने भविष्य का निर्णय करने देने के बजाय भविष्य का फ़ैसला लेने का अधिकार शासकों को प्रदान किया. ब्रिटिश साम्राज्यवाद की इस नीति का फल यह हुआ कि अनेक कौमें जो आजाद होना चाहती थी, वे आजाद न हो सकी. उनके लिए स्वतंत्रता का मतलब मात्र इतना ही था कि वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्त होकर भारत या पाकिस्तानी राज्यसत्ताओं के अधीन चली जाये क्यांकि समझौते के प्रावधान में कहीं भी स्वतंत्र रहने का विकल्प ही नहीं था.

भारत और पाकिस्तान का जो विभाजन हुआ था, उसका आधार भी प्रगतिशील न होकर प्रतिक्रियावादी था. धार्मिक आधार पर विभाजन का चरित्र प्रतिक्रियावादी होने के कारण ही दोनों ही भूखण्डों में जल्दी ही राष्ट्रीयता के तीव्र आन्दोलन उठ खडे़ हुए. धार्मिक आधार पर विभाजन के कारण ही जिन देशों का निर्माण हुआ, वे कभी राष्ट्र बन ही नहीं सके. भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों में राष्ट्रीयताओं के आधार पर राष्ट्र-राज्य के गठन की मांगें आज तक बरकरार है. हालांकि पाकिस्तान के बनने के बाद उसका एक विभाजन बांग्लादेश के रूप में सम्पन्न भी हो चुका है.

भारत और पाकिस्तान का शासक वर्ग अपने जन्म से ही इस कदर प्रतिक्रियावादी था कि उसने न सिर्फ़ अनेक कौमों की इस जनवादी (आत्मनिर्णय के अधिकार) आकांक्षा का गला घोंटा वरन उन आकांक्षाओं का तीव्र दमन भी किया. अनेक राष्ट्रीयताओं का जोर-जबर्दस्ती के साथ विलय कर लिया गया. भारत और पाकिस्तान दोनों ही ओर के भू-भागों का विभाजन इस प्रकार हुआ है, जिसमें कि अनेक राष्ट्रीयताऐं विखंडित हो गयी, इसके सबसे प्रतीक उदाहरण पंजाबी और बांग्ला राष्ट्रीयता है. राष्ट्रीयताओं के आधार पर भारत और पाकिस्तान के गठन न होने के कारण ही ये दोनों राष्ट्र नहीं हैं वरन् अनेक राष्ट्रीयताओं वाले राज्य हैं. भारत का पूंजीपति वर्ग पूर्वोत्तर की राष्ट्रीयताओं समेत अनेक राष्ट्रीय आन्दोलनों के प्रति जो दृष्टिकोण अपनाता है, ठीक वैसा ही दृष्टिकोण पाकिस्तान का पूंजीपति वर्ग अपने देश के भीतर उठने वाले राष्ट्रीयताओं के आन्दोलन के प्रति अपनाता है. तमाम असमानता के बावजूद राष्ट्रीयता के प्रश्न पर दोनों देशों के शासक वर्ग में अद्भूत साम्यता दिखाई देती है.

यहीं पर भारतीय पूंजीपति वर्ग की एक अन्य विशेषता विस्तारवाद पर भी चर्चा करना जरूरी है. भारतीय पूंजीपति वर्ग अपनी इस विस्तारवादी आकांक्षा को पेश करने हेतु इस पूरे उपमहाद्वीप में ही नहीं वरन दक्षिण एशियाई देशों पर भी अपना प्रभुत्व जमाना चाहता है. अपने इस विस्तारवादी दृष्टिकोण के कारण ही भारतीय शासक वर्ग ने अनेक भू-भागों मसलन सिक्किम व अरूणांचल जैसे क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया. उसके इसी रवैय्ये के कारण नेपाल, भूटान जैसे देशों की स्थिति एक तरह से वैसी ही है, जैसे वे भारत के प्रदेश मात्र भर हों. भारतीय पूंजीपति वर्ग स्वयं भी विभिन्न पड़ोसी देशों के साथ समानता का व्यवहार नहीं करता, यह दरअसल उसकी घरेलू नीति का ही विस्तारित रूप है. भारतीय पूंजीपति वर्ग के विस्तारवादी मंसूबों का एक परिणाम देश के भीतर की कौमों पर जुल्म ढ़ाने के रूप में दिखाई देता है तो दूसरा पड़ोसियों के साथ धौंस-पट्टी के रूप में.

उपर्युक्त रोशनी में ही कश्मीर की समस्या को भी देखा समझा जाना चाहिए. कश्मीर कोई समस्या होती ही नहीं अगर आत्मनिर्णय के जनवादी अधिकार को दोनों देशों के पूंजीपति वर्ग ने स्वीकार किया होता. कश्मीर की समस्या जनता की आकांक्षा के विरूद्ध जाकर उस पर कब्जे से पैदा हुयी है. कश्मीर समस्या भारतीय उपमहाद्वीप की विभिन्न राष्ट्रीयताओं की समस्या का ही एक अंग है. आजादी के समय से ही दोनों देशों के विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रीय पहचानों के आधार पर राष्ट्रीय मुक्ति को लेकर आन्दोलन शुरू हो गये. जहां भारतीय क्षेत्र में नगा, मिजो, मणिपुरी, असमिया, त्रिपुरी, गोरखा, कश्मीरी इत्यादि राष्ट्रीयताओं में संघर्ष शुरू हुए तो यही हाल पाकिस्तानी क्षेत्र का भी था. वहां भी पख्तून, बलूच, सिंधी आदि राष्ट्रीयताओं के आंदोलनों ने जोर पकड़ा. इनमें से अनेक संघर्षोंं ने सशस्त्र संघर्ष का रूप भी धारण किया और उन्होंने इसी कारण शासकों के समक्ष गंभीर चुनौती भी पेश की. ऐसे ही सशस्त्र संघर्षोंं में कश्मीर की आजादी का संघर्ष भी है.

आजादी के बाद कश्मीर राज्य की स्थिति

भारत के आजाद होने से पहले कश्मीर भारत की उन रियासतों में से एक थी, जिन्होंने भारत के साथ विलय से इंकार कर दिया था. ब्रिटिश कालीन भारत का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर हुआ था. चूंकि देशी रियासतों के लिए यह छूट दी गयी थी कि वे चाहे तो भारतीय संविधान सभा से चाहे तो पाकिस्तान की संविधान सभा से जुड़ जायें, परन्तु इसके विपरीत कश्मीर के राजा ने स्वतंत्र रहने का विकल्प चुना. उनको जम्मू के हिन्दू सम्भ्रान्तों का भी समर्थन मिल रहा था, जो जम्मू-कश्मीर राज्य को हिन्दू राज्य के रूप में स्थापित करने की वकालत कर रहे थे, जो नहीं चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर राज्य धर्मनिरपेक्ष घोषित कर दिये गये, भारत में विलय करके अपनी पहचान का विलय कर दे. ये वही लोग हैं जिन्होंने राज्य में भारतीय जनता पार्टी के रूप में अवतार लिया है और आज कश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार के सबसे कट्टर विरोधी बने हुए हैं. इसी प्रकार महाराजा को ऑल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस का भी समर्थन था, जिसने कश्मीर को तुरंत आजाद घोषित करने और राज्य संविधान के निर्माण के लिए एक अलग संविधान सभा की स्थापना की घोषणा का आग्रह किया. परन्तु सत्ता हस्तांतरण के नजदीक आते जाने और देश में साम्प्रदायिक तनाव के बढ़ते जाने के साथ ही हिन्दू महासभा और मुस्लिम कांग्रेस के नेताओं की निष्ठायें बदलती चली गयी (हिन्दू महासभा के नेता भारतीय संघ के साथ तो राज्य मुस्लिम कांग्रेस पाकिस्तानी डोमेनियन के साथ समझौते की वकालत करने लगी).

15 अगस्त, 1947 को पाकिस्तानी सरकार ने कश्मीर राज्य द्वारा समझौते के लिए रखे गये प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. इस समझौते के अनुसार राज्य के केन्द्रीय विभाग लाहौर मंडल के अन्तर्गत पाकिस्तान के अधिकार में आ गये.
भारत सरकार की शर्त थी कि राज्य सरकार के प्रतिनिधि से समझौता पूर्व वार्ता हो, जिस पर राज्य के कोई जवाब न देने के कारण कोई समझौता नहीं हो सका. परन्तु पंजाब में साम्प्रदायिक हिंसा का दौर चलने का असर जम्मू क्षेत्र में भी पड़ा. इस क्षेत्र में मुसलमानों पर आक्रमण और उनकी हत्याऐं हुई थी. यह माना जाता है कि लगभग 5 लाख मुसलमान जम्मू से चले गये. पुंछ जागीर में लोग राजा के खिलाफ़ उठ खडे़ हुए. हालांकि इसकी शुरूआत कुछ स्थानीय मुद्दों को लेकर हुई थी, जैसे कि इस क्षेत्र के साठ हजार कार्यमुक्त ब्रिटिश सिपाहियों के पुनर्वासन की मांग. परन्तु डोगरा सेना ने विद्रोह का पाशविक तरीके से दमन का प्रयास किया. 24 अक्टूबर, 1947 को उत्तर-पश्चिम की सीमान्त जनजातियों की बहुत बड़ी संख्या पुंछ के विद्रोहियों की सहायता से जम्मू-कश्मीर राज्य में प्रवेश कर गयी. इन कबालियों की पाकिस्तान द्वारा हर प्रकार से मदद की गयी. जब इन विद्रोहियों को कुचलने के लिए राजा ने सेना भेजी तो सिपाहियों ने विद्रोहियों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया, जिनसे उनका जातीय और धार्मिक संबंध था. इन सिपाहियों ने सेना छोड़कर सशस्त्र बगावत शुरू कर दी और विद्रोहियों के साथ मिल गये. इन आक्रमणकारियों ने बिना किसी भेदभाव के हत्याऐ,ं लूटपाट और आगजनी की.

विद्रोह की व्यापकता और कबायली आक्रमणकारियों की हर प्रकार की पाकिस्तानी मदद के कारण राजा की सेना केलिए यह सम्भव नहीं था कि वह विद्रोह को दबा सके. जाहिरा तौर पर पाकिस्तान राजा के खिलाफ़ उठ खडे़ होने वाले विद्रोह का फ़ायदा उठाकर कश्मीर को हड़प जाना चाहता था इसीलिए उसने पठान कबीलायी हमलावरों की हर प्रकार से मदद की थी.

ऐसे हालात में जब राज्य का अस्तित्व ही खतरे में था, महाराजा पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने का पूरा प्रयास कर रहे थे. राज्य के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को यह आश्वासन दिया कि वे पुंछ के मुस्लिम गांवों में सेना द्वारा की गयी गोलीबारी की निष्पक्ष जांच करायेगें. पाकिस्तान ने राज्य के प्रधानमंत्री को बातचीत के लिए कराची आंमत्रित किया. हालांकि अभी भी महाराजा स्वतंत्र रहने के ही इच्छुक थे, और चाहते थे कि उनके दोनों देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध हों. दूसरी ओर पाकिस्तानी सरकार ने अपने विदेश मंत्रालय के सयुंक्त सचिव को कश्मीर इस उम्मीद के साथ भेजा कि राजा विलयन संबंधी दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर देंगे.

परन्तु 21 अक्टूबर, 1947 को ही महाराजा ने पंजाब उच्च न्यायालय के कार्यमुक्त न्यायाधीश बक्शी टेकचदं को कश्मीर का संविधान बनाने के लिए नियुक्त किया लेकिन तब तक पाकिस्तान सरकार द्वारा उकसाये गये पठान कबायली हमलावर श्रीनगर की ओर कूच कर चुके थे. इस प्रकार महाराजा के सामने अत्यंत विकट हालात पैदा हो चुके थे।.

उधर 29 सितम्बर, 1947 को शेख अब्दुल्ला को रिहा किया जा चुका था. शेख अब्दुल्ला ने हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण और भारत-पाकिस्तान में से किसी एक को चुनने के सवाल को किनारे लगाते हुए घोषणा की कि विलय का सवाल द्वितीयक है. पहला सवाल आजादी और एक जिम्मेदार सरकार की स्थापना है. वह भारत और पाकिस्तान दोनों से समझौता करने के इच्छुक थे, जिसमें कश्मीरी हितों की रक्षा हो सके. इसके मद्देनजर शेख अब्दुल्ला ने अपने दो सहयोगियों को पाकिस्तानी सरकार से बातचीत करने के लिए भेजा परन्तु वे पाकिस्तान के दोयम दर्जे के नेताओं से ही मिल सके. जब शेख अब्दुल्ला के ये प्रतिनिधि पाकिस्तानी नेताओं से वार्ता कर रहे थे उसी समय कबायली हमलावर श्रीनगर के पास पहुंच चुके थे और कश्मीर की धरती को अपने पैरों तले रौंद रहे थे. दूसरी ओर शेख अब्दुल्ला स्वयं दिल्ली में नेहरू से बातचीत करने चले गये. पाकिस्तानी कार्यवाहियों ने कश्मीरी नेतृत्व और महाराजा के पास अन्य कोई विकल्प नहीं छोड़ा था कि वे भारत से ऐसे नाजुक वक्त में मदद मागें.

परन्तु विकल्पहीनता की यह स्थिति महाराजा और शेख अब्दुल्ला के लिए ही शेष थी, इसलिए क्योंकि वे स्वयं शासक वर्ग के हिस्से थे. इस विकल्पहीनता को खत्म किया जा सकता था, यदि जनता की शक्ति के विकल्प पर भरोसा किया गया होता. शेख अब्दुल्ला और महाराजा ने जनसंघर्षोंं पर भरोसा न करके दो शेरों में से एक के मुंह में जाने का निर्णय किया.

भारत सरकार द्वारा बिना विलय के मदद देने से इन्कार करने के कारण महाराजा के पास अन्य कोई रास्ता नहीं बचा था (जो रास्ता बचा था, उसे उन्होंने अपनाया नहीं या वे अपना नहीं सकते थे) कि वे विलय की संधि पर हस्ताक्षर कर दें और अन्ततः 26 अक्टूबर को महाराजा द्वारा भारतीय संघ में विलयन के कागजात पर दस्तखत कर दिये गये और शेख अब्दुल्ला द्वारा इसका अनुमोदन कर दिया गया. इसके उपरांत भारतीय सेना आक्रमणकारियों के विरूद्ध कार्यवाही के लिए पहुंची. कश्मीरी जनता ने भारतीय सेना का अपने सम्मान, स्वतंत्रता और पहचान की रक्षा करने वालों के रूप में स्वागत किया.

कश्मीरी नेताओं का भारत की ओर मदद के लिए देखना इस कारण भी था क्योंकि नेहरू और गांधी ने पहले कश्मीरी जनता की आजादी और उनके आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन किया था. इस प्रकार हम देखते हैं कि विलय के दस्तावेज पर महाराजा के हस्ताक्षर और कश्मीरी नेतृत्व का अनुमोदन एक खास परिस्थिति में किया गया था. कश्मीरी नेता एक स्वतंत्र कश्मीर चाहते थे परंतु पाकिस्तान की कार्यवाही और भारत की शर्त के साथ मदद ने उन्हें किसी एक में विलय के लिए मजबूर कर दिया था.

यहीं पर इसे स्पष्ट कर देना उचित होगा कि भारतीय शासकों के लिए कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करना कोई सैद्धान्तिक मामला नहीं था क्योंकि यदि ऐसा होता तो वह सभी देशी रियासतों के लिए इसी आधार पर फैसले की वकालत करता. यह उसके लिए महज एक रणकौशलात्मक या व्यवहारिक प्रश्न था. यही कारण है कि भारतीय शासकों ने पूरी व्यवहारिकता का परिचय देते हुए अलग-अलग रियासतों के लिए अलग-अलग नीति अख्तियार की. मूल प्रश्न रियासतों को भारतीय संघ में मिलाना था और उसके लिए जब जहां जैसी नीति उपयोगी थी, वहां वैसा ही किया गया.

विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करते हुए महाराजा ने प्रतिरक्षा, विदेशी मामलों एवं संचार के क्षेत्रों में केन्द्रीय सत्ता को स्वीकार किया था. भारत सरकार ने विलय को स्वीकारते यह सूचना जारी की कि एक बार जब कश्मीर में काननू और व्यवस्था की पूर्व स्थिति बहाल हो जायेगी, तब कश्मीर के लोगों की स्वीकृति प्राप्त कर ली जायेगी, तब और सिर्फ तभी विलय को निर्णयात्मक माना जायेगा. लार्ड माउंटबेटन ने 23 अक्टूबर, 1947 के पत्र में महाराजा को राज्य के भारतीय संघ में शामिल होने की अपनी सरकार की ओर से स्वीकृति देते हुए लिखा : ‘इस नीति के अनुसार कि जहां किसी भी राज्य के विलय पर विवाद हो, वहां पर इसका निर्णय उस राज्य की जनता के मन के मुताबिक होना चाहिए, मेरी सरकार की यह इच्छा है कि जैसे ही कश्मीर में काननू व्यवस्था बहाल हो और वहां से हमलावरों को खदेड़ दिया जाये, इस राज्य की समस्या का निर्णय जनता की राय से किया जाये.’

ऐसे में इस पूरे विवाद का निपटारा तभी हो सकता था जब इस रियासत की जनता अपने भाग्य का निर्धारण करती. 1 नवंबर, 1947 को लार्ड माउंटबेटन के साथ इस पूरे मामले में लाहौर में बातचीत हुई. माउंटबेटन द्वारा कश्मीर में जनमत संग्रह का प्रस्ताव रखा गया परन्तु पाकिस्तानी नेताओं को इस बात का विश्वास नहीं था कि जनमत संग्रह जीत जायेंगे इसीलिए जिन्ना ने जनमत संग्रह की कार्यवाही को निरर्थक व अवांछनीय बताया. स्पष्टतः दोनों ही ओर के शासक स्वतंत्र कश्मीर को स्वीकार नहीं करना चाहते थे. यदि पाकिस्तान के शासक बंदूक के दम पर कश्मीर पर नियंत्रण करना चाहते थे तो भारत के शासक ‘कश्मीरी भावना’ का इस्तेमाल करके व दांव-पेचों के माध्यम से वही परिणाम हासिल करना चाहते थे. अंततः भारत इस पूरे विवाद को सयुंक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले गया. 1 जनवरी, 1948 को भारत ने सयुंक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से शिकायत की कि पाकिस्तान कबायली हमलावरों की सहायता कर रहा है. भारत द्वारा हमलावरों को खदेड़ने के बाद राज्य के भविष्य पर अन्तर्राष्ट्रीय देख-रेख में जनमत संग्रह कराने का प्रस्ताव रखा.

1948 को भारत ने सयुंक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से शिकायत की कि पाकिस्तान कबायली हमलावरों की सहायता कर रहा है. भारत द्वारा हमलावरों को खदेड़ने के बाद राज्य के भविष्य पर अन्तर्राष्ट्रीय देख-रेख में जनमत संग्रह कराने का प्रस्ताव रखा. 13 अगस्त, 1948 को सयुंक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा गठित आयोग ने प्रस्ताव रखा कि राज्य का भविष्य वहां की जनता की मर्जी से तय किया जाय. पाकिस्तानी सैनिकों की कश्मीर में मौजूदगी साबित होने पर आयोग ने पाकिस्तानी सैनिको,ं कबायलियों व अन्य पाकिस्तानी नागरिकों की वापसी की सिफारिश की. यह भी तय हुआ कि पाकिस्तान द्वारा अपनी सेना को हटा लेने के बाद भारत भी इस क्षेत्र से अपनी सेना को वापस बुला लेगा. अंततः भारत और पाकिस्तान दोनों के द्वारा जनमत संग्रह कराने का फ़ैसला स्वीकार कर लिया गया और फ़िर भारत और पाकिस्तानी सेनाओं के बीच युद्ध विराम लागू हो गया. इस स्थिति के बावजदू कि इतना बड़ा भू-भाग पाकिस्तान के नियंत्रण में था, दोनों देशों की सरकारों द्वारा इस युद्ध विराम रेखा को ही मान्यता प्रदान कर दी गयी. बाद के दिनों में दोनों ही देशों की सरकारों ने इसी युद्ध विराम रेखा को ही अनौपचारिक तौर पर अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा के रूप में स्वीकार कर लिया है, क्योंकि कश्मीर के भारतीय संघ में विलय के बावजूद भारत ने कभी भी इस भू-भाग पर नियंत्रण करने की चेष्टा नहीं की.

इस प्रकार कश्मीर राज्य का प्रश्न अधर में अटका रह गया. सयुंक्त राष्ट्र के जनमत संग्रह के प्रस्ताव पर पहले पाकिस्तान अनमना था तो बाद में भारत सरकार ने न तो विलय के समय किया खुद का वादा और न ही सयुंक्त राष्ट्र संघ के जनमत संग्रह के प्रस्ताव का पालन किया. भारत-पाकिस्तान के शासकों ने कश्मीरी जनमत की आजादी की आकांक्षा को अपने बूटों तले रौंदते हुए कुल मिलाकर कश्मीर को बांट लिया. 1953 आते-आते जनमत संग्रह के प्रश्न पर भारत और पाकिस्तान की स्थितियां आपस में बदल गयी थी. अब पाकिस्तान जनमत संग्रह पर जोर देने लगा.

शेख अब्दुल्ला और कश्मीरी जनमत की आजादी की आकांक्षा को इससे भी बल मिलता था कि सोवियत संघ सभी उत्पीडित राष्ट्रीयताओं के लिए आत्मनिर्णय के अधिकार की वकालत करता रहा था और उसी समय अनेक देश राष्ट्रीय मुक्ति हासिल कर रहे थे. आजाद कश्मीर का सवाल शेख अब्दुल्ला के दिमाग से इस दौरान कभी ओझल नहीं हुआ. इसका सबूत इस बात से भी मिलता है कि अमेरिकी सरकार के कहने पर भारत में अमेरिकी राजदूत ने 1950 के शुरू में शेख अब्दुल्ला से विचार विनिमय किया था. उनका कहना था कि अब्दुल्ला स्वतंत्र कश्मीर को प्राथमिकता देते थे. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आजादी के लिए चलने वाले संघर्षोंं के कश्मीर पर पड़ने वाले प्रभाव से कोई इंकार नहीं कर सकता.

ये संघर्ष कश्मीर की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वालों को नैतिक बल और प्रेरणा प्रदान करते थे परन्तु, पूंजीवादी पथगामी रव्रुश्चेवकालीन सोवियत संघ (1956) के जमाने से कश्मीर के सवाल पर दोनों महाशक्तियों ने भिन्न पक्ष ग्रहण किया. सोवियत संघ जहां भारत का समर्थन करने लगा वहीं आंग्ल-अमेरिकी समूह पाकिस्तान का. रव्रुश्चेवकालीन सोवियत संघ द्वारा कश्मीर मामले पर भारत का समर्थन कर देने से भारतीय शासकों को कश्मीर को हड़प जाने का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत आधार मिल गया. इस समय तक अमेरिकी नीति यही थी कि कश्मीर एक स्वाधीन राष्ट्र बन जाये. उस समय तक अमेरिकी नीति जनमत संग्रह पर जोर देने की थी. इसका आशय यह नहीं था कि अमेरिका राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षोंं का समर्थक था, बल्कि इसलिए कि स्वतंत्र कश्मीर उसके साम्राज्यवादी हितों के ज्यादा अनुकूल था.

पुनश्च, भारतीय शासकों की रजवाड़ों के संबंध में नीति को पुनः रेखांकित कर लेना उपयुक्त होगा. भारतीय नेताओं का यह कहना कि प्रभुसत्ता जनता की होती है, न कि शासकों की, आजादी पूर्व कांग्रेस की नीति से मेल खाती थी, क्योंकि यहीं से कांग्रेस अंग्रेजों के खिलाफ अपने संघर्षोंं की वैधानिकता हासिल करती थी. दूसरा यह भी कि इसके माध्यम से भारतीय शासक वर्ग ऐसी रियासतों को अपने में मिला सकती थी, जिन्होंने भारतीय संविधान सभा में शामिल होने से इंकार कर दिया था. इसी नीति पर चलकर वह पुराने शासकों को किनारे लगा सकती थी. भारतीय शासकों के व्यवहारवादी दृष्टिकोण और उपर्युक्त इस नीति में कोई अन्तर्विरोध नहीं था. दोनों ही नीतियां भारतीय शासकों के हितों का पोषण करती थी. इसी रोशनी में भारतीय शासकों की कश्मीर नीति को समझाना चाहिए. पहले कश्मीर की आजादी का समर्थन किया परन्तु जैसे-जैसे भारतीय शासक वर्ग स्वयं सत्ताशीन होते हुए अपनी सत्ता को मजबूत करता चला गया, भारतीय शासक वर्ग की कश्मीर नीति भी बदल गयी. उसके लिए आत्मनिर्णय के अधिकार का सिद्धान्त अब फ़ायदा पहुंचाने वाला नहीं रह गया था. 1948-53 के बीच नेहरू का कश्मीर के प्रति बदलता दृष्टिकोण इसी की अभिव्यक्ति था.

1947 के बाद के घटनाक्रम से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दरअसल पाकिस्तान द्वारा कश्मीर राज्य के भू-भाग पर किया गया कब्जा जितना अवैध है, उतना ही भारत द्वारा कश्मीर राज्य के भू-भाग पर किया गया नियंत्रण अवैध है क्योंकि भारत सरकार ने विलय के समय किये गये वादों तथा संयुक्त राष्ट्र में किये गये अपने वादे को आज तक पेश नहीं किया. कश्मीर राज्य की जनता की आकांक्षा इसी कारण अधूरी रह गयी. पाक अधिकृत कश्मीर और भारत अधिकृत कश्मीर में आजादी को लेकर चलने वाले आन्दोलन को इसी पृष्ठभूमि के साथ समझा जा सकता है. यहीं से कश्मीर को लेकर भारत-पाकिस्तान के बीच चलने वाली राजनीति को समझा जा सकेगा.

नेहरू-शेख समझौता और अब्दुल्ला की गिरफ्तारी

जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि शेख अब्दुल्ला ने भारत के साथ विलय को मजबूरी में ही स्वीकार किया था हालांकि अनेक कारणों से आजाद कश्मीर का विकल्प पूर्णतया समाप्त नहीं हुआ था. ऐसे में कश्मीरी नेतृत्व द्वारा भारत की संघीय सरकार के साथ जो भी करार किये गये, वे मूलतः अनमनेपन और दबाव का परिणाम ज्यादा थे, स्वेच्छा के कम. यदि एक ओर नेशनल कांफ्रेंस के नेता विलयन संबंधी वाक्यों को शब्दशः ले रहे थे तथा वे विश्वास कर रहे थे कि दस्तावेज की शर्तें अनुल्लंघनीय रहेंगी और उनका सदैव वही अर्थ बना रहेगा तो दूसरी ओर भारत सरकार विलयन संबंधी निर्देश को एक औपचारिकता मात्र मानते हुए यह मान बैठी थी कि धीरे-धीरे अन्य रियासतों की तरह यह भी संघ के साथ एकरूपता में ढल जायेगा.

धीरे-धीरे भारत सरकार कश्मीर राज्य की सरकार पर यह दबाव डालने लगी कि राज्य सरकार केन्द्र को और ज्यादा अधिकर प्रदान करें. मई, 1949 में राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार के प्रतिनिधियों के बीच यह तय हुआ कि राज्य की संवैधानिक सभा ही यह तय करेगी कि भारत सरकार को कौन-सी शक्तियां हस्तांतरित की जाये. इस तरह एक बहुत ही संक्रमणकालीन और अंतरिम धारा- 370 को भारतीय संविधान में शामिल किया गया, जिसका आयंगर (संविधान का मसविदा तैयार करने वाली समिति के सदस्य) के अनुसार निम्नलिखित मकसद था –

जब राज्य की संविधान सभा अपने अधिवेशन में राज्य के संविधान पर और राज्य पर संघीय क्षेत्रधिकार की सीमा पर निर्णय ले लेगी तो संविधान सभा की सिफारिश पर राष्ट्रपति एक निर्देश दे सकते हैं कि अनुच्छेद 370 को उनके द्वारा बताये अपवादों और संशोधनों के साथ लागू या रद्द किया जायेगा.

इस प्रकार कश्मीर राज्य को जो संवैधानिक हैसियत मिली वह भारत सरकार ने नहीं प्रदान की, बल्कि उसे उन सम्बद्ध प्रावधानों से स्वीकृत प्रदान हुई है जो 1935 के भारतीय शासन अधिनियम, 1947 के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के भारतीय (अंतरिम) संविधान आदेश और विलयन अंगीकार पत्र में समाहित है. महाराजा और उसके बाद सत्ता सभालने वाले इस हैसियत को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे. राज्य की संविधान सभा में बोलते हुए अब्दुल्ला ने व्याख्या की कि, ‘जबकि दूसरे राजाओं ने अपने राज्यों में भारतीय संविधान को लागू करने की मान्यता दे दी, महाराजा ने इस मान्यता से इंकार कर दिया.’, उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत की संविधान सभा या इसकी उत्तराधिकारी संसद को अनुच्छेद 370 को संशोधित या रद्द करने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं था. यह अधिकर सिर्फ़ राज्य की संविधान सभा को था अर्थात् यह अधिकार किसी भी मायने में राज्य विधान सभा तक के पास नहीं था.

अनुच्छेद 370 कश्मीर राज्य के लिए केन्द्रीय सूची और समवर्ती सूची के उन मामलों पर काननू बनाने के संसद के अधिकारों को सीमित करता है जिन्हें राष्ट्रपति विलयन संबंधी दस्तावेज में दर्ज मामलों से संबंद्ध करार दें और ऐसे कुछ मामले जो ‘राज्य सरकार’ की सम्मति से राष्ट्रपति निर्धारित कर सकते हैं.

विलयन दस्तावेज और अन्य प्रावधानों में संघीय सरकार और कश्मीर राज्य के संबंधों में इतनी स्पष्टता के बावजूद ‘राज्य सरकार’ शब्द की व्याख्या पर विवाद पैदा किया गया. अब्दुल्ला ने केन्द्र-राज्य सम्बन्धों को हमेशा के लिए परिभाषित करने के लिए यह सलाह दी कि अनुच्छेद 370 में ‘राज्य सरकार’ का अर्थ सिर्फ महाराजा द्वारा पहली बार 5 मार्च, 1948 को नियुक्त मित्रमंडल होना चाहिए लेकिन आयंगर बाद की सरकारों को भी शामिल करने के पक्ष में थे, जिससे कि बाद की राज्य सरकारों के साथ भी मोल-भाव करके या धौंस-पट्टी से नए केन्द्रीय कानूनों को राज्य पर लागू करने का अधिकार हासिल किया जा सके.

भारत सरकार ने राज्य सरकार पर दबाव डालना जारी रखा कि वह भारतीय संविधान की अधिक से अधिक धाराऐं वहां लागू करना स्वीकार करे और अंततः अब्दुल्ला को भारत सरकार के आगे झुकना पड़ा. इस प्रकार 1952 का नेहरू-शेख समझौता सम्पन्न हुआ. इस समझौते के अनुसार राज्य में संघीय झंडें का स्थान सर्वोच्च रहेगा. भारतीय संविधान के मूलभूत अधिकार राज्य पर भी लागू होंगे और सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का मूलभूत अधिकारों के साथ-साथ अंतर-राज्यिक और केन्द्र व राज्य के बीच विवादों के संबंध में राज्य तक विस्तार किया जायेगा. कुल मिलाकर दिल्ली समझौता विलय दस्तावेज में निर्धारित किये गये अधिकारों पर कुठाराघात करता है.

शेख अब्दुल्ला द्वारा आजादी के विकल्प को न छोड़े जाने और भारत सरकार द्वारा किये गये वायदों पर जोर देने के कारण दिल्ली की नजर तिरछी हो गयी. अमेरिका और पाकिस्तान द्वारा जनमत संग्रह पर जोर देने तथा इस मांग को ‘समाजवादी’ सोवियत संघ के समर्थन आदि कारणों से भारत की मुश्किलें और दबाव बढ़ रहा था. भारत सरकार ने अब्दुल्ला पर बाहरी शक्तियों के हाथों खेलने का आरोप लगाते हुए न सिर्फ उन्हें बर्खास्त कर दिया वरन लम्बे समय तक के लिए जेल में भी डाल दिया. धयान देने योग्य है कि यह वही अब्दुल्ला है जिन पर आजादी के समय और विलयन के समय भारत की कश्मीर नीति निर्भर करती थी. और यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि यह वही अब्दुल्ला है जिन्होंने भारत के साथ विलयन में एक निर्णायक भूमिका अदा की. अभी अब्दुल्ला ने पूरी तरह दिल्ली के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया था.

ऐसे में कश्मीर को पूरी तरह तभी हड़पा जा सकता था, जब शेख अब्दुल्ला को किनारे लगा दिया जाये. 1953 से 1968 तक तो शेख अब्दुल्ला अधिकांश समय जेल में ही रहे. उन्हें गिरफ्तार और रिहा करने का सिलसिला 15 वर्षों तक जारी रहा. 1971 में तो उन्हें कश्मीर राज्य से निष्कासित ही कर दिया गया. अब्दुल्ला को तभी पूर्ण रूप से रिहा किया गया, जब उन्होंने पूरी तरह दिल्ली की मातहती स्वीकार कर ली. इस दौरान केन्द्र की कठपुतली सरकारें ही कश्मीर में सत्ताशीन होती रही. इन कठपुतली सरकारों के माध्यम से केन्द्र सरकार ने वह सभी कुछ अर्जित कर लिया, जिसको लेकर शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करना पड़ा. केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों से विलय के दस्तावेज की मूलभावना को अनेकों नियम-कानूनों के द्वारा तिरोहित करवा लिया. इसे मात्र इस तथ्य से ही समझा जा सकता है, जिसके तहत 1956 में अपने कठपुतली नेताओं के माध्यम से राज्य की संविधान सभा द्वारा राज्य के लिए ऐसा संविधान स्वीकृत करा लिया गया, जिसमें यह असंशोधनीय प्रावधान शामिल है कि कश्मीर राज्य भारतीय संघ का अविभाज्य हिस्सा है. इस संविधान को भारत सरकार द्वारा स्वीकार कर लिया गया. इससे पहले अंतरिम संविधान 1951 में ही लागू हो गया था. इसी अंतराल में केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के मामले में अन्य बहुत से महत्वपूर्ण संविधान संशोधन किये गये जो कश्मीर राज्य पर केन्द्र सरकार के प्रभुत्व को स्थापित करने वाले थे.

इन तमाम संशोधनों से गुजरते हुए अंततः शेख-इंदिरा समझौता (13 नवंबर, 1974) सम्पन्न हुआ, जिसे कश्मीर समझौता कहा जाता है. इस समझौते के अनुसार कश्मीर प्रदेश को भारतीय संघ का हिस्सा मान लिया गया, जिस पर संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत शासन जारी रहेगा और जिसे कानून बनाने के वे सब अधिकार प्राप्त होंगे जो केन्द्र के अधिकारों से अवशिष्ट बचेंगे. यह भी तय किया गया कि भारत सरकार राज्य पर 1953 के बाद लागू कुछ प्रकार के उन केन्द्रीय कानूनों को संशोधित करने अथवा रद्द करने पर सहानुभूति से विचार करेगी, जिनका निर्णय राज्य विधानसभा करेगी.

इस अंतराल में कश्मीरी जनमानस ने इसे बहुत अच्छी तरह से ग्रहण किया कि कश्मीर में वे ही सरकारें रह सकती हैं, जो भारतीय राज्य की पसंद हो. ऐसा नहीं है कि कश्मीरियों ने अपनी आजादी के क्षरण को यूं ही स्वीकार कर लिया. कश्मीरियों द्वारा केन्द्र व राज्य के संबंधो का निर्धारण करने वाले या केन्द्र द्वारा विलय के दस्तावेज की मूल भावना को क्षरित करने के प्रत्येक प्रयास का कडा़ प्रतिरोध किया गया. शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी पर ही नहीं वरन भारत सरकार द्वारा संवैधानिक एकीकरण के जितने भी प्रयास किये गये, कश्मीरी जनता ने हिंसक और गैर-हिंसक दोनों ही प्रकार से भारी प्रतिरोध किया. जब एक कठपुतली विधानसभा की सहमति से राज्य पर संविधान के अनुच्छेद 356 और 357 लागू कर दिये गये और इससे केन्द्र ने राज्य में आपातकालीन स्थिति में सीधे शासन करने का अधिकार हासिल कर लिया, तब इन कदमों की घाटी में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी. न सिर्फ़ भारत अधिकृत कश्मीर घाटी में वरन पाक अधिकृत कश्मीर घाटी में भी विरोध रैलियां आयोजित की गयी थी. यहां तक कि अब्दुल्ला के आह्वान पर लोगों ने कांग्रेसियों का सामाजिक बहिष्कार तक कर दिया था.

कुल मिलाकर केन्द्र सरकार ने कश्मीरी राज्य की लगभग वही स्थिति बना दी, जो अन्य राज्यों की थी। लेकिन अन्य राज्यो ं और कश्मीर के बीच फ़र्क यह था कि कश्मीरी जनमानस एक लंबे समय से अपनी आजादी के लिए संघर्षरत रहा था और इसे पाने के लिए वह अब भी छटपटा रहा था. भारत सरकार ने बलात कश्मीरियों की आजादी की आकांक्षा का अपहरण कर लिया था और देर-सबेर इस भावना को अभिव्यक्ति मिलनी ही थी.

आजादी का संघर्ष और कश्मीरी पूंजीपति वर्ग

शेख अब्दुल्ला महाराजा के एकतंत्र के विरूद्ध थे. नेशनल कांफ्रेंस का राजशाही की समाप्ति के लिए आन्दोलन और संघर्ष का इतिहास रहा था. शेख अब्दुल्ला और उनकी पार्टी कश्मीर में पैदा होने वाली नयी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती थी. इन शक्तियों की लामबंदी ही शेख अब्दुल्ला की ताकत थी. वे जमींदारी प्रथा का खात्मा चाहते थे ताकि किसानों को जमीनें हासिल हो सकें और राजा व जमींदारों का राज समाप्त हो. यह नई शक्ति कश्मीर के शासन को स्वयं संचालित करना चाहती थी. अब्दुल्ला कश्मीरी पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि थे.

कश्मीरी पूंजीपति वर्ग की अलग कश्मीर की आकांक्षा 1947 में तत्कालीन जटिल परिस्थितियों के कारण पूरी न हो सकी. भारत और पाकिस्तान के शासकों के प्रतिक्रियावादी और कश्मीर पर प्रभुत्व जमाने की नीतियों के कारण उसकी हसरत दबा अवश्य दी गयी परन्तु अभी भी उसकी आकांक्षा समाप्त नहीं हुई थी. उसकी यह आकांक्षा बार-बार जोर मार रही थी. परन्तु भारतीय पूंजीपति वर्ग की शिकंजे को कसते चले जाने और कश्मीरी पूंजीपति वर्ग के ऊपरी हिस्से को अपने में समाहित करने की रणनीति के फ़लस्वरूप कश्मीरी पूंजीपति वर्ग का ऊपरी हिस्सा धीरे-धीरे भारतीय राज्य सत्ता द्वारा आत्मसात कर लिया गया. यह आत्मसातीकरण फ़टकार और पुचकार की नीति से सम्पन्न हुआ था.

इसी अंतराल में कश्मीरी पूंजीपति वर्ग के ऊपरी धडे़ के स्वार्थ भी अब भारतीय बाजार के साथ पहले से कहीं ज्यादा अविभाज्य रूप से जुड़ते चले गये. ऐसा चरित्र केवल कश्मीरी पूंजीपति वर्ग ने ही नहीं प्रदर्शित किया वरन पूंजीपति वर्ग ऐसा ही है. पूंजीपति वर्ग अपने स्वार्थ और लोभ के लिए कहीं भी और किसी भी क्षण आधे-अधूरे रास्ते से ही वापस लौट सकता है, बस उसे अपना सम्मानजनक हिस्सा दिखायी देना चाहिए. वह किसी भी संघर्ष से तभी तक प्रतिबद्ध होता है जब तक कि उसे अपने विकास के मार्ग में गंभीर अवरोध दिखायी देता हो. पूंजीपति वर्ग के इसी चरित्र के कारण ही भारतीय शासक वर्ग के लिए कश्मीर पर प्रभुत्व स्थापित करना इतना आसान बन गया. यदि कश्मीरी पूंजीपति वर्ग ने ऐसा व्यवहार न प्रदर्शित किया होता तो कश्मीर पर नियंत्रण इतना आसान न रहा होता. जो बात भारत अधिकृत कश्मीर के लिए सच है, लगभग वही बात पाक अधिकृत कश्मीर के लिए भी सच है.

यह भी कि भारतीय संघ में कश्मीर का संवैधानिक एकीकरण कश्मीरी पूंजीपतियों के अखिल भारतीय पूंजीवाद के साथ एकीकृत होते जाने की भी अभिव्यक्ति था अर्थात् 1953 से लेकर 1974 तक आते-आते कश्मीर के बड़े पूंजीपतियों के आत्मसातीकरण की प्रक्रिया मूलतः सम्पन्न हो चुकी थी. कश्मीर के तत्कालीन नेतृत्व ने कश्मीरी जनाकांक्षाओं के साथ विश्वाघात करके अपना हित साध लिया था. अपने इस एकीकरण के सम्पन्न होने के साथ ही कश्मीरी शासक वर्ग के लिए ‘आजादी’ और ‘1953 से पूर्व वाली स्थिति की बहाली’ जैसे नारे महज अपने लिए कुछ रियायतें हासिल करने के वास्ते मोल-तोल के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं. नेशनल कांफ्रेंस आज भी इन नारों को उठाकर केन्द्र के साथ सौदेबाजी करती है. ऐसा कर पाना कश्मीर के शासक वर्ग व उसकी पार्टी के लिए इसलिए भी सम्भव हो पाता है क्योंकि कश्मीर का पूंजीपति वर्ग भले ही वास्तविक रूप में इन नारों के लिए न लड़ रहा हो परन्तु कश्मीरी जनमानस के भीतर आजादी की आकांक्षा अभी भी गहरे बैठी हुई है. ऐसे में यह सम्भव नहीं था कि भावी संघर्ष का नेतृत्व कश्मीरी पूंजीपति वर्ग करे.

कश्मीर और हिन्दू सांप्रदायिक ताकतें

देश के विभाजन के समय हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतें काफ़ी मजबूत और सक्रिय थी. यदि ऐसा न होता तो साम्राज्यवादी सम्प्रदायवाद का सफल इस्तेमाल करने में कभी कामयाब न होते. भारत और पाकिस्तानी शासकों की सत्ता के लिए बेपनाह भूख ने सम्प्रदायवादियों को अपना साम्प्रदायिक खेल खेलने का और भी अधिक अवसर प्रदान किया. आम आदमी के हितों की राजनीति के बरक्स साम्प्रदायिक राजनीति के वर्चस्व के कारण भी धर्म के आधार पर देश का विभाजन सम्भव हो सका. यह प्रतिक्रियावादी साम्प्रदायिक राजनीति की एक बड़ी जीत थी. पूरा भारतीय उपमहाद्वीप साम्प्रदायिक ताकतों की प्रयोगशाला बना हुआ था.

ऐसे में कश्मीर राज्य के भीतर सम्प्रदायवादी शेष भारतीय उपमहाद्वीप के समान साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने में भले ही सफ़ल न रहे हों परन्तु कश्मीर राज्य भी साम्प्रदायिक राजनीति और साम्प्रदायिक धड़ेबंदी से अपने को पूरी तरह मुक्त नहीं रख सका. साम्प्रदायिक राजनीति के खून के छींटों से कश्मीर घाटी का दामन भी बेदाग नहीं रहा. जब कश्मीर के महाराजा ने भारत या पाकिस्तान के साथ कश्मीर राज्य का विलय करने से इंकार कर दिया, और महाराजा के इस फ़ैसले का हिन्दू नेताओं ने इस आधार पर समर्थन किया कि कश्मीर जैसे हिन्दू राज्य का भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राज्य में विलय नहीं होना चाहिए.

तत्कालीन अखिल जम्मू एवं कश्मीर हिन्दू राज्य सभा, जिसे आरएसएस का समर्थन प्राप्त था, ने महाराजा के फ़ैसले का समर्थन किया. उस समय इन्हीं हिन्दू कट्टरपंथियों ने कश्मीर राज्य के भारत में विलय का समर्थन करने वालों को देशद्रोही करार दिया था. जम्मू क्षेत्र में तनाव बढ़ने पर ही इन हिन्दू कट्टरपंथियों ने भारत में विलय के लिए वकालत की.

विलयन के समय महाराजा द्वारा कुछ क्षेत्रों में ही अपनी सत्ता केन्द्र को हस्तांतरित की गयी थी. धारा – 370 राज्य में केन्द्र के हस्तक्षेप को रोकती थी. विलयन भी एक प्रकार से अस्थायी था, जिसे जनमत संग्रह के माध्यम से वैधानिकता अभी हासिल करनी थी. ऐसे ही समय में हिन्दू कट्टरपंथी ताकतों द्वारा राज्य के विभाजन और क्षेत्रीय आधार पर जनमत संग्रह कराने को लेकर आन्दोलन चलाया गया. बाद में प्रजा परिषद (जनसंघ का स्थानीय रूप) ने धारा – 370 के खात्मे की मांग उठायी ताकि कश्मीर राज्य का संघ में सम्पूर्ण विलयन हो सके. हिन्दू कट्टरपंथियों की इन मांगो/आन्दोलनों के पीछे दो वजहें थी. एक तो यह पूर्वाग्रह कि मुस्लिम निश्चय ही पाकिस्तान के पक्ष में वोट देंगे और हिन्दू भारत के पक्ष में उस समय की साम्प्रदायिक वातावरण की परिस्थितियों में इन साम्प्रदायवादियों का ऐसा सोचना निराधार भी नहीं था. अपने इन साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों के कारण वे राज्य के विभाजन के पक्षधर थे. निश्चय ही यह विभाजन साम्प्रदायिक आधार पर सम्पन्न होता – जम्मू हिन्दू बहुल, लद्दाख बौद्ध बहुल और कश्मीर घाटी मुस्लिम बहुल.

इस आधार पर जनमत संग्रह कराने पर जम्मू और लद्दाख भारत के साथ और कश्मीर घाटी या तो पाकिस्तान के साथ शामिल हो जाती या फ़िर स्वतंत्र रहती. अपनी साम्प्रदायिक सोच के कारण ही आरएसएस यह कभी नहीं सोच सकती थी कि कश्मीर राज्य का बहुमत आजादी का पक्षधर है, न कि धार्मिक आधार पर विभाजन का. ये साम्प्रदायिक तत्व भूल जाते हैं कि कश्मीर राज्य मुस्लिम बहुल था और यदि उसे धार्मिक आधार पर अपना पक्ष चुनना होता तो वह 1947 में ही पाकिस्तान के साथ जा चुका होता. इसके साथ ही यह साम्प्रदायिक तत्व यह भी भूल जाते हैं कि जब कश्मीरी नेतृत्व के पास विलय के अलावा अन्य लगभग कोई विकल्प नहीं बचा था तो कश्मीरियों ने पाकिस्तान को चुनने के बजाय भारत में रहना ज्यादा बेहतर समझा था.

दूसरा इन मांगों के पीछे जो बहुत महत्वपूर्ण कारक था वह यह कि इन मांगों के पीछे लामबंद होने वाली सभी ताकतें प्रतिगामी थी. इसका कारण यह था कि कश्मीर में हिन्दुओं के शासक रहने के कारण भूमि व अन्य सम्पत्तियों पर इन्हीं हिन्दू शासकों व उनके सिपहसालारों का प्रभुत्व था. शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में बनी नई सरकार ने 1951 में बड़ी जोत उन्मूलन कानून लागू किया. इस कानून के माध्यम से डोगरा भूस्वामियों की आर्थिक ताकत को बहुत हद तक कमजोर कर दिया गया था. इस कानून में बडी़ जोतों को बिना मुआवजे के जब्त करने और उन्हें काश्तकारों को दे देने का प्रावधान था.

तीसरी सत्ता जम्मू के शासकों के हाथ से निकल कर कश्मीरी नेतृत्व के हाथों पहुंच गयी. इसके चलते हिन्दू शासक आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तीनों तरह से पदच्युत हो चुके थे. ऐसे में वे भारतीय राज्य के साथ अपने हितों को कहीं ज्यादा सुरक्षित मानकर चल रहे थे. इस वजह से इन साम्प्रदायिक मांगों के समर्थन में साम्प्रदायिक ताकतों और पदच्युत सामंती हिन्दू शासकों का नापाक गठजोड़ बन गया. यहां तक कि जम्मू प्रजा परिषद द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन को बाद में महाराजा ने भी सहयोग दिया.

दिसम्बर, 1952 में जनसंघ का पहला सम्मेलन कानपुर में हुआ. इस सम्मेलन में निर्णय लिया गया था कि कश्मीर के प्रश्न पर जनसंघ आन्दोलन में सीधे शामिल हो. जनसंघ, हिन्दू महासभा ने रामराज्य परिषद के साथ मिलकर कश्मीर के सम्पूर्ण विलय को लेकर आन्दोलन छेड़ दिया. इस आन्दोलन की शुरूआत राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ समर्थित प्रजा परिषद ने की थी.

श्यामाप्रसाद मुखर्जी और प्रजा परिषद द्वारा साम्प्रदायिक आधार पर चलाये गये इस आन्दोलन का कश्मीरी जनमानस के ऊपर गहरा असर पड़ा. अपनी स्वतंत्रता और पहचान के लिए संघर्षरत कश्मीरी अवाम की यह धारणा लगातार प्रबल होती चली गयी कि उनकी आजादी, पहचान और अस्मिता को नष्ट करने की कोशिशें की जा रही है. इसने कश्मीरी अवाम को भारतीय राज्य के प्रति और भी ज्यादा आशंकित कर दिया. वैसे सच तो यह है कि मुखर्जी व जनसंघ द्वारा उठायी जाने वाली धारा – 370 का खात्मा और पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लेने जैसी मांगें न सिर्फ़ राजनीतिक रूप से असम्भव थी वरन संवैधानिक रूप से भी असम्भव थी. यहीं पर यह भी स्पष्ट कर देना जरूरी है कि जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी 1950 तक कश्मीर राज्य के बारे में होने वाले सभी निर्णयों के भागीदार रहे हैं और नेहरू ने मंत्रीमंडल के सदस्य रहते हुए इन निर्णयों पर अपनी मंजूरी भी दी. ऐसे में 1950 के बाद मुखर्जी द्वारा कश्मीर राज्य को लेकर की जाने वाली कार्यवाहियां मात्र राजनीतिक फ़ायदे के लिए ही थी. हां, ऐसा करते हुए संघ परिवार व हिन्दू कट्टरपंथी जो 1947 में अपनी धारणाओं की न्याय तुला के आधार पर ही स्वयं देशद्रोह करने के अपराधी थे, अब सम्पूर्ण विलय की मांग उठाकर कथित देशभक्ति के झंडाबरदार बन गये थे क्योंकि तब उन्होंने यह तर्क स्थापित करने की कोशिश की कि जो धारा – 370 की समाप्ति का समर्थक नहीं है. वह गद्दार देशद्रोही है. यह समस्त कश्मीरियों को देशद्रोही व पाकिस्तान परस्त के रूप में चित्रण की शुरूआत थी क्योंकि कश्मीरी आजादी, पहचान और अपनी अस्मिता बचाने के लिए संघर्षरत थे. हम पुनः स्पष्ट कर दें कि संघियों द्वारा धारा – 370 को खत्म करने की बात सफेद झूठ है क्योंकि भारतीय संविधान का उल्लंघन किये बिना यह सम्भव नहीं है क्योंकि इस धारा को खत्म करने का कोई अधिकार नहीं है.

1974 – 1987 तक का दौर

इंदिरा-शेख समझौते ने घाटी में असंतोष को पैदा किया था क्योंकि इस समझौते के परिणामस्वरूप कश्मीरियों की आजादी की आकांक्षा को और भी ज्यादा आघात लगा था लेकिन एक बात निर्धारित हो चुकी थी कि कश्मीरियों को अभिव्यक्ति/विरोध करने की स्वतंत्रता नहीं है. केन्द्र सरकार के विरोध को हमेशा ही देशद्रोह के रूप में और पाकिस्तान के साथ निष्ठा के रूप में देखा जाता रहा है. कश्मीरी हिंसक और गैर-हिंसक दोनों ही प्रकार से 1953, 1964 व 1973 में भारी विरोध प्रदर्शनों को आयोजित कर चुके थे, परन्तु इन विरोधों का निर्ममतापूर्वक दमन किया गया था.

शेख अब्दुल्ला के कांग्रेस के सहयोग से मुख्यमंत्री बनने और बाद में नेशनल कांफ्रेंस की जीत तक कश्मीर राज्य ऊपरी तौर पर भले ही शांत रहा हो परन्तु अंदर ही अंदर आक्रोश बढ़ रहा था. फारूक अब्दुल्ला सरकार की बर्खस्तगी (2 जुलाई, 1983) ने कश्मीरियों के भीतर यह विश्वास स्थापित किया कि उन्हें अपनी सरकार चुनने का भी हक नहीं है.

कश्मीर राज्य में सरकारों के गिराने और बनाने के खेल में दिल्ली की अहम भूमिका रही थी. जो सरकार दिल्ली की पसंद नहीं होगी, उसका गिर जाना लाजिमी था. राजीव-फारूक समझौते (1986) का यही सार था. फारूक ने सौदेबाजी के फ़लस्वरूप सत्ता तो प्राप्त कर ली लेकिन इस प्रक्रिया में उन्होंने कश्मीरियों का आत्मसम्मान बेच दिया. कश्मीर राज्य के भीतर केन्द्र सरकार द्वारा किसी भी विरोधी राजनीतिक ताकत (राजनीतिक दल) को विकसित होने का मौका ही नहीं दिया गया. सच तो यह है कि कश्मीर के भीतर अप्रत्यक्ष तरीके से दिल्ली दरबार का ही शासन चलता था.

फारूक अब्दुल्ला सरकार के गिराने और बनाने की प्रक्रिया में ही जगमोहन ने राज्यपाल के तौर पर शपथ ली (26 अप्रैल, 1984). शाह सरकार के कार्यकाल का लंबे समय तो कर्फ्यू लगाने में ही बीता, जिसकी वजह से उसका नाम ही कर्फ्यू सरकार रख दिया गया. इस सरकार ने अपने स्वार्थों की खातिर जमकर साम्प्रदायिक ताकतों को बढ़ावा दिया और उनका समर्थन मांगा. स्वयं जगमोहन ने भी अनेक ऐसे काम किये, जिसके कारण घाटी में असंतोष को बढ़ावा मिला.

1987 के चुनाव में 14 मुस्लिम दलों ने मिलकर मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का गठन किया. इसने चुनावों में भागीदारी करके लगभग 30 प्रतिशत मत प्राप्त किये. परन्तु चुनावों में धांधाली करके मात्र उसके चार सदस्य जीतने दिये गये. मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के तमाम नेताओं व कार्यकर्ताओं की सरेआम पिटाई की गयी. इसने राजनीतिक समस्या को तात्कालिक तौर पर और मुश्किल बना दिया. इनमें से कई बाद में उभरने वाले आन्दोलन में नेता बनकर उभरे.

इस प्रकार कश्मीर राज्य के भीतर सभी प्रकार की राजनैतिक गतिविधियों की स्वतंत्रता का हरण कर लिया गया था. तब फिर राज्य में असंतोष के निकलने का कोई लोकतांत्रिक रास्ता नहीं बच रहा था. सरकारों से कश्मीरी जनमानस का मोहभंग और कश्मीरी पूंजीपति वर्ग द्वारा अखिल भारतीय पूंजीपति वर्ग से समझौता कर लेने के उपरांत केवल एक ही रास्ता बच रहा था, और वह रास्ता था सशस्त्र संघर्ष का और आने वाले दिनों में आन्दोलन इसी रास्ते पर अग्रसरित हुआ.

कश्मीर में नया उभार

यदि कश्मीर में एक ओर केन्द्र सरकार की लगातार दखलंदाजी व उसकी प्रभुत्व जमाने की कार्यवाहियां थी तो दूसरी ओर कश्मीर में बनने वाली सरकारें अमूमन भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी थी. यदि शेख अब्दुल्ला ने उनके संघर्ष को मझधार में छोड़कर भारतीय शासकों के साथ समझौता कर लिया था, तो उनके बेटे ने कश्मीरियों के आत्मसम्मान की ही सौदेबाजी कर ली थी.

ऐसे हालात में देर-सबेर कश्मीरियों की आजादी, अपनी पहचान और स्वाभिमान की भावना को जोर मारना ही था और ऐसा ही हुआ. लेकिन कश्मीर की आजादी के संघर्ष का नेतृत्व इस बार कश्मीर का पूंजीपति वर्ग नहीं कर रहा था, इस बार कश्मीर की आजादी का संघर्ष कश्मीरी निम्न पूंजीपति वर्ग के हाथों में था. पूंजीपति वर्ग में इतना दम-खम नहीं होता कि वह इतना जुझारू संघर्ष लड़़ सके. पूंजीपति वर्ग हमेशा ही मौका मिलने पर समझौता करने को तत्पर रहता है.

इस नये उभार का नेतृत्व कर रहे थे जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट जैसे धर्मनिरपेक्ष संगठन. जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने कश्मीरियत का नारा बुलंद किया. यह संगठन भारत अधिकृत और पाक अधिकृत कश्मीर के दोनों ही क्षेत्रों में क्रियाशील रहा है। हजारों-हजार कश्मीरी नौजवान अपनी कश्मीरियत व आजादी के लिए जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के बैनर तले मैदान में आ डटे. अभी आजादी के आन्दोलन के नेतृत्व में कट्टरतावादी नहीं आ सके थे.

इस नये उभार की वजह इतनी ही नहीं थी कि कश्मीरी अपनी कश्मीरियत और आजादी के लिए मैदान में आ डटे थे, इसकी यह वजह भी थी कि पिछले लगभग 40 सालों के कुशासन, भ्रष्टाचार और आर्थिक स्थितियों की बदहाली से कश्मीरी लोगों का विश्वास उठ गया था और चूंकि केन्द्र सरकार की दखलंदाजी के कारण कश्मीर में यह माना जाता रहा है कि यहां की लगभग सभी सरकारें अप्रत्यक्ष तौर पर केन्द्र सरकार द्वारा ही संचालित होती हैं इसलिए उनके विरोध का निशाना भारत सरकार का बनना तय था. इसके अलावा यह कारण भी था कि पिछले दशकों में कश्मीर में पढ़े-लिखे लोगों के लिए रोजगार का संकट भी गहरा गया था. 80 के दशक का अन्त आते-आते कश्मीर में वे सभी समस्यायें मौजदू थी, जो देश के शेष हिस्सों में मौजदू थी. कहने का आशय है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के आम संकट से कश्मीर मुक्त नहीं था और न ही भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था की आम समस्याओं से.

ऐसी स्थिति के कारण ही कश्मीरी जनमानस में लम्बे समय से पनप रहा गुस्सा आखिरकार 1988 में उस समय फट पडा़ जब बिजली की दरों में यकायक और भारी बढ़ोत्तरी कर दी गयी. यह बढ़ोत्तरी भी ऐसे समय में की गयी थी जब बिजली की आपूर्ति काफी गड़़बड़ा गयी थी. प्रदर्शनों पर पुलिस द्वारा गोली चलाने और उसमें तीन व्यक्तियों के मारे जाने के कारण लोग और भी क्रुद्ध हुए. सरकार ने गोलीबारी की जांच कराने के बजाय इन प्रदर्शनों को राष्ट्र विरोधी करार दिया. घाटी लगातार तीन दिन बंद रही. यह प्रदर्शन लगातार जारी रहे और अंततः इन प्रदर्शनों ने हिंसक रूप ग्रहण कर लिया. जुलाई में केन्द्रीय तारघर और दूरदर्शन केन्द्रों पर विस्फोट किये गये, प्रदर्शनों की श्रृंखला के परिणामस्वरूप सरकार विरोध से यह प्रदर्शन भारत विरोध तक जा पहुंचा, जिसकी साफ अभिव्यक्ति 15 अगस्त को काले झंडे लहराना और बंद का आयोजन, गणतंत्र दिवस के अवसर पर घाटी में बंद का आयोजन, 14 अगस्त को स्वाधीनता दिवस मनाना, पाकिस्तानी राष्ट्रपति की मौत पर मातमी जुलूस आदि के रूप में हुई. इन प्रदर्शनों में पुलिस और आजादी समर्थकों के बीच सीधी गोली-बारी भी हुई, जैसे जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के संस्थापक मकबूल भट की बरसी पर, सलमान रशीद की पुस्तक के खिलाफ हुए प्रदर्शन के समय और शब्बीर शाह के पिता की पुलिस हिरासत में मौत पर हुए प्रदर्शनों के समय. प्रदर्शनों पर पुलिस गोलीबारी और आन्दोलनकारियों के तीव्र दमन के कारण आन्दोलन और तीव्र हो गया.

पाक अधिकृत कश्मीर/आजाद कश्मीर

जो हाल भारत अधिकृत कश्मीर राज्य का रहा है, लगभग उसी प्रकार का हाल पाक अधिकृत कश्मीर का भी रहा है. आजाद कश्मीर, जो पाक अधिकृत कश्मीर का मात्र एक हिस्सा है, की घोषणा में यह कहा गया कि आजाद कश्मीर में विधानसभा चुनी जायेगी, परन्तु 1975 तक वहां किसी भी प्रकार की संसदीय प्रणाली अस्तित्व में नहीं आयी. 1974 के आजाद जम्मू व कश्मीर एक्ट ने शासन की संसदीय प्रणाली का विधान रखा. इस एक्ट के अन्तर्गत पाकिस्तान के विधि मंत्रालय ने आजाद जम्मू व कश्मीर के लिए नया संविधान पेश किया. इसे आजाद कश्मीर के राष्ट्रपति और विधानसभा द्वारा पारित कर दिया गया. यह राष्ट्रपति और विधानसभा 1970 के आजाद कश्मीर एक्ट के तहत अस्तित्व में आयी थी.

इसके बावजूद संविधान इस प्रकार का बना, जिसमें चुनी हुई सरकार के पास आजादी से काम करने की बहुत कम गुंजाइश है. संविधान के सैक्शन 7 के पैरा 2 में कहा गया है कि, ’किसी व्यक्ति या राजनीतिक पार्टी को राज्य के पाकिस्तान में विलय की विचारधारा के खिलाफ प्रचार करने या ऐसी गतिविधियों में हिस्सा लेने की इजाजत नहीं दी जायेगी.

इसी प्रकार संविधान में कहा गया है : बोलने की स्वतंत्रता आजाद जम्मू व कश्मीर की सुरक्षा और पाकिस्तान के साथ दोस्ताना सम्बन्धों के हितों में कुछ आवश्यक पाबंदी लगाती है. 13 सदस्यीय आजाद जम्मू व कश्मीर परिषद में, जिसका अध्यक्ष पाकिस्तान का प्रधानमंत्री ही हो सकता है, सरकार 6 और सदस्यों को मनोनीत कर सकती है. इस प्रकार परिषद में पाकिस्तान की सरकार का बहुमत रहता है. इसके निर्णयों का पुनरीक्षण न्यायपालिका नहीं कर सकती और इसकी बैठकें इस्लामाबाद में होती है. धारा – 56 पाकिस्तान सरकार को यह अधिकार देती है कि वह आजाद कश्मीर की सरकार व विधानसभा को भंग कर दे. इसके साथ ही पाकिस्तान सरकार द्वारा नियुक्त मुख्य सलाहकार (जो सामान्यतः सयुंक्त सचिव के दर्जे का होता है) के अधीन सभी लोग होते है. बिना मुख्य सलाहकार की सलाह लिये हुए मंत्रिमंडल के समक्ष स्वीकृति के लिए कोई भी कानून नहीं पेश किया जा सकता. मतभेद की स्थिति में पाकिस्तान सरकार के कश्मीर मामलों संबंधी मंत्रालय से पूर्व स्वीकृति के बिना कानून को नहीं पेश किया जा सकता है.

जैसे भारत अधिकृत कश्मीर में कश्मीरियत और आजादी का नारा प्रधान है, वैसा ही हाल आजाद कश्मीर का भी है. पाक अधिकृत क्षेत्र में भी कश्मीरी लोगों पर धार्मिक पहचान की तुलना में कश्मीरी पहचान हावी है. वे धार्मिक आधार पर अपनी जातीयता की पहचान को खोने के लिए तैयार नहीं है. आजाद कश्मीर में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो पाकिस्तान के साथ विलय के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं है. यहां स्वतंत्रता सेनानी अब्दुल खलिक अंसारी ने सम्पूर्ण पुनर्संगठित राज्य की आजादी के लिए आंदोलन शुरू किया. जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की स्थापना करने से पहले अमानुल्लाह खां ने 13 वर्षों तक उनके नेतृत्व में कार्य किया था. अंसारी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं और आजीवन द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त का विरोध करते रहे हैं. जेकेएलएफ (जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट) के अलावा भी अन्य संगठन हैं, जो आजादी हासिल करने के लिए अभियान चला रहे हैं.

आजादी समर्थक कश्मीर डेमोक्रेटिक एलायन्स की चार पार्टियों के उप उम्मीदवारों ने जब पाकिस्तान विलय के साथ सहमति रखने की घोषणा पर दस्तखत करने से इंकार कर दिया तो उनके नामांकन खारिज कर दिये गये. डॉन अखबार के अनुसार कश्मीर डेमोक्रेटिक एलायन्स के उम्मीदवारों ने अपने नामांकन पत्र में पाकिस्तान के स्थान पर कश्मीर भरा था. इस कश्मीर डेमोक्रेटिक एलायंस में चार पार्टियां शरीक है – नेशनल लिबरेशन फ्रंट, नेशनल अवामी पार्टी, नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी और नेशनल स्टूडेन्ट्स फेडरेशन है.

आजाद कश्मीर के प्राकृतिक संशाधनों के पाकिस्तान द्वारा दोहन के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज निरंतर उठ रही है. मंगला बांध द्वारा पैदा की गयी बिजली पाकिस्तानी इलाकों को तो पहुंचायी जा रही है, परन्तु स्वयं आजाद कश्मीर को बांध से हासिल तमाम सुविधाओं से वंचित रखा गया है. यहां के निवासियों का नारा ही उनकी भावनाओं और कश्मीरी आन्दोलन को धार्मिक चश्मे से देखने वालों को स्पष्ट संदेश दे देता है. ‘कश्मीर जिंदाबाद’, ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’.

परन्तु आजाद कश्मीर से भी ज्यादा बदतर स्थितियां उन क्षेत्रों की है, जो उत्तरी क्षेत्र कहलाता है. यहां पाकिस्तान द्वारा सीधे शासन किया जाता है. पाक अधिकृत कश्मीर का बड़ा भू-भाग इसी क्षेत्र में है. इन्हें गिलगित व बलतिस्तान के नाम से जाना जाता है. पाकिस्तान द्वारा इन्हें अपने नियंत्रण में लेने के बाद से ही यह क्षेत्र अपने अधिकारों व अपनी पहचान के लिए संघर्षरत है. इन क्षेत्रों का अपना कोई संविधान नहीं है. इस क्षेत्र के लोग नागरिक अधिकारों से भी वंचित है. इन लोगों के साथ अपनी एकजुटता प्रदर्शित करते हुए आजाद कश्मीर के नेताओं ने गिलगिट का दौरा भी किया. इस इलाके के लोग भी अपनी आजादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में ही नहीं पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में भी आजादी समर्थकों का दमन किया जाता है. इससे यह भी स्पष्ट होता है कि आम तौर पर कश्मीरी धार्मिक दृष्टिकोण से संघर्षरत नहीं है और न ही वे पाकिस्तान समर्थक हैं जैसा कि हिन्दू कट्टरपंथियों द्वारा हमारे देश में प्रचारित किया जाता है. यदि कश्मीरी धार्मिक दृष्टिकोण से या पाकिस्तान के साथ मिलने के पक्षधर होते तो पाक अधिकृत कश्मीर के कश्मीरी कभी भी आजादी/स्वतंत्र कश्मीर की बात नहीं करते.

कश्मीर पर साम्राज्यवाद, विशेषकर अमेरिकी साम्राज्यवाद की नीति

भारत और पाकिस्तान में विभाजन व राज्य सत्ताओं का निर्माण जनमत संग्रह के आधार पर नहीं हुआ था और न ही संविधान सभाओं का गठन सार्वत्रिक वयस्क मताधिकार के आधार पर हुआ था. रजवाड़ों के विलय का निर्णय भी शासकों की इच्छा का मोहताज था. कहने का आशय यह है कि भारत और पाकिस्तान का गठन लोकतांत्रिक प्रक्रिया को धता बताते हुए हुआ था. जनता के भाग्य का निर्णय बहुत कुछ साम्प्रदायवादियों, रजवाड़ों के शासकों ने किया था. यह साम्राज्यवाद की प्रतिक्रियावादी नीति का एक और उदाहरण था. कांग्रेस ने सार्वत्रिक वयस्क मताधिकार की अपनी मांग को छोड़कर एक तरह से सब कुछ साम्राज्यवादियों और अन्य प्रतिक्रियावादियों के हाथों में छोड़़ दिया था.

साम्राज्यवादियों ने विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच के मतभेदों को न सिर्फ बढ़ाया बल्कि अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए उनका इस्तेमाल भी किया. सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को निरंतर धीमी वार्ताओं के माध्यम से लंबे समय तक लटकाये रखा गया, ताकि भारतीयों के बीच सत्ता को लेकर अन्तःविरोध और तीखा हो जाये तथा साम्प्रदायिक तनाव और तीखा हो जाये.

आजादी के ठीक पूर्व ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की नीति बहुत स्पष्ट थी. कैबिनेट मिशन की रूपरेखा जिसके तहत – एक कमजोर केन्द्र की धारणा थी जो केवल विदेश विभाग, प्रतिरक्षा और संचार साधनों पर नियंत्रण रखेगा और जिसमें संविधान सभा का चुनाव करते समय प्रांतीय असेंबलियां तीन मंडलों में बांट दी जायेंगी : हिन्दू-बहुल प्रांतों के लिए मंडल ‘अ’ होगा तथा उत्तर-पश्चिमी और उत्तर-पूर्वी मुस्लिम-बहुल प्रांतों (असम सहित) के लिए मंडल ‘ब’ और ‘स’.

इन मंडलों को अपनी स्वयं की मध्यम स्तर की कार्यकारिणियों एवं विधायिकाएं बनाने का अधिकार होगा – अव्यवहारिक हो चुकी थी. ऐसे में साम्राज्यवादियों ने एक वैकल्पिक योजना बनाई. इसमें विभिन्न प्रांतों को (या यदि हस्तांतरण से पूर्व संघ बन जाये तो संघों को) सत्ता हस्तांतरण करने की बात थी, जिसमें पंजाब और बंगाल की विधायिकाओं को यह अधिकार होता कि वे चाहैं तो अपने प्रांतों का विभाजन कर ले. इस प्रकार बनने वाली विभिन्न इकाइयां और रजवाड़े सर्वोच्चता समाप्त होने से स्वतंत्र हो जायेंगे और उनको यह स्वतंत्रता होगी कि वे चाहे तो भारत या पाकिस्तान में मिलें या स्वतंत्र रहे. इस साम्राज्यवादी योजना में निहित था कि वे कोई मजबूत संघ नहीं बनने देना चाहते थे. इसके विपरीत वे भारत को छोटे-छोटे राज्यों में विखंडित कर देना चाहते थे. ऐसी ही साम्राज्यवादी नीति का इशारा ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने 1947 को हाऊस ऑफ कॉमन्स में अपने भाषण में किया था. इस योजना के सफल होने की स्थिति में ब्रिटिश साम्राज्यवाद को इन कमजोर राज्यसत्ताओं पर अपने प्रभाव को बनाये रखाना आसान हो जाता. साम्राज्यवादियों की यह योजना पूर्णतया भले ही सफल न हो पायी हो, परन्तु उन्हें भारत-पाक विभाजन के माध्यम से आंशिक सफलता अवश्य मिल गयी. भारत-पाक के स्थायी झगडे़ ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों समेत समस्त साम्राज्यवादियों को भारतीय उपमहाद्वीप में बंदर की भूमिका अदा करने का स्थायी तत्व मुहैय्या करा दिया.

कश्मीर समेत अन्य रजवाड़ों की समस्या भी सत्ता हस्तांतरण के ठीक पूर्व की दो नीतियों का परिणाम थी एक राज्यसत्ताओं का गैर-जनवादी तरीके के आधार पर गठन और दूसरा साम्राज्यवाद की भारत विखंडन की नीति. ब्रिटिश साम्राज्यवादी रजवाड़ों के शासकों को पूर्व की भांति स्वेच्छाचारी बने रहने की उनकी आकांक्षाओं को हवा देते रहते थे. सत्ता-हस्तांतरण के उपरांत जब कबायलियों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया और महाराजा द्वारा परिस्थितिवश कश्मीर के भारत में विलय के उपरांत जब भारत की ओर से यह विवाद सयुंक्त राष्ट्र संघ में उठाया गया तब भी कश्मीर के प्रश्न पर साम्राज्यवाद की नीति लगभग यही थी, कि कश्मीर घाटी स्वतंत्र हो जाये. यही इच्छा 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ के मध्यस्थ डिक्सन के प्रस्ताव में प्रतीत होती है, जिसके तहत कश्मीर घाटी में जनमत संग्रह करा लिया जाये और शेष भागों को भारत-पाकिस्तान के बीच बांट दिया जाये. उस समय अमेरिका की कश्मीर पर नीति स्वयं अमेरिकी राजनयिक के वक्तव्य से समझी जा सकती है. अमेरिकी राजनयिक स्टीवेंसन ने ‘मैन्चेस्टर गार्जियन’ के साथ एक साक्षात्कार में कहा कि, ’कश्मीर के लिए सबसे बढ़ियां दर्जा होगा भारत और पाकिस्तान दोनों से स्वाधीनता. इस नीति के तहत साफ था कि वे ऐसे किसी भी कमजोर राष्ट्र को कहीं ज्यादा प्रभावित कर सकते हैं और उसका इस्तेमाल करते हुए भारतीय उपमहाद्वीप में अपने प्रभुत्व को कहीं ज्यादा अच्छे से स्थापित कर सकते थे.

भारत और पाकिस्तान वैसे तो कश्मीर विवाद को शिमला समझौते के अनुसार द्विपक्षीय वार्ता से सुलझाने को प्रतिबद्ध है, परन्तु यह समझौता दोनों देशों के बीच बराबरी के आधार पर नहीं हुआ था. पाकिस्तान 1971 के सयुद्ध में बुरी तरह पराजित हुआ था. शिमला समझौता विजेता देश भारत द्वारा पराजित देश पाकिस्तान पर थोपा गया था इसीलिए पाकिस्तान हमेशा शिमला समझौते का उल्लंघन करके कश्मीर मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने की कोशिश करता है. वैसे कश्मीर मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण पाकिस्तान ने नहीं भारत ने किया था. भारत ही 1948 में इसे सयुंक्त राष्ट्र संघ में ले गया. सयुंक्त राष्ट्र में जनमत संग्रह की बात तय हुई परन्तु भारत सरकार ने आज तक कश्मीर में जनमत संग्रह नहीं कराया. यह सभी अंतरर्राष्ट्रीय ताकतों को इस बात का आधार प्रदान करती है कि वे कश्मीर के मामले में अपना कोई रूख तय करे. हालांकि ऐसा कानूनी नुस्खा हाथ न लगने पर भी साम्राज्यवादी ताकतें प्रत्येक जगह अपना हस्तक्षेप करती है. दूसरा कारण है कश्मीरी जनता का अपने आत्मनिर्णय के लिए चलाया जाने वाला संघर्ष और इस संघर्ष का भारतीय राज्यसत्ता द्वारा दमन, तीसरा कारण है कश्मीर पर भारत-पाक के बीच होने वाला विवाद और तनाव. बाद के दोनों कारण भी कश्मीर मामले को द्विपक्षीय मामले तक सीमित नहीं रहने देते.

भारत सरकार की औपचारिक अवस्थिति कश्मीर मामले के अन्तर्राष्ट्रीयकरण के खिलाफ है. वह इस मामले में किसी भी देश को मध्यस्थ नहीं बनाना चाहता. पहले तो पाकिस्तान ही इस मामले के अन्तर्राष्ट्रीयकरण की व अमेरिका को मध्यस्थ बनाने की बात करता रहता था. 90 के दशक से पूर्व सामाजिक साम्राज्यवादी सोवियत संघ के भारतीय शासको के साथ खडे़ होने के कारण इस मामले में पाकिस्तान द्वारा सुरक्षा परिषद में लाये गये प्रस्ताव नहीं रखे जो सके. परन्तु 90 के दशक के बाद से जैसे-जैसे भारत और अमेरिकी शासकों के बीच की दूरियां घट रही हैं, वैसे-वैसे भारत सरकार स्वयं अमेरिकी शासकों से पाकिस्तान की शिकायत करता रहता है. विगत वर्षो में तो यह सुर निरंतर बढ़ता जा रहा है कि पाकिस्तान कश्मीर में हस्तक्षेप कर रहा है. ऐसी शिकायतें दरअसल अमेरिकी मध्यस्थता को अघोषित तौर पर स्वीकार कर लेना ही कहा जायेगा. अमेरिका भी अपने इसी अधिकार के तहत कश्मीर के मामले को लेकर भारत पाक दोनों के अपने हितों के अनुरूप कान ऐंठता है.

कश्मीर मामले में या भारत-पाक के विवाद में अक्सर अमेरिका को पाकिस्तान पक्षधर मान लिया जाता है. यह गलत धारणा है. ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि पाकिस्तान की अवस्थिति अमेरिकी साम्राज्यवादियों के हितों को पूरी तरह नहीं तो कम से कम एक हद तक तो साधती ही है. पश्चिमी साम्राज्यवादियों का हित इसमें नहीं है कि कश्मीर पूरी तरह से भारत या पाकिस्तान के साथ चला जाये बल्कि कश्मीर को विवादित क्षेत्र मानना ही पश्चिमी साम्राज्यवादियों विशेषकर अमेरिकी हितों के सबसे ज्यादा फायदे का है. यह साम्राज्यवादियों को दखलंदाजी के अवसर प्रदान करता है. कश्मीरी आजादी के नेता भी गाहे – बगाहे अमेरिकी साम्राज्यवादियों से समस्या को सुलझाने या भारत पर दबाव डालने की अपील करने लगते है. लेकिन अमेरिकी कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के समर्थक नहीं हैं, जैसा कि चार या पंच दशक पूर्व प्रतीत होता था. भारत और पाक के बीच होने वाले विगत युद्धों ने पूरे विवाद में जो संतुलन पैदा कर दिया है, उसकी वस्तुस्थिति को स्वीकारते हुए अमेरिकी व पश्चिमी साम्राज्यवादियों के लिए अब यह बदली हुई अवस्थिति ज्यादा फ़ायदे की है. अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने भी एक तरह से यह मान लिया है कि अब कश्मीर में जनमत संग्रह की बातें दोनों ही देशों के शासकों के लिए बासी हो चुकी है.

ऐसे में जब अमेरिकी नेता/अधिकारी यह कहते हैं कि यदि भारत-पाक के बीच कश्मीर का मुद्दा नहीं हल होता है तो भारत-पाक के बीच युद्ध भी हो सकता है, जिसके नाभिकीयस्वरूप ले लेने का खतरा मौजदू है. जब-जब तनाव बढता है तब-तब पश्चिमी साम्राज्यवादी ऐसे ही खतरों की बात करते हैं या इस प्रकार की रपटें प्रकाशित करते हैं. लेकिन ऐसा करने के पीछे उनकी साम्राज्यवादी मंशा बहुत स्पष्ट होती है. इसके माध्यम से अमेरिका को शर्तें थोपने और मोल-भाव करने का उपकरण मिल जाता है.

अमेरिकी अधिकारियों के बयानों से कश्मीर के प्रश्न पर अमेरिकी नीति और ज्यादा स्पष्ट हो जाती है –

राज्य विभाग के अधिकारी जॉन मैलेट ने अमेरिकी कांग्रेस कमेटी के समक्ष अपने बयान में कहा कि, ’पूरा कश्मीर एक विवादित क्षेत्र है. साथ ही साथ यह भी कि कोई भी समाधान मुस्लिम और गैर-मुस्लिम कश्मीरी लोगों के अपने नजरिये को भी ध्यान में रखकर ही निकाला जाना चाहिए.’

इसी प्रकार एक अन्य अमेरिकी अधिकारी ने कश्मीरी नेताओं से कहा कि वे ’यथार्थवादी हो’ और उनसे विकल्प प्रस्तुत करने को कहा. क्योंकि अमेरिका न तो स्वतंत्रता और न ही जनमत संग्रह और न ही भारत के भीतर कश्मीर की वृहत्तर स्वायत्तता का समर्थन करेगा. उन्होंने कोई ब्यौरा दिये बगैर कश्मीर के भारत-पाक सयुंक्त नियंत्रण के विचार की दलील दी थी.

ऐसे में संयुक्त भारत-पाक नियंत्रण की वार्ता में न सिर्फ बाहरी मध्यस्थों की जरूरत पड़ेगी बल्कि आवश्यक रूप से अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षण की भी जरूरत पडे़गी. इस प्रकार दुनिया के इस हिस्से में अमेरिका की भूमिका को एक वैधानिक अनुमति मिल जायेगी.

राज्य की सहायक सचिव रॉविन राफ़ेल के माध्यम से अमेरिका ने अपना यह दृष्टिकोण अभिव्यक्त किया था कि पिछले बीस सालों में कश्मीर के बारे में शिमला समझौते का कोई इस्तेमाल नहीं किया गया है और अपने आप में नये रास्ते खोजने होंगे. उन्होंने नियंत्रण रेखा की निगरानी के लिए भी और अधिक समर्थन की मांग की.

सोमालिया में अमेरिका के भयंकर सैनिक हस्तक्षेप (जिसका न सिर्फ भारत ने समर्थन किया बल्कि सैनिक भेजकर सहयोग भी किया) से अमेरिका की सैनिक ताकत प्रदर्शन की इच्छा शान्त हो जानी चाहिए लेकिन भारत और पाकिस्तान सरीखे दो पड़ोसी देशों के टकराव के रिश्तों के सदंर्भ में पर्यवेक्षक के रूप में अमेरिका सरीखी बाहरी ताकत की मौजदूगी पूरी तरह से भिन्न मामला है. दोनों देशों की आर्थिक भेद्यता और उनकी अमेरिकी साख पर निर्भरता से अमेरिका को उस क्षेत्र में अपना प्रत्यक्ष प्रभाव का विस्तार करने की सामर्थ्य मिलेगी जिसके मध्य एशिया के पास होने और चीन से संपर्क की वजह से रणनीतिक निहितार्थों के पूरी तरह बदलने की संभावना है.

इसी रोशनी में रॉविन राफेल के वक्तव्य को समझा जाना चाहिए कि, ’हमें राह में एक ऐसे आदमी की तलाश है, जिससे हम दोनों पक्षों की मदद का प्रयास कर सकें लेकिन उचित समय से पहले नही.’

उपरोक्त अमेरिकी अधिकारियों के बयान अमेरिकी मंशा को बहुत अच्छे से स्पष्ट कर देते हैं.

कश्मीर में 1990 के बाद का दौर

1987 से 1989 तक होने वाले विरोध-प्रदर्शनों का अंधांधुंध दमन किया गया था. यह प्रदर्शन राज्य सरकार और भारत दोनों के ही खिलाफ़ हुए थे. फारूख अब्दुल्ला सरकार ने जन-असंतोष को समाप्त करने के लिए कदम उठाने के बजाये इन प्रदर्शनों पर दुस्साहसिक भाषणबाजी ज्यादा की. राज्य सरकार इन असंतोषपूर्ण प्रदर्शनों के लिए केन्द्र सरकार द्वारा राज्य सरकार के प्रति किये जाने वाले सौतेले व्यवहार को दोषी ठहराती रही और ऐसा करके वह अपनी नाकामियों पर पर्दा डालना चाहती थी क्योंकि ऐसा करके वह कश्मीरियों के आक्रोश को मोड़ देना चाहती थी. फारूख सरकार केन्द्र सरकार को निरंतर संतुष्ट करने का प्रयास करती रही. परन्तु फारूख सरकार की इन्हीं कार्यवाहियों ने कश्मीरियों के भीतर फारूख सरकार की विश्वसनीयता खत्म कर दी थी. बिना आरोपों के गिरफ्तारियां और हिरासत तथा निर्दोष व्यक्तियों पर ढाये जाने वाले जुल्मों का ग्राफ काफी ऊपर चढ़ गया था.

1989 के लगभग उत्तरार्ध में पहली राजनैतिक हत्या की गयी, जिसमें नेशनल कांफ्रेंस के ब्लॉक अध्यक्ष को गोली मार दी गयी थी. इसके बाद जेकेएलएफ ने उसी वर्ष दो कश्मीरी पंडितों जियालाल टपलू और नीलकंठ गंज की हत्या की. लेकिन यह हत्यायें विशुद्ध राजनैतिक दृष्टिकोण से की गयी थी. इनका धर्म से कोई लेना-देना नहीं था. फिर भी इन हत्याओं से कश्मीरी पंडितों के बीच भय फैला था.

इस बीच सरकार ने बदनाम जगमोहन की राज्यपाल के रूप में नियुक्ति कर दी. इस पर अपनी पूर्व घोषणा के अनुरूप फारूक ने इस्तीफ़ा दे दिया. इसकी वजह से अब कश्मीरियों और भारत सरकार के बीच सीधे संघर्ष की स्थिति पैदा हो गयी. इस पर मुहर लगाने का काम राज्यपाल ने विधानसभा को भंग करके कर दिया. जैसी कि संभावना थी, कुख्यात जगमोहन की नियुक्ति के ठीक बाद दमन और उत्पीड़न में तेजी आयी. सुरक्षा बलों द्वारा श्रीनगर के एक हिस्से को घेरकर ली जाने वाली अभद्रतापूर्ण तलाशी के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों पर भयंकर गोलीबारी करके 35 लोगों की हत्या कर दी गयी. इसके बाद तो निरंतर और बढ़ते पैमाने पर इस प्रकार की घटनायें दोहरायी गयी. इस बढ़ते पैमाने की घटनाओं ने संघर्ष का ऐसा रूप ग्रहण कर लिया, जिसके एक ओर भारत सरकार और उसके सुरक्षा बल थे तो दूसरी ओर कश्मीरी जन समुदाय.

इस प्रक्रिया में कश्मीर में राजनैतिक व्यवस्था ही नहीं चरमराई थी, इसके साथ ही वहां प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था भी चरमरा गयी थी. पहले राज्य सरकार ने और बाद में जगमोहन ने स्थानीय अधिकारियों के बजाय भारतीय सुरक्षा बलों पर ज्यादा विश्वास प्रदर्शित किया था. डाक, बैंक, बीमा के साथ ही सामाजिक और कल्याण संबंधी कार्य भी लगभग ठप्प पड़ चुके थे. राष्ट्रवाद के नाम पर सुरक्षा बलों की हर अमानुषिक कार्यवाही को न्यायसंगत ठहराया गया, लेकिन ऐसी कार्यवाहियों का परिणाम और ज्यादा भारत विरोधी भावनाओं के रूप में आया. कश्मीरी नागरिकों के सभी हिस्से यहां तक कि सरकारी कर्मचारी भी जो अपने-अपने विभागों के झंडे उठाये रहते थे, आजादी की मांग को लेकर सड़कों पर उमड़ने लगे. इससे परेशान सरकार ने लबे-लंबे अंतरालों के लिए कर्फ्यू थोपे, जिसने सभी प्रकार की गतिविधियों को ठप्प कर दिया. सरकारी सत्ता के दमन की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना मीरवाइन मौलवी फारूक की हत्या के बाद निकाले गये जनाजे पर फायरिंग के रूप में सामने आयी, जिसके तहत आजाद भारत में जलियंवाला बाग कांड दोहराया गया. इस घटना के बाद ही राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी ज्यादितियों की ओर ध्यान दिया गया.

सरकारी दमन और अत्याचार ने कश्मीरियों को हथियारबंद संघर्ष की ओर और भी ज्यादा मुड़ने के लिए बाध्य किया. सरकारी अनुमान के अनुसार 10 हजार कश्मीरी नौजवान सीमा पार प्रशिक्षण और हथियार पाने के लिए पाकिस्तान चले गये. कहा जाता है कि कश्मीरी नौजवानों को सीमा पार जाने के लिए सरकार द्वारा अनुकूल अवसर उपलब्ध कराया जाता था ताकि इन नौजवानों से मुक्ति पायी जा सके.

जगमोहन ने अपने इस दूसरे कार्यकाल में कश्मीरियों पर अघोषित आपातकाल थोप दिया था. सुरक्षाबलों को हत्या, बलात्कार, मारपीट, गिरफ्तारियां और हिरासत जैसे कारनामों के लिए खुली छूट ही नहीं दी गयी थी, बल्कि राष्ट्रीय प्रेस ने इसमें जगमोहन का पूरा साथ दिया था क्योंकि विदेशी संवाददाताओं को घाटी से खदेड़ दिया गया था और स्थानीय प्रेस पर सरकारी अंकुश लगा हुआ था. इस दौरान कश्मीरी नागरिकों के पास खबरों के नाम पर सिर्फ झूठ और अफवाहे ही होती है,ं या फिर राजभवन द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्तियां.

1. पंडितों का पलायन और साम्प्रदायिक राजनीति :

जगमोहन के शासनकाल के दौरान कश्मीरी पंडितों के अधिकांश लोगों ने घाटी छोड़ दी. कश्मीरी पंडितों के घाटी छोड़ने का यह सिलसिला 1990 में ही शुरू हो गया था. इस पलायन के लिए यदि कुछ कट्टरपंथी संगठनों द्वारा की गयी कार्यवाहियां जिम्मेदार थी, तो उससे ज्यादा जिम्मेदार राज्यपाल जगमोहन और आरएसएस जैसे साम्प्रदायिक संगठन थे. आम तौर पर आम कश्मीरी पंडितों के पलायन पर काफी दुखी था। निःसन्देह कश्मीर के कुछ कट्टरपंथी व आतंकवादी संगठनों ने धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यकों की हत्याओं की कुछ घटनायें की थी परन्तु ऐसी घटनाओं को स्वयं आम कश्मीरियों द्वारा भी पसंद नहीं किया गया था.

राज्यपाल के रूप में जगमोहन ने इस पलायन को रोकने की बजाय उसे अप्रत्यक्ष तौर पर प्रोत्साहित ही किया. दोनों समुदायों के बीच आपसी विश्वास कायम करने के प्रयासों को बाधित किया. साम्प्रदायिक, राजनीतिक गतिविधियों और पंडितों के साथ होने वाले अत्याचारों की झूठी खबरें प्रकाशित और प्रसारित करने वाले के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गयी. इसके विपरीत इन बढ़ा-चढ़़ा कर प्रस्तुत की गयी घटनाओं का इस्तेमाल कश्मीरी मुसलमानों को बदनाम करने के लिए किया गया ताकि आन्दोलन को बदनाम करके उसके खिलाफ होने वाली दमनात्मक कार्यवाहियों के लिए देश के भीतर और बाहर समर्थन प्राप्त किया जा सके.

कश्मीरी पंडितों के पलायन को लेकर खुलकर साम्प्रदायिक राजनीति की गयी. संघ परिवार के संगठनों ने कश्मीर में पंडितों पर होने वाले अत्याचारों की खबरों को बढ़ा-चढ़ाकर और नमक-मिर्च लगाकर देश के शेष हिस्सों में प्रसारित किया. पंडितों के पलायन को वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बना दिया गया. कश्मीरी पंडितों और उनके संगठनों को साम्प्रदायिक राजनीति के लिए इस्तेमाल किया गया लेकिन इस प्रकार की राजनीति का एक दुखद परिणाम यह हुआ कि कश्मीरी पंडितों और कश्मीरी मुसलमानों के बीच की दूरियां काफी बढ़़ गयी.

साम्प्रदायिक आधार पर होने वाली घटनायें निश्चित तौर पर कश्मीरी आन्दोलन के लिए धक्का पहुंंचाने वाली थी. परन्तु, यह आम नहीं थी. दरअसल अक्सर सामान्य या राजनैतिक आधार पर की जाने वाली हत्याओं को भी साम्प्रदायिक रंग प्रदान कर दिया जाता था और उसको लेकर देश भर में लामबंदी और प्रदर्शन किये जाते रहे है. इस सच को कभी सामने नहीं लाया गया कि ऐसे आतंकवादी संगठनों का कश्मीरी आन्दोलन से कोई सरोकार नहीं है जो साम्प्रदायिक आधार पर घटनाओं को अंजाम देने या सामान्य नागरिकों की हत्याओं में संलग्न है.

इस सत्य को भी बताने की कभी जरूरत नहीं समझी गई. घाटी से पलायन केवल पंडितों ने हीं नहीं किया वरन 20 हजार मुस्लिम परिवारों ने भी घाटी छोड़ी थी या फिर कि 1990 से 1993 तक की उग्रवाद संबंधी घटनाओं में 8100 व्यक्ति मारे गये, जिसमें हिन्दू मात्र 350 थे. यह आंकडे़ इस तथ्य को खारिज करते हैं कि कश्मीर में हिन्दुओं पर भारी अत्याचार होता है. इसके विपरीत तथ्य यह सिद्ध करते हैं उग्रवाद संबंधी घटनाओं में हिन्दू और मुसलमान दोनों मरते हैं और उसमें भी मुसलमान ज्यादा. इसके बावजूद भी देश भर में किसी भी चुनावबाज राजनीतिक दल या संगठन द्वारा कश्मीरी मुसलमानों की सुरक्षाबलों द्वारा की जाने वाली हत्याओं या आतंकवादी समूहों द्वारा की जाने वाली हत्याओं पर या उनके पलायन पर कभी भी प्रतिक्रिया नहीं की जाती और न ही इसको लेकर कोई देशव्यापी लामबंदी की जाती है. यहां यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इससे ज्यादा कश्मीरी मुसलमान सुरक्षाबलों की क्रॉस फायरिंग, फर्जी मुठभेडों या प्रदर्शनों में मारे गये हैं.

2. कश्मीरी आंदोलन में कट्टरपंथी संगठनों का बढ़ता प्रभाव

1990 में ही कश्मीरी आन्दोलन में विभिन्न प्रकार के कट्टरपंथी संगठनों का प्रभाव बढ़ने लगा था. इन संगठनों को पाकिस्तान की ओर से ही नहीं परोक्ष रूप से भारत सरकार की ओर से भी मदद प्रदान की गयी थी. जेकेएलएफ, जिसका कश्मीर घाटी में सबसे ज्यादा प्रभाव था, अब धीरे-धीरे अपनी वर्चस्व की स्थिति गंवाने लगा था. आजादी और कश्मीरियत के नारे ने ही जेकेएलएफ को यह स्थिति प्रदान की थी. जेकेएलएफ ने ही घाटी में सशस्त्र संघर्ष की शुरूआत की थी. परन्तु जेकेएलएफ के नारे भारत और पाकिस्तान दोनों ही ओर के शासकों के लिए खतरनाक थे इसलिए जेकेएलएफ को अलग-थलग और कमजोर करने के लिए दोनों ही ओर के शासकों ने अघोषित नापाक गठबंधन कायम कर लिया. जेकेएलएफ के अनुसार पाकिस्तान सरकार जेकेएलएफ द्वारा हथियार प्राप्त करने व अन्य सामान भारत लाने के प्रयासों में बाधा डालने लगी वहीं उसने अनेक पाकपरस्त व कट्टरपंथी संगठनों को यहां तक कि विदेशी लड़ाकुओं को भी न सिर्फ खड़़ा करने में आर्थिक मदद दी, उन्हें और भी अनेक प्रकार की सुविधायें प्रदान की.

जेकेएलएफ ने यहां तक आरोप लगाया कि पाकिस्तान समर्थक तत्वों ने उनके अड्डों की सूचना भारतीय सुरक्षा बलों तक पहुंचाने का काम किया, जिसके कारण वे सुरक्षा बलों के सामने कमजोर पड़़ गये. मुठभेड़ों में फ्रंट के कुछ सक्रिय कार्यकर्ता मारे गये और प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिये गये. जेकेएलएफ के प्रमुख ने 1991 में पाकिस्तान में यह शिकायत भी की कि हिजबुल मुजाहिदीन के लोग जेकेएलएफ के सदस्यों को मार रहे हैं. वैसे सरकारी रिपोर्टें भी इन संगठनों के टकराव वाली ऐसी घटनाओं की तसदीक करती है. फिर भी 1992 में जेकेएलएफ प्रमुख अमानुल्लाह ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पार करने के लिए पाक अधिकृत कश्मीर में शांति मार्च का आयोजन किया.

इस संघर्ष में 12 कार्यकर्ता मारे गये और 30 मार्च को सीमा पार करने की कोशिशों को रोकते हुए पाकिस्तानी सेना द्वारा 500 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन इस मार्च के माध्यम से जेकेएलएफ ने न सिर्फ अपनी स्वतंत्र शक्ति साबित कर दी वरन आजादी और कश्मीरियत के कमजोर पड़ चुके नारे को पुनः आगे लाने में मदद की. फिर भी कश्मीरी आन्दोलन पर कट्टरपंथियों का काफी प्रभाव बनने लगा और जेकेएलएफ जैसे सगठन काफी हद तक हाशिये पर जा चुके हैं.

जेकेएलएफ जैसे धर्मनिरपेक्ष व आजादी और कश्मीरियत की बात करने वाले संगठनों के हाशिये पर डाले जाने का ही यह परिणाम था कि घाटी में अल्पसंख्यकों पर हमले किये गये और हो भी रहे हैं तथा पाकपरस्त कट्टरपंथी व आतंकवादी संगठनों का घाटी में काफी ज्यादा प्रभाव बढ़ा है. हालांकि जेकेएलएफ जैसे संगठन कश्मीरी पंडितों से पुनः घाटी में आने का आह्वान करते हैं और इस प्रकार की सभी घटनाओं की तीव्र भर्त्सना करते रहे हैं.

3- भारतीय राज्यसत्ता का प्रतिक्रियावादी चरित्र और सेना की भूमिका

भारतीय शासक वर्ग अपने लोकतांत्रिक या जनवादी स्वरूप के लिए खुद को चाहें जितने तमगे दे दे परन्तु यह भारतीय शासकों द्वारा जनता को बेवकूफू बनाने के लिए गढ़ा गया एक और मिथक है. इस कथित लोकतांत्रिक देश का यथार्थ बिल्कुल भिन्न पहलू दर्शाता है. इस देश की राज्यसत्ता का वास्तविक प्रतिक्रियावादी चरित्र अपने पूरे यौवन के साथ राष्ट्रीयता के जनवादी संघर्षोंं के दमन में दिखायी देता है. यह सभी प्रकार के उन जनवादी संघर्षोंं के दमन में भी अपने को प्रकट करता रहता है, जो यहां तक कि संवैधनिक दायरे में ही लड़े जाते हैं, क्रांतिकारी संघर्षोंं की तो बात ही अलग है. पिछले लगभग 14 वर्षों के कश्मीरी संघर्ष को कुचलने में भारतीय राज्यसत्ता ने न सिर्फ़ कानूनी रूपों का बल्कि अपने ही संविधान की बखिया उधेड़ते हुए गैर-कानूनी रूपों को भी अपनाया है. कश्मीरी सहित राष्ट्रीयता के सभी संघर्षोंं को कुचलने के लिए भारतीय राज्यसत्ता ने एक से बढ़कर एक खतरनाक कानूनों का निर्माण करके जनवाद का गला घोंटा है.

वैसे भारतीय राज्य के उदारवादी चरित्र को लेकर भी अनेक भ्रम फैलाये जाते हैं, लेकिन भारतीय राज्य न तो कभी उदारवादी था और न अब है. पूंजीवादी राज्यसत्ताओं का उदारवादी मुखौटा तभी तक कायम रहता है जब तक कोई आन्दोलन या मांग पूंजीवादी राज्य के आम हितों के खिलाफ नहीं जाती है. कश्मीरी राष्ट्रीयता समेत विभिन्न राष्ट्रीयताओं को कुचलने में भारतीय राज्य इस्राइली राज्य से बहुत ज्यादा पीछे नहीं है. देश के भीतर चलने वाले अनेक जनांदोलनों को कुचलने में सेना का व्यापक इस्तेमाल इसके प्रतिक्रियावादी चरित्र को सत्यापित ही करता है. कश्मीर में तो इसका प्रतिक्रियावाद रूढ़िवादी संगठनो,ं का आश्रय लेने और उनको बढ़ाने के रूप में भी दिखायी देता है. यह इस रूप में भी दिखाई देता है कि कश्मीर में सत्ता की भारी शक्तियां राज्यपाल के पास केन्द्रित हैं और सेना को विभिन्न कानूनों के तहत दमन के लिए असीमित अधिकार प्रदान कर दिये गये हैं.

वैसे तो राष्ट्रीयता के सभी संघर्षोंं में लेकिन कश्मीर के विशेष संदर्भों में सेना ने क्रूरता, अत्याचार, दमन, उत्पीडन और अमानवीय कार्यवाहियों के नये-नये रिकार्ड कायम किये. सेना को वाह्य शत्रुओं के खिलाफ अधिकतम बल प्रयोग के लिए प्रशिक्षित किया जाता है और स्पष्टतः ही भारतीय सेना ने कश्मीरियों को ही अपने शत्रु के रूप में चिन्हित कर रखा है. इसलिए भी कि विशिष्ट रूप से कश्मीर में भारतीय राज्यसत्ता के आम हित रणनीतिक तौर पर ज्यादा महत्वपूर्ण क्षेत्र होने के कारण शेष हिस्सों की तुलना में कहीं ज्यादा दांव पर लगे हैं. एक ओर पाकिस्तान है, तो दूसरी ओर चीन और ये दोनों ही अन्य पड़ोसियों की तुलना में कहीं ज्यादा ताकतवर है. कश्मीर को भारतीय शासक उतना बाजार के लिए नहीं अपने साथ रखे हुए हैं, जितना सैनिक रणनीतिक दृष्टिकोण से.

Save the children fund के लिए कश्मीर विश्वविद्यालय के वशीर अहमद द्वारा किये गये एक अध्ययन में बताया गया है कि 1999 तक कश्मीर में 60 हजार मौतें हो चुकी हैं. इसमें से 80 प्रतिशत मौतें या तो सुरक्षा बलों द्वारा की गयी या अभिरक्षा में हुई या गद्दारों द्वारा की गयी. श्रीनगर के हिस्टीरिया के 70 में से 60 रोगी ऐसे होते हैं, जो किसी न किसी प्रकार से सेना की क्रूरता व पाशविकता के परिणामस्वरूप ऐसी अवस्था में पहुंचे थे. सेना स्थानीय अधिकारियों को ही नहीं वरन राज्य सरकार को भी कोई मूल्य नहीं देती रही है. यहां तक कि वह न्यायालयों के निर्णयों को ठेंगा दिखाते हुए उनका मखौल उड़़ाती रही है. बलात्कार, निर्दोष नागरिकों की गिरफ्तारी, अपमानजनक तलाशियां, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, फर्जी मुठभेड़ों में निर्दोषों की हत्या, अभिरक्षा में अमानवीय क्रूरता कश्मीर में सेना का इससे ज्यादा अच्छा परिचय अन्य नहीं हो सकता. और यह सैनिक Armed forces Special Power Act और Disturbed Area Act आदि द्वारा प्रदत्त सुरक्षा के तहत काम कर रहे हैं. असीमित अधिकारों ने सेना को हर प्रकार की मनमानी करने की छूट दे दी है.

सेना कश्मीरियों की हत्या के लिए स्वयं ही अभियान नहीं चला रही है वरन इसने अनेक सुधरे हुए लड़ाकुओं को भी कश्मीरियों की हत्या करने के काम में लगा रखा है. यह कथित सुधरे हुए लड़ाकू न सिर्फ सेना के सुरक्षा घेरे के अन्तर्गत वरन राष्ट्रीय रायफल्स के शिविरों में रहते हैं. कहा जाता है कि इन लड़ाकुओं की सुरक्षा राष्ट्रीय रायफल्स करती है और राष्ट्रीय रायफल्स, बीएसएफ के साथ मिलकर इनका नियंत्रण करती है. यह इख्वान उल मुस्लिमीन तथा जम्मू व कश्मीर साउथ इख्वान जैसे ग्रुप हैं. इन ग्रुपों का एक अन्य काम कश्मीरी जन संघर्ष को तोड़ना है, साथ ही साथ सेना इनके माध्यम से अनेक ऐसी गतिविधियों को अंजाम दिलवाती है, जिससे कश्मीरी संघर्ष को बदनाम किया जा सके.

हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों समेत देश के अनेक संगठन और राजनैतिक दल कभी जटिल परिस्थितियों के नाम पर तो कभी सेना के मनोबल पर पड़ने वाले प्रभावों के मद्देनजर हर ऐसी मानवताहीन कार्यवाही पर या तो चुप रहते हैं या फिर उल्टे सेना का ही समर्थन करते हैं. साम्प्रदायिक या राजनैतिक दलों द्वारा सैनिक क्रूरता को न्याय संगत ठहराने के कारण सेना का हौसला ही बढ़ता है. आज कश्मीर का एक भी ऐसा परिवार नहीं बचा है, जो किसी-न-किसी रूप में सैनिक अत्याचार का शिकार न रहा हो. सेना के दमन ने कश्मीर समस्या के समाधन को और भी ज्यादा दूर कर दिया है.

सैनिक दमन के कुल परिणाम को बताने के लिए यह तथ्य ही पर्याप्त है कि आज जम्मू-कश्मीर में सभी बलों को मिलाकर संख्या 5 लाख बैठती है, जबकि इसकी जनसंख्या 2001 की गणना के अनुसार लगभग 1 करोड़ है. मतलब जम्मू-कश्मीर में हर बीस व्यक्ति पर एक सुरक्षाकर्मी है. चूंकि इसमें भी सुरक्षा बलों का संकेन्द्रण कश्मीर घाटी में ज्यादा है इसलिए कश्मीर घाटी के लिए तो प्रति सुरक्षाकर्मी यह अनुपात और भी बढ ़ जायेगा.
कश्मीर में सेना/सुरक्षा बलों का इस अत्याचार के अलावा भी एक अन्य काम है, कश्मीरियों से जोर जबर्दस्ती से वोट डलवाना.

3. कश्मीर घाटी और चुनाव प्रक्रिया

आम तौर पर यह स्थापित बात रही है कि कश्मीर में स्वतंत्र निष्पक्ष चुनाव नहीं होते रहे हैं और इस बात को पिछले विधानसभा चुनावों के उपरांत स्वयं केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि द्वारा भी यह कहते हुए स्वीकार किया गया था कि इस बार घाटी में सबसे ज्यादा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हुए हैं. भारत सरकार शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद से ही कश्मीर के चुनावों को सभी हथकन्डों के माधयम से प्रभावित करती रही थी. 1987 और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में धांधली और हेराफेरी ने पूंजीवादी लोकतंत्र की कश्मीर घाटी में अर्थी निकाल दी. 1987 में तो यहां तक कि पुलिस और नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकर्ताओं ने विरोधी उम्मीदवारों को सरेआम पीटा भी. 1987 के बाद तो कश्मीर घाटी में जितने भी चुनाव हुए, वे इतने ज्यादा स्वतंत्र और निष्पक्ष थे कि उसके लिए भारतीय सेना की 5 डिवीजनों तक की तैनाती की आवश्यकता पड़ती रही है. पिछले लम्बे अर्से से कश्मीर घाटी में लोग वोट स्वेच्छा से नहीं डाल रहे हैं वरन उन्हें संगीनों तले वोट डालने के लिए बाध्य किया जाता रहा है. पिछले विधानसभा चुनावों में 60 लाख मतदाताओं पर 10 लाख सुरक्षा बल थे. उस पर भी चुनाव टुकड़ों में कराये गये थे ताकि इस अंतराल में सेना को एक स्थान से दूसरे स्थानों पर तैनात किया जा सके.

कश्मीर में भारतीय राज्यसत्ता सेना के सहारे लोकतंत्र भी पैदा करती रही है. कश्मीर में चुनाव के माध्यम से भारत सरकार बार-बार यह सत्यापित करने की कोशिश करती रही है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है कि कश्मीरी जनता भारत में आस्था रखती है. इन चुनावों की वैधनिकता का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि 1997 के विधानसभा चुनावों में तो लगभग 20 प्रतिशत के आसपास मतदान हुआ था और वह भी संगीनों के दम पर. कश्मीर में चुनाव प्रक्रिया सेना के बलबूते सम्पन्न होती है, चुनी हुई सरकार सेना के बल पर ही टिकती है या कहें कि कश्मीर मात्र सेना के दम पर ही भारत में है. इन चुनावों की वैधनिकता इस वजह से भी नहीं है कि कश्मीर के सभी अलगाववादी संगठनों ने इस चुनाव प्रक्रिया से अपने को अलग रखा हुआ है. पिछले चुनावों में सरकार ने अनेक अलगाववादी नेताओं को गिरफ्तार करके रखा हुआ था. इस माहौल के होने वाले चुनाव कहीं से भी कश्मीरियों की आकांक्षा का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं. इस आतंक के माहौल में होने वाले चुनावों में भी जनता विभिन्न पार्टियों के खिलाफ अपने आक्रोश का इजहार करती रही है.

4. कश्मीर को लेकर होने वाली वार्तायें

कश्मीर समस्या के समाधान के लिए समय-समय पर अनेक कमेटियों का गठन किया जाता रहा है. राजग सरकार बनने के बाद से ही के. सी. पंत, एन. वोहरा और अब आडवाणी को नामित किया गया है. गैर अधिकारिक तौर पर राम जेठमलानी भी ऐसी ही एक कमेटी का नेतृत्व कर चुके हैं. यह कमेटियां अपना लक्ष्य घोषित कर देती हैं कि वार्ता भारतीय संविधान के दायरे में होगी या कि भारत की सम्प्र्रभुता और अखंडता पर कोई बात नहीं हो सकती, जबकि हुर्रियत कांफ्रेंस जिसका घोषित उद्देश्य आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए संघर्ष करना है, अभी तक अपनी तमाम कमियों व कमजोरियों के बावजूद जनमत संग्रह की मांग पर अडिग है. इसके साथ ही हुर्रियत त्रिपक्षीय वार्ता की मांग करती रही है, जिसमें पाकिस्तान भी शामिल हो. इन कमेटियों का स्पष्ट उद्देश्य इन वार्ताओं के माध्यम से कुछ दान डालकर अलगाववादी संगठनों में तोड़-फोड़़ और उनका आत्मसातीकरण करना होता है या फिर इन वार्ताओं में उलझाकर उन पर हमला बोलने के लिए वक्त हासिल करना होता है.

भारतीय राज्य सत्ता पूर्वोत्तर में आत्मसातीकरण की रणनीति पर चलकर अनके राष्ट्रीयताओं के आन्दोलनों को समाप्त करवाने में सफलता अर्जित कर चुकी है. भारतीय राज्यसत्ता कश्मीर में भी अनेक नेताओं को पहले ही आत्मसात कर चुकी है. कश्मीरी नेतृत्व के लिए रण कौशल के तौर पर इन वार्ताओं का इस्तेमाल करना तो ठीक है परन्तु यदि वे इन वार्ताओं से अन्य किसी परिणाम की उम्मीद करेंगे तो निःसंदेह उसका परिणाम वह नहीं होगा, जिसके लिए वे लड़ रहे हैं.

कश्मीरी संघर्ष की कमियां व कमजोरियां

कश्मीर में जारी संघर्ष की पहली कमजोरी यह है कि उसमें राजनैतिक मतैक्य नहीं है. कश्मीर में भारत, पाकिस्तान और साम्प्रदायिक राजनीति की मौजदूगी इन संगठनों को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करती है. जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट जैसे धर्मनिरपेक्ष और एकीकृत कश्मीर की आजादी की मांग करने वाले हैं, तो जमात-ए-इस्लामी जैसे कट्टरपंथी और पाक-परस्त भी हैं. यहां कुछ ऐसे आतंकवादी संगठन/समूह भी कार्यरत हैं जो न तो स्वयं कश्मीरी हैं और न ही जिनका कश्मीरी संघर्ष से कोई सरोकार है, इन्हें मेहमान आतंकवादी कहा जाता है. कुछ ऐसे संगठन भी हैं जिनकी संघर्ष के प्रति निष्ठायें संदेहास्पद हैं. कश्मीरी आन्दोलन जब तक धर्मनिरपेक्षता और सिर्फ आजादी की राजनैतिक लाइन के आधार पर संगठित नहीं होता, तब तक उनका संघर्ष मजबूती ग्रहण नहीं कर सकता.

कश्मीरी संघर्ष की दूसरी कमजोरी यह है कि आज इस संघर्ष पर पाक-परस्तों और कट्टरपंथी तत्वों में कुछ गैर-कश्मीरी आतंकवादी समूह भी हैं. ये तत्व अपने तौर-तरीकों और साम्प्रदायिक कार्यवाहियों से इस संघर्ष के आधार और समर्थन को संकुचित करके इसे सिर्फ नुकसान पहुंचाने का ही काम करते हैं. इसके विपरीत जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट जैसे संगठन अपेक्षाकृत हाशिये पर खडे़ हैं. इस संघर्ष से ऐसे तत्वों को बाहर खदेड़ना अपरिहार्य है.

कश्मीरी संघर्ष की सबसे महत्वपूर्ण कमजोरी यह है कि कश्मीरी नेता भारतीय शासक वर्ग और साम्राज्यवाद के रिश्तों को समझ पाने में पूरी तरह असफल रहे हैं. इसके नेता जब-तब अमेरिका से हस्तक्षेप की मांग करते रहते हैं. सही चेतना न होने की वजह से अपने इन क्रियाकलापों के कारण ये संघर्ष साम्राज्यवादी जोड़-तोड़़ के शिकार हो जाते हैं.

पूंजीवाद-साम्राज्यवाद विरोध रहित राष्ट्रीयता के संघर्षोंं का कोई भविष्य नहीं है. कश्मीरी संघर्ष की मजबूती के लिए यह भी आवश्यक है कि जम्मू और लद्दाख जैसे क्षेत्र अपने को उपेक्षित न महसूस करें. स्वतंत्र कश्मीर के भीतर इन क्षेत्रों को एक हद तक की स्वायत्ता देनी होगी. जम्मू-कश्मीर राज्य के तहत ये क्षेत्र अभी भी जब तब स्वायत्ता की मांग उठाते रहते हैं. कश्मीरी आन्दोलन के नेतृत्व को इस मामले में सचेत रहने की जरूरत है कि कश्मीरी आन्दोलन संकीर्णता का शिकार न हो और यह सुनिश्चित करना होगा कि इन क्षेत्रों की जनता को स्वार्थी और साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा कश्मीरी आन्दोलन के खिलाफ़ इस्तेमाल न हों.

कश्मीरी संघर्ष की एक महत्वपूर्ण कमजोरी यह है कि यह देश की शेष मेहनतकश आबादी का सहयोग एवं समर्थन पाने में विफल रहा है. यहां तक कि अपनी मांगों के संदर्भ में ही नहीं वरन भारतीय राज्यसत्ता द्वारा दमन के सवाल पर भी वह व्यापक समर्थन हासिल करने में नाकाम रहा है.

कश्मीरी संघर्ष की सबसे बुनियादी और अहम कमजोरी यह है कि इसकी प्रवृति निम्न पूंजीवादी है. इसका नेतृत्व निम्न पूंजीपति वर्ग से है. इस कारण यह पूंजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी रूख नहीं अपना रहा है. मौजूदा दौर में इस दृष्टिकोण को अपनाये बगैर सफलता की संभावना बहुत क्षीण है. पूंजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षोंं का हिस्सा बनकर ही मंजिल तक पहुंचने का गारंटी मिल सकती है.

इस संघर्ष का एक पहलू यह भी है कि न तो विगत 14-15 वर्षों के सशस्त्र संघर्ष में भारतीय शासक वर्ग पीछे हटे हैं और न ही भारत सरकार इस संघर्ष को नेस्तनाबूत कर सकी है, जैसी कि शासकीय हलकों में पहले उम्मीदें की जा रही थी.

आज यह संघर्ष ठहराव का शिकार है. संघर्ष में आने वाली विकृतियों का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है. यदि यह संघर्ष अपनी उपर्युक्त कमजोरियों से निजात नहीं पाता है तो इसके बिखरने या कमजोर पड़ने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है. ऐसे में इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इस आन्दोलन को भी अंततः भारतीय राज्यसत्ता आत्मसात करने में सफल हो जाये.

हमें कश्मीर की आजादी का समर्थन क्यों करना चाहिए ?

कश्मीरी राष्ट्रीयता का संघर्ष एक जनवादी संघर्ष है. हर कौम को अपने तरीके से जीने का एक हक है. किसी भी कौम को उत्पीड़क कौम के खिलाफ बगावत करने का नैसर्गिक अधिकार है. इसलिए कश्मीरी अवाम के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करना सभी मेहनतकशों का फर्ज है. आत्मनिर्णय के अधिकार का स्पष्ट आशय अलग हो जाने के अधिकार से है. आत्मनिर्णय के अधिकार के सिवाय अन्य कोई भी रास्ता (मजदूर राज को छोड़कर) उन्हें उत्पीड़क कौम से मुक्ति नहीं दिला सकता. स्वयत्तता जैसे सरकारी जुमले सिर्फ बेवकूफ बनाने के लिए है.

भारतीय राज्यसत्ता का चरित्र प्रतिक्रियावादी है. वह तानाशाही के तहत जनवादी अधिकारों को संकुचित करती रहती है. शासक वर्ग देश के चाहें जिस भी हिस्से के प्रति गैर-जनवादी व प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण अपनाये, उसका प्रभाव पूरे देश पर पड़ता है. कश्मीरी जनता का जनवादी अधिकार के लिए संघर्ष देश में चलने वाले जनवादी संघर्षोंं से अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है. जनवाद के लिए कोई भी संघर्ष और जीत जनवादी शक्तियों को मजबूती ही प्रदान करेगी. देश का मेहनतकश समुदाय कश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार की जनवादी लड़ाई का समर्थन करके ही स्वयं अपने लिए भी बेहतर जनवाद हासिल कर पायेगा.

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