गुरूचरण सिंह
कल्याकारी सरकार के स्थान पर वह एक विशुद्ध व्यापारिक संस्था बन गई. गांव के बनिए की तरह उसने कहना शुरू कर दिया, ‘हमने कोई धर्मखाता नहीं खोल रखा है यहां पर ! अंटी में कुछ है तो ले जाओ, वरना हमारा धंधा खोटा मत करो.’
अपनी अलग पहचान बनाने के लिए राजनीतिक पार्टियां अक्सर अपने झंडे का रंग और निशान चुनती हैं क्योंकि ये उनकी राजनीतिक आस्था को अभिव्यक्त करते हैं. बुनियादी रंग तो वैसे तीन ही होते हैं : लाल, पीला और नीला. इनमें से एक रक्ताभ लाल रंग बिना किसी मिलावट के सर्वहारा आंदोलन से जुड़ा हुआ है और बहुजन की विशालता और गहराई दिखाने के लिए बहुजन समाज पार्टी ने आकाश के नीला रंग को अपना लिया है. ‘हिंदुत्व का भेख’ बनाने के लिए एक पार्टी विशेष ने साधू-संतों का भगवा रंग हथिया लिया, जो दो मूल रंगों लाल और पीले के मिलाप से बनता है ! समाज में बहुत सम्मान था ‘मोहमाया से मुक्त’ इन सन्यासियों का भले ही आज उनका घृणित चेहरा भी सामने आ गया है. मां बताया करती थी कि गधे पर भी भगवा वस्त्र डाल दिया जाए तो लोग उसे भी नमस्कार करने लगेंगे; इस रंग से इतनी आस्था जुड़ी हुई है आम जन की ! वैसे तो काले रंग को भी द्रमुक जैसी कई पार्टियों ने अपनी राजनीतिक आस्था का विषय बनाया है, फिर भी यह सभी राजनीतिक पार्टियों और संस्थाओं के लिए विरोध-प्रदर्शन का एक सर्वसम्मत उपादान ही बना रहा है.
दरअसल विरोध प्रदर्शन, हुक्मरानों की जनविरोधी नीतियों की मौखिक और लिखित आलोचना ही लोकशाही की बुनियाद होती है. प्रचंड बहुमत के अहंकार में इसी लोकशाही की उपेक्षा के चलते जैसे ही यह बुनियाद कमजोर होने लगती है, लोकशाही की पूरी की पूरी इमारत ही धराशायी हो जाने के आसार सामने आ खड़े होते हैं; लोकशाही का लबादा ओढ़े फासीवादी प्रवृत्ति के पंजों के नाखून धीरे-धीरे बाहर निकलने लगते हैं और फिर एक दिन इसी ‘जन समर्थन’ के बलबूते पर वे हुक्मरान खुल कर मनमर्जी करने लगते हैं. यह ठीक है कि इसका परिणाम भी भुगतना पड़ता है उन्हें लेकिन जब तक आंखों पर निरंकुश सत्ता की पट्टी बंधी रहती है, तब तक उसे और कुछ दिखाई ही नहीं देता. ऐसी सरकार एक वर्ग विशेष की तरह ही आचरण करती है, उसके हित-अहित ही उसकी चिंता का विषय होते हैं; समाज के दूसरे वर्ग खुद को उपेक्षित-सा ही महसूस करने लगते हैं.
नोटबंदी, जीएसटी जैसे सनकी आर्थिक- राजनीतिक फैसले और इनसे हुए भयानक आर्थिक नुकसान की भरपाई के लिए लाभदायक सरकारी कम्पनियों को जब निजी हाथों में बेचा जाने लगा तो लोगों का माथा ठनका. बेरोजगारी की दर इतनी बढ़ गई कि जनता से इसे जानने का अधिकार भी छीन लिया. इसी काम के लिए बनाई गई अपनी ही संस्था के आंकड़ों पर विश्वास नहीं था सरकार को ! सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती मंहगाई के चलते रोजमर्रा जरूरत की चीजें भी आम जनता की पहुंच से बाहर हो गई, बनाए गए माल की खपत न होने से कल-कारखाने सुस्त पड़ने लगे और कुछ तो बन्द भी ही गए ! आर्थिक घोटाले रोज़ाना अखबारों और खबरी चैनलों की सुर्खियां बनने लगे ! लोगों का जीना दूभर होने लगा. कल्याकारी सरकार के स्थान पर वह एक विशुद्ध व्यापारिक संस्था बन गई. गांव के बनिए की तरह उसने कहना शुरू कर दिया, ‘हमने कोई धर्मखाता नहीं खोल रखा है यहां पर ! अंटी में कुछ है तो ले जाओ, वरना हमारा धंधा खोटा मत करो.’
यही नहीं व्यापारिक हितों को देखते हुए एथनॉल के बहाने चीनी उद्योग पर मेहरबानी से इस प्रवृत्ति का पहला बड़ा संकेत मिला है. हालांकि मेरा विश्वास है कि कालांतर में इस एथनॉल संबंधी नीति का देश की खाद्यान्न स्थिति पर विपरीत प्रभाव ही होने वाला है क्योंकि मक्का, जौं आदि मोटा अनाज भी इसकी जद में आने वाला है. यही मोटा अनाज गरीबों के जीने का सहारा है ! पहले तो इनका इस्तेमाल करने वाले केवल बियर निर्माताओं से ही खतरा था, अब एथनॉल बनाने वाले चीनी उद्योग से भी खतरा बढ़ गया है. खाद्यान्न तेलों का आयात इसका सबूत है क्योंकि किसान इन फसलों की बजाए अब नकदी फसलों की ओर रुख करने लगे हैं.
नागरिकता कानून और NRC जैसे समाज को बांटने वाले गैर-जरूरी हितसाधक कानून लाने का जैसा व्यापक विरोध हुआ है, बच्चे बूढ़े सब जैसे सड़कों पर उतर आए हों, इससे तो यही लग रहा है कि यही ऊंट की पीठ पर आखिरी तिनका साबित होने वाला है. सरकार भी इस चहुतरफा विरोध से परेशान होने लगी है. लगता है धरना-प्रदर्शनों से आमजन का ध्यान भटकाने के लिए जेएनयू पर हुआ नकाबपोश हमला इसी का नतीजा है, वरना यह कैसे मुमकिन है कि पुलिस युनिवर्सिटी गेट के सामने खड़ी रहे, छात्र पिटते रहें और वह वीसी के बुलावे का इंतजार करती रहे, तो फिर जामिया मिल्लिया में कैसे दाखिल ही गई वह प्रशासन की अनुमति के बिना ही ? समाज के केवल एक समुदाय को निशाने पर लेने वाली सरकार के पास सफाई के नाम पर देने के लिए कुछ है ही नहीं !
इधर दमन बढ़ रहा है, उधर विरोध ! अब देखना है कौन किसको शह और मात देता है !
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