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कार्ल मार्क्स (1857) : भारतीय सेना में विद्रोह

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[भाजपा की केन्द्र सरकार एक ओर जहां इतिहास बदलने की लगातार प्रयास कर रही है, ऐसे में इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में दुनिया के महान दार्शनिक कार्ल-मार्क्स भारत के इतिहास पर एक गहरी निगाह डाले हैं, जिसे हम अपने पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे उन्होंने अलग-अलग समय में लिखा है.]

कार्ल मार्क्स (1857) : भारतीय सेना में विद्रोह

फूट डालो और राज्य करो, रोम के इसी महान नियम के आधार पर ग्रेट ब्रिटेन लगभग डेढ़ सौ वर्ष तक अपने भारतीय साम्राज्य पर अपना शासन बनाए रखने में कामयाब हुआ था. जिन विभिन्न नस्लों, कबीलों, जातियों, धार्मिक संप्रदायों और स्वतंत्र राज्यों के योग से उस भौगोलिक एकता का निर्माण हुआ है जिसे भारत कहा जाता है, उनके बीच आपसी शत्रुता फैलाना ही ब्रिटिश आधिपत्य का बुनियादी उसूल रहा है. लेकिन, बाद के काल में, उस आधिपत्य की परिस्थितियों में एक परिवर्तन हुआ. सिंध और पंजाब की फतह के बाद, एंग्लो-इंडियन साम्राज्य न केवल अपनी स्वाभाविक सीमाओं तक फैल गया था, बल्कि स्वतंत्र भारतीय राज्यों के अंतिम चिह्नों को भी पैरों तले कुचल कर उसने नष्ट कर दिया था. तमाम लडाकू देशी जातियों को वश में कर लिया गया था, देश के अंदर के तमाम बड़े झगड़े खतम हो गए थे, और हाल में अवध के (अंगरेजी सलतनत में-अनु.) मिला लिए जाने की घटना ने संतोषप्रद रूप से इस बात को सिध्द कर दिया था कि तथाकथित स्वतंत्र भारतीय राज्यों के अवशेष केवल अंगरेजों की दया पर ही जिंदा हैं. इसलिए ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थिति में एक जबरदस्त परिवर्तन आ गया था. अब वह भारत के एक भाग की मदद से दूसरे भाग पर हमला नहीं करती थी; वह अब उसके शीर्ष स्थान पर आसीन हो गई थी और सारा भारत उसके चरणों में पड़ा था. अब वह फतह करने का काम नहीं कर रही थी, वह सर्वविजेता बन गई थी. उसकी मातहत सेनाओं को अब उसके साम्राज्य का विस्तार करने की नहीं, बल्कि उसे केवल बनाए रखने की जरूरत थी. सिपाहियों को बदल कर उन्हें पुलिस मैन बना दिया गया था; 20 करोड़ भारतवासियों को अंगरेज अफसरों की मातहती में 2 लाख सैनिकों की देशी फौज की मदद से दबा कर रखा जा रहा है, और इस देशी फौज को केवल 40 हजार अंगरेज सैनिकों की सहायता से काबू में रखा जा रहा है. प्रथम दृष्टि में ही यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय जनता की फर्माबरदारी उस देशी फौज की नमकहलाली पर आधारित है जिसे संगठित करके ब्रिटिश शासन ने, साथ ही साथ, भारतीय जनता के प्रतिरोध के एक प्रथम आम केंद्र को भी संगठित कर दिया है.

उस देशी फौज पर कितना भरोसा किया जा सकता है, यह हाल की उसकी उन बंगावतों से बिलकुल स्पष्ट है जो, फारस (ईरान) के साथ युध्द के कारण, बंगाल प्रेसिडेंसी (प्रांत) के यूरोपियन सैनिकों से खाली होते ही वहां पर आरंभ हो गई थीं. भारतीय सेना में इससे पहले भी बंगावतें हुई थीं, लेकिन वर्तमान विद्रोह उनसे भिन्न है, उसकी कुछ अपनी विशिष्ट और घातक विशेषताएं हैं. यह पहली बार है जबकि सिपाहियों की रेजीमेंटों ने अपने यूरोपीय अफसरों की हत्या कर दी है; जबकि अपने आपसी विद्वेषों को भूल कर, मुसलमान और हिंदू अपने सामान्य स्वामियों के खिलाफ एक हो गए हैं; जबकि ‘हिंदुओं द्वारा आरंभ की गई उथल-पुथल ने दिल्ली के राज्य सिंहासन पर वास्तव में एक मुसलमान बादशाह को बैठा दिया है; जबकि बगावत केवल कुछ थोड़े से स्थानों तक ही सीमित नहीं रही है; और, अंत में, जबकि एंग्लो इंडियन सेना का विद्रोह अंगरेजों के प्रभुत्व के विरुध्द महान एशियाई राष्ट्रों के असंतोष के आम प्रदर्शन के साथ मिलकर एक हो गया है. इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं कि बंगाल की सेना का विद्रोह फारस (ईरान) और चीन के युध्दों के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है.

बंगाल की सेना में चार महीने पहले जो असंतोष फैलने लगा था, उसका तथाकथित कारण यह बताया जाता है कि देशी फौजों को यह डर था कि सरकार उनके धर्म-कर्म में हस्तक्षेप करेगी। कहा गया है कि सिपाहियों में जो कारतूस बांटे गए थे, उनके कागजों में गाय और सुअर की चर्बी लगी हुई थी, और इसलिए उनको दांत से काटने की आज्ञा को देशी फौजियों ने अपने धार्मिक रीतिरिवाजों में दखलंदाजी माना, और यही चीज स्थानीय फसादों के लिए एक सिगनल बन गई. 22 जनवरी को कलकत्ते से थोड़े ही फासले पर स्थिति छावनियों में भयानक आग लग गई. 25 फरवरी को बरहमपुर में 19वीं देशी रेजीमेंट ने बगावत कर दी जिसके सैनिकों को उन कारतूसों के प्रति विरोध था. 31 मार्च को इस रेजीमेंट को भंग कर दिया गया. मार्च के अंत में, बैरकपुर में स्थित 34 वीं सिपाही रेजीमेंट ने परेड ग्राउंड पर अपने एक सैनिक को भरी हुई बंदूक लेकर एकदम अगली कतार तक आगे बढ़ जाने दिया; वहां से बगावत के लिए अपने साथियों को आह्वान करने के बाद उसे अपने एडजुटेंट और सार्जेंट-मेजर पर हमला करने और उन्हें घायल करने दिया. इसके बाद जो जबरदस्त हाथापाई हुई, उसके दौरान सैकड़ों सिपाही चुपचाप खड़े तमाशा देखते रहे और कुछ दूसरों ने इस मारपीट में शामिल होकर अपनी बंदूकों के कुंदों से अफसरों की मरम्मत की. इसके बाद उस रेजीमेंट को भी भंग कर दिया गया.

अप्रैल महीने का श्रीगणेश इलाहाबाद, आगरा, अंबाला आदि कई छावनियों में बंगाली सेना की आगजनी से, मेरठ में हल्के घुड़सवारों की तीसरी रेजीमेंट की बगावत से, और मद्रास और बंबई की सेनाओं में इसी प्रकार की बागी प्रवृत्तियों के प्रदर्शन से हुआ. मई के आरंभ में अवध की राजधानी लखनऊ में भी एक विद्रोह की तैयारी हो रही थी, लेकिन सर एच. लारेंस की सतर्कता ने उसे रोक दिया था. 9 मई को मेरठ की तीसरी हल्की घुड़सवार सेना के बागियों को जेल ले जाया गया जिससे कि उन्हें जो भिन्न-भिन्न सजाएं दी गई थीं उन्हें वे काटें. अगले दिन की शाम को, 11वीं और 20वींदो देशी रेजीमेंटों के साथ तीसरी घुड़सवार सेना के सैनिक परेड मैदान में इकट्ठे हो गए. जो अफसर उन्हें शांत और अनुशासित करने की कोशिश कर रहे थे उनको उन्होंने मार डाला, छावनियों में आग लगा दी और जितने अंगरेजों को वे पा सके, उन सबको उन्होंने काट डाला. ब्रिगेड के अंगरेज सैनिकों के भाग ने यद्यपि पैदल सेना की एक रेजीमेंट, घुड़सवार सेना की एक रेजीमेंट, और पैदल घुड़सवार तोपखाने की एक भारी शक्ति जमा कर ली थी, लेकिन रात होने से पहले वे कोई कार्रवाई न कर सके. बागियों को वे कोई चोट न पहुंचा सके, और उन्होंने वहां से उन्हें खुले मैदान में, मेरठ से लगभग चालीस मील के फासले पर स्थित दिल्ली के ऊपर, धावा करने के लिए चला जाने दिया. वहां 38वीं, 54वीं और 74वीं पैदल सेना की रेजीमेंटों की देशी गैरीसन, और देशी तोपखाने की एक कंपनी भी उनके साथ शामिल हो गई. ब्रिटिश अफसरों पर हमला बोल दिया गया, जितने भी अंगरेजों को विद्रोही पकड़ सके उनकी हत्या कर दी गई, और दिल्ली के पिछले मुगल बादशाह के वारिस को भारत का बादशाह घोषित कर दिया गया. मेरठ की मदद के लिए, जहां पुन: व्यवस्था स्थापित कर ली गई थी, भेजी गई फौजों में से देशी घुड़सवार और पैदल सिपाहियों की छह कंपनियों ने, जो 15 मई को वहां पहुंची थीं, अपने कमांडिंग अफसर मेजर फ्रेजर को मार डाला और फौरन देहात की तरफ चल पड़ीं. उनके पीछे-पीछे घुड़सवार तोपखाने की फौजें और छठे ड्रैगन गाड्र्स की बहुत सी टुकड़ियां उन्हें पकड़ने के उद्देश्य से निकल पड़ीं. पचास या साठ बागियों को गोली मार दी गई, लेकिन बाकी भाग कर दिल्ली पहुंचने में सफल हो गए. पंजाब के फीरोजपुर में 57वीं और 45वीं देशी पैदल रेजीमेंटों ने बगावत कर दी, लेकिन उन्हें बलपूर्वक कुचल दिया गया. लाहौर से आने वाले निजी पत्र बताते हैं कि तमाम देशी फौजें खुले तौर से बागी बन गई हैं. 19 मई को कलकत्ता में तैनात सिपाहियों ने सेंट विलियम के किले पर अधिकार करने की असफल कोशिश की थी. बुशायर से बंबई आई तीन रेजीमेंटों को तुरंत कलकत्ता रवाना कर दिया गया.

इन घटनाओं का सिंहावलोकन करते समय मेरठ के ब्रिटिश कमांडर के रवैए के संबंध में हर आदमी को हैरत होती है. लड़ाई के मैदान में उसका देर से आना और ढीले-ढाले ढंग से उसके द्वारा बागियों का पीछा किया जाना उससे भी कम समझ में आता है. दिल्ली जमुना के दाहिने तट पर और मेरठ उसके बाएं तट पर स्थित है. दोनों तटों के बीच दिल्ली में केवल एक पुल है. इसलिए भागते हुए सिपाहियों का रास्ता काट देने से अधिक आसान चीज दूसरी न होती !

इसी दरम्यान, तमाम अप्रभावित जिलों में मार्शल लॉ लगा दिया गया है. मुख्यतया भारतीय फौजी टुकड़ियां उत्तर पूर्व और दक्षिण से दिल्ली की तरफ बढ़ रही हैं। कहा जाता है कि पड़ोसी राजे-रजवाड़ों ने अंगरेजों के पक्ष में होने का एलान कर दिया है। लंका चिट्ठियां भेज दी गई हैं कि लार्ड एलगिन और जनरल एशबर्नहम की सेनाओं को चीन जाने से रोक दिया जाए और, अंत में, पखवाड़े भर के अंदर ही 14 हजार अंगरेज सैनिक इंगलैंड से भारत भेजे जा रहे हैं। भारत के वर्तमान मौसम के कारण और आवाजाही के साधनों की एकदम कमी की वजह से ब्रिटिश फौजों के आगे बढ़ने में चाहे जो रुकावटें सामने आएं, लेकिन बहुत संभव यही है कि दिल्ली के विद्रोही बिना किसी लंबे प्रतिरोध के ही हार जाएंगे। लेकिन, इसके बावजूद, यह उस भयानक दुखांत नाटक की मात्र भूमिका है जो वहां अभी खेला जाएगा।

[15 जुलाई, 1857 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, अंक 5056, में एक संपादकीय लेख के रूप में प्रकाशित हुआ]

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