संघ की जबर्दस्त हिमायती लता मंगेशकर की 92 वर्ष की अवस्था में मृत्यु को संघ होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव में भुनाना चाहता था, इसके लिए आसान शिकार बनाया गया शाहरूख खान को, जिन्होंने लता मंगेशकर को अंतिम विदाई देते हुए दुआएं की, जिसे हिन्दू फासिस्ट ने थूकना कहकर दुश्प्रचारित किया. लेकिन बात इससे भी नहीं बनी, बल्कि इससे संघी मिजाज को ही लोगों के थू-थू का शिकार होना पड़ गया.
इसके बाद संघ के कट्टर समर्थक ओबैसी की हत्या करने के प्रयास का नाटक किया गया, जिसकी भी पोल बहुत जल्दी ही खुल गई. फलतः इसका भी मोदी-योगी को कोई चुनावी फायदा नहीं हुआ, उल्टे उसकी बदनामी और ही बढ़ गई. साथ ही इससे यह और ज्यादा स्पष्ट तरीके से साबित हो गया कि ओबैसी दरअसल भाजपा-संघ का ही एक बी-टीम है.
उत्तर प्रदेश में लगतार नजदीक आते चुनाव में संघ अपना चिरपरिचित दांव दंगा भड़काने का भी कोशिश किया, जिसकी फोन कॉल भी लोगों के सामने आ गई. इससे एक और चीज जो स्पष्ट हो गई वह यह कि दंगा किसी भी सूरत में भड़काया नहीं जा सकता, चाहे हिन्दुत्ववादी गुंडे कितनी ही कोशिश क्यों न कर ले, आखिर बकौल राकेश टिकैत 13 महीनों तक चले किसान आन्देालन की ट्रेनिंग और 700 किसानों की मौत ने लोगों को बहुत कुछ सीखा दिया. संघियों की हालत इतनी ज्यादा खराब होती चली गई कि जब संघियों ने 20 लाख मुसलमानों की हत्या करने का घोषणा किया तो मुसलमानों की ओर से स्पष्ट कहा गया कि बताओ, कहां आना है ? हम कोई विरोध नहीं करेंगे, हमारा सर काट लेना.
उत्तर प्रदेश चुनाव के ठीक पहले इतनी सारी असफलताओं के बाद भी संघियों ने अपना प्रयास करना बंद नहीं किया. फिर उसने एक नया दांव चला. उत्तर प्रदेश से बहुत दूर कर्नाटक में. जहां बुर्का पर बबाल काटा गया. बुर्काधारी लड़कियों ने बुर्का प्रथा के साथ शिक्षण संस्थानों में प्रवेश में अड़ी थी तो हिन्दुत्ववादी गुंडे गेरूआ गमछे धारण कर कॉलेज पहुंच गया. बुर्काधारी एक लड़की और गेरूआ गमछाधारी हिन्दुत्ववादी गुंडे के बीच चले नोंकझोंक ने इस मामले को इतना अन्तर्राष्ट्रीय बना दिया कि एक मुस्लिम संस्था ने तो उस लड़की को बकायदा 5 लाख का ईनाम देने का घोषणा कर दिया.
निःसंदेह किसी भी शिक्षण संस्थानों में किसी भी किस्म का धार्मिक प्रतीक चिन्ह का उपयोग प्रतिबंधित होना चाहिए. केवल शिक्षण संस्थान हीं क्यों, देश के किसी भी हिस्से में सार्वजनिक तौर पर किसी भी धार्मिक पाखण्डों का उपयोग प्रतिबंधित किया जाना चाहिए. यह मानी हुई बात है कि कोई भी धार्मिक पाखण्ड उस समाज और देश के पिछड़ेपन का पहचान है. यही कारण है कि तमाम प्रगतिशील और विकसित देश के इस र्धािर्मकता भरी पाखण्डों को उतार फेंकने की कोशिश करता है.
दुनिया का सबसे पहला समाजवादी राज्य सोवियत संघ ने अपने देश के तमाम धार्मिक पहचानों को ध्वस्त कर दिया था. तमाम गिरजाघरों को ढ़ाह दिया गया. चीनी रिपब्लिक ने अपने आजादी 1949 के बाद ही खुद को इन तमाम धार्मिकता से दूर कर लिया था. उत्तर कोरिया जैसे देशों में तो किसी भी धार्मिक पहचान को रखना या किसी पर्यटकों को धामिैक पहचान के साथ वहां जाना न केवल प्रतिबंधित ही है अपितु अपराध भी है.
यहां तक कि मुस्लिम देश तुर्की ऑटोमन साम्राज्य से पिण्ड छुड़ाने के बाद अतातुर्क मुस्तफा कमाल पाशा जैसे महानायक के सानिध्य में खुद को तमाम धार्मिक पिछड़ापन से न केवल खुद को दूर ही कर लिया था बल्कि बुर्का प्रथा को महिलाविरोधी बताते हुए बुर्का को प्रतिबंधित भी कर दिया और अपने एक ऐतिहासिक फैसलों से बुर्का को रातोंरात फेंकवा दिया.
मुस्तफा कमाल पाशा तुर्की का पश्चिमीकरण चाहते थे. उन्होंने तुर्की के लोगों की वेशभूषा में परिवर्तन करने का निश्चय किया. 25 नवम्बर, 1925 को एक कानून बना कर तुर्की टोपी ओढ़ने की मनाही कर दी गयी और छज्जेदार टोप ओढ़ना आवश्यक कर दिया गया. छज्जेदार टोप न पहनना कानूनी अपराध माना गया. यह नियम तुर्की में वेशभूषा के मामले में युग परिवर्तनकारी घटना थी. मुलसमानों को नमाज पढ़ने में कई बार जमीन पर माथा टेकना आवश्यक है, लेकिन सिर पर कोई वस्त्र रखकर ही नमाज पढ़ी जा सकती है, क्योंकि नंगे सिर से नमाज पढ़ना अवैध है. टोप पहनकर नमाज पढ़ना कठिन कार्य था. मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने इसका विरोध किया, परन्तु कमाल पाशा ने इस कानून को सख्ती से लागू किया.
स्त्रियों की दशा में परिवर्तन के लिए मुस्तफा कमाल पाशा तुर्की की नारियों की दशा में सुधार करना चाहते थे. वह यह मानते थे कि स्त्रियों को भी पुरुषों के समान कार्य करना चाहिए. तुर्की में सामाजिक तथा धार्मिक नियमों के कारण स्त्रियां बहुत पिछड़ी हुई थी. इसके लिए सर्वप्रथम पर्दा प्रथा को समाप्त करना आवश्यक था. सरकार ने पर्दाप्रथा को छोड़ने के लिए महिलाओं को प्रोत्साहित किया. तुर्की में बुर्का का प्रयोग कम हो गया और मुस्लिम महिलाएं पश्चिमी ढंग से वस्त्र पहनने लगीं.
तुर्की की संसद ने बहु-पत्नी प्रथा तथा तलाक के लिए कानून बना दिये गये. सिविल विवाह की प्रथा लागू की गयी. मुस्लिम औरतो को गैर-मुस्लिमों के साथ विवाह करने की अनुमति प्रदान की गई. स्त्री शिक्षा का प्रसार करके तुर्की स्त्रियों को प्रशासनिक नौकरियां प्रदान की गईं. 1934 ई. में स्त्रियों को राष्ट्रीय महासभा में मतदान करने तथा सदस्य बनने का अधिकार मिल गया. मुस्तफा कमाल पाशा के प्रयासों से तुर्की की स्त्रियों के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक जीवन में महत्वपूर्ण परेवर्तन आया.
इसके उलट, भारत जैसे देशों में इस धार्मिक पाखण्डों को न केवल बढ़ावा ही दिया जा रहा है अपितु 2014 से देश की सत्ता पर काबिज देशद्रोही गुंडो ने तो धार्मिक पाखण्डों को सरकारी तंत्र का एक अनिवार्य हिस्सा बना लिया है. शिक्षण संस्थानों, मेडिकल संस्थानों, वैज्ञानिक प्रयोग की जगह हजारों करोड़ खर्च कर मूर्तीयां बनावा रहा है ताकि देश मूर्खता के दलदल में फंसा रहे. इसी कोशिश में बुर्का जैसा प्रयोग किया गया और इस बहाने न केवल देश के अंदर ही अपितु अन्तराष्ट्रीय स्तर पर बुर्का के नाम पर गेरूआ गमछा को लेकर बहस छेड़कर चुनाव में हिन्दु वोटों के ध्रुवीकरण में भिड़ गया.
शिक्षण संस्थानों में न केवल बुर्का बल्कि तमाम तरीकों के धार्मिक प्रतीक चिन्हों को प्रतिबंधित किया जाये, वरना कभी जेएनयू जैसी विश्वविख्यात शिक्षण संस्थानों पर टैंक और हवाई हमले करने की धमकी देने वाली मोदी सरकार और उसके गैंग्स सचमुच इस धार्मिक प्रतीकों के बहाने शिक्षण संस्थानों को खत्म करने के अपने अभियान को देश में स्थापित कर देगा.
सुब्रतो चटर्जी अपने सोशल मीडिया पेज पर लिखते हैं – एक धर्मनिरपेक्ष देश में शिक्षण संस्थानों का धर्मनिरपेक्ष होना पहली शर्त है. स्कूल यूनिफ़ॉर्म से जब धर्म की पहचान हो जाए तो समझो देश में गृहयुद्ध छिड़ने वाला है. हिजाब, दुपट्टा, और तिलक के मूर्खों को ये सब समझ नहीं आता.
कर्नाटक दक्षिण में संघ की नई प्रयोगशाला है. शिमोगा इसके लिए बहुत उपयुक्त स्थान है क्योंकि वहां ब्राह्मण सबसे ज़्यादा सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त हैं. विरोधाभास ये है कि इस इलाक़े में, जो कि वेस्टर्न घाट के नाम से जाना जाता है, संघ की शाखाएँ हरेक अंबेडकर भवन में लगती हैं. बच्चों को अनुशासन सिखाने के नाम पर घृणा बम में ढालने की पूरी तैयारी इन्हीं शाखाओं में होती है.
इस तरह से वेस्टर्न घाट के अन्यथा शांति प्रिय इलाक़े में संघ द्वारा ज़हर की खेती सालों से की जा रही है. कभी कभार हुए दंगों में ब्राह्मण के बच्चे बच जाते हैं और निचली जातियों के बच्चे मारे जाते रहे हैं .उत्तर भारत में भाजपा की ज़मीन लगातार खिसकती जा रही है. उत्तर प्रदेश के चुनाव में अपनी निश्चित हार को देखते हुए कर्नाटक से हिजाब रार को सुर्ख़ियों में लाकर घृणित भाजपा किस मेसेज को फैलाने की कोशिश कर रही है, इसे समझने के लिए आईंस्टीन होने की ज़रूरत नहीं है.
पिछले कुछ सालों तक कर्नाटक की राजनीति लिंगायत और दूसरे समुदायों के इर्द गिर्द घूमती रही है. बोम्मई जैसे बेईमान नेता और यदुरप्पा जैसे क्रिमिनल लोगों की मदद से भाजपा ने कर्नाटक की राजनीति को सांप्रदायिक रंग दिया है. यदुरप्पा पर तो अपनी पत्नी की हत्या तक का संदेह है. उसी महिला की धन संपत्ति और रसूख़ के सहारे यदुरप्पा ने अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षाओं की पूर्ति की थी कभी.
ख़ैर, मुद्दे की बात ये है कि आधुनिक शिक्षा आधुनिक ड्रेस में लेते हुए बच्चे मुझे ज़्यादा पसंद हैं. दु:ख की बात ये है कि जहां अफ़ग़ानिस्तान में औरतें हिजाब और अन्य तरह की पाबंदियों के विरूद्ध सड़कों पर उतर रहे हैं, वहीं पर भारत में मुस्लिम लड़कियां हिजाब के समर्थन में सड़कों पर उतर रही हैं और हिंदू भगवा के समर्थन में. देश गृहयुद्ध की कगार पर है.
देश के तमाम प्रगतिशील ताकतों को देश की तमाम धार्मिक पहचान, जिसका प्रवाह सत्ता के शीर्ष से किया जा रहा है, के खिलाफ उठ खड़ा होना होगा. देश के तमाम प्रगतिशील ताकतों को देश की तमाम धार्मिक पहचान, जिसका प्रवाह सत्ता के शीर्ष से किया जा रहा है, के खिलाफ न केवल शिक्षण संस्थानों में ही बल्कि समूचे देश में उठ खड़ा होना होगा.
बुर्का के बहाने गेरूआ रंग से देश को रंगने की संघी साजिश के खिलाफ, हिन्दु कट्टरपंथियों के खिलाफ ने केवल बहस को खड़ा करना होगा, अपितु मुस्लिम कट्टरपंथियों की भी पहचान करना जरूरी है. लड़ाई जय श्री राम और अल्लाह हु अकबर के बीच नहीं है, जैसा कि कुछ लोग प्रचारित कर रहे हैं. रितेश विद्यार्थी कहते हैं – लड़ाई जनवाद और फासीवाद के बीच है. आपको तय करना है कि आप किसके साथ खड़े होंगे ? यह लड़ाई सिर्फ भाजपा के चुनाव हार जाने से खत्म नहीं होने वाली.
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