जेएनयू में हुई फीस बढ़ोतरी के खिलाफ चल रहे छात्र आंदोलन ने देश में फिर से ‘जेएनयू विरोधी’ बहस को शुरू कर दिया है. तर्क दिये जा रहे हैं कि जेएनयू आतंकवादियों का अड्डा है और वहां करदाताओं के पैसे से पढ़ कर बच्चे ‘अय्याशी’ करते हैं, देश-विरोधी बातें करते हैं, और मुफ्त की जिंदगी जीते हैं. सवाल ये है कि क्या ये सिर्फ एक जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय की बात है ? नहीं ! ये सवाल पूरी शिक्षा व्यवस्था का है. जेएनयू में उच्च शिक्षा पाने के लिए पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं इस देश की युवा आबादी का छोटा सा हिस्सा भर हैं. उस आबादी की बात करने की भी जरूरत है, जो जेएनयू से बाहर पढ़ रही है और जिस आबादी ने उच्च शिक्षा के लिए ना जान कैसे-कैसे पैसे जुटा कर अपनी फीस भरी है.
भारत एक पिछड़ा हुआ पूंजीवादी देश है. देश की 99 प्रतिशत आबादी के बराबर धन 1 प्रतिशत आबादी के पास है. इस गरीब देश में आधी से ज्यादा आबादी युवाओं की है, यानी वो आयु वर्ग जिसके लोग शिक्षा पाने वाली उम्र के हैं. यहां उनकी बात करने की जरूरत है. इस जेएनयू विरोधी नरेटिव को पकाते हुए हम ये भूल गए हैं कि यहां बड़ा सवाल जेएनयू या वहां होने वाली राजनीति का नहीं है, यहां सवाल शिक्षा का है. जेएनयू के छात्र अगर आंदोलन कर रहे हैं तो वो अपनी राजनीति के हित के लिए नहीं, बल्कि शिक्षा के अधिकार के लिए आंदोलन कर रहे हैं.
भारत में स्कूली शिक्षा पाने वाला युवा अपने स्कूल के दिनों से ही मां-बाप के प्रेशर से जूझने लगता है, और उस वर्ग पर ये दायित्व होता है कि वो उच्च शिक्षा के लिए किसी अच्छे संस्थान में जाए. अगर उत्तरी भारत की बात की जाए, तो उच्च शिक्षा के लिए सबसे नजदीकी शहर दिल्ली है. जहां दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला पाने के लिए 12वीं में अच्छे नंबर लाने पड़ते हैं, और अगर वो नहीं आये तो जेएनयू जैसे संस्थान में एंट्रैन्स टेस्ट देना होता है. अगर दोनों में से कुछ भी नहीं हुआ, तो ये वर्ग प्राइवेट कॉलेज में जाने के लिए मजबूर होता है. प्राइवेट कॉलेज में जाने वाले युवा वर्ग की संख्या काफी ज्यादा जिसकी वजह साफ है- कि प्राइवेट कॉलेज में एंट्रैन्स टेस्ट नहीं होता है लेकिन प्राइवेट कॉलेजों की फीस बहुत ज्यादा होती है.
शिक्षा के निजीकरण ने युवाओं को और उनके मां-बाप को गैर-जरूरी तौर पर उत्साही बना दिया है, उन्हें लगने लगा है कि बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों वाला प्राइवेट कॉलेज ही सबसे अच्छा है. ऐसे में एक प्राइवेट कॉलेज में 100 प्रतिशत प्लेसमेंट का वादा सुन कर उसमें एक युवा दाखिला तो ले लेता है, लेकिन उसकी फीस देने के लिए उसके मां-बाप कर्ज लेते हैं. अगर सिर्फ इंजीनियरिंग की बात करें, तो एक प्राइवेट कॉलेज में 4 साल की इंजीनियरिंग का खर्चा 8-10 लाख होता है, रहना-खाना जोड़ दिया जाए तो ये खर्च 15 लाख तक का हो जाता है. देश में इतने सारे इंजीनियरिंग कॉलेज हैं, कि किसी का भी 100 प्रतिशत प्लेसमेंट का दावा कभी पूरा नहीं हो सकता. नौकरियों में कमी की वजह से जो नौकरी मिलती है, उसमें तनख्वाह इतनी कम होती है कि 15 लाख का कर्ज चुकाना बेहद मुश्किल होता है. ऐसे में जेएनयू जैसे संस्थान जरूरी हो जाते हैं, जहां हर वर्ग के लोग दाखिला ले सकें और उच्च शिक्षा पा सकें.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र और शिक्षक संघ ने बढ़ी फीस का विरोध करते हुए एक रिपोर्ट साझा की है जिसमें बताया गया है कि जेएनयू में 44 प्रतिशत आर्थिक तौर पर पिछड़े वर्ग से आते हैं, यानी उनकी सालाना आय 1,44,000 से भी कम है, यानी उनका परिवार एक महीने में 12,000 रुपये कमाता है. 12,000 वो रकम है जो दिल्ली जैसे शहर में एक महीने के लिए रोज सफर करने के लिए खर्च हो जाते हैं लेकिन ये छात्र जेएनयू तक इसलिए पहुंच पाते हैं क्योंकि यहां फीस कम है, और वे ये फीस दे सकते हैं. जेएनयू की फीस वो है जो देश के 99 प्रतिशत कॉलेजों-विश्वविद्यालयों की नहीं है.
जब जेएनयू का निर्माण किया गया था, तब उसके शुरुआती शिक्षकों में से एक रही रोमिला थापर कहती हैं, ‘जेएनयू का निर्माण इस सोच के साथ हुआ था कि यहां देश के हर वर्ग के लोग बगैर किसी दिक्कत के दाखिला ले सकें और उन्हें उच्च शिक्षा मिलने में आर्थिक फैक्टर बाधक न बने. इस संस्थान का निर्माण इसलिए हुआ था कि यहां हर विचारधारा के लिए एक लोकतांत्रिक माहौल हो, और छात्रों में किसी तरह का संकोच ना रहे.’
जेएनयू की कम फीस के बारे में उसके विरोधियों का तर्क है कि ये करदाताओं का पैसा है और वहां पढ़ने वाले इस पैसे का इस्तेमाल पढ़ाई के लिए नहीं बल्कि अपनी अय्याशी के लिए करते हैं. इस बात को ध्यान में रखते हुए जरा उन लोगों के नामों पर नजर डालनी चाहिए जो इस संस्थान से पढ़े हैं. इन लोगों में सबसे नया नाम सामने आया है अभिजीत बनर्जी का है, जो जेएनयू से पढ़े थे और उन्हें हाल ही में नोबल प्राइज से नवाजा गया है. इसके अलावा पी साइनाथ, मंजरी जोशी जैसे बड़े नाम जेएनयू से पढ़े हैं.
आज, जबकि जेएनयू का ये आंदोलन चल रहा है, तब कई प्राइवेट कॉलेज में पढ़ चुके छात्र इस बात का तर्क दे रहे हैं कि वो भी एक ऐसे कॉलेज में पढे जहां फीस बहुत ज्यादा थी, लेकिन उन्होंने कभी विरोध नहीं किया. इसकी वजह ये है, कि ऐसा इसलिए हुआ, कि वो ये फीस देने के काबिल थे लेकिन कितने लोग इस फीस को भरने के काबिल हैं. छात्रों की बात छोड़ कर अगर अभिभावकों की बात की जाए, तो कौन अपने बच्चों को उच्च शिक्षा नहीं देना चाहता ? लेकिन किस कीमत पर ? छात्रों ने, अभिभावकों ने इन वजहों पर आत्महत्या की है, कि वो पढ़/पढ़ा नहीं सकते, क्योंकि उनके पास पैसे नहीं हैं. जेएनयू में आंदोलन कर रहे छात्रों में से कई छात्र ऐसे हैं, जिनका कहना है कि अगर जेएनयू न होता तो वे पढ़ाई ही ना कर पाते.
शिक्षा, रोजगार, ये देना सरकार का काम है. शिक्षा मुहैया करना सरकार का दायित्व है. शिक्षा कोई मांग नहीं है, एक देश की जरूरत है. पिछले 6 साल की मौजूदा सरकार के दौर में, शिक्षा को लेकर इतनी उदासीनता पहली बार देखी गई है. जेएनयू विरोधी इस नरेटिव की शुरुआत 2016 से हुई थी, जहां शिक्षा पर सवाल उठाए गए, और आज ये माहौल है कि जेएनयू में नियमित समय में पीएचडी करने वाले हर छात्र पर इल्जाम लगाए जाते हैं कि ‘पता नहीं कब तक पढ़ेंगे!’
बीजेपी सरकार का 2014 से ही शैक्षणिक संस्थानों को नियंत्रित करना, उनका निजीकरण करने का एजेंडा रहा है. ये फीस में बढ़ोतरी उसी प्रक्रिया का हिस्सा है. ये सिर्फ जेएनयू की बात नहीं है, बाकी विश्वविद्यालयों और अन्य कॉलेजों में भी यही हो रहा है या होने जा रहा है.सड़कों पर लाठी खा रहे लोग अपनी ‘अय्याशी’ की मांग करने के लिए लाठी नहीं खा रहे हैं. वो लाठी खा रहे हैं शिक्षा के लिए. वो पिट रहे हैं इसलिए, कि आने वाली पीढ़ी उच्च शिक्षा पाने में नाकाम न रह जाए.
(रितु सिंह के वाल से साभार)
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