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कार्ल मार्क्स (1853) : भारत में ब्रिटिश शासन के भावी परिणाम

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कार्ल मार्क्स (1853) : भारत में ब्रिटिश शासन के भावी परिणाम

भारत के संबंध में अपनी टिप्पणियों को इस पत्र में मैं समाप्त कर देना चाहता हूं.

यह कैसा हुआ कि भारत के ऊपर अंगरेजों का आधिपत्य कायम हो गया ? महान मुगल की सर्वोच्च सत्ता को मुगल सूबेदारों ने तोड़ दिया था. सूबेदारों की शक्ति को मराठों ने नष्ट कर दिया था. मराठों की ताकत को अफगानों ने खतम किया, और जब सब एक दूसरे से लड़ने में लगे थे, तब अंगरेज घुस आए और उन सबको कुचल कर खुद स्वामी बन बैठे. एक देश जो न सिर्फ मुसलमानों और हिंदुओं में, बल्कि, कबीले-कबीले और वर्ण-वर्ण में भी बंटा हुआ हो; एक समाज जिसका ढांचा उसके तमाम सदस्यों के पारस्परिक विरोधों और वैधानिक अलगावों के ऊपर आधारित हो, ऐसा देश और ऐसा समाज क्या दूसरों द्वारा फतह किए जाने के लिए ही नहीं बनाया गया था ? भारत के पिछले इतिहास के बारे में यदि हमें जरा भी जानकारी न हो, तब भी क्या इस जबरदस्त और निर्विवाद तथ्य से हम इनकार कर सकेंगे कि इस क्षण भी भारत को, भारत के ही खर्च पर पलने वाली एक भारतीय फौज अंगरेजों का गुलाम बनाए हुए है ? अत:, भारत दूसरों द्वारा जीते जाने के दुर्भाग्य से बच नहीं सकता, और उसका संपूर्ण पिछला इतिहास अगर कुछ भी हो, तो वह उन लगातार जीतों का इतिहास है जिनका शिकार उसे बनना पड़ा है. भारतीय समाज का कोई इतिहास नहीं है, कम से कम ज्ञात इतिहास तो बिलकुल ही नहीं है. जिसे हम उसका इतिहास कहते हैं, वह वास्तव में उन आक्रमणकारियों का इतिहास है जिन्होंने आकर उसके उस समाज के निष्क्रिय आधार पर अपने साम्राज्य कायम किए थे, जो न विरोध करता था, न कभी बदलता था.

इसलिए, प्रश्न यह नहीं है कि अंगरेजों को भारत जीतने का अधिकार था या नहीं, बल्कि प्रश्न यह है कि क्या अंगरेजों की जगह तुर्कों, ईरानियों, रूसियों द्वारा भारत का फतह किया जाना हमें ज्यादा पसंद होता. भारत में इंगलैंड को दोहरा काम करना है : एक ध्वंसात्मक, दूसरा पुनर्रचनात्मक पुराने एशियाई समाज को नष्ट करने का काम और एशिया में पश्चिमी समाज के लिए भौतिक आधार तैयार करने का काम. अरब, तुर्क, तातार, मुगल, जिन्होंने एक के बाद दूसरे भारत पर चढाई की थी, जल्दी ही खुद हिंदुस्तानी बन गए थे : इतिहास के एक शाश्वत नियम के अनुसार बर्बर विजेता अपनी प्रजा की श्रेष्ठतर सभ्यता द्वारा स्वयं जीत लिए गए थे. अंगरेज पहले विजेता थे जिनकी सभ्यता श्रेष्ठतर थी, और, इसलिए, हिंदुस्तानी सभ्यता उन्हें अपने अंदर न समेट सकी. देशी बस्तियों को उजाड़ कर, देशी उद्योग-धंधों को तबाह कर और देशी समाज के अंदर जो कुछ भी महान और उदात्त था उस सबको धूल-धूसरित करके उन्होंने भारतीय सभ्यता को नष्ट कर दिया. भारत में उनके शासन के इतिहास के पन्नों में इस विनाश की कहानी के अतिरिक्त और लगभग कुछ नहीं है. विध्वंस के खंडहरों में पुनर्रचना के कार्य का मुश्किल से ही कोई चिह्न दिखलाई देता है.

फिर भी यह कार्य शुरू हो गया है. पुनर्रचना की पहली शर्त यह थी कि भारत में राजनीतिक एकता स्थापित हो और वह महान मुगलों के शासन में स्थापित एकता से अधिक मजबूत और अधिक व्यापक हो. इस एकता को ब्रिटिश तलवार ने स्थापित कर दिया है और अब बिजली का तार उसे और मजबूत बनाएगा और स्थायित्व प्रदान करेगा. भारत अपनी मुक्ति प्राप्त कर सके और हर विदेशी आक्रमणकारी का शिकार होने से वह बच सके, इसके लिए आवश्यक था कि उसकी अपनी एक देशी सेना हो : अंगरेज ड्रिल-सार्जेंट ने ऐसी ही एक सेना संगठित और शिक्षित करके तैयार कर दी है. (एशियाई समाज में पहली बार स्वतंत्र अखबार कायम हो गए हैं.) इन्हें मुख्यतया भारतीयों और यूरोपियनों की मिली-जुली संतानें चलाती है और वे पुनर्निर्माण के एक नए और शाक्तिशाली साधन के रूप में काम कर रहे हैं. जमींदारी और रैयतवारी प्रथाओं के रूप में यद्यपि ये अत्यंत घृणित प्रथाएं हैं भूमि पर निजी स्वामित्व के दो अलग रूप कायम हो गए हैं; इससे एशियाई समाज में जिस चीज की (भूमि पर निजी स्वामित्व की प्रथा कीअनु.) अत्यधिक आवश्यकता थी, उसकी स्थापना हो गई है. भारतीयों के अंदर से, जिन्हें अंगरेजों की देख-देख में कलकत्ते में अनिच्छापूर्वक और कम से कम संख्या में शिक्षित किया जा रहा है, और नया वर्ग पैदा हो रहा है जिसे सरकार चलाने के लिए आवश्यक ज्ञान और यूरोपीय विज्ञान की जानकारी प्राप्त हो गई है. भाप ने यूरोप के साथ भारत का नियमित और तेज संबंध कायम कर दिया है, उसने उसके मुख्य बंदरगाहों को पूरे दक्षिण-पूर्वी महासागर के बंदरगाहों से जोड़ दिया है, और उसकी उस अलगाव की स्थिति को खतम कर दिया है जो उसकी प्रगति न करने का मुख्य कारण थी. वह दिन बहुत दूर नहीं है जब रेलगाड़ियों और भाप से चलने वाले समुद्री जहाज इंगलैंड और भारत के बीच के फासले को, समय के माप के अनुसार, केवल आठ दिन का कर देंगे और वह वैभवशाली देश पश्चिमी संसार का सचमुच एक हिस्सा बना जाएगा. ग्रेट ब्रिटेन के शासक वर्गों की भारत की प्रगति में अभी तक केवल आकस्मिक, क्षणिक और अपवाद रूप में ही दिलचस्पी रही है. अभिजात वर्ग उसे फतह करना चाहता था, थैलीशाहों का वर्ग उसे लूटना चाहता था, और मिलशाहों का वर्ग सस्ते दामों पर अपना माल बेच कर उसे बर्बाद करना चाहता था लेकिन अब स्थिति एकदम उलटी हो गई है.

मिलशाहों के वर्ग को पता लग गया है कि भारत को एक उत्पादन करने वाले देश में बदलना उनके अपने हित के लिए अत्यंत आवश्यक हो गया है, और यह कि, इस काम के लिए, सबसे पहले इस बात की आवश्यकता है कि वहां पर सिंचाई के साधनों और आवाजाही के अंदरूनी साधनों की व्यवस्था की जाए. अब वे भारत में रेलों का जाल बिछा देना चाहते हैं. और वे बिछा देंगे. इसका परिणाम क्या होगा, इसका उन्हें कोई अनुमान नहीं है. यह तो कुख्यात है कि विभिन्न प्रकार की उपजों को लाने-ले जाने और उसकी अदला-बदली करने के साधनों के नितांत अभाव ने भारत की उत्पादक शक्ति को पंगु बना रखा है. अदला-बदली के साधनों के अभाव के कारण, प्राकृतिक प्रचुरता के मध्य ऐसी सामाजिक दरिद्रता हमें भारत से अधिक कहीं और दिखलाई नहीं देती. ब्रिटिश कॉमन्स सभा की एक समिति के सामने, जो 1848 में नियुक्त की गई थी, यह साबित हो गया था कि : खानदेश में जिस समय अनाज 6 शिलिंग से लेकर 8 शिलिंग फी क्वार्टर के भाव से बिक रहा था, उसी समय पूना में उसका भाव 64 शिलिंग से 70 शिलिंग तक का था, जहां पर अकाल के मारे लोग सड़कों पर दम तोड़ रहे थे, पर खानदेश से अनाज ले आना संभव नहीं था क्योंकि कच्ची सड़कें एकदम बेकार थीं. रेलों के जारी होने से खेती के कामों में भी आसानी से मदद मिल सकेगी, क्योंकि जहां कहीं बांध बनाने के लिए मिट्टी की जरूरत होगी वहां तालाब बन सकेंगे, और पानी को रेलवे लाइन के सहारे विभिन्न दिशाओं में ले जाया जा सकेगा. इस प्रकार सिंचाई का, जो पूर्व में खेती की बुनियादी शर्त है, बहुत विस्तार होगा और पानी की कमी के कारण बार-बार पड़ने वाले स्थानीय अकालों से निजात मिल सकेगी. इस दृष्टि से देखने पर रेलों का आम महत्व उस समय और भी स्पष्ट हो जाएगा जब हम इस बात को याद करेंगे कि सिंचाई वाली जमीनें, घाट के नजदीक वाले जिलों में भी, बिना सिंचाई वाली जमीनों की तुलना में उतने ही रकबे के ऊपर तीन-गुना अधिक टैक्स देती हैं, दस या बारह गुना अधिक लोगों को काम देती हैं और उनसे बारह या पंद्रह गुना अधिक मुनाफा होता है. रेलों के बनने से फौजी छावनियों की संख्या और उनके खर्चे में कमी करना भी संभव हो जाएगा. फोर्ट सेंट विलियम के टाउन मेजर, कर्नल वारेन ने कॉमन्स सभा की एक प्रवर समिति के सामने कहा था : यह संभावना कि जितने दिनों में, यहां तक कि हफ्तों में, देश के दूर-दूर के भागों से आजकल जो सूचनाएं आ पाती हैं, वे आगे से उतने ही में वहां से प्राप्त हो जाया करेंगी और इतने ही संक्षिप्त समय में फौजों और सामान के साथ वहां हिदायतें भेजी जा सकेंगी, यह ऐसी संभावना है जिसका महत्व कभी भी बहुत बढ़ाकर नहीं आंका जा सकता. फौजों को तब और दूर-दूर की, और आज की अपेक्षा अधिक स्वास्थ्यप्रद, छावनियों में रखा जा सकेगा और बीमारी के कारण जो बहुत सी जानें जाती हैं, उन्हें इस तरह बचा लिया जा सकेगा. तब विभिन्न गोदामों में इतना अधिक सामान रखने की भी जरूरत नहीं होगी और सड़ने-गलने और जलवायु के कारण नष्ट हो जाने से होने वाले नुकसान से भी बचा जा सकेगा. फौजों की कार्य-क्षमता के प्रत्यक्ष अनुपात में उनकी संख्या में भी कमी की जा सकेगी. हम जानते हैं कि (भारत के) ग्रामीण स्थानीय संगठन और आर्थिक आधार छिन्न-विच्छिन्न हो गए हैं; लेकिन उनका सबसे बड़ा दुर्गुणसमाज की एक ही जैसी घिसी-पिटी और विशृंखल इकाइयों में बिखरा होनाउनकी जीवन-शक्ति के लुप्त हो जाने के बाद भी कायम है. गांवों के अलगाव की वजह से भारत में सड़कें नहीं पैदा हुईं, और सड़कों के अभाव ने गांवों के अलगाव को स्थायी बना दिया. इसी आधार पर एक समाज कायम था, जिसे जीवन की बहुत कम सुविधाएं प्राप्त थीं, जिसका दूसरे गांवों के साथ संपर्क लगभग नहीं के बराबर होता था, जिसमें उन इच्छा-आकांक्षाओं और प्रयत्नों का सर्वथा अभाव था जो सामाजिक प्रगति के लिए अनिवार्य होते हैं. अंगरेजों ने गांवों की इस आत्म-संतोषी निश्चलता को भंग कर दिया है, रेलें अब आने-जाने और संपर्क के साधनों की नई आवश्यकताओं को पूरा कर देंगी. इसके अलावा : रेल व्यवस्था का एक परिणाम यह भी होगा कि जिस गांव के पास से वह गुजरेगी उसमें दूसरे देशों के औजारों और मशीनों की ऐसी जानकारी वह करा देगी, और उन्हें प्राप्त करने के ऐसे साधनों से लैस कर देगी, जो पहले तो भारत के पुश्तैनी और वृत्तिग्राही ग्रामीण दरकेंगे, और फिर, उसकी कमियों को दूर कर देंगे. (चैपमेन, भारत की कपास और उसका व्यापार.) मैं जानता हूं कि अंगरेज मिलशाह (कारखानेदार) केवल इसी उद्देश्य को सामने रखकर भारत में रेलें बनवा रहे हैं कि उनके जरिए अपने कारखानों के लिए कम खर्च में अधिक कपास और कच्चा माल वे हासिल कर सकें. लेकिन, एक बार जब आप किसी देश के एक ऐसे देश के जिसमें लोहा और कोयला मिलता है आवाजाही के साधनों में मशीनों का इस्तेमाल शुरू कर देते हैं, तब फिर उस देश को मशीनें बनाने से आप रोक नहीं सकते. यह नहीं हो सकता कि एक विशाल देश में रेलों का एक जाल आप बिछाए रहें और उन औद्योगिक प्रक्रियाओं को आप वहां आरंभ न होने दें जो रेल यातायात की तात्कालिक और रोजमर्रा की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक हैं. और इन औद्योगिक प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप, यह भी अवश्यंभावी है कि उद्योग की जिन शाखाओं का रेलों से कोई सीधा संबंध नहीं है उनमें भी मशीनों का उपयोग होने लगे. इसलिए, रेल व्यवस्था भारत में आधुनिक उद्योग की अग्रदूत बन जाएगी. ऐसा होना इसलिए और भी निश्चित है कि स्वयं ब्रिटिश अधिकारियों की राय के अनुसार हिंदुस्तानियों में बिलकुल नए ढंग के काम सीखने और मशीनों का आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने की विशिष्ट योग्यता है. इस बात का प्रचुर प्रमाण कलकत्ते के सिक्के बनाने के कारखाने में काम करने वाले उन देशी इंजीनियरों की क्षमता और कौशल में मिलता है जो वर्षों से भाप से चलने वाली मशीनों पर वहां काम रहे हैं.

इसका प्रमाण कोयले वाले इलाकों में भाप से चलने वाले इंजनों से संबंधित भारतीयों में भी मिलता है. और भी ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं. मिस्टर कैॅपबेल पर ईस्ट इंडिया कंपनी के पूर्वग्रहों का बड़ा प्रभाव है, पर वे स्वयं भी इस बात को कहने के लिए मजबूर हैं कि : ‘भारतीय जनता के बहुसंख्यक समुदाय में जबरदस्त औद्योगिक क्षमता मौजूद है, पूंजी जमा करने की उसमें अच्छी योग्यता है और गणित संबंधी उसके मस्तिष्क की कुशाग्रता अद्भुत है, और हिसाब-किताब और तथ्य विज्ञान में वह बहुत सुगमता से दक्षता प्राप्त कर लेती है.’ वह कहते हैं, ‘उनकी बुध्दि बहुत तीक्ष्ण होती है.’ रेल व्यवस्था से उत्पन्न होने वाले आधुनिक उद्योग-धंधे उस पुश्तैनी श्रम विभाजन को भंग कर देंगे जिस पर भारत की तरक्की और उसकी ताकत के बढ़ने के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट भारत की वर्ण-व्यवस्था टिकी हुई है. अंगरेज पूंजीपति वर्ग मजबूर होकर चाहे जो कुछ करे, उससे न तो भारत की आम जनता को आजादी मिलेगी, न उसकी सामाजिक हालत में कोई खास सुधार होगा, क्योंकि ये चीजें केवल इस बात पर नहीं निर्भर करतीं कि उत्पादक शक्तियों का विकास हो, बल्कि स्तकारों को अपनी पूरी क्षमता का परिचय देने के लिए मजबूर इस बात पर निर्भर करती हैं कि उन शक्तियों पर जनता का स्वामित्व हो. लेकिन इन दोनों चीजों के लिए भौतिक आधार तैयार करने के काम से वे (अंगरेज पूंजीपति) नहीं बच सकेंगे. पूंजीपति वर्ग ने क्या कभी इससे अधिक कुछ किया है ? व्यक्तियों या कौमों को खून या गर्दोगुबार के बीच से चलाए बिना, कष्टों और पतन के गढ़े में ढकेले बिना, क्या वह कभी कोई प्रगति ला सका है ?

अंगरेज पूंजीपति वर्ग ने भारतवासियों के बीच नए समाज के जो बीज बिखेरे हैं, उनके फल, भारतीय तब तक नहीं चख सकेंगे जब तक कि स्वयं ग्रेट ब्रिटेन में आज के शासक वर्गों का स्थान औद्योगिक सर्वहारा वर्ग न ले ले या जब तक कि भारतीय लोग स्वयं इतने शक्तिशाली न हो जाएं कि अंगरेजों की गुलामी के जुए को एकदम उतार फेंकें. हर हालत में, यह आशा तो हम विश्वास के साथ कर ही सकते हैं कि देर या सबेर, उस महान और चित्ताकर्षक देश का पुनरोत्थान अवश्य होगा जिसके निम्न से निम्न वर्गों के सौम्य नागरिक भी होते हैं, जिनकी परवशता में भी एक शांत महानता दिखाई देती है, जिन्होंने अपनी स्वाभाविक तंद्रा के बावजूद अपनी बहादुरी से ब्रिटिश अफसरों को चकित कर दिया है, जिनके देश से हमें हमारी भाषाएं और हमारे धर्म प्राप्त हुए हैं, और जिनके बीच प्राचीन जर्मनों के प्रतिनिधि के रूप में जाट और प्राचीन यूनानियों के प्रतिनिधि के रूप में ब्राह्मण भी मौजूद हैं. भारत से संबंधित इस विषय को, उपसंहार के रूप में कुछ बातें कहे बिना, मैं समाप्त नहीं कर सकता. पूंजीवादी सभ्यता की निविड़ धूर्तता और स्वभावगत बर्बरता हमारी आंखों के सामने उस समय निरावरण होकर प्रकट हो जाती है जब अपने देश से, जहां वह सभ्य रूप धारण किए रहती है, वह उपनिवेशों को जाती है जहां वह बिलकुल नंगी हो जाती है. वे (अंगरेज पूंजीपति-अनु.) निजी संपत्ति के हिमायती हैं, लेकिन क्या किसी भी क्रांतिकारी पार्टी ने कभी ऐसी कृषि क्रांतियों को जन्म दिया है जैसी कि बंगाल, मद्रास और बंबई में हुई हैं ? क्या यह सच नहीं है कि भारत में जब साधारण भ्रष्टाचार से उनकी स्वार्थलिप्सा पूरी नहीं हो सकी, तब उस खूंखार लूटेरे लार्ड क्लाइव के ही शब्दों में, उन्होंने वीभत्स लूट-खसोट शुरू कर दी. यूरोप में जब वे राष्ट्रीय ऋण की अनुल्लंघनीय पवित्रता की दुहाई दे रहे थे, तभी क्या भारत में उन्होंने उन राजाओं की मुनाफे की रकमों को जब्त नहीं कर लिया था जिन्होंने बचाई हुई अपनी निजी पूंजी को कंपनी के खजाने में जमा कर दिया था ? वे जिस समय ‘हमारे पवित्र धर्म’ की रक्षा के नाम पर फ्रांसीसी क्रांति का विरोध कर रहे थे, क्या उसी समय उन्होंने भारत में ईसाई धर्म के प्रचार पर रोक नहीं लगा दी थी ? और क्या, उन्होंने उड़ीसा और बंगाल के मंदिरों में दर्शनार्थ आने वाले तीर्थयात्रियों के रुपया कमाने के लिए जगन्नाथ मंदिर में चलने वाली वेश्यावृत्ति और नर-हत्या के व्यापार को अपने हाथों में नहीं ले लिया ?

यही वे लोग हैं जो ‘संपत्ति, व्यवस्था, परिवार और धर्म’ की दुहाई देते नहीं थकते ! भारत जैसे देश पर, जो यूरोपीय महाद्वीप के समान विशाल है और जहां 15 करोड़ एकड़ जमीन है, अंगरेजी उद्योगों का सत्यानाशी प्रभाव बिलकुल स्पष्ट और हैरत में डाल देने वाला है; लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह प्रभाव वर्तमान समय में प्रचलित उत्पादन की संपूर्ण व्यवस्था का ही लाजिमी परिणाम है. यह उत्पादन व्यवस्था पूंजी की सर्वोच्च सत्ता पर आधारित है. एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में पूंजी के बने रहने के लिए आवश्यक है कि उसका केंद्रीकरण हो. दुनिया के बाजारों पर पूंजी के इस केंद्रीकरण का जो विनाशकारी प्रभाव पड़ता है, वह राजनीतिक अर्थशास्त्र के उन स्वभावगत बुनियादी नियमों को ही अत्यंत भयानक रूप में प्रकट कर देता है जो प्रत्येक सभ्य शहर में आज काम कर रहे हैं. इतिहास के पूंजीवादी युग को नए संसार का भौतिक आधार तैयार करना है एक तरफ तो उसे मानव जाति की पारस्परिक निर्भरता पर आधारित संसारव्यापी आदान-प्रदान की व्यवस्था और इस आदान-प्रदान के साधनों की स्थापना करनी है; दूसरी तरफ, उसे मनुष्य की उत्पादक शक्तियों का विकास करना है और उसके भौतिक उत्पादन की प्राकृतिक शक्तियों पर वैज्ञानिक आधिपत्य का रूप देना है. पूंजीवादी उद्योग और व्यापार नए संसार की इन भौतिक परिस्थितियों का उसी तरह निर्माण कर रहे हैं जिस तरह कि भूगर्भ में होने वाली क्रांतियों ने पृथ्वी के धरातल की सृष्टि की है. पूंजीवादी युग की इन देनों पर विश्वबाजार और उत्पादन की आधुनिक शक्तियों पर एक महान सामाजिक क्रांति जब अपना आधिपत्य कायम कर लेगी और उन्हें सर्वाधिक उन्नत जनता के संयुक्त नियंत्रण के नीचे ले आएगी, केवल तभी मानवी प्रगति प्राचीन मूर्तिपूजकों के उस घृणित दैव के रूप को तिलांजलि दे सकेगी जो बलि दिए गए इनसानों की खोपड़ियों के अलावा और किसी चीज में भरकर अमृत पीने से इनकार करता था.

[कार्ल मार्क्स द्वारा 22 जुलाई, 1853 अखबार के पाठ के अनुसार को लिखा गया छापा गया 8 अगस्त, 1853 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, अंक 3840, में प्रकाशित हुआ.]

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