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कार्ल मार्क्स (1853) : ईस्ट इंडिया कंपनी, उसका इतिहास और परिणाम

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कार्ल मार्क्स (1853) : ईस्ट इंडिया कंपनी, उसका इतिहास और परिणाम

लॉर्ड स्टैनली के इस प्रस्ताव पर कि भारत के लिए कानून बनाने की बात को स्थगित कर दिया जाए, शाम तक के लिए बहस टाल दी गई है. 1783 के बाद से पहली बार भारतीय प्रश्न इंगलैंड में मंत्रिमंडल के जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है. ऐसा क्यों हुआ ?

ईस्ट इंडिया कंपनी की वास्तविक शुरुआत को 1702 के उस वर्ष से पीछे के किसी और युग में नहीं माना जा सकता जिसमें पूर्वी भारत के व्यापार के इजारे का दावा करने वाले विभिन्न संघों ने मिलकर अपनी एक कंपनी बना ली थी. उस समय तक असली ईस्ट इंडिया कंपनी का अस्तित्व तक बार-बार संकट में पड़ जाता था. एक बार, क्रोमवेल के संरक्षण काल में, वर्षों के लिए उसे स्थगित कर दिया गया था; और, एक बार, विलियम तृतीय के शासनकाल में, पार्लियामेंट के हस्तक्षेप के द्वारा उसे बिलकुल ही खतम कर दिए जाने का खतरा पैदा हो गया था. ईस्ट इंडिया कंपनी के अस्तित्व को पार्लियामेंट ने उस डच राजकुमार के उत्थान काल में तब स्वीकार किया था जब ह्विग लोग ब्रिटिश साम्राज्य की आमदनियों के अहलकार बन गए थे, बैंक ऑफ इंगलैंड का जन्म हो चुका था, इंगलैंड में संरक्षण की व्यवस्था दृढ़ता से स्थापित हो गई थी और यूरोप में शक्ति का संतुलन निश्चित रूप से निर्धारित हो गया था. ऊपर से दिखने वाली स्वतंत्रता का वह युग वास्तव में इजारेदारियों का युग था. एलिजाबेथ और चार्ल्स प्रथम के कालों की तरह, इन इजारेदारियों की सृष्टि शाही स्वीकृतियों के द्वारा नहीं हुई थी, बल्कि उन्हें पार्लियामेंट ने अधिकार प्रदान किया था और उनका राष्ट्रीकरण किया था. इंगलैंड के इतिहास का यह युग वास्तव में फ्रांस के लुई फिलिप के युग से अत्यधिक मिलता-जुलता है. भूस्वामियों का पुराना अभिजात वर्ग पराजित हो गया है और पूंजीपति वर्ग ‘वित्तीय प्रभुत्ता’ का झंडा उठाए बिना और किसी तरह से उसका स्थान लेने में असमर्थ है. ईस्ट इंडिया कंपनी आम लोगों को भारत के साथ व्यापार करने से वंचित रखती थी, उसी तरह जिस तरह कि कॉमन्स सभा पार्लियामेंट में प्रतिनिधित्व पाने से उन्हें वंचित रखती थी. इस और दूसरे उदाहरणों से हम देखते हैं कि सामंती अभिजात वर्ग के ऊपर पूंजीपति वर्ग की प्रथम निर्णायक विजय के साथ ही साथ जनता के विरुध्द जबरदस्त आक्रमण भी शुरू हो जाता है. इस चीज की वजह से कोबेट जैसे एक से अधिक जन-प्रेमी लेखक जनता की आजादी के लिए भविष्य की ओर देखने के बजाए वर्तमान की ओर देखने को बाध्य हो गए थे.

वैधानिक राजतंत्र और इजारेदार पैसे वाले वर्ग के बीच, ईस्ट इंडिया की कंपनी और 1688 की ‘गौरवशाली’ क्रांति के बीच एकता उसी शक्ति ने कायम की थी, जिसके कारण तमाम कालों और तमाम देशों में उदारपंथी वर्ग और उदार राजवंश मिले और एकताबध्द हुए हैं. यह शक्ति भ्रष्टाचार की शक्ति है जो वैधानिक राजतंत्र को चलाने वाली प्रथम और अंतिम शक्ति है. विलियम तृतीय की यही रक्षक देवता थी और यही लुई फिलिप का जानलेवा दैत्य था. पार्लियामेंटरी जांचों से यह बात 1693 में ही सामने आ गई थी कि सत्ताशाली व्यक्तियों को दी जाने वाली ‘भेंटों’ की मद में होने वाला ईस्ट इंडिया कंपनी का सालाना खर्च, जो क्रांति से पहले शायद ही कभी 1,200 पौंड से अधिक हुआ था, अब 90,000 पौंड प्रति वर्ष तक पहुंच गया था. लीड्स के डयूक पर इस बात के लिए मुकदमा चलाया गया था कि उसने 5,000 पौंड की रिश्वत ली थी, और स्वयं धर्मात्मास्वरूप राजा को 10,000 पौंड लेने का अपराधी घोषित किया गया था. इन सीधी रिश्वतों के अलावा, विरोधी कंपनियों को हराने के लिए सरकार को सूद की नीची से नीची दर पर विशाल रकमों के ऋण देने का लालच दिया जाता था और विरोधी डायरेक्टरों को खरीद लिया जाता था.

ईस्ट इंडिया कंपनी ने सरकार को रिश्वत देकर सत्ता हासिल की थी. उसे कायम रखने के लिए वह फिर रिश्वत देने के लिए मजबूर थी. बैंक ऑफ इंगलैंड ने भी इसी प्रकार सत्ता प्राप्त की थी और अपने को बनाए रखने के लिए वह फिर रिश्वत देने के लिए बाध्य थी. हर बार जब कंपनी की इजारेदारी खतम होने लगती थी तब वह सरकार को नए कर्जे और नई भेंटें देकर ही अपनी सनद को फिर से बढ़वा पाती थी. सात-वर्षीय युध्द ने ईस्ट इंडिया कंपनी को व्यावसायिक शक्ति से बदल कर एक सैनिक और प्रदेशीय शक्ति बना दिया था. पूर्व में वर्तमान ब्रिटिश साम्राज्य की नींव उसी वक्त पड़ी थी. ईस्ट इंडिया कंपनी के शेयर की कीमत बढ़ कर तब 263 पौंड हो गई और डिवीडेंड (शेयर पर मुनाफे) 12.5 प्रतिशत की दर से दिए जाने लगे लेकिन तभी कंपनी का एक नया दुश्मन पैदा हो गया. इस बार वह प्रतिद्वंद्वी संघों के रूप में नहीं, बल्कि प्रतिद्वंद्वी मंत्रियों और एक प्रतिद्वंद्वी प्रजा के रूप में पैदा हुआ था. कहा जाने लगा कि कंपनी के राज्य को ब्रिटिश जहाजी बेड़ों और ब्रिटिश फौजों की मदद से जीतकर कायम किया गया है और ब्रिटिश प्रजा के किन्हीं भी व्यक्तियों को इस बात का अधिकार नहीं है कि वे ताज (बादशाह) से अलग कोई स्वतंत्र राज्य रख सकें. पिछली जीतों के द्वारा जिन ‘आश्चर्यजनक खजानों’ को हासिल किया गया था उनमें उस समय के मंत्री और उस समय के लोग भी अपने हिस्से का दावा करने लगे. कंपनी अपने अस्तित्व को 1767 में यह समझौता करके ही बचा सकी कि राष्ट्रीय कोष को प्रति वर्ष वह 4,00,000 पौंड दिया करेगी.

लेकिन, इस समझौते को पूरा करने के बजाए ईस्ट इंडिया कंपनी स्वयं आर्थिक कठिनाइयों में फंस गई और अंगरेजी प्रजा को नजराना देने की जगह, आर्थिक सहायता के लिए पार्लियामेंट को उसने अर्जी दी. इस कदम का फल यह हुआ कि कंपनी की सनद में गंभीर परिवर्तन कर दिए गए. लेकिन नई शर्तों के बावजूद कंपनी के मामलों में सुधार न हुआ, और लगभग इसी समय, अंगरेजी राष्ट्र के उत्तरी अमरीका वाले उपनिवेशों के हाथ से निकल जाने के कारण, अन्य किसी स्थान पर किसी विशाल औपनिवेशिक साम्राज्य को हासिल करने की आवश्यकता को सब लोगों द्वारा अधिकाधिक महसूस किया जाने लगा. 1783 में नामी मि. फॉक्स ने सोचा कि अपने प्रसिध्द भारतीय बिल को पार्लियामेंट में ले आने का अब उपयुक्त अवसर आ गया है. इस बिल में प्रस्ताव किया गया था कि डायरेक्टरों और मालिकों के कोर्टों (संचालक समितियों) को खतम कर दिया जाए और संपूर्ण भारतीय सरकार की जिम्मेदारी पार्लियामेंट द्वारा नियुक्त किए गए सात कमिश्नरों के हाथों में सौंप दी जाए. लाड्र्स सभा के ऊपर उस समय के दुर्बल राजा* के निजी प्रभाव के कारण मि. फॉक्स का बिल गिर गया; और उसी को आधार बनाकर फॉक्स और लार्ड नौर्थ की तत्कालीन मिली-जुली सरकार को भंग कर दिया गया और प्रसिध्द पिट को सरकार का मुखिया बना दिया गया. पिट ने 1784 में दोनों सदनों से एक बिल पास कराया जिसमें आदेश दिया गया था कि प्रिवी कौंसिल के 6 सदस्यों का एक नियंत्रण बोर्ड स्थापित किया जाए जिसका काम होगा : ईस्ट इंडिया कंपनी की अमलदारियों और मिल्कियतों के नागरिक और फौजी शासन, अथवा आमदनियों से किसी भी प्रकार से संबंधित उसके तमाम कार्यों, कार्रवाइयों और मामलों पर नजर रखना, उनकी देखभाल करना और उन पर नियंत्रण रखना.

इस विषय में इतिहासकार मिल कहते हैं :

उक्त कानून को पास करते समय दो उद्देश्य सामने रखे गए थे. उस अभियोग से बचने के लिए जिसे मि. फॉक्स के बिल का घृणित लक्ष्य बताया गया था. आवश्यक था कि ऊपर से ऐसा लगे कि सत्ता का मुख्यांश डायरेक्टरों के ही हाथ में है. लेकिन, मंत्रियों के लाभ के लिए आवश्यक था कि वास्तव में सारी सत्ता डायरेक्टरों के हाथ से छीन ली जाए. अपने प्रतिद्वंद्वी के बिल से मिस्टर पिट का बिल अपने को मुख्यतया इसी बात में भिन्न बताता था कि जहां उसमें डायरेक्टरों की सत्ता को खतम कर दिया गया था, इसमें उसे लगभग पूरा का पूरा बनाए रखा गया था. मि. फॉक्स के कानून के अंतर्गत एलानिया तौर से मंत्रियों की सत्ता कायम हो जाती. मि. फिट के कानून के मातहत उसे छिपाकर और छल-कपट से हाथ में ले लिया गया था. फॉक्स का बिल कंपनी की सत्ता को पार्लियामेंट के द्वारा नियुक्त किए गए कमिश्नरों के हाथ में सौंप देता. मि. पिट के बिल ने उसे राजा द्वारा नियुक्त कमिश्नरों के हाथ में सौंप दिया.

इस प्रकार 1783-84 के वर्ष ही प्रथम, और अब तक, एकमात्र, ऐसे वर्ष रहे हैं जिनमें भारत का सवाल मंत्रिमंडल के स्वयं के अस्तित्व का सवाल बन गया है. मि. पिट के बिल के पास हो जाने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी की सनद को फिर जारी कर दिया गया और भारतीय सवाल को 20 साल तक के लिए खतम कर दिया गया. लेकिन, 1813 में शुरू हुए जैकोबिन-विरोधी युध्द और 1833 में नए-नए पेश किए जाने वाले सुधार बिल ने अन्य तमाम राजनीतिक प्रश्नों को गौण बना दिया.

तब फिर, 1784 से पहले और उसके बाद से भारत का सवाल एक बड़ा राजनीतिक सवाल क्यों नहीं बन सका, इसका प्रथम कारण यही है कि उससे पहले आवश्यक था कि ईस्ट इंडिया कंपनी अपने अस्तित्व और महत्व को हासिल करे. इसके हो जाने के बाद कंपनी की उस तमाम सत्ता को, जिसे जिम्मेदारी अपने ऊपर लिए बिना वह अपने हाथों में ले सकता था, शासक गुट ने अपने पास समेट लिया था. और, इसके बाद, सनद के फिर जारी किए जाने के जब अवसर आए, 1813 और 1833 में, तब आम अंगरेज लोग सर्वाधिक हित के दूसरे सवालों में बुरी तरह उलझे हुए थे.

अब हम एक दूसरे पहलू से विचार करेंगे. ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने काम की शुरुआत केवल इस बात की कोशिश से की थी कि अपने एजेटों के लिए फैक्टरियां और अपने मालों को रखने के लिए जगहों की वह स्थापना करे. इनकी हिफाजत के लिए कंपनी वालों ने कई किले बना लिए. भारत में राज्य कायम करने और जमीन की मालगुजारी को अपनी आमदनी का एक जरिया बनाने की बात की कल्पना ईस्ट इंडिया कंपनी के लोगों ने यद्यपि बहुत पहले, 1689 में ही, की थी; लेकिन 1744 तक, बंबई, मद्रास और कलकत्ता के आसपास केवल कुछ महत्वहीन जिले ही वे हासिल कर पाए थे. इसके बाद कर्नाटक में जो युध्द छिड़ गया था, उसके परिणामस्वरूप, विभिन्न लड़ाइयों के बाद, भारत के उस भाग के भी वे लगभग एकछत्र स्वामी बन गए थे. बंगाल के युध्द और क्लाइव की जीतों से उन्हें और भी अधिक लाभ हुए. बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर उनका वास्तविक कब्जा हो गया. 18वीं शताब्दी के अंत में और वर्तमान शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में टीपू सुलतान के साथ होने वाले युध्द आए. इनके परिणामस्वरूप सत्ता और नायवी की व्यवस्था का बहुत व्यापक विस्तार हुआ. 19वीं शताब्दी के दूसरे दशक में सीमांत के प्रथम सुविधाजनक प्रदेश को, रेगिस्तान के अंदर भारत के सीमांत को आखिरकार जीत लिया गया. इससे पहले पूर्व में एशिया के उन भागों तक ब्रिटिश साम्राज्य नहीं पहुंचा था जो तमाम कालों में भारत की प्रत्येक महान केंद्रीय सत्ता की राजधानी रहे थे. लेकिन साम्राज्य के सबसे भेद्य स्थल के, उस स्थल के जहां से उसके ऊपर उतनी ही बार हमले हुए थे जितनी बार पुराने विजेताओं को नए विजेताओं ने निकाल बाहर किया था, यानी देश की पश्चिमी सरहद के नाके अंगरेजों के हाथों में नहीं थे. 1838 से 1849 के काल में, सिख और अफगान युध्दों के द्वारा, पंजाब और सिंध पर जबरदस्ती कब्जा करके, ब्रिटिश शासन ने पूर्वी भारत के महाद्वीप की जातीय, राजनीतिक, और सैनिक सरहदों को भी निश्चित रूप से अपने अधीन कर लिया. मध्य एशिया से आने वाली किसी भी ताकत को खदेड़ने के लिए और फारस (ईरान) की सरहदों की ओर बढ़ते हुए रूस को रोकने के लिए ये अधिकार नितांत आवश्यक थे. इस पिछले दशक के दौरान ब्रिटेन के भारतीय प्रदेश में 1, 67,000 वर्ग मील का रकबा, जिसमें 85,72,630 लोग रहते हैं, और जुड़ गया है. जहां तक देश के अंदर की बात है, तो तमाम देशी रियासतें अब ब्रिटिश अमलदारियों से घिर गई हैं; किसी न किसी रूप में वे ब्रिटेन की सत्ता के मातहत हो गई हैं; और, केवल गुजरात और सिंध को छोड़कर वे समुद्र तट से काट दी गई हैं. जहां तक बाहर का सवाल है, भारत अब खतम हो गया है। 1849 के बाद से केवल एक महान एंग्लो-इंडियन साम्राज्य का अस्तित्व ही वहां रह गया है. इस भांति, कंपनी के नाम के नीचे ब्रिटिश सरकार दो शताब्दियों से तब तक लड़ती आई है जब तक कि आखिरकार भारत की प्राकृतिक सरहदें खतम नहीं हो गईं. अब हम समझ सकते हैं कि इस पूरे काल में इंगलैंड की तमाम पार्टियां खामोशी से नजर नीची किए क्यों बैठी हैं वे भी जिन्होंने संकल्प कर रखा था कि भारतीय साम्राज्य की स्थापना का कार्य पूरा हो जाने के बाद कपटी शांति की बनावटी बातें बनाकर वे खूब हल्ला मचाएंगी. अपनी उदार परोपकारिता दिखलाने के लिए आवश्यक था कि पहले वे उसे किसी तरह हथिया तो लें ! इस नजरिए से देखने पर हम समझ सकते हैं कि इस वर्ष, 1853 में, सनद के दोबारा जारी किए जाने के पुराने जमानों की तुलना में, भारतीय सवाल की स्थिति क्यों बदल गई है.

फिर, हम एक और पहलू पर विचार करें. भारत के साथ ब्रिटेन के व्यापारिक संबंधों के विकास की विभिन्न मंजिलों के सिंहावलोकन से उससे संबंधित कानून के अनोखे संकट को हम और भी अच्छी तरह समझ सकेंगे. एलिजाबेथ के शासनकाल में, ईस्ट इंडिया कंपनी की कार्रवाइयों के प्रारंभ में, भारत के साथ लाभदायक ढंग से व्यापार चलाने के लिए कंपनी को इस बात की इजाजत दे दी गई थी कि चांदी, सोने और विदेशी मुद्रा के रूप में 30,000 पौंड तक के मूल्य की वस्तुओं का वार्षिक निर्यात वह कर ले. यह चीज उस युग के तमाम पूर्वग्रहों के विरुध्द जाती थी और इसीलिए टॉमस मुन इस बात के लिए मजबूर हो गया था कि ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ इंगलैंड के व्यापार का एक विवेचन पेश कर वह ‘व्यापारिक व्यवस्था’ के आधारों को निर्धारित कर दे. इसमें उसने स्वीकार किया था कि बहुमूल्य धातुएं ही किसी देश की सच्ची संपदा होती हैं; लेकिन, इसके बावजूद, साथ ही साथ उसने कहा था कि बिना किसी नुकसान के उनका निर्यात होने दिया जा सकता है बशर्ते कि बाकी अदायगी निर्यात करने वाले राष्ट्र के अनुकूल हो. इस दृष्टि से, उसका कहना था कि ईस्ट इंडिया से जो माल आयात किए जाते थे, उन्हें मुख्यतया दूसरे देशों को फिर से निर्यात कर दिया जाता था जिससे भारत में उनका मूल्य चुकाने के लिए जितने सोने की जरूरत पड़ती थी उससे कहीं अधिक सोना प्राप्त हो जाता था. इसी भावना के अनुरूप सर जोशिया चाइल्ड ने भी एक पुस्तक लिखी जिसमें सिध्द किया गया है कि ईस्ट इंडिया के साथ किया जाने वाला व्यापार तमाम विदेशी व्यापारों में सबसे अधिक राष्ट्रीय है. धीरे-धीरे ईस्ट इंडिया कंपनी के समर्थक अधिक उध्दत होते गए और, भारत के इस विचित्र इतिहास के दौर में एक अचंभे के रूप में देखा जा सकता है कि इंगलैंड में सबसे पहले मुक्त व्यापार के जो उपदेशक थे, वही अब भारतीय व्यापार के इजारेदार बन गए थे.

सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम और अठारहवीं शताब्दी के अधिकांश भाग में, जिस समय यह कहा जा रहा है कि ईस्ट इंडिया से मंगाए जाने वाले सूती और सिल्क के सामानों के कारण ब्रिटेन के गरीब कारखानेदार तबाह हुए जा रहे हैं, उसी समय ईस्ट इंडिया कंपनी के संबंध में पार्लियामेंट से हस्तक्षेप करने की फिर मांग की जा रही थी. और यह मांग की जा रही थी व्यापारी वर्ग की ओर से नहीं, बल्कि स्वयं औद्योगिक वर्ग की ओर से. जॉन पोलैक्सफेन की रचना, इंगलैंड और ईस्ट इंडिया के असंगत विनिर्माण, लंदन, 1697, में यही राय दी गई थी. इस रचना का शीर्षक डेढ़ शताब्दी बाद विचित्र रूप से सही सिध्द हुआ था लेकिन एक बिलकुल ही दूसरे अर्थ में. इसके बाद पार्लियामेंट ने जरूर हस्तक्षेप किया. विलियम तृतीय के शासनकाल में 10वें अध्याय के ग्यारहवें और बारहवें कानूनों द्वारा यह तय कर दिया गया कि हिंदुस्तान, ईरान और चीन की कृत्रिम सिल्कों और छपी या रंगी छीटों के पहनने पर रोक लगा दी जाए और उन तमाम लोगों पर जो इन चीजों को रखते या बेचते हैं, 200 पौंड का जुर्माना किया जाए. बाद में इतने ‘ज्ञानी’ बनने वाले ब्रिटिश कारखानेदारों के बार-बार रोने-धोने के परिणामस्वरूप इसी तरह के कानून जॉर्ज प्रथम, द्वितीय और तृतीय के शासनकाल में भी बना दिए गए थे और, इस भांति, अठारहवीं शताब्दी के अधिकांश में, भारत का बना माल इंगलैंड में आम तौर से इसलिए मंगाया जाता था कि उसे यूरोप में बेचा जा सके. पर इंगलैंड के बाजार से उसे दूर ही रखा जाता था.

ईस्ट इंडिया कंपनी के मामलों में इस पार्लियामेंटरी दखलंदाजी के अलावा जो देश के लालची कारखानेदारों ने करवाई उसकी सनद के दोबारा जारी किए जाने के हर अवसर पर लंदन, लिवरपूल और ब्रिस्टल के व्यापारियों द्वारा यह कोशिश भी की जाती थी कि कंपनी की व्यापारिक इजारेदारी को खतम कर दिया जाए और उस व्यापार में, जिसमें सोना बरसता दिखाई देता था, हिस्सा बंटा लिया जाए. इन कोशिशों के फलस्वरूप, 1773 के उस कानून में, जिसके द्वारा कंपनी की सनद को 1 मार्च 1814 तक के लिए फिर बढ़ा दिया गया था, एक धारा ऐसी भी जोड़ दी गई थी जिसके अंतर्गत ब्रिटेन के गैर-सरकारी लोगों को इंगलैंड से लगभग सभी प्रकार के मालों का निर्यात करने और कंपनी के भारतीय नौकरों को इंगलैंड में उनका निर्यात करने की अनुमति मिल गई थी. लेकिन इस छूट को देने के साथ-साथ, निजी व्यापार करने वाले व्यापारियों द्वारा ब्रिटिश भारत में माल भेजे जाने के संबंध में ऐसी शर्तें लगा दी गई थीं जिनसे कि इस छूट से होने वाले फायदे एकदम खतम हो जाते थे. 1813 में कंपनी आम व्यापारियों के दबाव का और अधिक सामना कर सकने में असमर्थ हो गई; और चीनी व्यापार की इजारेदारी तो बनी रही, लेकिन भारत के साथ व्यापार करने की छूट कुछ शर्तों के साथ निजी व्यापारियों को मिल गई. 1833 में जब फिर सनद जारी की जाने लगी तो ये अंतिम प्रतिबंध भी आखिरकार खतम कर दिए गए. कंपनी को किसी भी तरह का व्यापार करने से रोक दिया गया. उसके व्यापारिक रूप का अंत कर दिया गया, और भारतीय प्रदेश से ब्रिटिश प्रजाजनों को दूर रखने के उसके विशेषाधिकार को उससे छीन लिया गया.

इसी बीच ईस्ट इंडिया के साथ होने वाले व्यापार में अत्यंत क्रांतिकारी परिवर्तन हो गए थे जिनसे कि इंगलैंड के विभिन्न वर्गों की स्थिति उसके संबंध में एकदम बदल गई थी. पूरी अठारहवीं शताब्दी के दौर में जो विशाल धनराशि भारत से इंगलैंड लाई गई थी, उसका बहुत ही थोड़ा भाग व्यापार के द्वारा प्राप्त हुआ था, क्योंकि तब व्यापार अपेक्षाकृत महत्वहीन था. उसका अधिकतर उस देश के प्रत्यक्ष शोषण के द्वारा और उन विशाल व्यक्तिगत संपत्तियों के रूप में हासिल हुआ था जिन्हें जोर जबरदस्ती से इकट्ठा करके इंगलैंड भेज दिया गया था. 1813 में व्यापार का मार्ग खुल जाने के बाद बहुत ही थोड़े समय के अंदर भारत के साथ होने वाला व्यवसाय तीन गुने से भी अधिक बढ़ गया. लेकिन बात इतनी ही नहीं थी. व्यापार का पूरा चरित्र ही बदल गया था. 1813 तक भारत मुख्यतया निर्यात करने वाला देश था, पर अब वह आयात करने वाला देश बन गया था. यह परिवर्तन इतनी तेजी से हुआ था कि 1823 में ही विनिमय की दर, जो आम तौर से 2 शिलिंग 6 पेंस फी रुपया थी, गिर कर 2 शिलिंग फी रुपया हो गई. भारत कोजो अनादि काल से सूती कपड़े के उत्पादन के संबंध में संसार की महान उद्योगशाला बना हुआ था अब अंगरेजी सूत और सूती कपड़ों से पाट दिया गया. उसके अपने उत्पादन के इंगलैंड में प्रवेश पर रोक लगा दी गई या अगर उसे वहां आने भी दिया गया तो बहुत ही कठिन शर्तों पर. और इसके बाद, स्वयं उसे थोड़ी सी और नाममात्र की चुंगी लगाकर ब्रिटेन के बने माल से पाट दिया गया. इसके फलस्वरूप उस देश में उन सूती कपड़ों का बनना, जो कभी इतने प्रसिध्द थे, खतम हो गया. 1780 में ब्रिटेन के तमाम उत्पादन का मूल्य केवल 3,86,152 पौंड था; उसी साल जो सोना वहां से निर्यात किया गया था उसका मूल्य 15,041 पौंड था और 1780 में जो निर्यात हुआ था उसका कुल मूल्य 1,26,48,616 पौंड था. इस तरह भारत के साथ होने वाला व्यापार ब्रिटेन के कुल विदेशी व्यापार के केवल 132 के बराबर था. 1850 में ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड से भारत को निर्यात किए जाने वाले कुल माल की कीमत 80,24,000 पौंड हो गई थी. इसमें केवल सूती कपड़े की कीमत 52,20,000 पौंड थी. इस तरह भारत को भेजा जाने वाला माल उसके कुल निर्यात के 18 भाग से अधिक हो गया था और उसके सूती कपड़े के विदेशी व्यापार के 14 भाग से अधिक. लेकिन कपड़े का उद्योग अब ब्रिटेन की 18 आबादी को अपना रोजगार मुहैया कर रहा था और संपूर्ण राष्ट्रीय आय का 112 हिस्सा केवल उसी से प्राप्त होता था. प्रत्येक व्यापारिक संकट के बाद, भारत के साथ होने वाला व्यापार ब्रिटेन के सूती कपड़े के उद्योगपतियों के लिए अधिकाधिक महत्व की वस्तु बनता गया और पूरब का भारतीय महाद्वीप उनका सबसे अच्छा बाजार बन गया.

जिस रफ्तार से ग्रेट ब्रिटेन के संपूर्ण सामाजिक ढांचे के लिए सूती कपड़े का निर्माण बुनियादी महत्व की चीज बन गया था, उसी रफ्तार से ब्रिटेन के सूती कपड़े के उद्योग के लिए पूर्वी दुनिया में भारत भी बुनियादी महत्व का केंद्र बन गया. उस समय तक उन थैलीशाहों के स्वार्थ, जिन्होंने भारत को उस शासक गुट की जागीर बना लिया था जिसने अपनी फौजों के द्वारा उसको फतह किया था, उन मिल-मालिकों के स्वार्थों के साथ-साथ चलते आए थे जिन्होंने उसे अपने कपड़ों से पाट दिया था. लेकिन औद्योगिक स्वार्थ भारत के बाजार के ऊपर जितने ही अधिक निर्भर होते गए, वे उतने ही अधिक इस बात की आवश्यकता अनुभव करते गए कि भारत के राष्ट्रीय उद्योग को तबाह कर चुकने के बाद अब उन्हें भारत में नई उत्पादक शक्तियों की सृष्टि करनी चाहिए. किसी देश को अपने माल से आप बराबर पाटते नहीं जा सकते जब तक कि उसे भी आप बदले में कोई उपज देने योग्य न बना दें. औद्योगिक मालिकों को लगा कि उनका व्यापार बढ़ने की जगह घट गया था. 1846 से पहले के चार वर्षों में ग्रेट ब्रिटेन से जो माल भारत भेजा गया था, उसका मूल्य 26 करोड़ 10 लाख रुपया था; 1850 से पहले के चार वर्षों में केवल 25 करोड़ 30 लाख रुपयों का माल वहां भेजा गया था; और भारत से ब्रिटेन में जो माल आया था उसका मूल्य पहले वाले काल में 27 करोड़ 40 लाख रुपए के बराबर और बाद के काल में 25 करोड़ 40 लाख रुपए के बराबर था. उन्होंने देखा कि भारत में उनके माल की खपत की ताकत निम्नतम स्तर पर पहुंच गई थी. ब्रिटिश वेस्ट इंडीज में उनके मालों की खपत का मूल्य जनसंख्या के प्रति व्यक्ति पर प्रति वर्ष लगभग 14 शिलिंग था. चिली में 9 शिलिंग 3 पेंस, ब्राजील में 6 शिलिंग 5 पेंस, क्यूबा में 6 शिलिंग 2 पेंस, पेरू में 5 शिलिंग 7 पेंस, मध्य अमरीका में 10 पेंस और भारत में उसका मूल्य मुश्किल से लगभग 9 पेंस था. उसके बाद अमरीका में कपास की फसल का अकाल आया जिससे 1850 में उन्हें 1 करोड़ 10 लाख पौंड का नुकसान हुआ. ईस्ट इंडीज से कच्ची कपास मंगाकर अपनी जरूरत को पूरा करने के बजाए अमरीका पर निर्भर रहने की अपनी नीति से वे ऊब उठे. इसके अलावा, उन्होंने यह भी देखा कि भारत में पूंजी लगाने की उनकी कोशिशों के मार्ग में भारतीय अधिकारी रुकावटें पैदा करते थे और छल-कपट से काम लेते थे. इस भांति, भारत एक रक्षण-क्षेत्र बन गया जिसमें एक तरफ औद्योगिक स्वार्थ थे और दूसरी तरफ थैलीशाह और शासक गुट के लोग. उद्योगपति, जिन्हें इंगलैंड में अपनी बढ़ती हुई शक्ति का पूरा एहसास है, अब मांग कर रहे हैं कि भारत की इन विरोधी ताकतों का एकदम खातमा कर दिया जाए, भारतीय सरकार प्राचीन अपने अधिकारी तंत्र के ताने-बाने को पूर्णतया नष्ट कर दे और ईस्ट इंडिया कंपनी की अंतिम क्रिया कर दी जाए.

और अब हम उस चौथे और अंतिम पहलू को लें जिससे भारतीय सवाल को देखा जाना चाहिए. 1784 से भारत की वित्तीय व्यवस्था कठिनाई के दलदल में अधिकाधिक गहरे फंसती गई है. अब वहां 5 करोड़ पौंड का राष्ट्रीय कर्जा हो गया है, आमदनी के साधन लगातार घटते जा रहे हैं, और खर्चा उसी गति से बढ़ता जा रहा है. अफीम कर की अनिश्चित आय के द्वारा इस खर्च को संदिग्ध रूप से पूरा करने की कोशिश की जा रही है. पर अब यह अफीम कर की आमदनी भी खतरे में है, क्योंकि चीनियों ने स्वयं पोस्त (अफीम) की खेती शुरू कर दी है. दूसरी तरफ निरर्थक बर्मी युध्द में जो खर्च होगा, उससे यह संकट और भी गहरा हो जाएगा. मि. डिकिंसन कहते हैं : परिस्थिति यह है कि जिस तरह भारत में अपने साम्राज्य को खो देने पर इंगलैंड तबाह हो जाएगा, उसी तरह उसे अपने कब्जे में बनाए रखने के लिए वह स्वयं हमारी वित्तीय व्यवस्था को तबाही की ओर लिए जा रहा है.

इस तरह मैंने दिखला दिया है कि 1783 के बाद पहली बार भारत का सवाल किस तरह इंगलैंड का और मंत्रिमंडल का सवाल बन गया है.

[कार्ल मार्क्स द्वारा 24 जून 1853 को लिखा गया. 11 जुलाई 1853 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, अंक 3816, में प्रकाशित हुआ.]

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